January 9, 2019 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १०४ से १०५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (उत्तरपर्व) अध्याय १०४ से १०५ मनोरथ (पूर्णमनोरथ) पूर्णिमा तथा अशोक (विशोक)-पूर्णिमा व्रत-विधि भगवान् श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! फाल्गुन की पूर्णिमा से संवत्सर पर्यन्त किया जानेवाला एक व्रत है, जो मनोरथ-पूर्णिमा के नाम से विख्यात है । इस व्रत के करने से व्रती के सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं । व्रत को चाहिये कि वह फाल्गुन मास की पूर्णिमा को स्नान आदि कर लक्ष्मीसहित भगवान् जनार्दन का पूजन करे और चलते-फिरते, उठते-बैठते हर समय जनार्दन का स्मरण करता रहे और पाखण्ड, पतित, नास्तिक, चाण्डाल आदि से सम्भाषण न करे, जितेन्द्रिय रहे । रात्रि के समय चन्द्रमा में नारायण और लक्ष्मी की भावना कर अर्घ्य प्रदान करे । बाद में तैल एवं लवणरहित भोजन करे । इसी प्रकार चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ — इन तीन महीनों में भी पूजन एवं अर्घ्य प्रदान कर व्रती प्रथम पारणा करे । आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद और आश्विन — इन चार महीनों की पूर्णिमा को श्रीसहित भगवान् श्रीधर का पूजन कर चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करे और पूर्ववत् दूसरी पारणा करे । कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष तथा माघ — इन चार महीनों में भूतिसहित भगवान् केशव का पूजन कर चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करे और तीसरी पारणा सम्पन्न करे । प्रत्येक पारणा के अन्त में ब्राह्मणों को दक्षिणा दे । प्रथम पारणा के चार महीनों में पञ्चगव्य, दूसरी पारणा के चार महीनों में कुशोदक और तीसरी पारणा में सूर्यकिरणों से तप्त जल का प्राशन करे । रात्रि के समय गीत-वाद्य द्वारा भगवान् का कीर्तन करे । प्रतिमास जलकुम्भ, जूता, छतरी, सुवर्ण, वस्त्र, भोजन और दक्षिणा ब्राह्मण को दान करे । देवताओं के स्वामी भगवान् की मार्गशीर्ष आदि बारह महीनों में क्रमशः केशव, नारायण, माधव, गोविन्द, विष्णु, मधुसूदन, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर तथा हृषीकेश, राम, पद्मनाभ और दामोदर — इन नामों का कीर्तन करनेवाला व्यक्ति दुर्गति से उद्धार पा जाता है । यदि प्रतिमास दान देने में समर्थ न हो तो वर्ष के अन्त में यथाशक्ति सुवर्ण का चन्द्रबिम्ब बनाकर फल, वस्त्र आदि से उसका पूजन कर ब्राह्मण को निवेदित कर दे । इस प्रकार व्रत करनेवाले पुरुष को अनेक जन्मपर्यन्त इष्ट का वियोग नहीं होता । उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं और वह पुरुष नारायण का स्मरण करता हुआ दिव्यलोक प्राप्त करता है । भगवान् श्रीकृष्ण ने पुनः कहा — महाराज ! अब मैं अशोक-पूर्णिमा-व्रत का वर्णन करता हूँ । इस व्रत को करने से मनुष्य को कभी शोक नहीं होता । फाल्गुन की पूर्णिमा को अङ्ग में मृत्तिका लगाकर नदी आदि में स्नान करे । मृत्तिका की एक वेदी बनाकर उसपर भगवान् भूधर और अशोका नाम से धरणीदेवी का पुष्प, नैवेद्य आदि उपचारों से पूजन करे । पूजन के अनन्तर हाथ जोड़कर इस प्रकार प्रार्थना करे — “यथा विशोकां धरणे कृतवांस्त्वां जनार्दनः । तथा मां सर्वशोकेभ्यो मोचयाशेषधारिणि ॥ यथा समस्तभूतदामाधारस्त्वं व्यवस्थिता । तथा विशोकं कुरु मां सकतेच्छाविभूतिभिः ॥ ध्यानमात्रे तथा विष्णोः स्वास्थ्यं जानासि मेदिनी । तथा मनः स्वस्थतां मे कुरु त्वं भूतधारिणि ॥” (उत्तरपर्व १०५ । ४-६) ‘धरणीदेवि ! आप सम्पूर्ण चराचर जगत् को धारण करनेवाली हैं । आपने जिस प्रकार भगवान् जनार्दन ने रसातल से लाकर प्रतिष्ठित करके शोकहित किया है, उसी प्रकार आप मुझे भी सभी शोकों से मुक्त कर दें और मेरी समस्त कामनाओं को पूर्ण करें ।’ इस प्रकार प्रार्थना कर रात्रि में चन्द्रमा को अर्घ्य प्रदान करे । उस दिन उपवास रखे अथवा रात्रि के समय तैल-क्षाररहित भोजन करे । फाल्गुन आदि चार-चार मास में एक-एक पारणा करे और प्रत्येक पारणा के अन्त में विशेष पूजा और जागरण करे । प्रथम पारणा में धरणी, द्वितीय में मेदिनी और तृतीय में वसुन्धरा नाम से पूजन करे । वर्ष के अन्त में सवत्सा गौ, भूमि, वस्त्र, आभूषण आदि ब्राह्मणों को दान करे । यह व्रत पाताल में स्थित धरणीदेवी ने किया था, तब भगवान् ने वाराह रूप धारण कर उनका उद्धार किया और प्रसन्न होकर कहा कि ‘धरणीदेवि ! तुम्हारे इस व्रत से मैं परम संतुष्ट हैं, जो कोई भी पुरुष-स्त्री भक्ति से इस व्रत को करते हुए मेरा पूजन करेंगे और यथाविधि पारणा करेंगे, वे जन्म-जन्म में सब प्रकार के क्लेशों से मुक्त हो जायँगे और तुम्हारे समान ही कल्याण के भाजन हो जायँगे ।’ (अध्याय १०४-१०५) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe