भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय – २४
सत्यनारायण की कथा

कथा

व्यासजी बोले – एक समय की बात है, नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों ने पौराणिक श्रीसूतजी से विनयपूर्वक पूछा — ‘भगवन ! संसार के कल्याण के लिये आप वह बतलाने की कृपा करें कि चारों युगों में कौन पूजनीय और कौन सेवनीय है तथा कौन सबके अभीष्ट मनोरथों को पूर्ण करनेवाला है ? मानव अनायास ही किसकी आराधनाद्वारा अपनी मंगलमयी कामना को प्राप्त कर सकता है ? ब्रह्मन् ! आप ऐसे सत्य उपाय को बतलाये जो मनुष्यों की कीर्ति को बढ़ानेवाला हो ।’ शौनकादि ऋषियों द्वारा इस प्रकार पूछे जाने पर श्रीसूतजी भगवान् सत्यनारायण की प्रार्थना करने लगे —

om, ॐ
“नवाम्भोजनेत्रं रमाकेलिपात्रं
चतुर्बाहुचामीकरं चारुगात्रम् ।
जगत्त्राणहेतुं रिपौ धुम्रकेतुं
सदा सत्यनारायणं स्तौमि देवम् ॥ (प्रतिसर्गपर्व २ । १४ । ४)

श्रीसूतजी ने प्रार्थना करते हुए कहा — ‘प्रफुल्लित नवीन कमल के समान नेत्रवाले, भगवती लक्ष्मी के क्रीडापात्र, चतुर्भुज, सुवर्णकान्ति के समान सुन्दर शरीरवाले, संसार की रक्षा करने के एकमात्र मूल कारण तथा शत्रुओं के लिये धूम्रकेतुस्वरुप भगवान् सत्यनारायणदेव की मैं स्तुति करता हूँ ।’
श्रीरामं सहलक्ष्मणं सकरुणं सीतान्वितं सात्त्विकं
वैदेहीमुखपद्मलुब्धमधुपं पौलस्त्यसंहारकम् ।
वन्दे वन्द्यपदाम्बुजं सुरवरं भक्तानुकम्पाकरं
शत्रुघ्नेन हनूमता च भरतेनासेवितं राघवम ॥ (प्रतिसर्गपर्व २ । १४ । ५)

‘जो भगवान करुणा के निधान हैं, जिनके चरणकमल वन्दनीय हैं, जो भक्तोंपर अनुकम्पा करनेवाले हैं, जो लक्ष्मणजी के साथ रहते हैं और माता श्रीसीता से समन्वित है तथा माता वैदेही श्रीजनकनन्दिनीजी के मुख-कमल की ओर स्निग्धभाव से देखते हैं, उन शत्रुघ्न, हनुमान तथा भरत से सेवित, पुलस्त्यकुल का संहार करनेवाले, सत्स्वरूप सुरश्रेष्ठ राघवेन्द्र श्रीरामचंद्र की मैं वन्दना करता हूँ ।’

सूतजी ने कहा — ऋषियों ! अब मैं आपसे श्रेष्ठ राजाओं के चरित्रों से सम्बद्ध एक इतिहास का वर्णन करता हूँ, उसे आपलोग श्रवण करें । यह पवित्र आख्यान कलियुग के सम्पूर्ण पापों का विनाश करनेवाला, कामनाओं का पूर्ण करनेवाला, देवताओंद्वारा, आभासित, ब्राह्मणोंद्वारा प्रकाशित, विद्वानों को आनन्दित करनेवाला तथा विशेष रूपसे सत्संग की चर्चास्वरूप है ।
कलिकलुषविनाशं कामसिद्धिप्रकाशं
सुरवरमुखभासं भूसुरेण प्रकाशम् ।
विबुधबुधिविलासं साधुचर्याविशेषं
नृपतिवरचरित्रं भोः शृणुष्वेतिहासम् ॥ (प्रतिसर्गपर्व २ । २४ । ६)

