भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ११४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ११४
शनैश्चर-व्रत के प्रसंग में महामुनि पिप्पलाद का आख्यान

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — राजन् ! एक बार त्रेतायुग में अनावृष्टि के कारण भयंकर दुर्भिक्ष पड़ गया । उस घोर अकाल में कौशिक मुनि अपनी स्त्री तथा पुत्रों के साथ अपना निवासस्थान छोड़कर दूसरे प्रदेश में निवास करने निकल पड़े । कुटुम्ब का भरण-पोषण दूभर हो जानेके कारण बड़े कष्ट से उन्होंने अपने एक बालक को मार्ग में ही छोड़ दिया । वह बालक अकेला भूख-प्यास से तड़पता हुआ रोने लगा । om, ॐउसे अकस्मात् एक पीपल का वृक्ष दिखायी पड़ा । उसके समीप ही एक बावड़ी भी थीं । बालक ने पीपल के फलों को खाकर ठंडा जल पी लिया और अपने को स्वस्थ पाकर वह वहीं कठिन तपस्या करने लगा तथा नित्यप्रति पीपल के फलों को खाकर समय व्यतीत करने लगा । अचानक यहाँ एक दिन देवर्षि नारद पधारे, उन्हें देखकर बालक ने प्रणाम किया और आदरपूर्वक बैठाया । दयालु नारदजी उसकी अवस्था, विनय और नम्रता को देखकर बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने बालक को मौञ्जीबन्धन आदि सब संस्कार कर पद-क्रम-रहस्य सहित वेद का अध्ययन कराया तथा साथ ही द्वादशाक्षर वैष्णवमन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) का उपदेश दिया ।

अब वह प्रतिदिन विष्णु भगवान् का ध्यान और मन्त्र का जप करने लगा । नारदजी भी वहीं रहे । थोड़े समय में ही बालक के तप से संतुष्ट होकर भगवान् विष्णु गरुड़ पर सवार हो वहाँ पहुँचे । देवर्षि नारद के वचन से बालक ने उन्हें पहचान लिया, तब उसने भगवान् में दृढ़ भक्ति की माँग की । भगवान् ने प्रसन्न होकर ज्ञान और योग का उपदेश प्रदान किया और अपने में भक्ति का आशीर्वाद देकर वे अन्तर्धान हो गये । भगवान् के उपदेश से वह बालक महाज्ञानी महर्षि हो गया ।

एक दिन बालक ने नारदजी से पूछा — ‘महाराज ! यह किस कर्म का फल है जो मुझे इतना कष्ट उठाना पड़ा । इतनी छोटी अवस्था में भी मैं क्यों ग्रहों द्वारा पीड़ित हो रहा हूँ । मेरे माता-पिता का कुछ भी पता नहीं, वे कहाँ हैं । फिर भी मैं अत्यन्त कष्ट से जी रहा हूँ । द्विजोत्तम ! सौभाग्यवश आपने दया करके मेरा संस्कार किया और मुझे ब्राह्मणत्व प्रदान किया ।’ नारदजी यह वचन सुनकर बोले — ‘बालक ! शनैश्चर ग्रह ने तुम्हें बहुत पीड़ा पहुँचायी और आज यह सम्पूर्ण देश उसके मन्दगति से चलने के कारण उत्पीड़ित है । देखो, वह अभिमानी शनैश्वर ग्रह आकाश में प्रज्वलित दिखायी पड़ रह्म है ।’

यह सुनकर बालक क्रोध से अग्नि के समान उद्दीप्त हो उठा । उसने उग्र दृष्टि से देखकर शनैश्चर को आकाश से भूमि पर गिरा दिया । शनैश्चर एक पर्वत पर गिरे और उनका पैर टूट गया, जिससे वे पंगु हो गये । देवर्षि नारद भूमि पर गिरे हुए शनैश्चर को देखकर अत्यन्त प्रसन्नता से नाच उठे । उन्होंने सभी देवताओं को बुलाया । ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, अग्नि आदि देवता वहाँ आये और नारदजी ने शनैश्चर की दुर्गति सबको दिखायी ।

