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भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय १२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग)
अध्याय – १२

सूत जी बोले — उदय सिंह के बारहवें वर्ष की अवस्था में जो कुछ हुआ मैं कह रहा हूँ, सुनो — कान्यकुब्ज (कन्नौज) नामक राजधानी में आश्विन शुक्ल दशमी के दिन राजाओं का महान् समागम हुआ । लक्षण (लषन) ने उस समय पृथ्वीराज की पराजय सुनकर उदय सिंह के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की । मुने ! उसने अपने पितृव्य (चाचा) राजा जयचन्द्र से कहा — मैं उस (उदयसिंह) को देखने के लिए जाना चाहता हूँ, जिसने पृथ्वीराज को पराजित कर समस्त लोकों में प्रतिष्ठा प्राप्त की है । om, ॐइसे सुनकर राजा जयचन्द्र ने अपने विनय-विनम्र भतीजे लक्षण (लषन) से कहा — ‘तुम्हारा पद राजाधिराज (महाराज) का है, इस प्रकार उसे क्यों नष्ट करना चाहते हो ।’ इतना कहकर उन्होंने उसे आज्ञा नहीं प्रदान किया । पश्चात् आये हुए राजगण अपनी सेना समेत उदयसिंह के दर्शनाभिलाषी होकर महीपति के यहाँ पहुँचे । वहाँ शिरीषपुर में स्थित उदयसिंह को जानकर वे राजगण महीपति को प्रमुख बनाकर उनके पास पहुँच गये। उस समय उदयसिंह को जैसे कमल की भाँति मुख सौन्दर्यपूर्ण दिखाई देता था, देखकर वे राजगण प्रसन्नतापूर्ण होकर चारों ओर उनकी प्रशंसा करने लगे । उसे सुनकर क्रुद्ध होकर महीपति ने उस सभा के भीतर ही राजाओं से कहा — आप दूर निवासीगण जिसकी इतनी प्रशंसा कर रहे हैं, उनके पिता की मृत्यु महिष्मती नगरी में हुई है । जम्बूक नामक वहाँ का राजा अपने नर्मदा निवासी सैनिकों समेत यहाँ आकर उन्हें बाँधकर एवं अत्यन्त धन को लूटकर अपने घर चला गया । वहाँ शिलापत्र (पत्थर के कोल्हू) में उनकी देह को पिसवा दिया है और उनके शिर आज भी वहाँ वटवृक्ष में लटक रहे हैं । इस प्रकार वे वहाँ पुत्र कहते हुए आज भी स्थित हैं, जिसके बलवान् पिता इस भाँति प्रेत शरीर में दुःखानुभव कर रहे हों, उसका अभ्युदय होना व्यर्थ है और उसकी प्रिय कीर्ति भी नष्ट हो जाती है ।

इसे सुनकर नम्रतापूर्वक उदयसिंह ने उन राजाओं के समक्ष कहा — मेरे पिता गुर्जर (गुजरात) गये थे, जहाँ वह युद्ध हुआ था । नरभक्षी म्लेच्छों के साथ वहाँ उस (गुजरात के) राजा का युद्ध आरम्भ हो गया । देशराज और वत्सराज वहाँ रण-स्थल में भीषण संग्राम करते हुए म्लेच्छों द्वारा स्वर्गीय हुए ।’ ऐसा मैंने सुना था, किन्तु मामा ने आज उन दोनों के मरण में नवीनता प्रकट की है । यदि यह कहना इनका सत्य है, तो मेरे पौरुष को आप लोग देखियेगा, देर नहीं है ।

