भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय – २१
विष्णुस्वामिचतुष्पुत्रकथा

सूत जी बोले — इतना कहने पर उस वैताल ने विनम्र होकर राजा से कहा — जयस्थल नगर में वर्धमान नामक राजा हुआ । उसकी राजधानी में विष्णु स्वामी नामक ब्राह्मण रहता था, जो वेदवेदाङ्ग निष्णात एवं राधाकृष्ण का उपासक था । उस ब्राह्मण के चार पुत्र चार प्रकार के कर्म करने वाले थे-जुआड़ी, कुलमर्यादानाशक, विषयी (व्यभिचारी) एवं नास्तिक थे । दैवात् वे सब निर्धन हो गये । om, ॐपश्चात् अपने पिता विष्णु शर्मा के पास पहुँचकर विनयावनत होकर उन लोगों ने कहा-प्रियपिता ! हम लोगों की लक्ष्मी नष्ट कैसे हो गई ? उनके पिता ने कहा-सुनो ! जुआ खेलने से धन नष्ट हो गया है। द्यूतक्रीडा धन का नाशक, पाप का मूल एवं महाखल बताया गया है। उसी से उसका कर्ता व्यभिचारी, चोर तथा निर्दयी होता है । जूआ खेलने के नाते तुम्हारा धन नष्ट हो गया है, अतः धनोपार्जन के लिए हमारी बातें स्वीकार करो। तीर्थयात्रा और व्रतानुष्ठान से तुम्हारे पाप नष्ट हो जायेंगे । और पुत्र महाअशुभ वेश्या का साथ करके कुल की मर्यादा का नाश करना उचित नहीं । उसके त्याग पूर्वक ब्रह्म के ध्यान करने के लिए ब्रह्मचारी रहना स्वीकार करो । विषयी के लिए उन्होंने कहा । नित्य पापवर्द्धक उस मांस मदिरा का सेवन करने से वह चोर एवं नरकगामी होता है, अतः तुम्हें उस प्रभु को जो ईशान, विष्णु, जपनशील एवं जगत्पति हैं को अर्पित करके पश्चात् उस द्रव्य का उपभोग मौन होकर करना चाहिए । उस नास्तिक से उन्होंने कहा—तुम देवों की निन्दा का परित्याग करो, यह आत्मा निर्भय, एवं नित्य है, और आत्मा की शक्ति चण्डिका हैं एवं इस आत्मा के सम्पूर्ण जीवों के निवासभूत देवगण, अंग हैं, ऐसा जानकर अपनी पाप शान्ति के लिए उन लोगों की उपासना करो।’

इन बातों को सुनकर वे सब तीर्थ यात्रा के लिए प्रस्तुत हो गये। वहाँ जाकर विद्याध्ययन के लिए सर्वरूपी शिव जी की आराधना करने लगे । एक वर्ष के उपरांत महादेव जी ने उन्हें संजीवनी विद्या प्रदान किया। पश्चात् उन लोगों ने उस विद्या की परीक्षा के निमित्त किसी मृतक बाघ की अस्थियों को एकत्र करके उस पर उस मंत्र से अभिमंत्रित जल का प्रक्षेप किया। उस मंत्र के प्रभाव से उसका पांजर (जंघे) उत्पन्न होकर स्वस्थ्य हो गये ! उसके ऊपर उस कुलटे ने पुनः अभिमंत्रित जल का प्रक्षेप किया जिससे उसमें दृढमांस और रक्त संचार होने लगा। पुनः उस विषयी ने उसके ऊपर जल का प्रक्षेप किया जिससे उसमें उस मंत्र के प्रभाव से ऊपरी चर्म और भीतरी प्राण वायु प्रतिट हो गया। उस शयन किये हुए बाध को देखकर उस नास्तिक ने उसके ऊपर जल का प्रक्षेप किया। जिससे उसी समय मंत्र द्वारा चेतना प्राप्त कर उस वाघ ने उन्हें भक्षित कर लिया ।

सूत जी बोले-इतना कहकर वैताल ने राजा से कहा-राजन् ! उनमें कौन मूर्ख था इसे सुनकर राजा ने कहा-जिसने उसे चेतना प्रदान की, वही सबसे अधिक मूर्ख था। यह सुनकर उस द्विजश्रेष्ठ वैताल ने पुनः कहा ।
(अध्याय २१)

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