ऋषियों ! एक समय योगी देवर्षि नारदजी सबके कल्याण की कामना से विविध लोकों में भ्रमण करते हुए इस मृत्युलोक में आये । यहाँ उन्होंने देखा कि अपने-अपने किये गये कर्मों के अनुसार संसार के प्राणी नाना प्रकार के क्लेशों एवं दु:खों से दु:खी है और विविध आधि एवं व्याधि से ग्रस्त हैं । यह देखकर उन्होंने सोचा कि कौन-सा ऐसा उपाय है, जिससे इन प्राणियों के दुःख का नाश हो । ऐसा विचारकर वे विष्णुलोक में गये । वहां उन्होंने शङ्ख, चक्र, गदा,पद्म और वनमाला से अलंकृत, प्रसन्नमुख, शान्त, सनक-सनंदन तथा सनात्कुमारादि से संस्तुत भगवान् नारायण का दर्शन किया । उन देवाधिदेव का दर्शनकर नारदजी उनकी इस प्रकार स्तुति करने लगे –

नमो वाङ्मनसातीतरूपायानंतशक्तये ।
नादि मध्यान्तदेवाय निर्गुणाय महात्मने ॥
सर्वेषामादिभूताय लोकानामुपकारिणे ।
अपारपरिमाणाय तपोधाम्ने नमोनमः ॥ (प्रतिसर्गपर्व २ । २४ । १२-१३)

‘वाणी और मनसे जिनका स्वरुप परे है और जो अनन्तशक्तिसम्पन्न हैं, आदि, मध्य और अन्त से रहित है, ऐसे महान आत्मा निर्गुणस्वरुप आप परमात्मा को मेरा नमस्कार है । सभी के आदिपुरुष लोकोपकारपरायण, सर्वत्र व्याप्त, तपोमूर्ति आपको मेरा बार-बार नमस्कार है ।’

देवर्षि नारद की स्तुति सुनकर भगवान् विष्णु बोले — देवर्षे ! आप किस कारण से यहाँ आये है ? आपके मन में कौन-सी चिन्ता है ? महाभाग ! आप सभी बातें बताये । मैं उचित उपाय कहूँगा ।

नारदजी ने कहा – प्रभो ! लोकों में भ्रमण करता हुआ मैं मृत्युलोक में गया था, वहाँ मैंने देखा कि संसार के सभी प्राणी अनेक प्रकार के क्लेश-तापों से दुःखी हैं । अनेक रोगों से ग्रस्त हैं । उनकी वैसी दुर्दशा देखकर मेरे मनमें बड़ा कष्ट हुआ और मैं सोचने लगा कि किस उपाय से इन दुःखी प्राणियों का उद्धार होगा ? भगवन ! उनके कल्याण के लिए आप कोई श्रेष्ठ एवं सुगम उपाय बतलाने की कृपा करें । नारदजी के इन वचनों को सुनकर भगवान नारायण ने साधु-साधु शब्दों से उनका अभिनन्दन किया और कहा — नारदजी ! जिस विषय में आप पुछ रहे हैं, उसके लिये मैं आपको एक सनातन व्रत बतलाता हूँ ।’

भगवान् नारायण सत्ययुग और त्रेतायुग में विष्णुस्वरूप में फल प्रदान करते हैं और द्वापर में अनेक रूप धारणकर फल देते हैं, परन्तु कलियुग में सर्वव्यापक भगवान् सत्यनारायण प्रत्यक्ष फल देते हैं, क्योंकि धर्म के चार पाद हैं – सत्य, शौच, तप और दान । इनमें सत्य ही प्रधान धर्म है । सत्यपर ही लोकका व्यवहार टिका है और सत्यमें ही ब्रह्म प्रतिष्ठित है, इसलिये सत्यस्वरूप भगवान् सत्यनारायण का व्रत परम श्रेष्ठ कहा गया है ।’

नारदजी ने पुनः पूछा – भगवन ! सत्यनारायण की पूजा का क्या फल है और इसकी क्या विधि है ? देव ! कृपासागर ! सभी बातें अनुग्रहपूर्वक मुझे बतायें ।

श्रीभगवान बोले – नारद ! सत्यनारायण की पूजा का फल एवं विधि चतुर्मुख ब्रह्मा भी बतलाने में समर्थ नहीं हैं, किन्तु संक्षेप में मैं उसका फल तथा विधि बतला रहा हूँ, आप सुनें –

