भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय – ३३
श्रीदुर्गासप्तशती के आदिचारित्र का माहात्म्य
(व्याधकर्मा की कथा)

ऋषियों ने पूछा — सूतजी महाराज ! अब आप हमलोगों को यह बतलाने की कृपा करें कि किस स्तोत्र के पाठ करने से वेदोंकें पाठ करने का फल प्राप्त होता है और पाप विनष्ट होते है ।
सूतजी बोले — ऋषियों ! इस विषय में आप एक कथा सुनें । राजा विक्रमादित्य के राज्य में एक ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम था कामिनी । एक बार वह ब्राह्मण श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ करने के लिये अन्यत्र गया हुआ था । इधर उसकी स्त्री कामिनी जो अपने नाम के अनुरूप कर्म करनेवाली थी, पति के न रहने पर निन्दित कर्म में प्रवृत्त हो गयी । फलतः उसे एक निन्द्य पुत्र उत्पन्न हुआ, जो व्याधकर्मा नाम से प्रसिद्ध हुआ । om, ॐवह भी अपने नाम के अनुरूप कर्म करनेवाला था, धूर्त था तथा वेद-पाठ से रहित था । उस ब्राह्मण ने अपनी स्त्री एवं पुत्र के निन्दित कर्म और पापमय आचरण को देखकर उन दोनों को घर से निकाल दिया तथा स्वयं धर्म में तत्पर रहते हुए विन्ध्याचल पर्वत पर प्रतिदिन चण्डीपाठ करने लगा । जगदम्बा के अनुग्रह से अन्त में वह जीवन्मुक्त हो गया ।

इधर वे दोनों माता-पुत्र (कामिनी और व्याधकर्मा) पूर्वपरिचित निषाद के पास चले गये और वहीँ निवास करने लगे । वहाँ भी वे दोनों अपने निन्दित आचरण को छोड़ न सके और इन्हीं बुरे कर्मों से धन-संग्रह करने लगे । व्याधकर्मा चौर्य-कर्म में प्रवृत्त हो गया । ऐसे ही भ्रमण करते हुए दैवयोग से एक दिन वह व्याधकर्मा देवी के मन्दिर में पहुँचा । वहाँ एक श्रेष्ठ ब्राह्मण श्रीदुर्गासप्तशती का पाठ कर रहे थे । दुर्गापाठ के आदिचरित (प्रथमचरित्र) के किञ्चित् पाठमात्र के श्रवण से उसकी दुष्टबुद्धि धर्ममय हो गयी, फलतः धर्मबुद्धि-सम्पन्न उस व्याधकर्मा ने उस श्रेष्ठ विप्र का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया और अपना सारा धन उन्हें दे दिया । गुरु की आज्ञा से उसने देवी के मन्त्र का जप किया । बीजमन्त्र के प्रभाव से उसके शरीर से पापसमूह कृमि के रूप में निकल गये । तीन वर्ष तक इस प्रकार जप करते हुए वह निष्पाप श्रेष्ठ द्विज हो गया । इसी प्रकार मन्त्र-जप और आदि चरित्र का पाठ करते हुए उसे बारह वर्ष व्यतीत हो गये । तदनन्तर वह द्विज काशी में चला आया । मुनि एवं देवों से पूजित महादेवी अन्नपूर्णा का उसने रोचनादि उपचारों के द्वारा पूजन किया और उनकी इस प्रकार स्तुति की —

“नित्यानन्दकरी पराभयकरी सौन्दर्यरत्नाकरी
निर्धूताखिलपापपावनकरी काशीपुराधारीश्वरी ।
नानालोककरी महाभयहरी विश्वम्भरी सुन्दरी
विद्यां देहि कृपावलम्बनकरी मातान्नपूर्णेश्वरी ॥”

(प्रतिसर्गपर्व २ । ३३ । २९)
‘हे काशीपुरी की अधीश्वरी अन्नपूर्णेश्वरी ! आप नित्य आनन्ददायिनी हैं । शत्रुओं से अभय प्रदान करनेवाली हैं तथा आप सौन्दर्यरत्नों की निधान और समस्त पापों को नष्ट कर पवित्र कर देनेवाली हैं । हे सुन्दरी ! आप सम्पूर्ण लोकों की रचना करनेवाली, महान्-महान् भयों को दूर करनेवाली, विश्वका भरण-पोषण करनेवाली तथा सबके ऊपर अनुग्रह करनेवाली हैं । हे मातः ! आप मुझे विद्या प्रदान करें ।’

इस स्तुति का एक सौ आठ बार जपकर ध्यान में नेत्रों को बन्दकर वह वहीँ सो गया । स्वप्न में उसके सम्मुख अन्नपूर्णा शिवा उपस्थित हुई और उसे ऋग्वेद का ज्ञान प्रदान कर अन्तर्हित हो गयी । बाद में वह बुद्धिमान् ब्राह्मण श्रेष्ठ विद्या प्राप्त कर राजा विक्रमादित्य के यज्ञ का आचार्य हुआ । यज्ञ के बाद योग धारण कर हिमालय चला गया ।

हे विप्रो ! मैंने आप लोगों को देवी के पुण्यमय आदि-चरित्र के माहात्म्य को बतलाया, जिसके प्रभाव से उस व्याधकर्मा ने ब्राह्मी-भाव प्राप्तकर परमोत्तम सिद्धि को प्राप्त कर लिया था ।
(अध्याय ३३)

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3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१

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5. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व प्रथम – अध्याय ७
6. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १
7. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २
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26. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २१
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