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भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय ५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग)
अध्याय – ५
पृथ्वीराज व जयचन्द्र

सूत जी बोले — इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) के राजा अनंगपाल ने पुत्रार्थ (पुत्रेष्टि नामक) यज्ञ का सविधान अनुष्ठान आरम्भ किया । भगवान् शिव की प्रसन्नता से चन्द्रकान्ति और कीर्तिमालिनी, नामक दो कन्याएँ उत्पन्न हुईं । पिता ने चन्द्रकान्त का पाणिग्रहण कान्यकुब्ज (कन्नौज) के अधीश्वर राजा देवपाल से सुसम्पन्न कराया, जो शुद्ध एवं राष्ट्रपाल के कुल में उत्पन्न था । उसी प्रकार कीर्तिमालिनी का पाणिग्रहण राजा सोमेश्वर के साथ सुसम्पन्न हुआ, जो चपहानि (चौहान) कुल में उत्पन्न होकर अजमेर का अधीश्वर था । उस समय जय शर्मा नामक कोई ब्राह्मण हिमालय पर्वत पर समाधिस्थ होकर कठिन तप कर रहा था । om, ॐराजा के यहाँ उस राज महोत्सव को देखकर उसे भी राजा होने की इच्छा हुई । पश्चात् उस शुद्धात्मा ने देह परित्याग कर पुनः चन्द्रकान्त के गर्भ से जन्म ग्रहण किया, जो जयचन्द्र के नाम से ख्यातिप्राप्त, बलशाली एवं संयमी था । उसके कनिष्ठ (छोटे) भ्राता का नाम रत्नभानु था, जो शूर और पराक्रमी था । उसने गौड, बंग आदि और मरुदेश के मदान्ध राजाओं पर विजय प्राप्ति समेत उनसे दण्ड-कर ग्रहण करते हुए अपने घर आकर अपने भाई की आज्ञा से सेवा शिरोधार्य की ।

गंगासिंह की वीरमती नामक भगिनी रत्नभानु की प्रधान स्त्री हुई, जिसके गर्भ से शिव की आज्ञा वश नकुल का अंश लक्ष्मण के नाम से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, जो बलवान् एवं खड्ग युद्ध में अत्यन्त निपुण था । वह सात वर्ष की अवस्था में ही अपने पिता के समान दिखाई देने लगा ।

कीर्तिमालिनी के धुंधकार, कृष्णकुमार और पृथ्वीराज नामक तीन पुत्र उत्पन्न हुए । पृथ्वीराज सबसे छोटा था जो बारह वर्ष की और अधिक अवस्था हो जाने पर सिंह खेल नामक अपने पिता के यहाँ पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ था । उसे सुनकर अनंगपाल ने अपना राज्य उसे समर्पित कर दिया और स्वयं हिमालय पर्वत पर जाकर योगाभ्यास करने लगा । मथुरा का राजा धुंधकार और अजमेर का राजा उसका छोटा भाई हुआ । ये दोनों अपने पिता की आज्ञा प्राप्तकर राजसिंहासन पर बैठ गये । चन्द्रवंश के प्रद्योत और विद्योत नामक दो क्षत्रिय कुमारों ने पृथिवीराज के राजमंत्री का पदभार ग्रहण किया, जो बलवान् एवं मदोत्कट थे ।

प्रद्योत के पुत्र का नाम परिमल था, जो स्वयं बली तथा उसी राजा द्वारा उसकी एक लक्ष सेना का अधिनायक हुआ था एवं विद्योत से उत्पन्न भीष्मसिंह गजराजो की सेनाओं का अधिपति हुआ । राजा अनंगपाल के स्वर्गीय होने पर राजा पृथ्वीराज ने उन सबको अपने प्रतिकूल देखकर राज्य से निकाल दिया । प्रद्योत आदि वे चारों अपने दो सौ सूर-वीरों समेत कान्यकुब्जपुर (कन्नौज) में राजा जयचन्द्र के पास पहुँचकर कहने लगे — राजा जयचन्द्र ! आपकी मातृ-भगिनी (मौसी) का पुत्र आपके मातामह (नाना) के राज्य का उपभोग निर्भय होकर कर रहा है । हम लोगों ने न्यायतः उस राजा से कहा — आप इस राज्य के आधे भाग के ही अधिकारी हैं अतः सम्पूर्ण राज्य का उपभोग आप कैसे कर रहे हैं ? इसे सुनकर उसने हमलोगों को निकाल दिया । हम लोग अब आपकी शरण को प्राप्त हुए हैं, जैसा उचित हो, कीजिए ।

