भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय १७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग)
अध्याय – १७

सूत जी बोले — उदयसिंह की अट्ठारहवें वर्ष की अवस्था में जो कुछ मैंने देखा, सुना, तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो ! रत्नभानु द्वारा राजा कृष्ण कुमार के निधन हो जाने पर पृथ्वीराज ने अत्यन्त दुःख का अनुभव करते हुए लक्षचण्डी यज्ञ का अनुष्ठान आरम्भ किया। हवन हो जाने पर देवी ने राजा से आकाशवाणी द्वारा कहा—तुम्हारी अगमा नामक रानी के गर्भ द्वारा सात वर्षों तक प्रत्येक वर्ष कौरवांश एवं द्रौपदी के अंश से कुमार जन्म ग्रहण करते रहेंगे । om, ॐअनन्तर रानी ने गर्भ धारण किया, जिससे कर्ण के अंश से तारक नामक बलवान् पुत्र उत्पन्न हुआ। दूसरे वर्ष दुःशासन के अंश से ‘नृहरि’ नामक पुत्र, तीसरे वर्ष उद्धर्षांश से ‘सरदन’ नामक, (चौथे वर्ष) दुर्मुखांश से ‘मर्दन’ नामक, (पाँचवें वर्ष) विकर्णाश से सूर्यकर्मा’ नामक, छठे भीम, सातवें वर्धन के पश्चात् एक कन्या का भी जन्म हुआ। मुने ! जिस प्रकार कृष्णा (द्रौपदी) के रूप-सौन्दर्य, चेष्टा एवं गुण थे, वैसे ही इस कन्या के भी हैं, इस कन्या के जन्म ग्रहण समय में भयंकर भूकम्प हुआ और चामुण्डा देवी ने आकाश में अमांगलिक (विश्व विनाशक) अट्टहास किया। नगर में अस्थि के चूर्ण मिश्रित रक्त की वृष्टि हुई।

ब्राह्मणों ने वहाँ जाकर उसका जातकर्म संस्कार सुसम्पन्न कराने के अनन्तर उस कन्या का जो नामकरण किया, मैं बता रहा हूँ, सुनो ! शशी की माता का नाम इला, उसी ने अपने वैकल्पिक रूप से इस भूतल में जन्म ग्रहण किया, इसलिए उस रूप-सुन्दरी कन्या का ‘वेला’ (अर्थात् वह इला का ही रूपान्तर है) नामकरण हुआ। उसके उत्पन्न होने पर उसके पिता ने अत्यन्त हर्ष प्रकट करते हुए ब्राह्मणों को उत्तम अनेक भाँति के वस्त्रों समेत दान प्रदान किया। बारह वर्ष की अवस्था में उस उत्तम कन्या ने अपने पिता से कहा-‘आप मेरी बात सुनें, पृथ्वीपते ! ‘मण्डप में रक्त की धारा पर जो मुझे शयन करायेंगे, वही मुझ द्रौपदी को भुषण प्रदान करने वाला पुरुष मेरा पति हो सकेगा।’ बेला के मुख से निकले हुए इस पद्यांश को सुवर्ण के पत्र में अंकित कराकर राजा ने तारक को देते हुए कहा-‘कन्या के लिए इस भाँति के पति का अन्वेषण करो ।’ पश्चात् तारक ने अपने पिता की आज्ञा से एक लाख सैनिक और साढ़े तीन लाख द्रव्य समेत राजाओं के यहाँ प्रस्थान किया। सिन्धु नदी के तट से आरम्भकर आर्य देशों के सभी राजाओं के पास उनकी यात्रा हुई, किन्तु घोर विष की भाँति उस वाक्य को किसी राजा ने स्वीकार नहीं किया। तदुपरांत उन्होंने इधर-उधर भ्रमण करते हुए अपने मामा (माहिल) के यहाँ पहुँचकर उनसे सब वृत्तान्त कहा । उसे सुनकर उनके मामा ने कहा‘वीर ! राजकुमार ब्रह्मानन्द के यहाँ जाओ, जो स्वयं महाबली एवं आह्लाद (आल्हा) आदि से सुरक्षित है, तुम्हारी इन बातों को वह अवश्य स्वीकार करेगा।’ और क्या उसके चरित्र को तुम नहीं जानते ! छः भाइयों समेत आप के विवाह को उदयसिंह आदि ही सुसम्पन्न कराये थे, उस बुद्धिमान् ब्रह्मानन्द के अधीन वे सभी लोग हैं । उनके समान बली कौन राजा इस भूमण्डल मे है ?

