December 29, 2018 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय ६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग) अध्याय – ६ संयोगिनी का अपहरण सूत जी बोले — एक बार रत्नभानु (रतीमान्) ने पृथ्वीराज के राज्य के दक्षिणी प्रदेश पर विजय प्राप्तकर उसके कोष (खजाने) का अपहरण कर लिया था । उसे सुनकर पृथ्वीराज को अत्यन्त आश्चर्य हुआ । रत्नभानु का तिलक अत्यन्त विस्तृत रूप में था । इसीलिए उस कल्याणमूर्ति वीरमती को तिलका भी कहते थे, बारह रानियों में प्रधान एवं लक्षण (लषन) की जननी थी । राजा जयचन्द्र की सोलह रानियाँ थीं, किन्तु जन्मान्तरीय दुर्विपाक वश किसी के कोई सन्तान न थी। उनकी प्रधान रानी जिसका नाम ‘दिव्य विभावरी’ था, गौड़ भूप की कन्या थी । उनकी साथ की आई हुई दासी का नाम ‘सुरभानवी’ था, रूप-यौवन सम्पन्न एवं रतिक्रीड़ा में अत्यन्त निपुण थी । उसे देखकर राजा जयचन्द्र अपनी काम-पीड़ा को सहन न कर सकने के नाते उसके साथ खूब रमण किया । सुरभानवि से उसके “संयोगिनी” नामक एक कन्या उत्पन्न हुई । बारह वर्ष की अवस्था में ही वह कन्या अप्रतिम सर्वाङ्ग सुन्दरी दिखायी देने लगी । उस समय उसके स्वयम्वर के लिए राजा ने सभी देशों के राजाओं को निमंत्रित किया । बलवान् पृथ्वीराज भी उसके उत्तम सौन्दर्य की प्रशंसा सुनकर स्थिर न रह सके । उससे विवाह सम्बन्ध स्थापित करने के उद्देश्य से चन्द्रभट्ट (चन्दवरदाई भाँट) को बुलाकर कहा— मंत्रिश्रेष्ठ, चन्द्रभट्ट ! मेरे प्रिय ! कान्यकुब्ज (कन्नौज) पुरी में जाकर मेरी सुवर्ण की मूर्ति वहाँ सभा में स्थापित करना, उसके विषय में जैसा वहाँ का वृत्तान्त हो मुझसे कहना । भृगुश्रेष्ठ ! भगवती के अनन्य भक्त चन्द्रभट्ट ने जैसा कहा गया था, वैसा ही उस कार्य को पूरा किया । उस स्वयम्बर में अनेक देशों के राजागण उपस्थित थे, किन्तु संयोगिनी ने उन सबका त्यागकर केवल पृथिवीराज की उस प्रतिमा-सौन्दर्य पर मुग्ध होकर अपने पिता से कहा — ‘नृप ! जिस राजा की यह मूर्ति है, सर्वलक्षण सम्पन्न वही राजा मेरा पति होगा ।’ इसे सुनकर जयचन्द्र ने चन्द्रभट्ट से कहा — यदि तुम्हारा राजा सभी सेनाओं के साथ यहाँ आकर युद्ध में इस पर विजय प्राप्तकर सके, तो मैं अत्यन्त प्रसन्न होऊँगा । चन्द्रभट्ट ने उसे सुनकर पृथ्वीराज से उसका आनुपूर्वी वर्णन किया । पृथ्वीराज ने शीघ्र अपनी सेनाओं को सुसज्जित होने के लिए आज्ञा प्रदान किया । उस सेना में एक लाख गजराज के सैनिक, सात लाख अश्वारोही, पाँच सहस्र रथ वाले, जो धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुण थे, बारह लाख पैदल सैनिक थे और तीन सौ राजा पृथ्वीराज के साथ चल रहे थे । अपने दोनों भाइयों को साथ लेकर राजा पृथ्वीराज कान्यकुब्ज (कन्नौज) की पुरी में पहुँच गये । उस सेना में धुंधुकार