भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय ११५ से ११६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय ११५ से ११६
आदित्यवार नक्त-व्रत तथा संक्रान्ति- व्रत के उद्यापन की विधि

राजा युधिष्ठिर ने पूछा — भगवान् गोविन्द ! आप कोई ऐसा व्रत बताइये, जो सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाला, आरोग्यदायक और अनन्त्त फलप्रद हो ।

भगवान् श्रीकृष्ण बोले — राजन् ! परब्रह्म विश्वात्मा परम सनातन धाम है, वह संसार में सूर्य, अग्नि तथा चन्द्र — इन तीनों में विभक्त होकर स्थित है । कुरुनन्दन ! उस परमात्मा की आराधना कर मनुष्य क्या नहीं प्राप्त कर सकता ? इसलिये रविवार के दिन नक्तव्रत करना चाहिये । भगवान् सूर्य में अनन्य भक्ति रखकर आदित्यवार को यह व्रत करना चाहिये ।om, ॐ ब्राह्मणों की विधिवत् पूजाकर सायंकाल रक्तचन्दन से एक द्वादशदल कमल की रचना करे और उसके द्वादश दलों में सूर्य, दिवाकर, विवस्वान्, भग, वरुण, महेन्द्र, आदित्य, शान्त, सूर्य के अश्व, यम, मार्तण्ड तथा रवि की स्थापना करे और उनका पूजन कर तिल, रक्तचन्दन, फल तथा अक्षत से युक्त अर्घ्य प्रदान करे । अनन्तर विसर्जन कर दे । रात्रि में भगवान् भास्कर का स्मरण करता हुआ तैल रहित भोजन करे । व्रत के पूर्व दिन शनिवार को तैलाभ्यङ्ग न करे । इस प्रकार एक वर्षपर्यन्त व्रत करके उद्यापन करे और यथाशक्ति गुड़ से पूर्ण एक ताम्रपात्र में स्वर्णकमल स्थापित करे तथा उसके ऊपर स्वर्णमयी भगवान् सूर्य की द्विभुज प्रतिमा स्थापित करे, साथ ही एक सुवर्णमयी सवत्सा गौ भी स्थापित करे । इनका पूजन कर विद्वान् ब्राह्मण को यह सब सामग्री निवेदित कर दे ।

इस प्रकार जो स्त्री-पुरुष इस व्रत को वर्षभर सम्पन्न कर विधिपूर्वक उद्यापन करते हैं, वे नीरोग, धार्मिक, धन-धान्य, पुत्र-पौत्र से सम्पन्न हो जाते हैं और अन्त में सूर्यलोक को प्राप्त करते हैं ।

भगवान् श्रीकृष्ण पुनः बोले —
राजन् ! अब में संक्रान्ति के समय किये जानेवाले उद्यापनरूप अन्य व्रत का वर्णन कर रहा हूँ, जो इस लोक में समस्त कामनाओं के फल का प्रदाता और परलोक में अक्षय फलदायक है । सूर्य उत्तरायण या दक्षिणायन के दिन अथवा विषुवयोग में इस संक्रान्तिव्रत का आरम्भ करना चाहिये । इस व्रत में संक्रान्ति के पहले दिन एक बार भोजन करके (रात्रि में शयन करे।) संक्रान्ति के दिन प्रातःकाल दातून करने के पश्चात् तिलमिश्रित जल से स्नान करना चाहिये । सूर्य-संक्रान्ति के दिन भूमि पर चन्दन से कर्णिकासहित अष्टदल कमल की रचना करे और उस पर सूर्य का आवाहन करे । कर्णिका में ‘सूर्याय नमः’, पूर्वदल पर “आदित्याय नमः’, अग्निकोण स्थित दल पर ‘सप्तार्चिषे नम:’, दक्षिण दल पर ‘ऋङ्मण्डलाय नमः’, नैर्ऋत्यकोण वाले दल पर ‘सवित्रे नमः’, पश्चिम दल पर ‘वरुणाय नमः’, वायव्यकोण स्थित दल पर ‘सप्तसप्तये नमः’, उत्तर दल पर ‘मार्तण्डाय नमः’ और ईशानकोण वाले दलपर ‘विष्णवे नमः — इन मन्त्रों से सूर्यदेव को स्थापित कर उनकी बार-बार अर्चना करे । तत्पश्चात् वेदी पर भी चन्दन, पुष्पमाला, फल और खाद्य पदार्थों से उनकी पूजा करनी चाहिये और अर्घ्य प्रदान करे —

“कालात्मा सर्वभूतात्मा वेदात्मा विश्वतोमुखः !
यस्मादग्नींदुरूपस्त्गतः पाहि प्रभाकर ॥
अग्निमीले नमस्तुभ्यमिषेत्वोर्जे च भास्करे ।
अग्न आयाहि वरद नमस्ते ज्योतिषां पते ॥”
(उत्तरपर्व ११५ । ११-१२)
‘प्रभाकर! आप कालात्मा, सर्वभूतात्मा, वेदात्मा, विश्वतो मुख एवं अग्नि और चन्द्र रूप हैं अत: मेरी रक्षा करें । अग्निमीले और इषेत्वोर्ज भास्कर को नमस्कार है, परदायक अग्नि यहाँ आने की कृपा कीजिये। मै ज्योतिष्पति को नमस्कार कर रहा हूँ ।’

पुनः अपनी शक्ति के अनुसार सोने का कमल बनवाकर उसे घृतपूर्ण पात्र और कलश के साथ ब्राह्मण को दान कर दे । तत्पश्चात् क्षमा-याचना करे —

