December 29, 2018 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय ७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग) अध्याय – ७ राजागणों द्वारा अपने इष्टदेवों की आराधना सूत जी बोले — भीष्मसिंह ने गंगा जी के तट पर इन्द्र की पूजा करना आरम्भ किया । पश्चात् इन्द्र को सूर्यमय जानकर तप द्वारा उन्हें प्रसन्न किया । एक मास के उपरान्त भगवान् इन्द्र ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर उनसे कहा — वर की याचना कीजिये । उसे सुनकर उस शूरवीर ने कहा — यदि आप प्रसन्न हैं, तो मुझे एक दिव्य वडवा (घोडी) देने की कृपा कीजिये । इसे सुनकर उन्होंने एक ‘शुभ-हरिणी’ नामक वडवा (घोड़ी) — उन्हें प्रदान की । भगवान् इन्द्र उसके पश्चात् उसी स्थान पर अन्तर्हित हो गये । उसी समय परिमल ने पिता के शोक से दुःखी होकर पार्थिव पूजन द्वारा उमापति महादेव की आराधना करना आरम्भ किया था । उनकी परीक्षा करने के लिए शिव जी ने उन्हें सर्परोग से पीड़ित कर दिया । पाँचवें मास की समाप्ति तक राजा एकदम शक्तिहीन हो गया, किन्तु उस महादुःख से दुःखी होने पर भी उन्होंने उस पूजन का त्याग नहीं किया । पश्चात् मरण के निमित्त उस राजा ने अपनी पत्नी समेत काशी को प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचने पर उस रात्रि उस रोग से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी वटवृक्ष के नीचे ही शयन किया । उसी बीच उस वट के मूल भाग में रहने वाले एक सर्प ने मधुर ध्वनि किया । उसे सुनकर रुद्रसर्प (रोगी के अन्दर रहने वाला) वहाँ आया । उससे उसने कहा— तुम बड़े निर्दयी एवं मूर्ख हो, दुष्ट ! इस शिव भक्त राजा को तू नित्य पीड़ित करता है । यह राजा भी मूर्ख ही है, नहीं तो इसे अब तक कभी (इस रोग से मुक्ति पाने के लिए) आरनाल का पान कर लेना चाहिए । इसे सुनकर उस रुद्रपन्नग ने उससे कहा — रे नीच पन्नग ! राजा के इस देह में मुझे नित्य परमानन्द की प्राप्ति होती है । अतः शठ ! मैं इसका त्याग कैसे कर सकता हूँ, क्योंकि अपने, घर का त्याग दुःख के कारण ही किया जाता है । राजा भी मूर्ख ही है, जो तुम्हारे बिल में तेल गरम करके नहीं डाल देता । इतना कहकर वह पुनः राजा की देह के भीतर चला गया । पश्चात् उस साध्वी मलना (मल्हना) रानी ने उस सर्प के बताये हुए उपाय को सुसम्पन्न किया उससे राजा का रोग विनष्ट हो गया और उसकी बिल को गरम तेल से भरकर वह रानी स्वयं उसे खोदने भी लगी । उससे एक अंगुष्ठमात्र का शिव लिंग उत्पन्न हुआ, जो सनातन, आकाश रूप, सच्चिदानन्द रूप एवं सर्वलक्षण सम्पन्न था । उस अंधेरी रात के आधी रात के समय भी उसके निकलने से दिशाओं में प्रकाश सूर्योदय के समान ही दिखाई देने लगा । उसे देखकर राजा आश्चर्यचकित होकर शंकर जी की पूजा करने लगे । उन्होंने महिम्न पाठ द्वारा गिरिजापति की स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर भगवान् ने उनसे वरयाचना के लिए कहा उसे सुनकर राजा ने कहा — देव, महेश्वर! यदि आप मुझपर अनुग्रह करना चाहते हैं, तो मेरी इच्छापूर्ति