सत्यनारायण के व्रत एवं पूजन से निर्धन व्यक्ति धनाढ्य और पुत्रहीन व्यक्ति पुत्रवान् हो जाता है । राज्यच्युत व्यक्ति राज्य प्राप्त कर लेता हैं, दृष्टिहीन व्यक्ति दृष्टिसम्पन्न हो जाता हैं, बंदी बन्धनमुक्त हो जाता है और भयार्त व्यक्ति निर्भय हो जाता है । अधिक क्या ? व्यक्ति जिस-जिस वस्तुकी इच्छा करता है, उसे वह सब प्राप्त हो जाती है । इसलिए मुने ! मनुष्य-जन्म में भक्तिपूर्वक सत्यनारायण की अवश्य आराधना करनी चाहिये । इससे वह अपने अभिलाषित वस्तुको निःसंदेह शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है ।

इस सत्यनारायण व्रत के करनेवाले व्रती को चाहिये कि वह प्रातः दन्तधावनपूर्वक स्नानकर पवित्र हो जाय । हाथ मे तुलसी-मंजरी को लेकर सत्य में प्रतिष्ठित भगवान् श्रीहरि का इस प्रकार ध्यान करे —

नारायणं सान्द्रघनावदातं चतुर्भुजं पीतमहार्हवाससम् ।
प्रसन्नवक्त्रं नवकञ्जलोचनं सनन्दनाद्यैरूपसेवितं भजे ॥
करोमि ते व्रतं देव सायंकाले त्वदर्चनम् ।
श्रुत्वा गाथां त्वदीयां हि प्रसादं ते भजाम्यहम् ॥
(प्रतिसर्गवर्ग २ । २४ । २६-२७)

‘सघन मेघ के समान अत्यन्त निर्मल, चतुर्भुज, अति श्रेष्ठ पीले वस्त्र को धारण करनेवाले, प्रसन्नमुख, नवीन कमल के समान नेत्रवाले, सनक-सनन्दनादि से उपसेवित भगवान् नारायण का मैं सतत चिन्तन करता हूँ । देव ! मैं आपके सत्यस्वरूप को धारणकर सायंकाल में आपकी पूजा करूँगा । आपके रमणीय चरित्र को सुनकर आपके प्रसाद अर्थात् आपकी प्रसन्नता का मैं सेवन करूँगा ।’

इसप्रकार मनमें संकल्पकर सायंकाल में विधिपूर्वक भगवान् सत्यनारायण की पूजा करनी चाहिये । पूजा में पाँच कलश रखने चाहिये । कदली-स्तम्भ और बंदनवार लगाने चाहिये । स्वर्णमण्डित भगवान् शालग्राम को पुरुषसूक्त (यजु०३१ । १ । १-१६) द्वारा पञ्चामृत आदि से भलिभाँति स्नान कराकर चन्दन आदि अनेक उपचारों से भक्तिपूर्वक उनकी अर्चना करनी चाहिये । अनन्तर भगवान् को निम्न मन्त्र का उच्चारण करते हुए प्रणाम करना चाहिये —

नमो भगवते नित्यं सत्यदेवाय धीमहि ।
चतुःपदार्थदात्रे च नमस्तुभ्यं नमो नमः ॥

(प्रतिसर्गपर्व २ । २४ । ३०)
‘षडैश्वर्यरूप भगवान् सत्यदेव को नमस्कार है, मैं आपका सदा ध्यान करता हूँ । आप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष — इस चतुर्विध पुरुषार्थ को प्रदान करनेवाले है, आपको बार-बार नमस्कार है ।’

इस मन्त्र का यथाशक्ति जपकर १०८ बार हवन करे । उसके दशांश से तर्पण तथा उसके दशांश से मार्जन कर भगवान् की कथा को सुनना चाहिये, जो छः अध्यायों में उपनिबद्ध है । भगवान् की इस कथा में सत्य-धर्म की ही मुख्यता है । कथा-श्रवण के अनन्तर भगवान् के प्रसाद को चार भागों में विभक्तकर उसे भलीभाँति वितरण करे । प्रथम भाग आचार्य को दे, द्वितीय भाग अपने कुटुम्ब को, तृतीय भाग श्रोताओं को और चतुर्थ भाग अपने लिये रखे । तत्पश्चात् ब्राह्मणों को भोजन कराये एवं स्वयं भी मौन होकर भोजन करे । देवर्षे ! इस विधिसे सत्यनारायण की पूजा करनेवाला व्रती सभी अभीष्ट कामनाओं को इसी जन्म में प्राप्त इसी जन्म में प्राप्त कर लेता है । इस जन्म में किये गये पुण्यफल को दुसरे जन्म में भोगा जाता है और दुसरे जन्म में किये गये कर्मों का फल मनुष्य को यहाँ भोगना पड़ता है । श्रद्धापूर्वक किया गया सत्यनारायण का व्रत सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाला होता है ।