सभा में यह कहकर उदयसिंह अपनी माता के पास पहुँचे, उनसे महीपति का कथन स्पष्ट कहकर उन्होंने पूँछा भी, किन्तु वज्र के समान इस वाणी को सुनकर उनकी माता ने पतिःदुःख से दुःखी होकर रुदन करने के अतिरिक्त कुछ उत्तर नहीं दिया । पश्चात् उदयसिंह ने अपने पिता का वध और राजा जम्बूक का शिवभक्त होना जानकर भगवती दुर्गा जी का मानसिक स्मरण करना आरम्भ किया ।
‘उस शिव की अर्धांगिनी जगज्जननी की बार-बार जय हो, जो निखिल लोक के सुर, पितृ और मुनियों की निधान रूप हैं। तू ही इस चर, अचरमय जगत् को उत्पन्न, पालन एवं संहार करती हो ।’
इस प्रकार मानसिक ध्यान करते हुए उदयसिंह शय्या पर नींद-मग्न हो गये । उस समय भगवती ने प्रसन्न होकर बली तालन को मोहित कर उसे उदयसिंह के पास भेजा । अपनी चार लाख सेना समेत तालन वहाँ शीघ्र आ गया । बलखानि (मलखान) भी एक लाख सेना समेत वहाँ आया । वह अपनी राजधानी की रक्षा में अपने छोटे भाई को रखकर आया था । इस प्रकार अपने उद्यान में सेनाओं का जमाव देखकर राजा परिमल भय-कातर होकर उदयसिंह के समीप पहुँचे । उन्हें आतुर देखकर उदयसिंह ने उन्हें धैर्य प्रदान किया और उनकी एक लाख सेना के अधिनायक भी हो गये । वहाँ की एकत्र हुई सेना में पाँच सहस्र तोप, नाना भाँति के वाहन, पाँच सहस्र पताकाएँ, एक सहस्र बढ़ई (काष्ठ का कार्य करने वाले), दश सहस्र गजराज, पाँच सहस्ररथ, तीन लाख घोड़े, दश सहस्र ऊँट और शेष पैदल की सेना थी । सम्पूर्ण सेनाओं का आधिपत्य तालन को सौंपा गया । उसी प्रकार देवसिंह सभी रथ सेना के अधिनायक हुए, बलखानि सभी अश्वारोही सेना के गजराओं के आह्लाद और पदाति (पैदल) सेनाओं के अधिनायक उदयसिंह बनाये गये । यात्रा के समय सभी भाइयों ने रानी मलना का चरण-स्पर्श किया तथा अनेक भाँति का दान करके दक्षिण दिशा की ओर चल पड़े ।

उन रणाभिलाषी वीरों का एक पक्ष (पन्द्रह दिन) का समय मार्ग में व्यतीत हो गया । उपरान्त वे अपने इष्ट स्थान पर पहुँचकर वहाँ के घोर वन को कटवाकर जो अनेक भाँति के कण्टकों से आकीर्ण था, अपनी सेना को ठहरा दिया । वह निर्भय महाबली भ्रातृगण देव सिंह को आज्ञा से योगी का रूप धारण किया । नर्तन (नाचना) को उदयसिंह, डमरू को आह्लाद, झाल को देवसिंह, वीणा को तालन और कांस्य (कांसे की बनी हुई टुन-टुनी) मजीरा को वत्स पुत्र महाबलवान बलखानि (मलखान) ने ग्रहण किया और अपनी माता के सम्मुख प्रेममग्न होकर वे लोग नृत्य करने लगे । उसे देखकर देवकी मोहित हो गई, किन्तु उसका कारण उन्हें ज्ञात नहीं हुआ । अपनी माता को मोहित होते देखकर वे सब अत्यन्त हर्षित हुए और अपनी माता से कहा — माता ! हम सब आपके ही पुत्र हैं। पश्चात् उन्हें नमस्कार करके वे कुमारगण शुभ-माहिष्मती नगरी में पहुँचकर वहाँ के नागरिकों को अपने नृत्य-गान आदि से मुग्ध करने लगे, क्योंकि वे अपनी कला में अत्यन्त निपुण थे । कार्य परायण वे कुमार दूती के साथ अपने शत्रु के महल में पहुँचकर अपनी-अपनी नृत्य आदि की कला-कुशलता से उस राजसभा को मुग्ध कर दिया । सबको मोहित करने वाले उदयसिंह ने तो राजा की प्रधान रानी को जड़ की भाँति चेतनाहीन (अत्यन्त मुग्ध) ही कर दिया ।

