December 29, 2018 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय ११ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग) अध्याय – ११ सूत जी बोले— उस विष्णु की शक्ति के अवतार— उदयसिंह के दशवें वर्ष की अवस्था के आरम्भ में एक दिन राजकुमारों ने वसन्त ऋतु के रमणीक आगमन में आनन्द का अनुभव करते हुए प्रमदाओं के उपवन की ओर प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचकर कृष्णप्रिय उस वसन्त के समय उन लोगों ने व्रत करने का निश्चय किया — प्रातःकाल सागर में स्नान करके सामयिक पुष्प, फल, धूप एवं दीप द्वारा सविधान भगवती अम्बिका देवी की पूजा की । पश्चात् कुमारगण सप्तशती (दुर्गाजी) का स्तोत्र पाठ करके जगज्जननी कल्याणी पार्वती जी का ध्यान करने लगे, और भोजन में केवल कन्दमूल का फलाहार करते थे । इस प्रकार व्रतानुष्ठान करते हुए वहाँ के उनके एक मास के जीवन में अत्यन्त परिवर्तन हो गया था — जीव हिंसा से अत्यन्त विरत थे । उनकी इस प्रकार की भक्ति से प्रसन्न होकर जगदम्बा भगवती ने उन्हें जो सुन्दर वर प्रदान किया है, मैं बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो ! आह्लाद (आल्हा) को देवत्व, बलखान (मलखान) को बल, देव (डेबा) को काल-ज्ञान, राजा (ब्रह्मा) को ब्रह्म-ज्ञान और उदयसिंह को योग-प्रदान करके भगवती वहाँ अन्तर्हित हो गई और वे कुमारगण अपने को कृतकृत्य समझते हुए अपने घर आ गये । उन लोगों के उस प्रकार के रम्य वरदान प्राप्त करने के उपरान्त रानी मलना ने एक तेजस्वी पुत्र का जन्म दिया । जो श्यामवर्ण एवं सात्यकि का अंश था। वह शूर, रणकुशल और राजाओं का प्रियपात्र हुआ । आषाढ़मास में एक दिन उदयसिंह अपने घोड़े पर बैठकर अकेला ही उर्वी (उरई) नगरी पहुँच गये । वहाँ बली एवं निर्भय उस सुन्दर नगरी को देखते हुए जिसमें चारों जाति के लोग सुखी जीवन व्यतीत कर रहे थे, द्विज-शाला में ब्राह्मणों को देखा । वह ब्राह्मण और गाय का महान् भक्त था इसीलिए वहाँ द्विजातियों को सुवर्ण देकर द्विज-देवताओं को प्रसन्न करता हुआ वह बली राजा के उस रमणीक महल में पहुँच गया । वहाँ स्थित अपने मामा और अन्य सभासदों को नमस्कार करने के उपरान्त राजा की आज्ञा पाकर उस धीमान् को बाँधने के लिए उनके शूर-वीर तैयार हो गये । वे सब हाथ में खड्ग लेकर सिंह के ऊपर गज की भाँति एक साथ ही उसके ऊपर टूट पड़े । राजा ने उस बालक को मंत्रमोहित करके एक लोहे का जाल-सा बनाकर उसी पर स्वयं स्थित हो गया था । उसी बीच देवमाया (शारदा) ने उस कुमार को बोधित किया । पश्चात् वह खड्ग हाथ में लेकर उन अपराधी शत्रुओं का संहार करने लगा । थोड़ी देर में पाँच सौ शूरों का हनन किया । तदनन्तर वह महाबली अपने घोड़े पर बैठकर उर्वी (उरई) नगरी के भीतर प्रविष्ट हो गया । वहाँ पहुँचकर उसे जलपान करने की इच्छा हुई । उसने कूप पर जल-घट भरने वाली सुन्दरियों से कहा — सुन्दरि ! मुझे (थोड़ा) जल चाहिए।’ वे स्त्रियाँ उसके सौन्दर्य को देखकर उसे मोहित करने का उपक्रम करने लगीं । उस समय उसने उनके घड़े फोड़कर अपने घोड़े को जलपान कराकर उसके उपरान्त वन में पहुँचकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त की और उन्हें बाँधकर चण्डिका के सम्मुख उपस्थित किया एवं सोच रहा था कि देवी को इसकी भेंट (बलि रूप में) की जाय । इस होने वाली कारुणिक चर्चा को सुनकर राजा पृथ्वीराज अपने नगर से वहाँ राजा परिमल के पास आये और उनसे सभी कारणों को कह सुनाया । इसे सुनकर राजा परिमल द्विजातियों को धन-दान करके उदयसिंह के शिर का स्पर्श एवं आघ्राण (सँघना) किया । इससे अपने को कृतकृत्य समझने लगे । उस युद्ध-दुर्मद उदयसिंह के ग्यारहवें वर्ष में प्रवेश करने पर वह राजा पृथ्वीराज हतोत्साहित होकर अपनी देहली (दिल्ली) को लौट गया । भय-कातर होकर अपनी-भगिनी को यथोचित् बलि प्रदानपूर्वक वह देशराज-पुत्र (उदयसिंह) द्वारा जनित दुःख का अनुभव करके अत्यन्त रुदन किया । उसकी भगिनी का नाम अगमा था । उसने अपने भाई को आकुल देखकर उसका समाचार अपने पतिदेव से कहा । उसे सुनकर राजा ने यह कहा — मैं आज अपनी सेना लेकर महावती (महोबा) नगर जाकर उस दुष्ट देशराज-पुत्र (उदयसिंह) का हनन करूंगा । इतना कहकर महाबली धंधुकार (धांधू) को बुलाकर आज्ञा दी —मेरी सात लाख सेना को जो सदैव प्राण परित्याग के लिए कटिबद्ध रहती है, शीघ्र सुसज्जित करो । कुछ शूरवीर घोड़े पर बैठकर जा रहे हैं, कुछ ऊँट, हाथी और रथ पर तथा उनके साथ पदाति (पैदल) सेना भी जा रही है । देवसिंह (डेबा) को समय-परिज्ञान का वर प्राप्त हो चुका है, अतः उन्होंने शत्रु का आगमन जानकर राजा के पास जाकर सभी कुछ कह सुनाया । इसे सुनकर राजा परिमल भयभीत होकर आकुल होने लगे। उन्हें कातर होते देखकर बलखानि (मलखान) ने उमङ्ग में आकर उन्हें उठा लिया और हर्षातिरेक से कहना आरम्भ किया — आज मैं राजा पृथ्वीराज और सेना धुंधुकार (धांधू) को जीतकर आपके आदेश से राजकर उनसे ग्रहणकर सदैव के लिए उन्हें आपकी प्रजा (रियाया) बना दूंगा । मुने ! इतना कहकर उसने नमस्कार पूर्वक सेनानायक होना स्वीकार किया । उस समय उसके निर्भय वीरगण अनुगामी हुए, किन्तु राजा फिर भी कातर ही बने रहे । वे वीर चार लाख की संख्या में होकर वहाँ युद्धस्थल में युद्ध के लिए पहुँच गये । वहाँ शत्रु के शिशपा नामक वन को काटकर दे शत्रु भयंकर एवं मदोन्मत्त सैनिक रहने लगे । उसी बीच धुंधुकार (धांधू) आदि महाबल कोलाहल करते हुए वहाँ पहुँचकर युद्धारम्भ कर दिया । भृगुश्रेष्ठ ! पूर्वाह्न के समय के सैनिक गण कटिबद्ध होकर तीन सहस्र की संख्या में तोप लेकर पाँच सहस्र की संख्या में स्वयं घोर युद्ध करने लगे । उसमें चन्द्रवंशी क्षत्रिय अपनी दो सहस्र तोप के साथ सेना समेत युद्ध कर रहे थे । उस भयानक संग्राम में चन्द्रवंशी राजा परिमल की साठ सहस्र की सेना धर्मपुरी पहुँच गई तथा उसकी आधी सेना पृथ्वीराज की भी । बलखान (मलखान) के शूरवीर भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे । रथी-रथी के साथ, हाथी-हाथी के साथ, घोड़े-घोड़े के साथ और ऊँट वाले ऊँटवाले के साथ भीषण युद्ध कर रहे थे । भृगुश्रेष्ठ ! उस रोमाञ्चकारी भीषणयुद्ध में अपनी सेना को पराजित होते देखकर दूसरे पहर दिन में पाँच शुरों ने एकत्र होकर सैनिकों के भीतर प्रवेश किया ब्रह्मानंद अपने बाणों द्वारा शत्रुओं को