इसे सुनकर तारक (ताहर) ने अपने सैनिकों समेत वहाँ पहुँचकर अञ्जली बांधकर उस पद्य को सुनाया। उदयसिंह ने शीघ्र उस पत्र को लेकर कहा-‘मैं नृपश्रेष्ठ ब्रह्मानन्द के द्वारा उस कन्या का पाणिग्रहण कराऊँगा।’ उस समय सभा एकदम निस्तब्ध थी, तारक ने ब्रह्मानन्द का अभिषेक (तिलक) करके अपने घर को प्रस्थान किया। माघमास की शुक्ल त्रयोदशी के दिन वर-कन्या का विवाह शुभ लग्न में होना निश्चित हुआ । उस बारात में प्रस्थान करने के लिए सात लाख सैनिक समेत तालन महावती (महोबा) नगर में पहुँचे, लाख सैनिक समेत आह्लाद (आल्हा) और उदयसिंह, सुखखानि के साथ, लाख सैनिक लेकर बलखानि (मलखान), योग-भोग (योगा-भोगा) समेत लाख सैनिक लेकर नेत्र सिंह, और दो लाख सेना समेत रणविजयी बाल बली वहाँ पहुँचे। इस प्रकार बारह लाख सेना समेत उसके अध्यक्ष तालन ने अपनी सिंहिनी घोड़ी पर बैठकर उन बारह लाख सेनाओं का संचालन करते हुए पृथ्वीराज के दिल्ली नगर में आकर सैनिकों को विश्राम के लिए आज्ञा प्रदान की।

उस यात्रा में देवसिंह मनोरथ (मनोहर) नामक घोड़े पर, उदयसिंह बिन्दुल (वेंदुल) पर, स्वर्णवती (सोना) का पुत्र इन्दुल (इंदल) अपनी अमृत घोड़ी पर, रूपन कराल पर, आह्लाद (आल्हा) पपीहा पर, बलखानि (मलखान) कपोत (कबूतर) नामक घोड़े पर, सुखखानि हरिण नामक घोड़े पर, और रण-विजयी एवं मलना के पुत्र ब्रह्मानन्द स्वयं हरिनागर नामक घोड़े पर सुशोभित हो रहे थे । उसी प्रकार पञ्चशब्द नामक गजराज पर महावती (महोबा) का अधिनायक राजा परिमल स्वयं विराजमान था। उनके साथ उत्तम विमान था, जो मणि, मुक्ता एवं सुवर्षों से खचित तथा सैकड़ों धीमर (कहार जाति के लोग जिसका संवाहन कर रहे थे, उसके साथ अनेक भाँति की वाद्य ध्वनियाँ, दशसहस्र पताकाएँ, हाथ में वेत (की छड़ी) लिए हुए सहस्र सभा स्थान के भृत्यगण, सहस्र शिविकाएँ (पालकियाँ), पाँच सहस्र रथ, और पाँच सहस्र भैंसा गाड़ियाँ ब्रह्मानन्द को घेरे हुए चल रही थीं। उस बारात के कोलाहल (शोर) सुनकर राजा पृथ्वीराज को महान् आश्चर्य हुआ, पश्चात् अत्यन्त प्रसन्न होकर उनके रहने के लिए शिविर (तम्बू) आदि प्रदान किया । अपने दुर्ग के दरवाजे की (द्वारपूजा आदि) क्रिया को विधानपूर्वक सुसम्पन्न करने के उपरान्त उन्होंने कहा—वेला (कन्या) के लिए द्रौपदी के सभी आभूषण भेजने की कृपा करें ।’ इसे सुनकर इन्दुल (इंदल) ने स्वर्ग में इन्द्र के पास पहुँचकर उनसे कहा-सुरश्रेष्ठ ! द्रौपदी के सभी आभूषण मुझे दिलवाने की कृपा करें। इन्दुल ने उसी समय कुबेर के यहाँ से द्रौपदी के सभी आभूषणों को मंगाकर इन्हें सौंप दिया। उसे लेकर इन्दुल ने पुनः एक प्रहर के भीतर ही अपने पिता के पास पहुँचकर निवेदनपूर्वक उसे सौंप दिया ।