अनन्तर वे उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ राजकुमारी विजया रहती थी । उसने पुरुषश्रेष्ठ उदयसिंह को, जो कि श्यामवर्ण और सौन्दर्यपूर्ण रूप था, देखकर वह इतना मोह-मुग्ध हुई कि (लज्जाहीन होकर वह) उनसे उपभोग कराने के लिए तैयार हो गई । उदयसिंह ने उसे उस प्रकार काम-पीड़ित देखकर उस मदमत्त कामिनी से शत्रु को पराजित करने के लिए भेद पूछा । उसने कहा — देवकी पुत्र ! आप मेरा हाथ पकड़कर अपनी बनाने की प्रतिज्ञा करें तो मैं अपने पिता के कठिन भेदों को बता सकती हूँ । उन्होंने स्वीकार करते हुए उसका हाथ पकड़ा और शत्रु के भेद को जानकर उसे अश्वासन दिया, पश्चात् प्रसन्न होकर अपने निवास स्थान को ओर लौट पड़े । उसी बीच रानी ने प्रेममग्न होकर उस योगी से कहा — मैं तुम्हारे नृत्य से अत्यन्त प्रसन्न हैं, अतः तुम्हें इस देशराज की रानी का नौलखाहार उपहार में दे रही हूँ । इसे सुनकर वत्स पुत्र (बलखान) ने रानी की विस्तृत प्रशंसा करते हुए उसे सादर ग्रहण किया । पश्चात् सबको साथ लेकर वे राजा जम्बूक के महल में पहुँचे । वहाँ पहुँचकर उदयसिंह नृत्य और बलखानि गान करने लगे एवं शेष तालन आदि उसी भाँति अपने वाद्यों की ध्वनि में मग्न होने लगे ।

वहाँ अपने बन्धुओं समेत कालिय (करिया) भी उपस्थित था । उसने उदयसिंह से कहा—श्याम जी ! मनइच्छित वस्तु की याचना करो । शत्रु की इस वाणी को सुनकर बलखानि ने कहा-राजन् ! लक्षावर्ति नामक वेश्याङ्गना यदि अपनी कला-प्रवीणता का प्रदर्शन कराये तो हमें अत्यन्त प्रसन्नता होगी। इसे सुनकर राजा ने लक्षावर्ति नामक वेश्या को जो देशराज की परम प्रेयसी थी, उस सभा में नृत्य करने के लिए आदेश प्रदान किया । वह वेश्या पुत्र आह्लाद को योगी का वेष धारण किये देखकर अपनी आँखों से आँसुओं की धारा बहाती हुई रुदन करने लगी । उस समय उसे रुदन करते देखकर आह्लाद ने भी रुदन करते हुए अपनी दोनों भुजाओं पर ताल ठोकना आरम्भ किया, उधर उदयसिंह ने उसके कंठ को उसी हार से विभूषित कर दिया । क्रुद्ध होकर रक्तनेत्र करके आह्लाद ने कहा — मैं और यह उदयसिंह अपने पिता के वैर शोधनार्थ यहाँ आये हैं । अपने शत्रु राजा एवं उसके समस्त परिवार का हनन मैं निश्चित करूँगा । इसे सुनकर बलवान् कालिय ने अपने पिता की आज्ञा से शतव्यूह सेनाओं को उन लोगों को बाँधने तथा प्रमुख दरवाजे के फाटक (किवाड़) को बन्द करने के लिए आदेश दिया । शत्रु की उस सशस्त्र सेना को सम्मुख उपस्थित होते देखकर वे क्षत्रिय वीर अपने-अपने खड्ग लेकर उसमें प्रविष्ट होकर उन्हें धराशायी करने लगे । उन सौ शूरों की सेना को नष्ट होते देखकर कालिय (करिया) भयभीत होकर अपने पिता को छोड़कर वहाँ से भाग गया और आह्लाद आदि ने क्षत्रिय वीर उस राजमहल से बाहर हो गये । पश्चात् शीघ्रता से अपनी सेना में पहुँचकर उसे सुसज्जित कर युद्ध के लिए तैयार हो गये ।

