December 26, 2018 | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २२ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — द्वितीय भाग) अध्याय – २२ क्षत्रसिंहनृपतिकथावर्णनम्, विक्रमाख्यानकालवर्णनम् वैताल बोले — राजन् ! गंगा-यमुना के मध्य प्रदेश में बिल्वती नामक गाँव है। जन्मान्तर में मैं वहाँ का क्षत्रसिह नामक राजा था। उसी गाँव में शम्भुदत्त नामक ब्राह्मण रडता था, जो वेदवेदांगवेत्ता एवं रुद्र की उपासना करता था। उसके दो पुत्र थे, जो सभी विद्याओं में कुशल थे। ज्येष्ठ का नाम लीलाधर था, जो बली एवं विष्णु की उपासना करता था और कनिष्ठ का नाम मोहन था जिसे शक्ति का उपासक बताया गया है। एक बार राजा क्षत्रसिंह ने यज्ञार्थ उस धर्म निपुण शम्भुदत्त को उसके पुत्र के समेत बुलाया और स्वयं देवप्रिय उस छागमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया । शिवभक्त एवं वृद्ध शम्भुदत्त ने प्रसन्नतापूर्वक चार चक्र का निर्माण करके उसी पर कार्यसिद्धिप्रद कलशों के स्थापन करके उस रमणीक एवं सुसंस्कृत हव्य द्वारा हवन कार्य सुसम्पन्न किया। राजा ने उस छाग (बकरी) को मंगाकार सविधान उसकी पूजा थी। दयालु, लीलाधर ने जो विष्णु के उपासक एक एवं परम बुद्धिमान थे, उस छाग को मरणोन्मुख देखकर रोषपूर्ण वाणी से कहा-इस जीवहिंसा द्वारा भीषण नरक की प्राप्ति होती है, क्योंकि सर्वेश भगवान् विष्णु हिंसा यज्ञ से अप्रसन्न होते हैं। इस प्रकार अपने ज्येष्ठ भ्राता की बात सुनकर मोहन ने पहले तो मन्दमुसुकान किया पश्चात् नम्रता पूर्वक ऊँचे स्वर से कहा-भ्राता ! पहले सत्ययुग में यज्ञानुष्ठान करने वाले ब्राह्मणों ने ‘छागमेध से ही यज्ञ सुसम्पन्न करना चाहिए’ इस श्रुति को उत्तम समझकर और तिल से अधिक अज का महत्त्व स्वीकार करके उसी द्वारा हवन को आरम्भ करना निश्चय किया। उस समय अग्निकुण्ड में शक्रादि समस्त देवगण उपस्थित होकर मधुरवाणी से कहने लगे कि तुम्हारा सिद्धान्त निष्फल प्रद है क्योंकि अज छाग को वेद में बताया गया है । अतः उसी छाग द्वारा ही यज्ञ करना श्रेयस्कर होगा। उनकी ऐसी बातें सुनकर महर्षियों को महान् आश्चर्य हुआ। उसी बीच पितृयोनि में उत्पन्न अमावसु ने उत्तम विमान पर बैठकर उन मुनियों से कहा-देवताओं की तृप्ति के लिए छागमेघ द्वारा ही यज्ञारम्भ करना चाहिए। इसे सुनकर उन्होंने वैसा ही उसे सुसम्पन्न करके कल्याण की प्राप्ति की अतः महामते ! मेरे साथ आप भी इस यज्ञ को सुसम्पन्न करें। इस घोरवाणी को सुनकर उदारचेता एवं धार्मिक लीलाधरने मोहन से कहा-वह यज्ञ त्रेतायुग में हुआ है क्योंकि त्रेतायुग में रजोगुण प्रधान (जीव) होते हैं और सत्ययुग में धर्म के चार चरण वर्तमान रहने के नाते उसमें हिंसा नहीं होती है। देवगण दुव्य द्वारा तृप्त होते हैं न कि मांस और रुधिर से । इसे सुनकर भयभीत होकर क्षत्रसिंह ने उस छाग के त्यागपूर्वक फलों आदि से पूर्णाहुति प्रदान की । नृप ! उस समय तामसी देवी ने क्रुद्ध होकर नर-नारी समेत उस नगर को भस्म कर दिया। महामाया के प्रभाव से शिवप्रिय शम्भुदत्त महा उन्मादी की अवस्था में देह का त्याग कर देवलोक चले गये। उस लीलाधर ब्राह्मण ने पद्मपुर नामक नगर में विद्यार्थियों के अध्यापन द्वारा दश पुत्रों की जीविका का निर्वाह करना आरम्भ किया । और राजा क्षेत्र सिंह ने मोहन के समीप पहुँचकर देवमाता के अनुग्रह की प्राप्ति के लिए उन्हें प्रसन्न किया । मोहन ने कहा-ब्रह्मा ने बीज मन्त्र का जप करके ही अपनी वाहनी शक्ति की प्राप्ति की है अतः अम्बा को नमस्कार है उस महापराक्रमशालिनी को बार-बार नमस्कार है। विष्णु ने सप्तशती की आराधना करके वैष्णवी शक्ति की प्राप्ति की है। अतः माता को नमस्कार है, उस महालक्ष्मी को बारबार नमस्कार है। प्रणव जिसके पुत्र हैं और जो स्वयं तुरीय (चौथे) पुरुष की जो प्रेयसी है, उस माता को नमस्कार है, उस प्रणवरूपा