आह्लाद (आल्हा) ने स्वयं वहाँ जाकर उन आभूषणों को सानुराग बेला के लिए भिजवाया। पश्चात् ब्राह्म मुहूर्त में विवाह-संस्कार भी आरम्भ हुआ। प्रथम भाँवरि के समय ‘तारक (ताहर) ने खड्ग से वर (ब्रह्मानन्द) के ऊपर आघात किया, किन्तु आह्लाद (आल्हा) ने शीघ्र वहाँ पहुँचकर उस प्रहार को रोककर अपनी कई लीलाओं द्वारा उनसे युद्ध किया। दूसरी भाँवरि में नृहरि के प्रहार को उदयसिंह तथा तीसरी भाँवरि में सरदन के प्रहार को बलखानि (मलखान) ने रोक लिया। उसी भाँति चौथी भाँवरि में मर्दन द्वारा किये गये आघात को सुखखानि, पाँचवीं में ब्रह्मानन्द ने स्वयं सूर्यवर्मा को, रूपन ने भीम को और सातवीं भाँवरि में देवसिंह (डेबा) ने वीरवर्धन को रोक लिया था। उस समय उस विस्तृत मण्डप (रंगभूमि) के मैदान में गजसेन आदि सौ राजाओं समेत लक्षण (लखन) आदि वीर भी वहाँ उपस्थित होकर राजा की सेनाओं को धराशायी करने लगे। अपनी सेनाओं को तितर-बितर होते देखकर राजा पृथ्वीराज ने क्रुद्ध होकर अपने अरिभयंकर नामक गजराज पर बैठकर वहाँ रणस्थल में घोर युद्ध करना आरम्भ किया। उस शब्दवेधी नृपश्रेष्ठ ने नेत्रसिंह आदि वीरों को पराजित करते हुए उस लक्षण (लाखन) के पास पहुँचकर जो बौद्धिनी नामक हस्तिनी पर सुशोभित हो रहे थे, घोर संग्राम आरम्भ किया । मन में शिव का ध्यान करते हुए अत्यन्त रोषपूर्ण होकर पृथ्वीराज ने उन पर विजय प्राप्तकर उन्हें बाँध भी लिया, पश्चात् ले जाकर राजा को दिखाया। उसे सुनकर राजा परिमल ने अत्यन्त भयभीत होकर उदयसिंह से कहा-आह्लाद (आल्हा) आदि सभी राजा पृथ्वीराज के युद्ध में पराजित हो गये हैं, अजेय उदयसिंह ने शीघ्र आकाशमार्ग से राजा के महल में पहुँचकर अत्यन्त गर्जना की ।