के लिए ‘श्रीपति’ मेरे घर में निवास करें । इतना कहकर महादेव लिङ्गरूप धारणकर अपने शरीर से एक भार सुवर्ण प्रतिदिन राजा को देने लगे और प्रसन्न होकर राजा परिमल भी अपने घर महावती पुरी आकर भीष्मसिंह समेत परम आनन्द से रहने लगे । एक वर्ष के उपरान्त वे राजा जयचन्द्र के यहाँ गये । राजा ने परिमल को देखकर अपने को कृतकृत्य समझ कर कहा – परम सौभाग्य है कि आप स्वस्थ हो गये और आज मुझे आपके प्रसन्न मुख का दर्शन मिला । अब आप, अपने नगर में जाकर सुखपूर्वक रहो, किसी विप्न-बाधा के उपस्थित होने पर बुलाऊँगा, तब आइयेगा । इसे सुनकर परिमल अपने यहाँ जाकर सुख का अनुभव करने लगे । उस समय लक्षण (लषन) भी ऊषापति भगवान् विष्णु की उपासना कर रहे थे । एक पखवारे के व्यतीत होने पर ऊषापति जगन्नाथ विष्णु भगवान् ने उनसे कहा— वर की याचना करो ! इस प्रकार कहने पर उन्होंने विनय-विनम्र होकर नमस्कारपूर्वक उन देव से कहा — ‘मुझे एक दिव्यवाहन प्रदान कीजिये, जो समस्त शत्रुओं के नाश करने में समर्थ हो । इसे सुनकर जगन्नाथ जी ने ऐरावतगज से शक्ति उत्पन्न कर एक-एक दिव्य ऐरावत नामक हाथी प्रसन्नतापूर्वक उन्हें प्रदान किया । उसी पर आसनासीन होकर राजा लषन अपने घर आये । राजा परिमल के महावती पहुँचने पर तालन आदि दुर्मदा वीरगण ने भी वहाँ पहुँचकर परिमल का दर्शन किया । वहाँ उनके साथ घनिष्ठ मैत्री स्थापित कर प्रेमपूर्वक रहने लगे । एक मास के उपरान्त उन लोगों ने राजा से विनयपूर्वक कहा — राजन् । अब हम लोग अपने नगर जाना चाहते हैं, आप आज्ञा प्रदान करें । राजा ने आज्ञा दी उन लोगों ने कहा — मै अपने सभी अधिकार लड़कों को सौंपकर पुनः यहीं आपके समीप आ जाऊँगा । इस प्रकार राजा से कहकर वे सब अपने घर चले गये । अपने छोटे भाई (वत्सराज) समेत देशराज ने अपना नगर ब्राह्मणों को अर्पित कर दिया । वीर तालन ने अपना वनारस नगर पुत्रों को सौंप दिया जिनके क्रमशः अलिकोल्लामति, काल, पत्र, पुष्पोदरी वरी, करी, नरी एवं सुललित ये नाम बताये गये हैं । इनके प्रत्येक के दो-दो पुत्र थे, जो अपने पिता के समान पराक्रमशाली थे । राक्षसप्रिय तालन ने अपने पुत्रों के आदेश से म्लेच्छपूजन द्वारा राक्षसदेव को प्रसन्न किया । अनन्तर वसुमान के पुत्र देशराज और वत्सराज ने क्रमशः इन्द्र और सूर्य की आराधना की । यातुधान (राक्षस) ने सिंहनी नामक घोड़ी तालन को प्रदान किया, इन्द्र के दिये हुए पंचशब्द नामक गज देशराज को और पपीहा नामक घोड़ा सूर्य का दिया हुआ, जो मनुष्य की भाँति बोलता था, वत्सराज को मिला । ये तीनों शूर-वीर अपने वाहनों पर बैठकर महावती नगरी में पहुँचे और वहाँ सादर सम्मानपूर्वक रहने लगे । वहाँ उनकी साठ सहस्र सेना के अधिनायक तालन बनाये गये और उस चन्द्रवंशी राजा (परिमल) के मन्त्रिपद का भार उन दोनों भाइयों ने संभाला । इस भाँति उन तीनों वीरों द्वारा सुरक्षित होकर राजा परिमल अपने को कृतकृत्य होने का अनुभव करने लगे । (अध्याय ७) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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