इन लोगों ने नर्मदा के तट पर अपने शिविरों को लगवाया था । पुनः नल्वमात्र एक सुपुष्ट सेतु बनाकर उसी द्वारा अपनी सेनाओं को नर्मदा पार किया और बलखानि (मलखान) आदि वीरों ने निश्चितकर चारों ओर से सेना द्वारा उस माहिष्मती नगरी को घेर लिया तथा भीषण गर्जना करने वाली तोपों के गोले से उस नगरी की गगनचुम्बी अट्टालिकाओं वाले महलों को भूमि पर गिरवाना आरम्भ कर दिया । वहाँ के निवासी भयभीत होकर अपने परिवार एवं प्रमुख द्रव्यों को लेकर विन्ध्य-पर्वत की गुफाओं में जाकर रहने लगे । उस कालिय (करिया) ने गजों की सेना के मध्य में पंचशब्द नामक गजराज पर स्वयं स्थित होकर दश सहस्र पीलवानों समेत रणस्थल की ओर प्रस्थान किया । उसी भाँति सूर्य वर्मा नामक उसका अनुज तीन लाख अश्वारोहियों की सेना को साथ लेकर, तुंदिल रथ पर बैठकर एक सहस्र रथियों के साथ, रंकण-वंकण नामक दोनों म्लेच्छों, चार लाख की सेना और एक सहस्र म्लेच्छ राजाओं एवं दक्षिण प्रदेश निवासी इन दोनों म्लेच्छों को अग्रसर करके युद्धस्थल की ओर प्रस्थित हुए । रणस्थल में दोनों सेनाएँ हृदयविदारक तुमुल युद्ध करने लगीं । उस तीन प्रहर के युद्ध में रक्त की नदी प्रवाहित हो चली जिसमें मांस पंक की भाँति बह रहा था, उसे देखकर बलखानि हाथ में खड्ग, देवसिंह मनोरथ घोड़े पर बैठे हुए हाथ में भाला लिए, विंदुल घोड़े पर बैठकर उदयसिंह खड्ग, आह्लाद गदा, रूपन शक्ति और तालन अपनी तलवार लिए शत्रु सेना को धराशायी करते हुए माहिष्मती में प्रविष्ट हो गये ।

वीरों के उस भीषण संग्राम में वीर सैनिक त्राहि-त्राहि करके भागने लगे । उस समय अपनी सेना को छिन्न-भिन्न होते देखकर कालिय ने हाथी पर स्थित रहकर ही अपने बाणों से बलखानि पर घात-प्रवात किया। पश्चात् उनकी हरिणी नामक घोड़ी ने अपने स्वामी को आतुर समझकर शत्रु की हाथी पर पहुँचकर अपने चरणों से उसे भूमि पर गिरा दिया । वीर कालिय (करिया) के गिर जाने पर पंचशब्द नामक गजराज ने लोहे की श्रृंखला (जंजीर) द्वारा इन मदोन्मत्त पाँचों भाइयों को मूर्च्छित कर दिया । पाँचों वीरों के मूर्च्छित होने पर रूपन ने शीघ्रता से देवकी के पास जाकर उस गजराज द्वारा किये गये कृत्य का यथावत् वर्णन किया । उसे सुनकर दुःख का अनुभव करती हुई देवकी ने डोला द्वारा वहाँ पहुँचकर उस गजराज से उन कारणों का विस्तृत वर्णन किया — शक प्रदत्त एवं महाबली गजराज तुम्हें नमस्कार है, वीर पुत्रों की रक्षा तुम्हें सदैव पिता की भाँति करनी चाहिए । इसे सुनकर देवमय निपुण वह गज देवकी की शरण में पहुँचकर अपने अपराध की क्षमा याचना करने लगा । उसी बीच सबल उदयसिंह चेतना प्राप्तकर आह्लाद के समीप पहुँचकर उन्हें अपने करस्पर्श द्वारा चेतना प्रदान किया । पुनः बलखानि समेत अपने पिता के उस गजराज को आह्लाद को सौंपकर कराल नामक उस दिव्य अश्व को रूपन को दे दिया । अनन्तर मूर्च्छित उस कालिय नामक शत्रु को हथकड़ी-बेड़ी से बाँधकर महाबलशाली बलखानि ने उसे अपनी सेना में भेज दिया । सूर्यवर्मा को जिस समय यह मालूम हुआ कि मेरा भाई कालिय शत्रुओं द्वारा शृंखलाबद्ध है, क्रोध के वेग से अपने होठ फरफराते हुए उसी समय वह शत्रु की सेना में प्रविष्ट हो गया । उसे आते हुए देखकर वे युद्ध-दुर्मद वीर रथ पर बैठे हुए उसे चारों ओर से मंडलाकार घेरकर अपने-अपने अस्त्रों के प्रहार करने लगे । किन्तु मुने ! उसके ऊपर किसी अस्त्र का आघात नहीं हो पाता था । अतः अपने अस्त्रों को कुण्ठित देखकर उन्हें अत्यन्त आश्चर्य हुआ और बहुत बड़ी चिन्ता हुई कि इसका वध कैसे किया जाय । पश्चात् उसके अस्त्रों से इन वीरों के देह में व्रण होने लगा । उससे पीड़ित होकर वे युद्ध से भाग जाते और पुनः आकर युद्ध करते । इस प्रकार कई दिन तक ऐसा ही उत्तम युद्ध होता रहा, अनन्तर आह्लाद, बलखानि, देवसिंह और तालन आदि उस वीर द्वारा भयकातर एवं मोहित होकर उदयसिंह की शरण में पहुँचे ।

