December 26, 2018 | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २८ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — द्वितीय भाग) अध्याय – २८ सत्यनारायण-व्रत के प्रसंग में साधु वणिक् एवं जामाता की कथा सूतजी बोले — ऋषियों ! अब मैं एक साधु वणिक् की कथा कहता हूँ । एक बार भगवान् सत्यनारायण का भक्त मणिपूरक नगर का स्वामी महायशस्वी राजा चन्द्रचूड अपनी प्रजाओं के साथ व्रतपूर्वक सत्यनारायण भगवान् का पूजन कर रहा था, उसी समय रतनपुर (रत्नसारपुर) —निवासी महाधनी साधु वणिक् अपनी नौका को धन से परिपूर्ण कर नदी-तट से यात्रा करता हुआ वहाँ आ पहुँचा । वहाँ उसने अनेक ग्राम-वासियों-सहित मणि-मुक्ता से निर्मित तथा श्रेष्ठ वितानादी से विभूषित पूजन-मण्डप को देखा, गीत-वाद्य आदि की ध्वनि तथा वेदध्वनि भी वहाँ उसे सुनायी पड़ी । उस रम्य स्थान को देखकर साधु वणिक् ने अपने नाविक को आदेश दिया कि यहीं पर नौका रोक दो । मैं यहाँ के आयोजन को देखना चाहता हूँ । इसपर नाविक ने वैसा ही किया । नाव से उतरकर उस वणिक् ने लोगों से जानकारी प्राप्त की और वह सत्यनारायण भगवान् की कथा-मण्डप में गया तथा वहाँ उसने उन सभी से पूछा — ‘महाशय ! आपलोग यह कौन-सा पुण्यकार्य कर रहे हैं ?’ इसपर उन लोगों ने कहा —‘हमलोग अपने माननीय राजा के साथ भगवान् सत्यनारायण की पूजा कथा का आयोजन कर रहे है । इसी व्रत के अनुष्ठान से इन्हें निष्कण्टक राज्य प्राप्त हुआ है । भगवान् सत्यनारायण की पूजा से धन की कामनावाला द्रव्य-लाभ, पुत्र की कामनावाला उत्तम पुत्र, ज्ञान की कामनावाला ज्ञान-दृष्टि प्राप्त करता है और भयातुर मनुष्य सर्वथा निर्भय हो जाता है । इनकी पूजा से मनुष्य अपनी सभी कामनाओं को प्राप्त कर लेता है ।’ यह सुनकर उसने गले में वस्त्र को कई बार लपेटकर भगवान् सत्यनारायण को दण्डवत प्रणाम कर सभासदों को भी सादर प्रणाम किया और कहा –‘ भगवन् ! मैं सन्ततिहीन हूँ, अत: मेरा सारा ऐश्वर्य तथा सारा उद्यम सभी व्यर्थ है, हे कृपासागर ! यदि आपकी कृपा से पुत्र या कन्या मैं प्राप्त करूँगा तो स्वर्णमयी पताका बनाकर आपकी पूजा करूँगा ।’ इसपर सभासदों ने कहा – ‘आपकी कामना पूर्ण हो ।’ तदनन्तर उसने भगवान् सत्यनारायण एवं सभासदों को पुनः प्रणामकर प्रसाद ग्रहण किया और हृदय से भगवान् का चिन्तन करता हुआ वह साधु वणिक सबके साथ अपने घर गया । घर आनेपर माङ्गलिक द्रव्यों से स्त्रियों ने उसका यथोचित स्वागत किया । साधु वणिक अतिशय आश्चर्य के साथ मङ्गलमय अन्तःपुर में गया । उसकी पतिव्रता पत्नी लीलावती ने भी उसकी स्त्रियोचित सेवा की । भगवान् सत्यनारायण की कृपा से समय आने पर बन्धु-बान्धवों को आनन्दित करनेवाली तथा कमल के समान नेत्रोंवाली उसे एक कन्या उत्पन्न हुई । इससे साधू वणिक अतिशय आनन्दित हुआ और उस समय उसने पर्याप्त धन का दान किया । वेदज्ञ ब्राह्मणों को बुलाकर उसने कन्या के जातकर्म और मंगलकृत्य सम्पन्न किये । उस बालिका की जन्मकुण्डली बनवाकर उसका नाम कलावती रखा । कलानिधि चन्दमा की कला के समान वह कलावती नित्य बढने लगी । आठ वर्ष की बालिका गौरी, नौ वर्ष की रोहिणी, दस वर्ष की कन्या तथा उसके आगे (अर्थात्) बारह वर्ष की बालिका प्रौढ़ा या रजस्वला कहलाती है । अष्टवर्षा, भ्रवेद्गौरी नववर्षा च रोहिणी ॥ दशवर्षा भवेत् कन्या ततः प्रौढ़ा रजस्वला । (प्रतिसर्गपर्व २ । २८ । २१-२२) समयानुसार कलावती भी बढ़ते-बढ़ते विवाह के योग्य हो गयी । उसका पिता कलावती को विवाह-योग्य जानकर उसके सम्बन्ध की चिन्ता करने लगा । काञ्चनपुर नगर में एक शंखपति नाम का वणिक् रहता था । वह कुलीन, रूपवान्, सम्पतिशाली, शील और उदारता आदि गुणों से सम्पन्न था । अपनी पुत्री के योग्य उस वर को देखकर साधु वणिक् ने शंखपति का वरण कर लिया और शुभ लग्न में अनेक माङ्गलिक उपचारों के साथ अग्नि के सांनिध्य में वेद, वाद्य आदि ध्वनियों के साथ यथाविधि कन्या उसे प्रदान कर दी, साथ ही मणि, मोती, मूँगा, वस्त्राभूषण आदि भी उस साधु वणिक् ने मंगल के लिये अपनी पुत्री एवं जामाता को प्रदान किये । साधु वणिक् अपने दामाद को अपने घर में रखकर उसे पुत्र के समान मानता था और वह भी पिता के समान साधु वणिक् का आदर करता था । इसप्रकार बहुत समय बीत गया । साधु वणिक् ने भगवान् सत्यनारायण की पूजा करनेका पहले यह संकल्प लिया था कि ‘सन्तान प्राप्त होनेपर मैं भगवान् सत्यनारायण की पूजा करूँगा’ पर वह इस बात को भूल ही गया । उसने पूजा नहीं की । कुछ दिनों के बाद वह अपने जामाता के साथ व्यापार के निमित्त सुदूर नर्मदा के दक्षिण तटपर गया और वहाँ व्यापारनिरत होकर बहुत दिनोंतक ठहरा रहा । पर वहाँ भी उसने सत्यदेव की किसीप्रकार भी उपासना नहीं की और परिणामस्वरुप भगवान् के प्रकोप का भाजन बनकर वह अनेक संकटों से ग्रस्त हो गया । एक समय कुछ चोरों ने एक निस्तब्ध रात्रि में वहाँ के राजमहल से बहुत-सा द्रव्य तथा मोती की माला को चुरा लिया । राजा ने चोरी की बात ज्ञात होनेपर अपने राजपुरुषों को बुलाकर बहुत फटकारा और कहा कि ‘यदि तुमलोगोने चोरों का पता लगाकर सारा धन यहाँ दो दिनों में उपस्थित नहीं किया तो तुम्हारी असावधानी के लिये तुम्हें मृत्यु-दण्ड दिया जायगा ।’ इसपर राजपुरुषों ने सर्वत्र व्यापक छान-बीन की, परन्तु बहुत प्रयत्न करनेपर भी वे उन चोरों का पता नहीं लगा सके । फिर वे सभी एकत्रित होकर विचार करने लगे –‘ अहो ! बड़े कष्ट की बात है, चोर तो मिला नहीं, धन भी नहीं मिला, अब राजा हमलोगों को परिवार को साथ मार डालेगा । मरनेपर भी हमें प्रेत-योनि प्राप्त होगी । इसलिए अब तो यही श्रेयस्कर है कि ‘हमलोग पवित्र नर्मदा नदी में डूबकर मर जाये । क्योंकि नर्मदा के प्रभाव से हमें शिवलोक की प्राप्ति होगी ।’ वे सभी राजपुरुष आपसमें ऐसा निश्चयकर नर्मदा नदी के तटपर गये । वहाँ उन्होंने उस साधु वणिक् को देखा और उसके कण्ठ में मोती की माला भी देखी । उन्होंने उस साधु वणिक् को ही चोर समझ लिया और वे सभी प्रसन्न होकर उन दोनों (साधु वणिक् और उसके जामाता) को धनसहित पकड़कर राजा के पास ले आये । भगवान् सत्यनारायण भी पूजा करनेमें असत्यका आश्रय लेने के कारण वणिक् के प्रतिकूल हो गये थे । इसीकारण राजाने भी विचार किये बिना ही अपने सेवकों को आदेश दिया कि इनकी सारी सम्पत्ति जब्त कर खजाने में जमा कर दो और इन्हें हथकड़ी लगाकर जेल में डाल दो । सेवकों ने राजाज्ञा का पालन किया । वणिक् की बातोंपर किसीने कुछ भी ध्यान नहीं दिया । अपने जामाता के साथ वह वणिक् अत्यन्त दुःखित हुआ और विलाप करने लगा – ‘हा पुत्र ! मेरा धन अब कहाँ चला गया, मेरी पुत्री और पत्नी कहाँ है ? विधाता की प्रतिकूलता तो देखो । हम दुःख-सागर में निमग्न हो गये । अब इस संकट से हमें कौन पार करेगा ? मैंने धर्म एवं भगवान् के विरुद्ध आचरण किया । यह उन्हीं कर्मों का प्रभाव है ।’ इस प्रकार विलाप करते हुए वे ससुर और जामाता कई दिनोंतक जेल में भीषण संताप का अनुभव करते रहे । (‘सत्यनारायणव्रत – कथा’ का पंचम अध्याय) (अध्याय २८) See Also :- 1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६ 2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१ 3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१ 4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व तृतीय – अध्याय २० 5. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व प्रथम – अध्याय ७ 6. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १ 7. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २ 8. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३ 9. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ४ 10. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ५ 11. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ६ 12. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ७ 13. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ८ 14. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ९ 15. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १० 16. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ११ 17. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १२ 18. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १३ 19. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १४ 20. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १५ 21. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १६ 22. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १७ 23. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १८ 24. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १९ 25. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २० 26. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २१ 27. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २२ 28. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २३ 29. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २४ 30. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २५ 31. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २६ 32. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २७ Related