भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ११०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ११०
भग्न-व्रत की प्रायश्चित्त (सम्पूर्ण व्रत) -विधि

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवन् ! यदि मनुष्य नक्षत्र-पुरुष-व्रत को ग्रहण कर उसे न कर सके तो किस कर्म के द्वारा वह चीर्ण (कृत) माना जाता है, इसे बतलायें ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले —
राजन् ! यह अत्यन्त रहस्यपूर्ण बात है । आपके आग्रह से मैं इसे बतला रहा हूँ । अनेक प्रकार के उपद्रव, मद, मोह या असावधानी आदि से यदि व्रत-भग्न हो जायें तो उनकी पूर्णता के लिये यह व्रत करना चाहिये । इस व्रत के करने से खण्डित-व्रत पूर्ण फल देनेवाले हो जाते हैं, इसमें संदेह नहीं । om, ॐजिस देवी-देवता का व्रत भग्न हो जाय, उसकी सुवर्ण अथवा चाँदी की प्रतिमा बनाकर उस व्रत के दिन ब्राह्मण को बुलाकर प्रतिमा को पञ्चामृत से स्नान कराये, बाद में जलपूर्ण कलश के ऊपर प्रतिमा को प्रतिष्ठितकर गन्ध, पुष्प, अक्षत, धूप, दीप, वस्त्र, आभूषण तथा नैवेद्य आदि से उनका पूजन करे । अनन्तर देवता के उद्देश्य से नाममन्त्र (ॐ अमुक देवाय नमः) द्वारा अर्घ्य प्रदान करे तथा फिर व्रत की पूर्णता एवं व्रतभङ्ग-दोष की निवृत्ति के लिये इस प्रकार क्षमा-प्रार्थना करे और भगवान् की शरण ग्रहण करे —

उपसन्नस्य दीनस्य प्रायश्चित्तकृताञ्जलेः ।
शरणं च प्रपन्नस्य कुरुष्वाद्य दयां प्रभो ॥
परत्र भयभीतस्य भग्नखण्डव्रतस्य च ।
कुरु प्रसादं सम्पूर्णं व्रतं सम्पूर्णमस्तु मे ॥
तपश्छिद्रं व्रतच्छिदं यच्छिद्रं भग्नके व्रते ।
तव प्रसादाद्देवेश सर्वमच्छिद्रमस्तु नः ॥
(उत्तरपर्व ११० । १३-१५)
तात्पर्य यह है कि
‘प्रभो ! मैं आपकी शरण हैं, मुझपर आप दया करें । किसी भी प्रकार से मेरे द्वारा किये गये व्रत, तप इत्यादि कर्मों में जो कोई भी त्रुटि, अपराध एवं च्युति हो गयी हो, हे देवदेवेश ! आपके अनुग्रह से वह सब दोष दूर हो जायें और मेरा व्रत पूर्ण हो जाय । आपको नमस्कार है ।

तदनन्तर दिक्पालों को अर्घ्य प्रदान कर मुख्य देवता की अङ्ग-पूजा करे और अन्त में फिर प्रार्थना करे । ब्राह्मण का पूजन करे और ब्राह्मण भी व्रत की पूर्णता के लिये इस प्रकार आशीर्वाद प्रदान करे —

“वाक्सम्पूर्णं मनः पूर्णं पूर्णं कायव्रतेन ते ।
सम्पूर्णस्य प्रसादेन भव पूर्णमनोरथः ॥
ब्राह्मणा यत्प्रभाषन्ते ह्यनुमोदन्ति देवताः ।
सर्वदेवमया विप्रा नैतद्वचनमन्यथा ॥
जलधिः क्षारतां नीतः पावकः सर्वभक्षताम् ।
सहस्रनेत्रः शक्रोऽपि कृतो विप्रैर्महात्मभिः ॥
ब्राह्मणानां तु वचनाद् ब्रह्महत्या प्रणश्यति ।
अश्वमेधफलं साग्रं प्राप्यते नात्र संशयः ॥
व्यासवाल्मीकिवचनाद् ब्राह्मणवचनाच्च गर्ग-गौतम-पराशर-धौम्याङ्गिरस-वसिष्ठ-नारदादि-मुनि वचनात् सम्पूर्णं भवतु ते व्रतम् ॥”
(उतरपर्व ११० । २३-२७)

यजमान भी ब्राह्मण को विदा कर सब सामग्री उसके घर भेज दे । पीछे पञ्च-यज्ञ कर भोजन करे । इस सम्पूर्ण व्रत को जो एक बार भी भक्ति से करता है, वह खण्डित-व्रत का सम्पूर्ण फल प्राप्त कर लेता है और व्रतभग्न के पाप से मुक्त हो जाता है । इस व्रत को जो करता है, वह धन, रूप, आरोग्य, कीर्ति आदि प्राप्त कर सौ वर्ष पर्यन्त भूमि पर सुख भोगकर स्वर्ग प्राप्त करता है और अन्त में मोक्ष को प्राप्त होता है । महाराज ! प्रायश्चित्तरूप इस सम्पूर्ण व्रत को प्रसन्न हो महर्षि गर्गजी ने मुझे बताया था और बाल्यावस्था में मैंने भी इसे किया था । इसलिये राजन् ! आप भी इस व्रत को करें, जिससे जन्मान्तरों में भी किये खण्डित व्रत पूर्ण हो जायें ।
(अध्याय ११०)

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