योगिनी के आनन्द प्रदाता उदयसिंह के उस भीषण गर्जना से वीर लक्षण (लाखन) ने रोष में आकर अपने बंधनों को तोड़ दिया और मन में विष्णु का ध्यान करके पृथ्टीराज के महल में शीघ्र पहुँचकर रानी अगमा को डोला के साथ में लेकर अपने शिविर में लौट आये । उसी बीच सभी लोगों में मूर्च्र्छा नष्ट होकर चेतना आ गई थी, वे अपने-अपने खड्ग आदि अस्त्रों को लेकर शत्रु की सेना को धराशायी करने लगे। विजय प्राप्त करते हुए उन्हें हथकड़ी-बेड़ियाँ बाँधकर उनके कुल के केवल सौ राजाओं का बध किया, जिसके रुधिर की धारा में द्रौपदी रूप सर्वाङ्ग सुन्दरी वेला ने स्नान किया। अनन्तर विवाह के वे योद्धागण अपने-अपने शिबिर में चले गये । वहाँ पहुँचकर राजा के सातों पुत्रों को मुक्तबंधन कर दिया। वे सब घर पहुँचकर बारात के भोजन का प्रबन्धकर सभी लोगों को निमन्त्रित किये। वहाँ दुर्ग के गुप्त स्थानों में सेना सुसज्जित होकर प्रतीक्षा कर रही थीं । उसी समय महावती (महोबा) वाले बाराती भोजनार्थ अस्त्रों से सुसज्जित होकर पहुँचे। राजा के सातों पुत्रों ने आतिथ्य सत्कार में भाग लिया, उसी बीच उन गुप्त सैनिकों ने युद्धारम्भ कर दिया। भोजन त्यागकर वीरों ने उन सहस्र सैनिकों के निधनपूर्वक सातों पुत्रों को पुनः बाँध लिया और साथ रखकर उनकी हँसी करते हुए अपने शिविरों के लिए प्रस्थान किये । पश्चात् पृथ्वीराज ने दशलक्षसुवर्ण समेत वेला कन्या को साथ में लेकर राजा परिमल के पास जाकर उनसे करबद्ध प्रार्थना की-‘प्रद्योतसुत, राजन् ! इस महावली लक्षण (लाखन) ने मेरी अगमा नामक स्त्री का अपहरण कर उसे दासी बनाना चाहा है । इसे सुनकर राजा परिमल ने अन्य सभी राजाओं समेत लक्षण (लाखन) को बहुत समझाया, किन्तु उस राजा की समझ में कुछ नहीं आया। पश्चात् उसी स्थान पर महासती बेला अत्यन्त विलाप करने लगी। उस करुणक्रन्दन को सुनकर उदयसिंह और बलखानि (मलखान) ने बेला को आश्वासन प्रदानपूर्वक आकाशमार्ग से लक्षण (लाखन) के पास पहुँचकर उनकी भर्सजना की । अनन्तर अगमा को लेकर आकाशमार्ग द्वारा उदयसिंह ने उन्हें उनके महल पहुँचा दिया और शिविर में आकर पृथ्वीराज के सातों पुत्रों को भी मुक्तबंधन कर दिया। उन पुत्रों ने बंधन-मुक्त होने पर पुनः दम्भ न करने की शपथ की।

मुने ! इस भाँति राजा परिमल वहाँ दशरात्रि तक रहने के उपरान्त अपनी राजधानी के लिए प्रस्थान करने लगे । उस समय राजा पृथ्वीराज ने आँखों में आसू भरकर उनके चरणों को पकड़कर कहा-महाराज ! यह आपकी बहू बेला अभी बारह ही वर्ष की है, बालिका होने के नाते यह माता-पिता के वियोग को सहन न कर सकेगी। इसलिए इसे यहाँ छोड़कर आप अपने घर जाने की कृपा करें, पुनः इसे पति-योग्य हो जाने पर आपकी सेना में उपस्थित करूंगा।’ इतना कहकर राजा पृथ्वीराज सस्नेह राजा परिमल से मिले। किन्तु, उन दोनों के मिलने में राजा परिमल को अंग-भंग देखकर आह्लाद (आल्हा) को अत्यन्त दुःख हुआ । उन्होंने पृथिवीराज को पकड़कर चूर्ण कर दिया। दोनों राजाओं की अस्थियों के टूट जाने पर अग्नि चिकित्सक राजा नेत्रसिंह ने उन्हें आरोग्य किया, जिससे वे दोनों सुखी होकर अपने-अपने घर चल पड़े।

रानी मलना ने अपने पुत्र को विवाहित देखकर हर्षातिरेक से ब्राह्मणों को भाँति-भाँति का दान दिया और चण्डिका के प्रसन्नार्थ सविधान हवन सुसम्पन्न कराया। राजा लक्षण (लाखन) अपनी यात्रा के अवसर पर उसी सभा में रानी मलना से उस वृत्तान्त को बताये-जयचन्द्र की स्त्री बनाने के लिए अगमा का मैंने विजयपूर्वक अपहरण किया था, किन्तु, शिव की आज्ञा से इन दोनों योगियों ने मेरे पास पहुँचकर उसे छीन लिया और उसे (उसके) अपने भवन पहुँचा दिया। (अन्यथा वैसा करने का मेरा विचार निश्चित हो चुका था) पश्चात् प्रसन्नतापूर्ण होकर राजा ने विदा माँगी-नृपश्रेष्ठ ! आप चिरंजीवी हों, मुझे आज्ञा प्रदान कीजिये, मैं आज घर जाना चाहता हूँ । उनके जाने के पश्चात् सभी नृपगण राजा परिमल से सप्रेम नमस्कार पूर्वक विदा होकर अपने-अपने घर गये ।
(अध्याय १७)

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