गज सेनानायक और अश्वारोही सेना के अधिपति बलवान् कृष्णकुमार बनाये गये थे तथा पैदल की सेनाओं के अधिनायक राजा लोग बनाये गये थे । उसमें इतना महान् कोलाहल हो रहा था, जिससे पृथ्वी निःशब्द मालूम होती थी । बीस कोश की भूमि में वह सेना घेरा डाले पड़ी थी । पश्चात् राजा जयचन्द्र पृथ्वीराज का आगमन सुनकर अपनी सोलह लाख की सेना को सुसज्जित होने का आदेश दिया । उस सेना में एक लाख गज सैनिक, सात लाख पैदल, आठ लाख अश्वारोही जो सभी भाँति के युद्ध में कुशल थे, तथा दो सौ राजा उनकी सहायता के लिए उपस्थित थे । वे चन्द्रवंशी राजागण पृथ्वीराज को अपराधी जानकर चारों ओर से युद्ध के लिए कटिबद्ध हो गये । ईश नदी के दूसरे तट पर संयोगिनी का ढोला (डोला) रखा गया, जहाँ मधुरध्वनि वाले अनेक बाजे बज रहे थे । गजसेना नायक रत्नभानु और रूपानीक लषन (लखन) नामक इन दोनों सेनापतियों द्वारा उस डोला की रक्षा हो रही थी । प्रद्योत और विद्योत रत्नभानु की रक्षा कर रहे थे, और चन्द्रवंशी भीष्म तथा परिमल लषन की । राजा की पैदल सेनाएँ मदान्ध होकर भीषण-रूप धारण कर सेना का वध करने लगीं । उस युद्ध में घोड़े द्वारा घोड़े की, हाथी द्वारा हाथी की और पैदल द्वारा पैदल सेना के योधाओं की मृत्यु होने लगी । केवल राजा लोग उस युद्ध की रक्षा निर्भय होकर कर रहे थे । जब तक सूर्य आकाश मण्डल में स्थित रहते थे, तब तक युद्ध होता था । इस प्रकार वह वीर नाशक युद्ध पाँच दिन तक होता रहा जिसमें पृथिवीराज के दश सहस्र गजराज, एक लाख घोड़े, पाँच लाख पैदल की सेना, दो सौ राजा और तीन सो रथारोही का निधन हुआ और कन्नौज के राजा जयचन्द्र के नव सहस्र गजराज, एक सहस्र रथ, तीन लाख पैदल और एक लाख अश्वारोही सैनिकों का निधन हुआ । छठे दिन राजा पृथ्वीराज ने अत्यन्त दुःखी होकर भगवान् शंकर की मानसिक आराधना की । प्रसन्न होकर महादेव जी ने जयचन्द्र की सेना को मोहित कर दिया । उस समय प्रसन्न होकर पृथ्वीराज संयोगिनी के पास जाकर उसके रूप-सौन्दर्य को देखते ही मुग्ध हो गया और संयोगिनी भी उसे देखकर उसी समय मोह मूर्च्छित हो गई । उसी बीच राजा ने बलपूर्वक उस डोले को साथ लेकर सेनाओं समेत देहली (दिल्ली) के लिए प्रस्थान कर दिया । एक योजन (चार कोस) तक उनके चले आने पर (जयचन्द्र) के मदान्ध सैनिकों की आँखें खुलीं । वहाँ डोला न देखकर वे सब अत्यन्त वेग से पीछा करने लगे । उनके कोलाहल (शोर) को सुनकर राजा पृथ्वीराज अपनी आधी सेना वहाँ रखकर स्वयं अपने घर चले गये । उनकी आधी सेना समेत उनके दोनों भाइयों ने बाराह क्षेत्र में युद्ध के लिए सन्नद्ध होकर सेना समेत आये हुए प्रद्योतादि महाबलवानों के साथ महान् युद्ध आरम्भ कर दिया । घोड़े का घोड़ों के साथ, हाथी का हाथियों के साथ भीषण एवं रोमांचकारी युद्ध आरम्भ हुआ । संध्या होते-होते दोनों