भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १०७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १०७
मास-नक्षत्र-व्रत के माहात्म्य में साम्भरायणी की कथा

राजा युधिष्ठिर ने कहा — प्रभो ! ऐश्वर्य आदि के प्राप्त न होने से इतना कष्ट नहीं होता, जितना प्राप्त होकर नष्ट हो जाने से होता है । इसलिये आप ऐसा कोई व्रत बताये, जिसके करने से ऐश्वर्य-भ्रंश और इष्ट-वियोग न हो ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — महाराज ! यह बड़ा भारी दुःख हैं कि प्राप्त हुए सुख का फिर नाश हो जाता है । om, ॐइसके लिये श्रेष्ठ पुरुषों को चाहिये कि वे बारह मासों के बारह नक्षत्रों में भगवान् अच्युत की विविध उपचारों से पूजा करें । इस नक्षत्र-व्रत को प्रथम कार्तिक मास की कृत्तिका में करना चाहिये । इसी प्रकार मार्गशीर्ष मास के मृगशिरा नक्षत्र में, पौष मास के पुष्य नक्षत्र में तथा माघ मास के मघा नक्षत्र में करना चाहिये । कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष तथा माघ — इन चार महीनों में खिचड़ी का भोग लगाये और वही ब्राह्मण को भोजन भी कराये । फाल्गुन आदि चार महीनों के नक्षत्रों में संयाव (गोझिया) का नैवेद्य लगाये और आषाढ़ आदि चार महीनो के नक्षत्रों में पायस का नैवेद्य लगाये । पञ्चगव्य का प्राशन करे और भक्ति से नारायण का अर्चन कर इस प्रकार प्रार्थना करे —

“नमो नमस्तेऽच्युत में क्षयोऽस्तु पापस्य वृद्धि समुपेतु पुण्यम् ।
ऐश्वर्यवित्तादि तथाऽक्षयं मे क्षयं च मा संततिरभ्युपैतु ॥
यथाच्युतस्त्वं परतः परस्मात् स ब्रह्मभूतः परतः परात्मा ।
तथाच्युतं मे कुरु वाञ्छितं त्वं हरस्व पापं च तथाप्रमेय ॥
अच्युतानन्त गोविन्द प्रसीद पदभीप्सितम् ।
तदक्षयममेयात्मन् कुरुष्व पुरुषोत्तम ॥”
(उत्तरपर्व १०७ । १२-१४)
‘अच्युत ! आपको बार-बार नमस्कार है । मेरे पापों का नाश हो जाय, पुण्य की वृद्धि हो, मेरे ऐश्वर्य, वित्त आदि अक्षय हों तथा मेरी संतति कभी नष्ट न हो । जिस प्रकार से आप पर से परे ब्रह्मभूत और उससे भी परे अच्युत परमात्मा हैं, उसी प्रकार आप मुझे अच्युत कर दें । अप्रमेय ! आप मेरे पापों को नष्ट कर दें । पुरुषोत्तम ! अच्युत, अनन्त, गोविन्द अमेयात्मन् ! मेरी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करें, मेरे ऊपर आप प्रसन्न हों ।’

अनन्तर रात्रि के समय भगवान् का प्रसाद ग्रहण करे । वर्ष पूरा होने पर जब भगवान् अच्युत जग जायें, तब घृतपूर्ण ताम्रपत्र और दक्षिणा ब्राह्मण को देकर ‘अच्युतः प्रीयताम्’ यह वाक्य कहे । इस प्रकार सात वर्ष तक नक्षत्रव्रत करके सुवर्ण की अच्युत की प्रतिमा बनवाकर स्थापित करें और उसके सामने भगवान् की परम भक्त और पतिव्रता साम्भरायणी ब्राह्मणी की चाँदी की मूर्ति बनाकर स्थापित करे । फिर उन दोनों की गन्धपुष्पादि उपचारों से पूजाकर क्षमा-प्रार्थना करे और सब सामग्री ब्राह्मण को दान कर दे । इस विधि से जो श्रद्धापूर्वक व्रत करता है और भगवान् अच्युत का पूजन करता है, उसके धन, संतति, ऐश्वर्य आदि का कभी क्षय नहीं होता । उसकी समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण हो जाती हैं । अतः मनुष्य को चाहिये कि सर्वथा अक्षय होने के लिये इस मास-नक्षत्र-व्रत का पालन करे ।

युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! आपने साम्भरायणी की प्रतिमा बनाकर पूजन करने को कहा है, ये साम्भरायणी देवी कौन हैं ? आप इसे बतलायें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले —
महाराज ! ऐसा सुना जाता है कि स्वर्ग में साम्भरायणी नाम की एक तपोधना कठिन व्रतों का आचरण करनेवाली प्रख्यात सिद्धा नारी थी, जो देवताओं की भी शंकाओं का समाधान कर देती थी । एक समय देवराज इन्द्र ने देवगुरु बृहस्पति से पूछा — ‘भगवन् ! हमारे पहले जितने इन्द्र हो गये हैं, उनका क्या आचरण और चरित्र था, आप कृपाकर इसका वर्णन कीजिये ।