को बार-बार नमस्कार है। जिसके द्वारा यह समस्त जगत् दृष्टिगोचर हो रहा है और इसका पालन-पोपण हो रहा है तथा जिसकी देह में यह विश्व स्थित है, उस अम्बा को बार-बार नमस्कार है । इन्द्राणी, सिद्धि, मृत्यु, प्रभा, कार्तिकेय, स्वाहा, राक्षस, रात्रि, ऋद्धि, और भुक्ति तुम्हीं से उत्पन्न है, तुम्हीं लोकपाल की प्रिया हो, अतः लोकमाता को बार-बार नमस्कार है। तृष्णा, तृप्ति, रति, नीति, हिंसा, क्षांति (त्याग), मति, गति, निन्दास्तुति ईर्ष्या एवं लज्जा रूप तुम्हें बार-बार नमस्कार है। इस अष्टक (स्तुति) के प्रभाव से राजा क्षेत्र सिंह ने शिव लोक की प्राप्ति की । वही मैं वैताल के रूप में आपकी सेवा के लिए उपस्थित हूँ, इसलिए विक्रमादित्य ! सदैव वर्तमान रहने वाली श्री दुर्गा जी की आराधना करो। महीपते ! मैं भगवान शंकर की आज्ञा से यहाँ आया हूँ । राजन् ! इस प्रश्नोत्तर द्वारा मैंने आप की परीक्षा की है। तुम्हारी दोनों भुजाओं में मेरी स्थिति रहेगी। अतः इस भूतल पर स्थित अपने शत्रुओं का नाश करो । राजन् ! अब दस्यु गण नष्ट हो गये हैं, अतः समस्त पुरी, एवं भाँति-भाँति के क्षेत्रों का शास्त्र प्रमाण द्वारा संस्थापन करो । जो राजा सम्पूर्ण तीर्थों का पुनरुद्धार करेगा, वह मेरे द्वारा स्थापित संवत् के प्रतिकूल कार्य करेगा। विक्रम का ख्यातिप्राप्त काल द्वारा पुनः धर्म प्रचार प्रारम्भ होगा । बारह सौ वर्ष द्वापर का शेष समय है, इसके अन्त समय में महाबली कृष्ण का अंश उत्पन्न होगा जिससे कलि का उद्धार और म्लेच्छ वंशों की वृद्धि होगी। महाराज ! नैमिषारण्य निवासी सूत आदि महर्षि वृन्द विशालापुरी में पहुँचकर चक्रतीर्थ के निवासी होकर पुराणश्रवण में निमग्न रहेगें। इतना कहकर वह वैताल उसी स्थान से अन्तहित हो गया और राजा विक्रमादित्य को परमानंद की प्राप्ति हुई। इसलिए श्रेष्ठ मुनिवृन्द ! संध्या समय की उपस्थिति जानकर आप लोग ध्याननिष्ठ होकर सर्वाधिक शिव जी की आराधना कीजिये । (अध्याय २२) See Also :- 1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६ 2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१ 3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१ 4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व तृतीय – अध्याय २० 5. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व प्रथम – अध्याय ७ 6. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १ 7. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २ 8. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३ 9. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ४ 10. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ५ 11. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ६ 12. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ७ 13. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ८ 14. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ९ 15. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १० 16. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ११ 17. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १२ 18. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १३ 19. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १४ 20. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १५ 21. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १६ 22. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १७ 23. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १८ 24. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १९ 25. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २० 26. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २१ Related