December 25, 2018 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ११ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — द्वितीय भाग) अध्याय – ११ विषयी राजा राज्य के विनाश का कारण बनता है (राजा धर्मवल्लभ और मंत्री बुद्धिप्रकाश की कथा) सूत जी बोले — महाभाग ! शौनक ! उस वैताल देव ने पुनः शुभ एवं धार्मिक प्रश्न वाली गाथा को राजा से कहा — राजन् ! रमणीक उस पुण्यपुर नामक नगर में धर्मवल्लभ नामक राजा पहले राज करता था । सत्य प्रकाश उसके मंत्री का नाम था, जिसकी सेवा लक्ष्मी कामिनी की भाँति करती थी । किसी समय धर्मवेत्ता उस राजा ने मंत्री से कहा — सत्तम ! लोक में कितने प्रकार का आनन्द है, मुझे बताइये । उसने कहा — महाराज ! चार प्रकार का सुख बताया गया है —ब्रह्मचर्याश्रम में ब्रह्मानन्द महान, उत्तम बताया गया है, गार्हस्थ्याश्रम में विषयानंद कहा गया है, जिसे विद्वानों ने मध्यम श्रेणी में रखा है । महाराज ! वानप्रस्थ में धर्मानन्द को अधम बताया गया है, क्योंकि कर्मकाण्ड में कोई आनन्द नहीं है, पर सत्यधर्म वही कहा गया है और संन्यास में शिवानंद कहा गया है, वही सर्वोत्तम एवं परमोत्तम आनन्द है । राजन् ! विषयानन्द को स्त्री-प्रधान कहा गया है क्योंकि नृप ! गृहस्थाश्रम में बिना स्त्री के सुख सम्भव नहीं होता है । ऐसा सुनकर वह राजा देशान्तर में जाकर अपने अनुरूप धार्मिक ५त्नी की खोज करने लगा । किन्तु मनोनुकूल वामांगी उसे प्राप्त नहीं हुई । पश्चात् उसने अपने मंत्री से कहा — आज मेरे लिए स्त्री की खोज अवश्य करो नहीं तो मैं सत्य कह रहा हूँ, प्राण परित्याग कर दूंगा । ऐसा सुनकर उस मंत्री ने देश देशान्तर के लिए प्रस्थान किया । सिंधु देश में पहुँचकर उसने समुद्र के यहाँ जाकर उस सभी तीर्थों के स्वामी की मानसिक स्तुति करना आरम्भ किया ।बुद्धिप्रकाश ने कहा — प्रभो ! सिंधुदेव, सम्पूर्ण रत्नों के आलय ! तुम्हें नमस्कार है । शरणागत वत्सल ! मैं तुम्हारी शरण आया हूँ, गंगा आदि नदियों के स्वामी, एवं जलाधीश को मैं नमस्कार करता हूँ । अतः मेरे राजा के निमित्त स्त्री रत्न प्रदान कीजिये, अन्यथा मैं प्राण परित्याग करने जा रहा हूँ । यह सुनकर सरित्पति सागर ने प्रसन्न होकर जल में एक इस भाँति का वृक्ष सुवर्ण की भाँति जिसके अंग, विद्रुम (मूंगा) के समान पत्र, और मुक्ताफल से युक्त था, उस मंत्री को दिखाया । नृप ! उसी वृक्ष पर एक सुकुमारी एवं मनोरमा स्त्री स्थित थी किन्तु उसी स्थान पर वृक्षसमेत वह डूब गई । इस प्रकार का आश्चर्य देखकर वह मंत्री राजा के समीप आकर उस घटना का वर्णन करके राजा के साथ उसी स्थान पर पुनः गया । राजा भी उसी प्रकार की घटना देखकर समुद्र के भीतर प्रवेश करके उस स्त्री के साथ पाताल पहुँच गया । विनम्र होकर उसने उस स्त्री से कहा — मैं तुम्हारे लिए ही यहाँ आया हूँ अतः गांधर्व विवाह द्वारा मुझे अपनाओ । उसने हँसकर के राजा से कहा — नृपश्रेष्ठ ! मैं कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन आकर आपकी सेवा करूंगी । इसे सुनकर वह राजा उस दिन कामपीड़ित होकर हाथ में खड्ग लेकर देवी के उस उत्तम मन्दिर में पहुँचा, किन्तु उसी समय बक पक्षी की सवारी पर आकर राक्षस ने उस स्त्री का स्पर्श किया ! उसे देखकर वह क्रोधातुर हो गया । अनन्तर कामांध होकर राजा ने उस राक्षस का वध करके उस निर्भय अपनी पत्नी से कहा — भामिनि ! तुम्हारा यह कौन है ?, और यहाँ क्यों आया ? इसका कारण बताओ । उसने कहा — राजन् ! सुनो ! मैं विद्याधर की पुत्री हूँ । अपने पिता की लाडिली होने के नाते मैं मत्त एवं कामातुर होकर वन में चली आई, भोजन समय में भी अपने माता-पिता के गृह न जा सकी । पश्चात् मेरे पिता ने ध्यान द्वारा उसे समझकर मुझे शाप दिया कि आज कृष्ण चतुर्दशी के दिन तुम्हें राक्षस की सेवा करनी पड़ेगी । अतः इस कृष्णपक्ष की चतुर्दशी में तुम अपने अपराध परिणाम का भोग करो । उस समय मैं रुदन करती हुई अपने पितरों से कहने लगी — देव, सुव्रत ! मेरी मुक्ति कब होगी, इसे निश्चित बताने की कृपा कीजिये । उन्होंने कहा — कुमारि ! जिस समय में तू वीरोपभोग्या होगी । उस समय यह मेरा शाप छूट जायगा । राजन् ! मैं तुम्हारी आज्ञा प्राप्त कर अपने पिता के गृह जाना चाहती हूँ । ऐसा सुनकर उस राजा ने उससे कहा — मेरे घर चलो। पश्चात् मैं भी तुम्हारे साथ विद्याधर के यहाँ चलूंगा । उस देवी ने स्वीकार कर राजा के घर प्रस्थान किया । उस समय राजा के नगर में मनुष्यों ने महान् उत्सव किया किन्तु, उस दिव्यपत्नी समेत राजा को देखकर उस मंत्री का निधन हो गया । वैताल ने पूछा — इसका कारण बताइये । राजा ने कहा — मंत्री बुद्धिप्रकाश उस दिव्य रमणी को देखकर अपने हृदय में राजा के विषय में सोचने लगा कि स्त्री के वश होने के नाते राजभंग हो जायेगा । इसका कोई प्रतीकार न देखकर उस भय से वह अपना प्राण परित्याग कर स्वर्ग चला गया । क्योंकि जो राजा विषयी होते हैं उनके राज्य का नाश हो जाता है और स्त्री रूपी मद (नशे) की प्राप्ति करने से राज्य की सदैव हानि होती रहती है । (अध्याय ११) See Also :- 1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६ 2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१ 3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१ 4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व तृतीय – अध्याय २० 5. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व प्रथम – अध्याय ७ 6. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १ 7. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २ 8. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३ 9. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ४ 10. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ५ 11. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ६ 12. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ७ 13. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ८ 14. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ९ 15. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १० Related