यमपुरी भेजने लगे उसी प्रकार देवसिंह भाले, आह्लाद (आल्हा) तोमर, बलखानि (मलखान) अपने खड्ग और उदय सिंह भी उसीभाँति शत्रुओं को भूमिशायी कर रहे थे । इन शूरों ने अपने सैनिकों समेत शत्रु की दो लाख सेनाओं को समाप्त कर दिया । उस समय महाबली धुंधुकार ने अपनी सेना को पराजित होते देखकर हाथी पर बैठे ही अपने भाले से आह्लाद पर आघात किया । आह्लाद के मूर्छित हो जाने पर महाबली देवसिंह ने भाले से उसके भाई के ऊपर महान् वेग के साथ आघात किया, जिसके द्वारा तीक्ष्ण व्रण (घाव) होने से वह हाथी पर बैठा ही मूर्च्छित होकर गिर पड़ा । उस समय बड़े-बड़े बलवान् सैकड़ों राजा अनेक देशों से आये थे, उनके शस्त्रास्त्रों को अपने खङ्ग द्वारा बलखान (मलखान) ने शीघ्रता से काट दिया और उनके शिर भी काटकर भूतल में छिन्न-भिन्न कर दिया । उसमें जो कुछ थोड़े शेष रह गये वे भयभीत होकर भाग निकले इस प्रकार अपनी सेना का नाश देखकर बलवान् पृथ्वीराज ने, जो शिव जी से वर प्राप्त कर चुका था अपने हाथी पर बैठकर उस रणभूमि में प्रस्थान किया-रौद्र अस्त्र से बलखान के हृदय में और उसी प्रकार आह्लाद तथा परिमल पुत्रगण-इन महावीरों को मूर्च्छित करके वे शत्रु की सेना में पहुँच गये । वहाँ शतघ्नी (तोपों) की पूजा करके उसके द्वारा सेनाओं का वध कराया । इस दृश्य को देखकर रोपण वीर ने राजा के पास पहुँचकर सम्पूर्ण वृतान्त का वर्णन किया । इसी बीच वीर महाबली सुखखानि ने अपने कपोत नामक घोड़े पर बैठकर आकाश मार्ग से वहाँ रणस्थल में पहुँचकर पृथिवीराज को मूर्च्छित किया, और अपने बन्धुओं को वाहनों पर बैठाकर उनके समेत मूर्च्छित पृथ्वीराज को बाँधने के लिए उनके पास वह पहुँचा ही था कि उसी समय पृथ्वीराज ने महादेव द्वारा चेतना प्राप्तकर क्रुद्ध होकर पुनः अपने रौद्रास्त्र द्वारा उन सुखखानि आदि वीरों को मूर्च्छित करके और श्रृंखलाओं (जंजीरों) से उन्हें बाँधकर उनके समेत राजा परिमल के पास पहुँच पुनः युद्धारम्भ किया । उस समय हाहाकार करती हुई अपनी सेना को देखकर कृष्णांश (उदय सिंह) ने घोड़े पर बैठकर आकाश मार्ग से वहाँ पहुँचकर उनकी तोपें और सेनाओं का समूल नाश कर दिया । पश्चात् पृथ्वीराज की हाथी के पास पहुँचकर उस बली ने पृथ्वीराज को हथकड़ी-वेणी द्वारा दृढ़ बन्धन में डालकर आह्लाद (आल्हा) के पास आकर उन्हें पृथ्वीराज को सौंप दिया। उस समय पृथ्वीराज उससे पराजित होकर अत्यन्त लज्जित हुए और पाँच करोड़ का धन उन्हें (भेंट) प्रदानकर अपने घर चले गये। उस समय देवसिंह की आज्ञा प्राप्तकर वत्स पुत्र बलखानि ने उन द्रव्यों द्वारा एक सुन्दर नगरी का निर्माण कराया। उस वीर ने उस नगरी का शिरीस (सिरसा) नामकरण किया। उसमें सभी जाति के मनुष्य रह रहे थे जो दो कोश तक व्याप्त थी । उसी राजधानी में अपने परिवार समेत बलखानि रहकर अपना राष्ट्र तीस कोश में स्थापित किया। इसे सुनकर राजा परिमल अत्यन्त प्रसन्न होकर उदय सिंह समेत वहाँ आये और उनके शिर का आघ्राण करके ब्रह्मानन्द समेत पुन: अपनी राजधानी लौट गये । ( अध्याय ११) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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