देवगुरु बृहस्पति बोले — ‘देवेन्द्र ! सब इन्द्रों का वृत्तान्त तो मुझे नहीं मालूम, केवल अपने समय में हुए इन्द्रों के विषय में मुझे जानकारी है ।’ इन्द्र ने कहा — ‘गुरो ! आपके बिना हम यह वृत्तान्त किससे पूछे । बृहस्पति कुछ काल विचारकर कहने लगे — ‘पुरन्दर ! इस विषय को तपस्विनी धर्मज्ञा साम्भरायणी देवी से ही पूछो ।’ यह सुनकर बृहस्पति को साथ लेकर देवराज इन्द्र साम्भरायणी के पास गये । साम्भरायणी ने बड़े सत्कार से उनको बैठाया और अर्घ्यादि से पूजन कर विनयपूर्वक आगमन का प्रयोजन पूछा । इस पर बृहस्पतिजी बोले — ‘साम्भरायण ! देवराज इन्द्र को प्राचीन वृत्तान्त सुनने का बड़ा कौतूहल है । यदि आप विगत इन्द्र का चरित्र जानती हों तो उसे बतायें ।

साम्भरायणी बोली — ‘देवगुरो ! जितने इन्द्र हो चुके हैं, सबका वृत्तान्त मैं अच्छी तरह जानती हूँ । मैंने बहुत-से मनुओं, देवसृष्टियों और सप्तर्षियों को देखा है । मनुपुत्रों को भी जानती हूँ और सब मन्वन्तरों का चरित्र मुझे ज्ञात है । जो आप पूछे, वही मैं बताऊँगी । साम्भरायणी का यह वचन सुनकर देवराज इन्द्र और देवगुरु बृहस्पति ने स्वायम्भुव, स्वारोचिष, उत्तम, तामस, रैवत, चाक्षुष आदि मनुओं, मन्वन्त्तरों और व्यतीत इन्द्रों का वृत्तान्त उससे पूछा । साम्भरायणी ने सम्पूर्ण वृत्तान्तों का यथावत् वर्णन किया । राजन् ! उसने एक अत्यन्त आश्चर्य की बात यह बतलायी कि पूर्वकाल में शंकुकर्ण नाम का एक बड़ा प्रतापी दैत्य हुआ । वह लोकपालों को जीतकर स्वर्ग में इन्द्र को जीतने आया और निर्भय हो इन्द्र के भवन में प्रविष्ट हो गया । शंकुकर्ण को देखकर इन्द्र भयभीत होकर छिप गये और वह इन्द्र आसन पर बैठ गया । उसी समय देवताओं के साथ विष्णु भी वहाँ आये । भगवान् को देखकर शंकुकर्ण अत्यन्त प्रसन्न हो गया और उसने बड़े स्नेह से भगवान् का आलिङ्गन किया । भगवान् उसकी नियत को समझ रहे थे, अतः उन्होंने भी उसका आलिङ्गन कर ऐसा निष्पीड़न किया कि उसके सब अस्थिपंजर चूर-चूर हो गये और वह घोर शब्द करता हुआ मृत्यु को प्राप्त हो गया । दैत्य को मरा जानकर इन्द्र भी उपस्थित हो गये और विष्णुभगवान् की स्तुति करने लगे ।

साम्भरायणी ने पुनः कहा — देवराज ! यह वृत्तान्त मैंने अपने नेत्रों से देखा था ।

इन्द्र ने साम्भरायणी से पूछा — देवि ! इतने प्राचीन वृत्तान्त को आप कैसे जानती हैं ?

साम्भरायणी ने कहा — देवेन्द्र ! स्वर्ग का कोई ऐसा वृत्तान्त नहीं है, जो मैं न जानती होऊँ ।

इन्द्र ने पूछा — धर्मज्ञे ! आपने ऐसा कौन-सा सत्कर्म किया है, जिसके प्रभाव से आपको अक्षय स्वर्ग प्राप्त हुआ ?

साम्भरायणी बोली — मैंने प्रतिमास मास-नक्षत्रों में सात वर्ष पर्यन्त भगवान् अच्युत का विधिवत् पूजन और उपवास किया है । यह सब उसी पुण्य-कर्म का फल है । जो पुरुष अक्षय स्वर्गवास, इन्द्रपद, ऐश्वर्य, संतति आदि की इच्छा करे, उसे अवश्य ही भगवान् विष्णु की आराधना करनी चाहिये । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष — ये चारों पदार्थ भगवान् विष्णु को आराधना से प्राप्त होते हैं । इतना सुनकर देवगुरु बृहस्पति और देवराज इन्द्र साम्भरायणी पर बहुत प्रसन्न हुए और दोनों भक्तिपूर्वक उसके द्वारा बताये गये मास-नक्षत्र-व्रत का पालन करने लगे ।
(अध्याय १०७)

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