ओर की सेनाओं का अत्यन्त नाश हो गया । उस अंधेरी रात में शेष बचे हुए पृथ्वीराज के सैनिक भयभीत होकर देहली (दिल्ली) भाग गये, किन्तु प्रद्योत आदि योद्धाओं ने वहाँ भी उनका पीछा नहीं छोड़ा । वहाँ पुनः भीषण युद्ध आरम्भ हुआ । उस युद्ध में धुंधुकार ने प्रद्योत के हृदय में बाण-प्रहार किया । इस प्रकार उनके विषाक्त तीन बाणों द्वारा क्षत-विक्षत (घायल) होकर प्रद्योत का प्राण विसर्जन हो गया । भ्राता का निधन देखकर महाबली विद्योत ने अपनी हाथी बढ़ाकार धुंधुकार पर प्रहार किया । उनके तीन बार तोमर नामक अस्त्र द्वारा प्रहार करने पर वे मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े । अपने भाई धंधुकार को मूर्च्छित देखकर कृष्णकुमार ने अपना हाथी बढ़ाया । क्रुद्ध होकर उस वीर पर भाले का प्रहार किया जिससे वह मृतक होकर चला गया । सेनानायक विद्योत के निधन होने पर महापराक्रमी रत्नभानु ने युद्ध प्रारम्भ कर दिया । उसी समय धुंधुकार (धांधू) एक सहस्र गज सेना लेकर लषन से युद्ध करने लगा, जिसकी सहायता भीष्म और परिमल कर रहे थे । शिव का वरदान प्राप्त उस राजा ने उन तीनों – भीष्म, परिमल और लषन को अपने रुद्रास्त्र द्वारा मूर्च्छित कर दिया । रत्नभानु (रतीभान) ने उन्हें मूर्च्छित देखकर अपने वैष्णवास्त्र द्वारा धंधुकार (धांधू) को मूर्च्छित कर कृष्णकुमार के साथ युद्धारम्भ किया । वे दोनों समान बली, वीर एवं गजराज पर स्थित थे । अपनी कला-कुशलता से उन्होंने एक दूसरे के गज का निधन कर दिया । पश्चात् भूतल में स्थित होकर हाथ में खड्ग लेकर उन दुर्मदान्धों ने युद्ध करते हुए अनेक मार्गों का निर्माण किया और उसी रण-स्थल में एक दूसरे पर घात-प्रतिघात करते हुए प्राण विसर्जन किया । उन दोनों के निधन होने पर कान्यकुब्ज (कन्नौज) के सैनिक भयभीत होकर उन तीनों को तथा बची हुई पाँच लाख सेना को लेकर अपने घर चले आये । शोकग्रस्त होकर राजाओं ने रत्नभानु के स्वर्गीय होने पर और भी हतोत्साह का अनुभव किया । अनन्तर पृथ्वीराज के भय से अपने अपने घर जाकर वे राजागण अपने इष्टदेवों की आराधना करने लगे । बलवान् पृथ्वीराज ने अपनी शेष सात लाख की सेना और धुंधुकार को साथ लेकर घर जाकर अपने भाई की अन्त्येष्टि क्रिया प्रारम्भ की और भीष्म, परिमल एवं लषन ने गंगाजी के तट पर पहुँचकर अपने पिता का अन्तिम संस्कार सुसम्पन्न किया । इस प्रकार रण-स्थल में पृथ्वीराज की विजय और जयचन्द्र का यश इस भूतल में घर-घर के प्रत्येक मनुष्यों में व्याप्त हो गया । जयचन्द्र ने कान्यकुब्ज (कन्नौज) तथा पृथ्वीराज ने देहली (दिल्ली) में अनुपम उत्सव को सुसम्पन्न करके परम आनन्द की प्राप्ति की । (अध्याय ६) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to 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