उन्हें इस भाँति आकुल देखकर उदयसिंह ने विश्व को मोहित करने वाली देवी की मानसिक आराधना की वे अपने हृदय में रात्रिसूक्त का पाठ कर रहे थे । उस समय जगत् को धारण करने वाली एवं दुर्ग (किले) के समान कष्टों के नाश करने वाली भगवती दुर्गा जी प्रसन्न होकर उस (सूर्यवर्मा) वीर को मोहितकर वहीं अन्तर्हित हो गईं । महाबली उदयसिंह ने उसे निद्रामग्न देखकर हथकड़ी-बेड़ी से बाँधकर देवकी के समीप उपस्थित किया । इस समाचार के प्राप्त होने पर तुंदिल ने भ्रातृ-शोक से व्याकुल होकर हाथ में खड्ग लिए शत्रु सेना की ओर प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचकर शत्रु के सैनिकों को धराशायी करने लगा और माहिष्मती का रंकण नामक शूर तालन की सेना को । अपनी सेना को भागते हुए देखकर तालन ने अपने परिघ, अस्त्र द्वारा म्लेच्छों के शिरश्छेदन करके उन्हें भूमि में गिरा दिया । पुनः रंकण और वंकण का खड्ग द्वारा बध करके तथा तुंदिल को बाँधकर वे सायंकाल के समय शिविर में पहुँच गये । इस प्रकार कालिय, सूर्य वर्मा, और तुंदिल के बांधे जाने एवं रंकण तथा वंकण के निधन होने पर वे म्लेच्छ राजगण जो सहस्रों की संख्या में वहाँ स्थित थे. अपनी सेना समेत एक पक्ष (पखवारा) तक रात दिन युद्ध करते रहे । वीर सेनापति तालन ने द्रुद्ध होकर साठ म्लेच्छ राजाओं का शीघ्र वध कर दिया। वे (तालन) शत्रु की सेना के लिए काल रूप दिखाई देने लगे-म्लेच्छ शत्रु के शूरवीर तथा राजगण जो शेष रह गये अपनी अवशिष्ट सेना समेत भयभीत होकर अपने-अपने घर भाग गये ।

इस समाचार के श्रवण करने पर राजा जम्बूक को अत्यन्त दुःख हुआ, वे अनशन व्रत करते हुए रात में बिना भोजन किये ही शय्या पर शयन कर गये । चिन्तित रहने के कारण उन्हें नींद नहीं आई । आधी रात के समय उनकी विजया नामक पुत्री ने जो पूर्णकला की ज्ञाता तथा व्रज निवासिनी राधा रूप थी, अपने पिता को आश्वासन प्रदानकर शत्रु के शिविर स्थान पर पहुँचकर वहाँ के रक्षकों को मोहित कर दिया । पश्चात् अपने भाइयों के समीप पहुँचकर उन पाँच (आह्लाद आदि) वीरों को भी अपनी राक्षसी माया द्वारा मोहितकर अपने भाइयों को डोला में बैठाकर अपने पिता को समर्पित कर दिया । प्रातःकाल जागने पर स्नान-ध्यान आदि क्रियाओं से निवृत्त होकर सब लोग शत्रु-स्थान गये, जहाँ उन्हें बन्दी बनाकर रखा गया था, वहाँ उन्हें न देखकर अत्यन्त दुःख प्रकट करते हुए लोग कहने लगे कि ऐसा होने का कारण क्या है ? उस समय देवसिंह (डेबा) ने कहा-यहाँ शत्रु की पुत्री (विजया), आई थी, वही अपनी राक्षसी माया द्वारा उन्हें यहाँ से भगा ले गई है, अतः तुम लोग मेरे साथ वहाँ चलो जहाँ उसके गुरु रहते हैं ।