इसे सुनकर राजा जयचन्द्र ने उन लोगों से कहा — मेरी अश्वसेना के अधिनायक तुम्हारे दोनों पुत्र बना दिये गये और परिमल से कहा कि — आप इस समय विद्योत समेत मेरे मंत्रीपद का भार ग्रहण करें । भीष्मक गज सेना का अधिपति बनाया गया । आप लोगों की जीविका के निमित्त वह महावती नामक पुरी प्रदान की गई है, जो राजा महीपति (माहिल) की अत्यन्त प्रिय नगरी है । यह सुनकर वे सब अत्यन्त हर्ष निमग्न हुए । राजा महीपति (माहिल) बलवान होते हुए भी अत्यन्त दुःख के साथ उस पुरी का त्यागकर उर्वी (उरई) नामक नगर में आकर रहने लगे । उनकी अगमा और मलना (मल्हना)— नाम की दो बहिनें थीं अगमा का पाणिग्रहण भूमिराज (पृथ्वीराज) से, मलना का पणिग्रहण परिमल के साथ सुसम्पन्न हुआ । विवाह हो जाने के उपरान्त भूमिराज (पृथ्वीराज) —ने एक अन्य दुर्ग (किले) का निर्माण कराया और चारों वर्णों के मनुष्यों को निवासी बनाकर अपनी पुरी को सुसज्जित करा दिया । उस दुर्ग के द्वार पर शुभ मुहूर्त में उन्होने (देहली) (सुंरग) लगवाई, जो एक योजन (चार कोस) तक विस्तृत होती हुई अधिक दिनों में सुसम्पन्न की गई थी । उसे देखकर राजा स्वयं विस्मित हुए और उसका देहली नाम रखा । उस दिन से राजा की आज्ञा वश वह देहली (दिल्ली) ग्राम के नाम से ख्यात होने लगी ।

विप्र ! तीन वर्ष के उपरान्त राजा जयचन्द्र ने अपनी सोलह लाख सेनाओं को सुसज्जित करके वहाँ पत्र भेजा — पृथ्वीराज ने मेरे दाय भाग का अपहरण क्यों किया, अब तक मुझे क्यों नहीं दे दिया ? अस्तु अब भी मेरे मातामह (नाना) के राज्य का अर्धभाग दाय रूप में मुझे शीघ्र प्रदान करें, अन्यथा मेरे कठिन अस्त्रों द्वारा उनका सैनिक बल नष्ट कर दिया जायगा । पत्र को देखकर मदांध महीराज (पृथ्वीराज) ने भी जो बीस लाख की सेना को सुसज्जित किया तथा दूत भेजकर कहा — राजा जयचन्द्र ! सावधान होकर मेरी बातें सुनो ! जिस समय मैंने उन चन्द्रवंशी क्षत्रियों को अपने यहाँ से निकाल दिया था, उसी समय से मैंने बीस लाख सेना का सुसंगठन करना आरम्भ किया था, जो इस समय भली-भाँति सुसज्जित है । तुमने तो केवल सोलह लाख ही सेना की सहायता से युद्ध करने की तैयारी की है । भारत के सभी राजा दण्डित होने के नाते सदैव मुझे दण्डकर देते हैं केवल एक तुम ही अपने को बलवान् समझने के नाते कर नहीं देते । किन्तु अब उसे शीघ्र प्रदान करो, अन्यथा मेरे कठिन बाणों द्वारा तुम्हारी सेना नष्ट हो जायगी । इसे जानकर इन दोनों में इस भूतल में अनुपम वैर उत्पन्न हुआ । भूमिराज (पृथ्वीराज) बलवान् होकर भी जयचन्द्र के भय से दुःखी हो रहे थे और जयचन्द्र भी बली होते हुए पृथ्वीराज से भयभीत हो रहा था । जयचन्द्र ने आर्य देश (भारत) का आधा राज्य अपनाया था और पृथ्वीराज ने शेष आधे भाग को । इसी विषय को लेकर दोनों में महान वैर उत्पन्न हुआ जिससे अग्निवंश का समूल नाश हो गया ।

आगे चलकर इसी प्रकार सम्पूर्ण घटनाएँ घटित हुई । कौरवांशों की पराजय और पाण्डवांशों की विजय हुई । अन्त में पृथ्वीराज चौहान ने वीरगति प्राप्त की तथा सहोड्डीन (मोहम्मद गोरी) अपने दास कुतुकोड्डीन को यहाँ का शासन सौंपकर यहाँसे बहुत-सा धन लूटकर अपने देश चला गया ।
(अध्याय ५)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१

4. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३५
5. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय १
6. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय २
7. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय ३
8. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय ४

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