December 28, 2018 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय ३ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग) अध्याय – ३ राजा भोज और महामद की कथा सूतजी ने कहा — शालिवाहन के वंश में दश राजाओं ने क्रमशः जन्म ग्रहणकर पाँच सौ वर्ष तक राज्य का उपभोग किया है । पश्चात् वे स्वर्गगामी हो गये । उन लोगों के राजकाल में मर्यादा क्रमशः विलीन होती गई, यहाँ तक कि दशवें राजा भोज के समय मर्यादा इस भूतल में नाममात्र रह गई थी । उस बली राजा ने मर्यादा को नष्ट-भ्रष्ट देखकर दिग्विजय के लिए प्रस्थान कर दिया, जिसमें दश सहस्र सेना के साथ कालिदास भी थे । अन्य ब्राह्मणों को भी साथ रखकर वह राजा सर्वप्रथम सिन्धु नदी के पार पहुँचकर गान्धार प्रदेश के म्लेच्छों और काश्मीर के (नारव) दुष्टों पर विजय प्राप्ति पूर्वक उनके कोषों (खजानों) को दण्डरूप में अपनाते हुए आगे बढ़ा । उसी समय ‘महामद’ (मोहम्मद) नामक म्लेच्छों का आचार्य (गुरु) अपने शिष्यों समेत प्रचार कर रहा था । राजा भोज भी मरुस्थल प्रदेश में स्थित शिव जी की पूजा पञ्चगव्य समेत गंगाजल एवं चन्दनादि से सुसम्पन्न करके उनकी स्तुति करने लगे । भोजराज बोले — “नमस्ते गिरिजानाथ मरुस्थलनिवासिने । त्रिपुरासुरनाशाय बहुमायाप्रर्वित्तने ॥ म्लेच्छैर्गुप्ताय शुद्धाय सच्चिदानन्दरूपिणे । त्वं मां हि किङ्करं विद्धि शरणार्थमुपागतम् ॥” (प्रतिसर्गपर्व ३ । ३ । ७-८) ‘मरुभूमि के निवासी गिरिजापति को नमस्कार है, जिन्होने अत्यन्त माया के प्रवर्तक त्रिपुरासुर का नाश किया है, म्लेच्छों द्वारा रक्षित शुद्ध एवं सच्चिदानंद रूप हैं । मैं आपका सेवक हैं, आपकी शरण में उपस्थित हैं ।’ सूत जी बोले — इस स्तुति को सुनकर शिव जी ने राजा से कहा — भोजराज ! आप महाकालेश्वर स्थान के वाह्लीक नामक भूमि प्रदेश में जाइये, वह भूमि म्लेच्छों द्वारा दूषित हो रही है । उस भीषण ‘वाह्लीक प्रान्त’ में आर्यधर्म नहीं है । यहाँ बलि दैत्य से प्रेषित यही त्रिपुरासुर पुनः आ गया है, जिस महामायावी को मैंने भस्म कर दिया था । वह अयोनि से उत्पन्न, श्रेष्ठ, एवं दैत्यवंश का वर्द्धक है । ‘महामद’ (मुहम्मद) उसका नाम है, जो सदैव पिशाच कर्म ही करता रहता है । अतः राजन् तुम इस धूर्त एवं पिशाच के प्रदेश में मत ठहरो, मेरी कृपा से तुम्हारी शुद्धि हो जायगी । इसे सुनकर राजा अपने देश के लिए चल दिये । अपने शिष्यों समेत महामद भी सिन्धु नदी के तट पर आया । उस कुशल मायावी ने प्रेम भाव से राजा से कहा — महाराज ! आपके देव मेरे दास हैं, नृप ! देखिये ये मेरा उच्छिष्ट भोजन करते हैं । इसे देख सुनकर राजा को महान् आश्चर्य हुआ और वह भी उस भीषण म्लेच्छ-धर्म का अनुयायी होने के लिए सोचने लगा । उस समय कालिदास ने क्रुद्ध होकर महामद से कहा — धूर्त ! राजा को मोहित करने के लिए यह तुम्हारी माया है, अतः तुम ऐसे दुराचारी एवं वाह्लीक के अधमाधम का मैं वध कर दूंगा । इतना कहकर वह ब्राह्मण नवार्ण मन्त्र का दश सहस्त्र जप करने के उपरान्त उसके दशांश से आहुति-प्रदान करने लगा । उसी में वह भस्म होकर म्लेच्छों का देवता हो गया । पश्चात् उसके सभी शिष्यगण भयभीत होकर वाह्लीक देश चले गये । वहाँ अपने गुरु (मुहम्मद) का भस्म ले जाकर भूमि के मध्य (नीचे) स्थापित करके वे लोग शान्त हो गये । उस स्थान को ‘मदहीन पुर’ (मदीना) — के नाम से स्थापित किया । वही उन लोगों का तीर्थ स्थान है । रात्रि के समय वह मायावी देव पिशाच रूप से भोज से कहने लगा — राजन् ! तुम्हारा आर्यधर्म सभी धर्मों से उत्तम है । मैं तो ईशा की आज्ञावश इस दारुण धर्म का प्रचार कर रहा हूँ — लिंग कटाना, शिखा (चोटी) हीन होकर केवल दाढ़ी रखना, बड़ी बड़ी बाते करना और सर्वभक्षी मेरे वर्ग के लोग होंगे । उनके कौलतन्त्र के बिना ही पशुओं के भक्षण करेंगे, कुश के स्थान पर मूसल द्वारा अपने सभी संस्कार करेंगे । इसीलिए यह मुसलमान जाति धर्मदूषक कही जायगी । इस प्रकार का पैशाच धर्म मैं विस्तृत करूँगा इतना कहकर वह चला गया और राजा भी अपने घर लौट आये । राजा ने तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, एवं वैश्यों) में इन्होंने स्वर्गप्रद संस्कृत वाणी और शूद्रों में प्राकृत भाषा स्थापित की । पश्चात् पचास वर्ष राज करने के उपरान्त स्वर्गगामी हो गये । उन्होंने ही सर्व देवों की मर्यादा तथा विन्ध्य हिमालय के मध्य प्रदेश की पुण्य भूमि में आर्यावर्त नामक देश स्थापित किया । वहाँ आर्य जाति के लोग रहते हैं और विन्ध्य के अन्त में वर्णसंकर गण तथा सिन्धुपार के मुसलमानों को भी स्थान दिया। ईसामसीह धर्म, वर्वर, तुष तथा सभी द्वीपों में देव एवं राजाओं की भाँति स्थापित हो गया । (अध्याय ३) See Also :- 1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६ 2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१ 3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१ 4. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३५ 5. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय १ 6. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय २ Related