उसके गुरु का नाम ऐलविली है, वे विंध्यपर्वत के ऊपर भाँति-भाँति के पशु आदि से निसेवित उस महावन में कुटी बनाकर रहते हैं । वह योग-सिद्धि प्राप्त है, इसीलिए उसे राक्षसों से कोई भय नहीं है । किन्तु, इतना होते हुए भी वह अत्यन्त कामी है। राजा जम्बूक की पुत्री प्रतिदिन स्वजनों समेत या अकेले ही जाकर उसके साथ रमण करती है । उसी ऐलविली ने मनुष्य मोहित करने वाली इस माया को उसे प्रदान किया है । उस नीच पुरुष के समीप पहुँचकर हम लोग अवश्य कार्य-सिद्ध कर लेंगे, इसे सुनकर आह्लाद के अतिरिक्त वे चारो भाई उस वन के लिए चल दिये । वहाँ पहुँचकर इन लोगों ने उस धूर्त मायावी को अपने नृत्य-गान द्वारा मुग्ध करके उस दिन उसी के निवास स्थान पर निवास किया ।

वह नराधम पूर्वजन्म में चित्र नामक महाराक्षस था, जो बाणासुर की कन्या उषा को अपनाने के लिए नित्य शिव जी की आराधना कर रहा था । इस जन्म में इसका ऐलविली नाम हुआ है । वह अत्यन्त आवेग से यक्ष की पूजा कर रहा है, क्योकि उन दोनों में यह निश्चय हुआ है कि जब मेरा विवाह संस्कार हो जायेगा तो उस विवाहित पति का त्याग करके मैं सदैव के लिए आपकी हो जाऊँगी । पश्चात् इन लोगों ने उसका वध करके पुनः उस रणस्थल में पहुँचकर जम्बूक के दुर्ग पर चढ़ाई कर दी और चारो ओर से उसे घेरकर वहाँ के वीरों को धराशायी कर दिया । उस समय राजा जम्बूक ने जिन्हें शिवजी का वरदान प्राप्त था, उन पाँचों महावीरों को पराजित करके हथकड़ी बेड़ी द्वारा उन्हें बाँधकर उनकी बलि देने के निमित्त शैव-यज्ञ करना आरम्भ किया । तदुपरान्त इसका आनुपूर्वी वर्णन रूपन ने देवकी से किया। उसे सुनकर अत्यन्त अधीर होकर देवकी ने भयनाशिनी भगवती पार्वती की शरण में जाकर उनकी मानसिक आराधना की । प्रसन्न होकर जगज्जननी देवी ने उनसे कहा — देवकि ! कल्याणि ! इस समय पुत्र-शोक क्यों कर रही हो । जिस समय जम्बूक हवन करते हुए उन लोगों की बलि देने के लिए प्रस्तुत होगा मैं उस समय उसे मोहित कर तुम्हारे पुत्रों को मुक्तकर उन्हें विजय प्रदान करूंगी, इसलिए मेरा कहना है कि तुम अपने मन में शोक के लिए स्थान मत दो । इसे सुनकर उस पतिव्रता ने नमस्कारपूर्वक धूप, दीप एवं उपहार द्वारा सविधि महेश्वरी देवी की पूजा सुसम्पन्न की । इसी समय राजा देव-माया द्वारा मोहित होकर निद्रित हो गये, और ये लोग बन्धनमुक्त होने पर दृढ़ श्रृंखला द्वारा उस राजा को बाँधकर निर्भय होकर अपनी माता देवकी के पास पहुँचे ।

