भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय – ८
(कुसुमदा देवी चिरंजीव कथा)

सूत जी बोले — इसे सुनकर वैताल ने राजा से कहा — राजन् ! विदेह प्रदेश में मिथिला नामक नगरी है, धन-धान्य सम्पन्न गुणाधिप नामक राजा वहाँ राज कर रहा था । सेवावृत्ति के लिए चिरंजीव नामक एक राजपुत्र मिथिला पुरी में आकर रहने लगा । एक वर्ष के पश्चात् राजा गुणाधिप ने अपनी चतुरङ्गिणी सेना समेत आखेट के लिए जंगल में जाकर एक बाघ का शिकार किया । om, ॐउसी क्रोध के आवेश में राजा उसे बाघ के मार्ग से किसी जंगल में पहुँच गये । चिरंजीव भी उनके पश्चात् उसी गहन वन में पहुँच गये । क्षुधा के नाते राजा का कण्ठ सूख गया था, श्रम और संताप से पीड़ित होकर राजा ने चिरंजीव से कहा —आज मुझे शीघ्र भोजन दीजिये । इसे सुनकर उस राजा के पुत्र ने उत्तम हरिणः का शिकार करके उसका मांस पकाकर राजा को अर्पित किया । उस प्रिय मांस के भोजन से संतुष्ट होकर राजा ने उससे कहा — श्रेष्ठ ! इच्छित वर की याचना करो ।
उसने राजा से कहा — ‘तुम्हारे यहाँ अवैतनिक कार्य करते हुए मैं (एक सेठ की) सहस्र मुद्रा खा गया हूँ । अतः राजन् ! घर बुलवाकर उसे शीघ्र दे दीजिये और परिवार के पोषणार्थ मुझे सौ मुद्रा का मासिक वेतन प्रदान करने की कृपा करते रहें ।’ राजा उसे स्वीकार करके सबके समेत अपने घर चले आये ।

राजन् ! एक दिन राजा गुणाधिप ने अपने सेवक चिरंजीव को सागर के समीप भेजा । उन्होंने सागर के तट पर पहुँचकर कुसुमदा नामक एक देवी की मूर्ति को देखा, जो मार्कंडेय के स्थल पर सुशोभित हो रही थी । वह प्रसन्न होकर उस सुन्दरी गन्धर्व पुत्री की पूजा करके अञ्जलि बाँध कर सामने खड़ा हुआ कि देवी जी ने आकर कहा — वर की याचना करो ।

चिरंजीव ने कहा — सुन्दरि ! मैं रूप पर मुग्ध हूँ, अतः मेरा हाथ ग्रहण करो । यह सुनकर उस देवी ने हँसकर उस कामीपुरुष से कहा —चिरंजीव ! देवों द्वारा निर्मित इस मेरे कुण्ड में आज स्नान करो । उसने स्वीकार कर जल के भीतर ज्यों ही डुबकी लगायी तो अपने को मिथिला में स्थित देखा । वहाँ रहकर उस विस्मयदायक वृतान्त को उसने राजा से कहा — राजा गुणाधिप जो उसे सुनकर उसके समेत उस देवी के मन्दिर में पहुँच गया । देवी ने राजा से कहा — गुणाधिप ! गान्धर्व विवाह द्वारा मुझे स्वीकार करो !
उसे सुनकर राजा ने कहा — देवि ! पुण्यदे ! यदि तुम मेरी एक बात मानती हो तो मैं तुम्हें स्वीकार करने को तैयार हूँ । देवी ने उसे स्वीकार करके कहा — शीघ्र उस कार्य का निवेदन कीजिये ।
उन्होंने कहा — चपल नेत्रे ! चिरंजीव नामक मेरे सेवक को स्वीकार कर अपनाओ । देवि ! मेरी इस बात को अवश्य सत्य करो । उस कामिनी ने लज्जित होकर राजा से कहा — दया सागर ! इन्द्र द्वारा प्रेषित मुझ कामिनी को अपना लो क्योंकि गन्धर्व पुष्पदन्त की मैं पुत्री हूँ । चिरंजीव के द्वारा मैं काम विह्वल होकर तुम्हारे पास आई हूँ । मुझ कल्याणमुखी को इन्द्र ने शाप प्रदान किया है कि तुम्हारा उपभोग मनुष्य करेंगे ।’ इसे सुनकर शीलस्वरूप उस धर्मात्मा राजा ने कहा — सुधू ! तुम ऐसी सुधर्मिणी को मैं कैसे अपना सकता हूँ, क्योंकि तुम मेरी स्नुषा (पुत्र-वधू) के समान हो और राजकुमार चिरंजीव मेरे पुत्र के समान ।शोभने ! तुम उसी की उपभोग्य हो, तुम इसका विचार करो । पश्चात् वह लज्जित होती हुई उनकी पुत्र-वधू की भाँति स्थित हुई । इतना कहकर रुद्र-सेवक उस वैताल ने राजा (विक्रम) से कहा — सत्यतः एवं धर्मानुसार वह किसकी हुई मुझे बताने की कृपा कीजिये ।

सूत जी बोले — राजा ने हँसकर कहा-वैताल ! सत्यतः, धर्मतः वह चिरंजीव की हुई, क्योंकि मैं उस शुभ कारण को बता रहा हूँ, सुनो ! सभी लोगों का उपकार करना राजा का परमधर्म बताया गया है । अतः राजा ने अपने सेवक का उपकार किया है इससे उनकी कोई सत्यता नहीं कही जा सकती । किन्तु सेवक ने जो कुछ किया है, उसे भी मैं बता रहा हूँ, सुनो ! उस गुणशाली राजा के गृह में वह सेवक बिना किसी जीविका के स्थित रहा । और वहाँ रहकर अन्य सेवकों की भाँति उसने भी सेवा की। पश्चात् उस महासंकट के उपस्थित होने पर राजा को उसकी परिस्थिति का परिचय प्राप्त हुआ । इसी कारण उससे अधिक चिरंजीव का महत्त्व है
(अध्याय समाप्त ८)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१

4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व तृतीय – अध्याय २०
5. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व प्रथम – अध्याय ७
6. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १
7. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २
8. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३
9. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ४
10. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ५
11. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ६
12. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ७

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