नारदजी ने कहा — भगवन ! आज ही आपकी आज्ञा से भूमण्डल में इस सत्यदेव-व्रत को मैं प्रतिष्ठित करूँगा । यह कहकर नारदजी तो पृथ्वीपर व्रत का प्रचार करने चले गये और भगवान् नारायणदेव अन्तर्धान हो काशीपुरी में चले गये ।
‘सत्यनारायणव्रत – कथा’ का प्रथम अध्याय
(अध्याय २४)

(भारतवर्ष में सत्यनारायणव्रत-कथा अत्यंत लोकप्रिय है और जनता-जनार्दन में इसका प्रचार-प्रसार भी सर्वाधिक है । भारतीय सनातन परम्परा में किसी भी मांगलिक कार्य का प्रारम्भ भगवान गणपति के पूजन से एवं उस कार्य की पूर्णता भगवान् सत्यनारायण की कथा श्रवण से समझी जाती है । वर्तमान समय में भगवान् सत्यनारायण की प्रचलित कथा स्कन्दपुराण के रेवाखंड के नाम से प्रसिद्ध है, जो पाँच या सात अध्यायों के रूप में उपलब्ध है । भविष्यपुराण के प्रतिसर्गपर्व में भी भगवान् सत्यनारायणव्रत-कथाका उल्लेख मिलता है, जो छः अध्यायों में प्राप्त है । यह कथा स्कन्दपुराणकी कथासे मिलती-जुलती होनेपर भी विशेष रोचक एवं श्रेष्ठ प्रतीत होती है। सत्यनारायणव्रत-कथाकी प्रसिद्धिके साथ अनेक शंका-समाधान भी इसपर होते रहते हैं तथा लोग यह भी पूछते हैं कि साधु वणिक्, काष्ठविक्रेता, शतानन्द ब्राह्मण, उल्कामुख, तुङ्गध्वज आदि राजाने कौन-सी कथाएँ सुनी थीं और वे कथाएँ कहाँ गयीं तथा इस कथाका प्रचार कबसे हुआ? इस सम्बन्धमें यही जानना चाहिये कि कथा के माध्यम से मूल सत-तत्त्व परमात्मा का ही इसमें निरुपण हुआ है, जिसके लिये गीतामें ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’ आदि शब्दों में यह स्पष्ट किया गया है की इस मायामय दुःखद संसार की वास्तविक सत्ता ही नहीं है । परमेश्वर ही त्रिकालाबाधित सत्य है और एकमात्र वही ज्ञेय, ध्येय एवं उपास्य है । ज्ञान-वैराग्य और अनन्य भक्ति के द्वारा वही साक्षात्कार करने के योग्य है । भागवत (१० । २ । २६) में भी कहा गया है –
सत्यव्रतं सत्यपरं त्रिसत्यं सत्यस्य योनि निहितं च सत्ये ।
सत्यस्य सत्यमृतसत्यनेत्रं सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्ना: ॥

यहाँ भी सत्यव्रत और सत्यनारायणव्रत का तात्पर्य उन शुद्ध सच्चीदानंद परमात्मा से ही है । इसीप्रकार निम्नलिखित श्लोक में –
अन्तर्भवेऽनन्त भवन्तमेव ह्यतत्त्यजन्तो मृगयन्ति सन्त: ।
असन्तमप्यन्त्यहिमन्तरेण सन्तं गुणं तं किमु यन्ति सन्तः ॥ (श्रीमदभागवत १० । १४ । २८)

— संसार में मनीषियोंद्वारा सत्य-तत्व की खोज की बात निर्दिष्ट है, जिसे प्राप्तकर मनुष्य सर्वथा कृतार्थ हो जाता है और सभी आराधनाएँ उसी में पर्यवसित होती है । निष्काम-उपासना से सत्यस्वरूप नारायण की प्राप्ति हो जाती है ।)

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3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१

4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व तृतीय – अध्याय २०
5. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व प्रथम – अध्याय ७
6. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १
7. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २
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9. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ४
10. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ५
11. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ६
12. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ७
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14. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ९
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16. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ११
17. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १२
18. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १३
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20. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १५
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23. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १८
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