भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय ८
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग)
अध्याय – ८
सहदेव अंश देवसिंह का जन्म

सूत जी बोले — जम्बूक नामक राजा ने भयभीत होकर अपने पुत्र कालिय (करिया) को साथ लेकर नर्मदा के तट पर देवाधिदेव पिनाकपाणि शिव की आराधना पार्थिव पूजन द्वारा करना आरम्भ किया । छठे मास की समाप्ति में महादेव ने राजा जम्बूक से कहा — यथेच्छ वर की याचना कीजिये । राजा ने हाथ जोड़कर कहा —’करुणानिधे ! मुझे अजेय कर दीजिये, जिससे कोई राजा मुझे जीत न सके ।’ उसे स्वीकार कर महादेव उसी स्थान पर अन्तर्हित हो गये । om, ॐउसके पुत्र कालिय ने शंकर के उस वरदान मोहनास्त्र की प्राप्ति कर अपने पिता से विनम्र होकर कहा — ‘तात ! मुझे आज्ञा प्रदान कीजिये, मैं पवित्र जलपूर्ण गंगा का दर्शन करने के लिए सेना समेत जा रहा हूँ ।’ पिता आज्ञा प्रदान कर अपने महल चले गये और उसने अपनी भगिनी (बहिन) से कहा — ‘शोभने, विजये ! तुम्हें कौन-सी उत्तम वस्तु चाहिये, मुझे शीघ्र बताओ ।’ उसने कहा — ‘वीर ! मणि-मोतियों से विभूषित (नौलखा) हार मुझे अत्यन्त प्रिय है । अतः इसे अवश्य ला देना ।’ उसने स्वीकार कर घर से प्रस्थान कर दिया ।

कालिय एक लाख अश्वारोहियों की सेना लेकर गंगासागर पर पहुँचा वहाँ विधान समेत स्नान करने के उपरान्त ब्राह्मणों को दान देकर जयचन्द्र के नगर की ओर चला । वहाँ बाहुशाली एक महाबलवान् जयचन्द्र को निर्धन की भाँति समझकर छोड़ दिया । कान्यकुब्ज (कन्नौज) में उसे बहुमूल्य वाला वह महाहार जब न मिला, तब उस समय उर्वीय (उरई) के राजा ने उससे बताया । पश्चात् वह राजा शिव जी से प्राप्त वरदान के नाते मदान्ध होकर उस रमणीक महावतीपुरी में जाकर उसे चारों ओर से घेर लिया । उसे सुनकर राजा भयभीत होकर भगवान् शंकर की शरण पहुँचकर आराधना करने लगे । शिव की आज्ञा से राजा साठ सहस्र सेना लेकर तथा उन तीनों महाबलवानों से सुरक्षित होते हुए नगर के बाहर रणस्थल में पहुँच गये । इनकी सेना में एक सहस्र हाथी की सेना थी जिसके नायक देशराज बनाये गये थे । सोलह सहस्र अश्वारोही की सेना थी, जिसका आधिपत्य वत्सराज को प्राप्त था, और शेष पैदल की सेना तालन के अधिकार में थी ।

दोनों राजाओं का तुमुल संग्राम आरम्भ हुआ, वीरगण भूमिशायी होने लगे, वह घोर युद्ध दिन-रात में समान रूप से हो रहा था । (परिमल के) सैनिकों ने शत्रुसेना का नाश करके ‘जय-जय’ की ध्वनि से अपनी विजय की सूचना बार-बार देना आरम्भ किया और नर्मदा तट के माहिष्मती नगर के निवासी (करिया) की सेना भयभीत होकर चारों ओर भागने लगी । विप्र ! राजा कालिय (करिया) ने भागते हुए उन्हें देखकर आश्वासन (धैर्य) दिया । पश्चात् शेष बची हुई अपनी आधी सेना समेत युद्ध के लिए पुनः वहाँ (रणस्थल में) पहुँचा । वहाँ उसने अपने हृदय में महादेव जी का ध्यान करके मोहनबाण का प्रयोग किया । उस सिद्धमंत्र के प्रभाव से वे सब मोहित हो गये । शेष शत्रुसेना अपने शत्रु (परिमल) के सैनिकों का संहार (शिरश्छेदन) करने लगी । इसे देखकर कर भीष्मसिंह ने सैनिकों को सूर्यप्रदत्त उस संज्ञा नामक बाण द्वारा चैतन्य किया । पश्चात् भैरव नामक भल्लास्त्र से शत्रु की देह में आघात किया, जिससे वह वीर (करिया) अपने हाथी पर व्यथित एवं मूर्छित होकर गिर पड़ा । उस समय उसकी सेना सभी दिशाओं में तितर-बितर हो गई ।

एक घड़ी मूर्छित रहने के उपरान्त कालिय ने उठकर अपने भाला से भीष्म का शिरश्छेदन कर दिया । उस महाबली के स्वर्गीय होने पर तालन आदि बलवानों ने उस कालिय शत्रु को आगे बढ़ने से रोकना आरम्भ किया । पश्चात् अत्यन्त दुःखी होकर उस राजा ने शंकर जी का मानसिक ध्यान करते हुए शत्रुओं को मोहित कर अपने घर को प्रस्थान किया । इधर ये तीनों-तालन आदि वीरों ने अपनी बची हुई आधी सेना लेकर नगर में प्रवेश किया । उस समय राजा परिमल शत्रु की पराजय सुनकर उन आये हुए वीरों का गले मिलकर अत्यन्त सम्मान किया । इसे सुनकर जयचन्द्र को महान् आश्चर्य हुआ । उन्होंने तालन को बुलाकर अपने यहाँ सेनाधीश बनाया । भीष्म सिंह के स्वर्गीय होने पर पाँच मास के भीतर ही उनकी पत्नी ने एक शुभ पुत्ररत्न उत्पन्न किया, जो गुर्जर (गुजरात) देश के राजा की पुत्री थी । मदालसा उसका नाम था । उसके दिव्य पुत्र का जन्म सुनकर सभी लोग प्रसन्न हुए । राजा ने उसके जातकर्म संस्कार तथा जन्म के उपलक्ष्य में अत्यन्त धन वितरण किया ।

ज्योतिषियों द्वारा जातकर्म सुसम्पन्न होने के उपरान्त उनके पूछने पर उन्होंने बताया— सहदेव का शिव की आज्ञा से अंश इस बालक के रूप में पृथ्वी तल को सुशोभित करने के लिए आया है । पश्चात् उन विद्वानों ने ‘देवसिंह’ उसका नामकरण किया ।
( अध्याय ८)

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