इसे सुनकर कालिय आदि तीनों पुत्रों ने तीन लाख सैनिकों को साथ लेकर रणस्थल में जाते ही युद्ध की घोषणा की । उन दोनों सेनाओं का आपस में पुनः घोर संग्राम आरम्भ हुआ, जिसमें तालन आदि चारों वीरों ने उस सेना का हनन करके उन तीन भाइयों को जो प्रमुख शत्रु थे, घेर कर अपने-अपने अस्त्रों से कठिन आघात-प्रतिघात करना आरम्भ किया । इस प्रकार समान रूप से कई दिन तक वह युद्ध होता रहा । उस समय कालिय दुःखी होकर भगवान् शंकर का मानसिक स्मरण करने लगा। पश्चात् मोहन-मंत्र द्वारा शत्रुओं को मुग्ध कर रहा था । उसी समय पतिपरायण देवकी देवी ने अपने पतिव्रत पुण्य के प्रभाव से अपने पुत्रों के पास पहुँचकर पंचशब्द नामक गजराज पर स्थित उस पुत्र को बोधित करती हुई निखिल विश्व का विमोहन करने वाली माता को पुनः प्रसन्न किया, जिससे देवी द्वारा चेतना प्राप्तकर आह्लाद ने सूर्यवर्मा, उदयसिंह ने कालिय, और बलखानि ने जम्बु पुत्र तुन्दिल का निधन किया ।

विप्र ! पूर्व जन्म में कालिय जरासंध था, उसी भाँति सूर्य वर्मा द्विविद नामक बानर, तुन्दिल त्रिशिरा राक्षस और जम्बूक शृगाल था । इस भूतल पर ये नृपगण सदैव ईर्ष्या, वैर एवं कलह किया करते थे । इस प्रकार शत्रु के पुत्रों के निधन होने के उपरान्त पतिशोकपरायण देवकी ने शत्रु जम्बूक को खड्ग से छिन्न-भिन्न किया । अनन्तर उदयसिंह ने स्नेह से आई होकर अपने पिता के दोनों सिर अधीर होते हुए जम्बूक के हृदय स्थान पर रखा । उस समय वे दोनों सिर हँसकर बोले — उदयसिंह, चिरजीवी रहो। महामते ! मेरे निमित्त गया में श्राद्ध अवश्य करो । उम प्रेत देह से निकली हुई ऐसी वाणी को सुनकर देवकी देवी ने शिला-यंत्र (पत्थर के कोल्हू) में शत्रु जम्बूक को स्थापित करती हुई हर्षातिरेक से पुत्रों से कही — पुत्रगण ! अपने पिता के परम शत्रु एवं इस नराधम जम्बूक का तिल की भाँति खण्ड-खण्ड कर इसे इसमें पिसवा डालो, क्योंकि मैं इसकी देह के तेल को लगाकर स्नान करूंगी, इतना कहकर वे अत्यन्त रुदन करने लगीं । वे पुत्र उनकी आज्ञा पालन करने के उपरान्त बलखानि (मलखान) आदि पुत्रों के साथ रानियों समेत एकत्र होकर अपने पिता की अन्येष्टि क्रिया किया ।

उसी समय रानी मलना ने अपने पति राजा परिमल को मरणासन्न देखा । विप्र ! उस समय उनके देहावसान हो जाने पर उनकी (जम्बूक की) पुत्री खड्ग लेकर बलखानि (मलखान) को मूर्च्छित करने के उपरान्त उनके पक्ष के तालन, देवसिंह एवं आह्लाद (आल्हा) को मूर्च्छित करती हुई शत्रु के अन्य शूर-सामन्तों को मूर्च्छित कर अपनी माया द्वारा उनका अपहरण कर ली । उसके द्वारा अपने सौ वीरों के निधन होने पर क्रुद्ध होकर बलखानि (मलखान) ने उसका सिर काटकर उसी चिता में डाल दिया ।

उसी समय आकाशवाणी हुई—बलखाने (मलखान) ! मेरी बात सावधान होकर सुनो, स्त्री सदैव अवध्य मानी गई है, किन्तु , तुम्हारे जैसे अधर्मी ने इस (स्त्री-हत्या) काम को भी कर ही डाला, अतः इस पापकर्म का दुष्परिणाम अपने विवाह में तुम्हें अवश्य भोगना पड़ेगा। इसे सुनकर वह बलखानि (मलखान) को अत्यन्त दुःख का अनुभव हुआ। अनन्तर उनके वीर सैनिकों ने हर्ष निमग्न होकर सैकड़ों ऊँट, धन लूटकर शेष बची हुई आधी सेना समेत अपने को कृतकृत्य मानते हुए महावती (महोबा) के लिए प्रस्थान किया।
(अध्याय १२)

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