ब्रह्माजी ने बालक से कहा — महाभाग ! तुमने पीपल के फल भक्षण कर कठिन तप किया है । अतः नारदजी ने तुम्हारा पिप्पलाद  यहाँ यह कथा बड़ी सुन्दर है । इसके पढ़ने से शनिग्रह की पीड़ा भी शान्त हो जाती है । ये महर्षि अथर्वण पैप्पलादसंहिता के द्रष्टा हैं । इनकी कथा प्रायः अनेक व्रत-माहात्म्य एवं स्कन्द आदि पुराणों में मिलती है । पर अन्तर यह है कि अन्यत्र सर्वत्र इन्हें दधीचि ऋषि का पुत्र बताया गया है । माता के नाम में भी थोड़ा अन्तर है, कहीं प्रातिथेयी का और कहीं सुवर्चा का नाम मिलता है, जो पति के साथ सती हो गयी थीं । तब ये पीपल के द्वारा पालित हुए । सभी कथाएँ बड़ी पुण्यप्रद एवं शनि-पीड़ा को शान्त करनेवाली हैं । अन्तर कल्पभेद का है, अतः संदेह नहीं करना चाहिये। नाम उचित ही रखा है । तुम आज से इसी नाम से संसार में विख्यात होओगे । जो कोई भी शनिवार को तुम्हारा भक्तिभाव से पूजन करेंगे, अथवा ‘पिप्पलाद’ इस नाम का स्मरण करेंगे, उन्हें सात जन्म तक शनि की पीड़ा नहीं सहन करनी पड़ेगी और वे पुत्र-पौत्र से युक्त होंगे । अब तुम शनैश्चर को पूर्ववत् आकाश में स्थापित कर दो, क्योंकि इनका वस्तुतः कोई अपराध नहीं है । ग्रहों की पीड़ा से छुटकारा पाने के लिये नैवेद्य निवेदन, हवन, नमस्कार आदि करना चाहिये । ग्रहों का अनादर नहीं करना चाहिये। पूजित होने पर ये शान्ति प्रदान करते हैं ।
चरन्वृक्षं शनैरेष शुभाशुभफलदः ।
हतसाध्या ग्रहाश्चैते न भवन्ति कदाचन ॥
अलिहोमनमस्कारैः शान्तिं यच्छन्ति पूजिताः ।
अतोऽर्थमस्य दिवसे स्नानमभ्यङ्गपूर्वकम् ॥ (उत्तरपर्व ११४ । २९-३०)
इसी भाव के श्लोक याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियों में भी आये हैं ।

शनि की ग्रहजन्य पीड़ा की निवृत्ति के लिये शनिवार को स्वयं तैलाभ्यङ्ग करके ब्राह्मणों को भी अभ्यङ्ग के लिये तैल देना चाहिये । शनि की लौह-प्रतिमा बनाकर तैलयुक्त लौह-पात्र में रखकर एक वर्ष तक प्रति शनिवार को पूजन करने के बाद कृष्ण पुष्प, दो कृष्ण वस्त्र, कसार, तिल, भात आदि से उनका पूजन कर काली गाय, काला कम्बल, तिल का तेल और दक्षिणासहित सब पदार्थ ब्राह्मण को प्रदान करना चाहिये । पूजन आदि में शनि के इस मन्त्र का प्रयोग करना चाहिये —

“शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये । शं योरभि स्रवन्तु नः ॥” (यजु० ३६ ॥ १२)

राज्य नष्ट हुए राजा नल को शनिदेव ने स्वप्र में अपने एक प्रार्थना-मन्त्र का उपदेश दिया था । उसी नाम-स्तुति से उन्हें पुनः राज्य उपलब्ध हुआ था । उस स्तुति से शनि की प्रार्थना करनी चाहिये । सर्वकामप्रद वह स्तुति इस प्रकार है —

“क्रोडं नीलाञ्जनप्रख्यं नीलवर्णसमस्रजम् ।
छायामार्तण्डसम्भूतं नमस्यामि शनैश्चरम् ॥
नमोऽर्कपुत्राय शनैश्चराय नीहारवर्णाञ्जनमेचकाय ।
श्रुत्वा रहस्यं भवकामदश्च फलप्रदो में भव सूर्यपुत्र ॥
नमोऽस्तु प्रेतराजाय कृष्यदेहाय वै नमः ।
शनैश्चराय कूराय शुद्धबुद्धिप्रदायिने ॥
य एभिर्नामभिः स्तौति तस्य तुष्टो भवाम्यहम् ।
मदीयं तु भयं तस्य स्वप्नेऽपि न भविष्यति ॥”
(उत्तरपर्व ११४ । ३९-४२)

जो भी व्यक्ति प्रत्येक शनिवारको एक वर्षतक इस व्रतको करता है और इस विधिसे उद्यापन करता है, उसे कभी शनिकी पीड़ा नहीं भोगनी पड़ती। यह कहकर ब्रह्माजी सभी देवताओं के साथ अपने परमधाम को चले गये और पिप्पलाद मुनि ने भी ब्रह्माजी के आशानुसार शनैश्चर को उनके स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया ।

महामुनि पिप्पलाद ने शनिग्रह की इस प्रकार प्रार्थना की —

“कोणस्थः पिङ्गलो बभ्रुः कृष्णो रौद्रोऽन्तको यमः ।
सौरिः शनैश्चरो मन्दः प्रीयर्ता में ग्रहोत्तमः ॥”
(उत्तरपर्व ११४ । ४७)

जो व्यक्ति शनैश्चरोपाख्यान को भक्तिपूर्वक सुनता है तथा शनि की लौह-प्रतिमा बनाकर तेल से भरे हुए लौह-कलश में रखकर ब्राह्मण को दक्षिणा सहित दान देता है, उसको कभी भी शनि की पीड़ा नहीं होती ।
(अध्याय ११४)

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