भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय – ६
पत्नी किसकी ?
(कामांगी कन्या कथा)

सूत जी बोले — पुनः वैताल ने कहा — राजन् ! इस कथा को सुनो ! उस धर्मपुर गाँव में जो रमणीक और अनेक जाति के मनुष्यों से सुसेवित था, महान् एवं उत्तम धर्मशील नामक राजा राज कर रहा था । भूपते ! उसकी प्रधान रानी का नाम लज्जा देवी, एवं मंत्री का नाम अन्धक था, न्याय शास्त्र का निष्णात विद्वान् था । कुछ दिन के उपरान्त राजा धर्मशील ने अपने सन्तानार्थ एक उत्तम मन्दिर का निर्माण कराकर उसमें दुर्गा जी की प्रतिष्ठा कराया ।om, ॐ पश्चात् उस राजा ने वहाँ महान् उत्सव भी किया । उस दिन आधी रात के समय गौरी जी ने राजा से कहा कि वरदान की याचना करो । इस अमृत वाणी को सुनकर राजा धर्मशील ने नम्रतापूर्वक इस प्रकार की स्तुति करना आरम्भ किया, जिससे दुर्गा जी प्रसन्न होती हैं ।
धर्मशील बोले — जो प्रकृति एक और नित्य है, समय पर सब वर्णों की स्वरूपिणी हो जाती है । साक्षात् भगवती वही आप हैं जिसने इस विश्व को विस्तृत् किया । आप की ही आज्ञा शिरोधार्य कर श्रेष्ठ देवगण उत्तमलोक की रचना करके तुम्हारे महालक्ष्मी के साथ निर्मल सुख का उपभोग करते हैं । सनातनि ! तुम्हारी भक्ति द्वारा विष्णु ब्रह्मरचित तीनों लोकों का तुम महालक्ष्मी के साथ ही पालन करते हैं । महादेवि ! तुम्हारे बल से (शिव जी) विष्णु द्वारा पालन-पोषण किये गये इस त्रैलोक्य को तुम्ही महाकाली के साथ भस्म करके सुशोभित होती हो । समस्त देव, दैत्य, पितृगण, मनुष्य एवं पक्षी तुम्हारी ही लीला द्वारा उत्पन्न हुए हैं, अतः जगन्मातः ! तुम्हें नमस्कार है ।’

इस भाँति स्तुति करने वाले उस राजा से आकाशवाणी द्वारा उन्होंने कहा — महाबलवान् एवं महापराक्रमी पुत्र तुम्हारे यहाँ उत्पन्न होगा तथा तुम्हारी स्तुति से मैं बहुत प्रसन्न हूँ अतः तुम्हें अनेक भाँति के फल प्रदान करूंगी । ऐसा सुनकर राजा ने अपने महल में पहुँचकर अपनी रानी से देवी की सभी बातें कह सुनाया । पश्चात् उसी दिन से उन्होंने उस राजेन्द्र के शरीर में निवास करना भी आरम्भ किया ।

राजन् ! एक दिन कलि भोजन नामक एक रजक (धोबी) काशीदास नामक एक व्यक्ति के साथ धर्मपुर नामक किसी गाँव में गया था । उस गाँव में कामाङ्गी नामक एक कन्या को देखकर, जो अपने पिता के साथ उसी राजमार्ग (सड़क) से भ्रान्त होकर जा रही थी, रजक कलि भोजन काम के वेग से उत्पन्न होने के नाते उस पर मोहित हो गया । पश्चात् कामान्ध होकर उसने चण्डिका देवी से कहा — हे सनातनि, जगन्मातः ! यदि यह सुन्दरी मेरी (स्त्री) होना स्वीकार कर लें तो मैं तुम्हें अपना शिर अर्पित कर दूंगा । और वह मेरी ही जाति के किसी रजक की पुत्री है (इसीलिए मैं याचना कर रहा हूँ) । उस रजक की ऐसी बातें सुनकर देवी जी ने उसके पिता को मोहित करके उसका पाणिग्रहण उसके साथ सुसम्पन्न करा दिया । पश्चात् वह रजक उस कामिनी स्त्री को साथ लेकर अपने घर चला गया । उसके साथ अनेक प्रकार के सुखप्रद सुखों का उपभोग करके उसने उसी वर्ष के अन्त समय में देवी के लिए अपना शिर अर्पित कर दिया । काशीदास ने भी उसके स्नेहवश शीघ्र वहाँ जाकर देवी को अपना शिर प्रदान किया । अनन्तर वह कामाङ्गी भी पति के लिए शोक करती हुई वहाँ जाकर देवी को अपना शिर अर्पित करके देवी स्वरूप की प्राप्ति की । उस समय चण्डी देवी ने प्रसन्न होकर तीनों को जीवित कर उन लोगों से कहा — जिसकी जो इच्छा हो, वर की याचना करे । काशीदास ने कहा मुझे कामाङ्गी को दे दीजिये, किन्तु उस कामाङ्गी ने कहा कि मुझे मेरे पति को समर्पित कीजिये और कलि भोजन ने प्रसन्न होकर देवी से कहा — मातः मित्र के इस सुन्दर अंग को मुझे देने की कृपा कीजिये, अतः तुम्हें बार-बार नमस्कार है। उन लोगों की ऐसी बातें सुनकर दुर्गा देवी ने उस समय मौन धारण कर लिया । किन्तु पश्चात् वर भी प्रदान किया ।

सूत जी बोले — इतना कहकर वैताल ने हँसकर राजा से कहा — देवी जी ने उनकी इच्छा कैसे पूरी की, उसे विवेचन पूर्वक मुझे बताने की कृपा कीजिये । इस प्रकार कहने पर राजा ने वैताल से कहा — देवी जी ने उन दोनों की शरीर से उनके उत्तम शिर को काट लिया । इस प्रकार देवी जी ने तो विपरीत किया, किन्तु उन्हें अपने वरदान की प्राप्ति हो गई ।
(अध्याय ६)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१

4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व तृतीय – अध्याय २०
5. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व प्रथम – अध्याय ७
6. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १
7. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २
8. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३
9. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ४
10. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ५

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