“नमोस्तु ऋक्सामयजुर्विधात्रे पद्मप्रबोधाय जगत्सवित्रे ।
त्रयीमयाय त्रिगुणात्मने च त्रिलोकनाथाय नमो नमस्ते ॥”
(उत्तरपर्व ११५ । ११)

‘ऋग्वेद, सामवेद, एवं यजुर्वेद के विधाता, कमलों को विकसित करने वाले, जगत् के सविता, त्रयी (तीनों वेद) मय, त्रिगुणात्मक और तीनों लोकों के स्वामी (सूर्य) को मैं बार-बार नमस्कार कर रहा हूँ ।’

इस विधान द्वारा एक वर्ष तक इस व्रत को सुसम्पन्न करने एवं रविवार को नक्त भोज करने वाले पुरुष नीरोग होता है । धनधान्य सम्पन्न होकर पुत्र-पौत्र समेत इस धरातल पर चिर सुख का अनुभव करने के उपरांत उसे सूर्य-लोक की प्राप्ति होती है। कर्मों के क्षीण होने पर वह शोक, दुःख, भय एवं रोग हीन, शत्रुओं का काल, धर्म मूर्ति और अमित तेज युक्त राजा होता है । कौरव ! जो भर्ता, गुरु और देवाराधन में तत्पर रहने वाली स्त्री भी वेदमूर्ति सूर्य देव के दिन नक्त व्रत रहती है देवराज इन्द्र द्वारा उसकी भी पूजा होती इसमें संशय नहीं । इस आख्यान को पढ़ने सुनने, देखने या अनुमोदन करने वाला पुरुष भी इन्द्र के भवन में सौ कोटि कल्प देवों द्वारा सुपूजित होता है ।

श्रीकृष्ण बोले — मैं तुम्हें एक अन्य संक्रान्ति उद्यापन का फल बता रहा हूँ, जिसे पुराणवेत्ता कवियों ने इस लोक में अक्षय और परमोत्तम बताया है । विपुव अथवा अयन के समय संक्रान्ति व्रत आरम्भ करे और उसके पूर्व के दिन एक भक्त (एकाहार) करे । पश्चात् संक्रान्ति वाले दूसरे दिन दातून करने से ही उस के नियम को पालन करते हुए तिल-स्नान करे और भूमि में चन्दन द्वारा कर्णिका समेत कमल की रचना करके कर्णिका में सूर्य का और उसमें रवि का आवाहन इस भाँति करे-‘आदित्य को नमस्कार है’ पूर्व की ओर, ‘सप्तर्चि को नमस्कार है’ अग्नि कोण, रोगध्वंश को नमस्कार है’ नैर्ऋत्य कोण, ‘वरुण को नमस्कार है’ पश्चिम दिशा, ‘भास्वत्पति सप्तसप्ति को नमस्कार है’ वायु कोण, ‘मार्तण्ड को नमस्कार है उत्तर की ओर और ‘विष्णु को नमस्कार है’ कह कर दल के ईशान कोण में आवाहित करें । पश्चात् गंध, माला, फल एवं भक्ष्य पदार्थों द्वारा वेदी पर उनकी अर्चना और चन्दन पुष्प समेत जल द्वारा अर्घ्य प्रदान कर क्षमा प्रार्थना करे —

“नमस्ते विश्वरूपाय विश्वधाम्ने स्वयंभुवे ।
नमोनमस्ते वरद ऋक्सामयजुषां पते ॥”
(उत्तरपर्व ११६ । ८)
‘अनन्त ! आप ही विश्व है, विश्व आपका स्वरूप है, आप विश्व में सर्वाधिक तेजस्वी, स्वयं उत्पन्न होनेवाले, धाता और ऋग्वेद, सामवेद एवं यजुर्वेद के स्वामी हैं, आपको बारम्बार नमस्कार है ।’

नरोत्तम ! इस विधान द्वारा भानु देव को अर्घ्य प्रदान करने के अनन्तर जलपूर्ण कलश घृतपूर्ण पात्र, सुवर्ण और वह सुवर्ण की प्रतिमा सविधान ब्राह्मण श्रेष्ठ को अर्पित करे और इसी भाँति प्रतिमास करता रहे । नरोत्तम ! पूर्व दिन एकाहारी रहकर यथा विधान एक दिन पूजन करके पुनः वर्ष की समाप्ति में पूजन करे । कौंतेय ! उस दिन घृत पूर्णपायस की आहुति द्वारा अग्नि को तृप्त कर द्वादश कलश, उतनी ही गौ अथवा दरिद्रता का नाते एक ही गौ, सुवर्ण, चाँदी, ताँबे अथवा अशक्ततया पिष्टी की पृथ्वी सूर्य के साथ ही ब्राह्मण श्रेष्ठ को अर्पित करना चाहिए । जब तक इस मृत्युलोक में महेन्द्र आदि देवगणों, हिमालय आदि पर्वतों और सातों समुद्रों से युक्त पृथ्वी का अस्तित्व है, तब तक स्वर्गलोक में अखिल गन्धर्वसमूह उस व्रती की भलीभाँति पूजा करते हैं । पुण्य क्षीण होने पर वह सृष्टि के आदि में उत्तम कुल और शील से सम्पन्न होकर भूतल पर सात द्वीपों का अधीश्वर होता है । वह सुन्दर रूप और सुन्दर पत्नी से युक्त होता है, बहुत-से पुत्र और भाई-बन्धु उसके चरणों की वन्दना करते हैं । इस प्रकार जो मनुष्य सूर्य-संक्रान्ति की इस पुण्यमयी, अखिल विधि को भक्तिपूर्वक पढ़ता या श्रवण करता है अथवा इसे करने की सम्मति देता है, वह भी इन्द्रलोक में देवताओं द्वारा पूजित होता है ।
(अध्याय ११५-११६)

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