भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय – ३२
बोपदेव के चरित्र-प्रसंग में श्रीमद्भागवत-माहात्म्य

सूतजी बोले — महामुने शौनक ! तोताद्रिमें एक बोपदेव बोपदेव विद्वान्, कवि, वैद्य और वैयाकरण ग्रंथाकार थे। इनके द्वारा रचित व्याकरण का प्रसिद्ध ग्रंथ ‘मुग्धबोध’ है। इनका लिखा कविकल्पद्रुम तथा अन्य अनेक ग्रंथ प्रसिद्घ हैं। ये ‘हेमाद्रि’ के समकालीन थे और देवगिरि के यादव राजा के दरबार के मान्य विद्वान् रहे। इनका समय तेरहवीं शती का पूर्वार्ध मान्य है। ये देवगिरि के यादव राजाओं के यहाँ थे। यादवों के प्रसिद्ध विद्वान् मंत्री हेमाद्रि पंत (हेमाड पंत) का उन्हें आश्रय था। “मुक्ताफल” और “हरिलीला” नामक ग्रंथों की इन्होंने रचना की। हरिलीला में संपूर्ण भागवत संक्षेप में आया है। उन्होंने मराठी में भाष्यग्रंथ लेखनशैली का श्रीगणेश किया। नाम के ब्राह्मण रहते थे । वे कृष्णभक्त और वेद-वेदाङ्गपारंगत थे । उन्होंने गोप-गोपियों से प्रतिष्ठित वृन्दावन-तीर्थ में जाकर देवाधिदेव जनार्दन की आराधना की । एक वर्ष बाद भगवान् श्रीहरि ने प्रसन्न होकर उन्हें अतिशय श्रेष्ठ ज्ञान प्रदान किया । उसी ज्ञान के द्वारा उनके हृदय में भागवती कथा का उदय हुआ ।om, ॐ जिस कथा को श्रीशुकदेवजी ने बुद्धिमान् राजा परीक्षित को सुनाया था, उस सनातनी मोक्ष-स्वरूपा कथा का बोपदेव ने ‘हरि-लीलामृत’ नाम से पुनः वर्णन किया । कथा की समाप्ति पर जनार्दन भगवान् विष्णु प्रकट हुए और बोले ‘महामते ! वर माँगों ।’ बोपदेव ने अतिशय स्नेहमयी वाणी में कहा – ‘भगवन ! आपको नमस्कार है । आप सम्पूर्ण संसारपर अनुग्रह करनेवाले है । आपसे देव, मनुष्य, पशु-पक्षी सभी निर्मित हुए है । नरक से दुःखी प्राणी भी इस कलियुग में आपके ही नामसे कृतार्थ होते हैं । महर्षि वेदव्यासरचित श्रीमद्भागवतका ज्ञान तो आपने मुझे प्रदान किया है, पुनः यदि आप वर प्रदान करना चाहते हैं तो उस भागवत का माहात्म्य मुझसे कहें ।’

श्रीभगवान् बोले — बोपदेव ! एक समय भगवान् शंकर पार्वती के साथ दम्भ और पाखण्ड से युक्त बौद्धों के राज्य प्राप्त होने पर काशी में उत्तम भूमि देखकर वहाँ स्थित हो गये । भगवान् शंकर ने आनन्दपूर्वक प्रणाम करते हुए कहा — ‘हे सच्चिदानन्द ! हे विभो ! हे जगत को आनन्द प्रदान करनेवाले ! आपकी जय हो ।’ इस प्रकार की वाणी सुनकर पार्वतीं ने भगवान् शंकर से पूछा – ‘भगवन ! आपके समान दूसरा अन्य देवता कौन है जिसे आपने प्रणाम किया ।’ इस पर भगवान् शिव ने कहाँ – ‘महादेवि ! यह काशी परम पवित्र क्षेत्र है, यह स्वयं सनातन ब्रह्मस्वरूप है, यह प्रणाम करने योग्य है । यहाँ मैं सप्ताह-यज्ञ (भागवत-सप्ताह-यज्ञ) करूँगा ।’ उस यज्ञ-स्थल की रक्षा के लिये भगवान् शंकर ने चण्डीश, गणेश, नन्दी तथा गुह्यकों को स्थापित किया और स्वयं ध्यान में स्थित होकर माता पार्वती से सात दिन तक भागवती कथा कहते रहे । आठवें दिन पार्वती को सोते देखकर उन्होंने पूछा कि ‘तुमने कितनी कथा सुनी ।’ उन्होंने कहा – ‘देव ! मैंने अमृत-मंथन-पर्यन्त विष्णु चरित्र का श्रवण किया ।’ इसी कथा को वहीँ वृक्ष के कोटर में स्थित शुकरूपी शुकदेव सुन रहे थे । अमृत-कथा के श्रवण से वे अमर हो गये । मेरी इस आज्ञा से वह शुक साक्षात् तुम्हारे हृदय में स्थित है । बोपदेव ! तुमने इस दुर्लभ भागवत-माहात्म्य को मेरे द्वारा प्राप्त किया है । अब तुम जाकर राजा विक्रम के पिता गन्धर्वसेन को नर्मदा के तटपर इसे सुनाओ । हरि-माहात्म्य का दान करना सभी दानों में उत्तम दान है । इस विष्णुभक्त बुद्धिमान् सत्पात्र को सुनाना चाहिये । भूखे को अन्न-दान करना भी इसके समान दान नहीं है । यह कहकर भगवान् श्रीहरि अन्तर्हित हो गये और बोपदेव बहुत प्रसन्न हो गये ।
(अध्याय ३२)

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