भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय २३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग)
अध्याय २३

सूत जी बोले — बलशाली उदयसिंह की चौबीसवें वर्ष की अवस्था के आरम्भ होने पर राजा ने आश्विन शुक्ल दशमी (विजया दशमी) के दिन महान् उत्सव किया । उस उत्सव में ब्राह्मणों को भोजन और दक्षिणा प्रदानकर अत्यन्त तृप्त करने के उपरांत अपने राज्य के सेवकों को भी यथायोग्य पुरस्कार रूप धन प्रदान किया। कार्तिक मास के शुभ योग के दिन वीर उदयसिह ने इन्दुल (इंदल) और देवसिंह (डेवा) को साथ लेकर दश सहस्र सुवर्ण एवं दशसहस्र सेना समेत बर्हिष्मती नामक नगरी के लिए प्रस्थान किया, जहाँ अनेक राजागण आकर पहले से ही निवास कर रहे थे । om, ॐउसी बीच वहाँ चित्रलेखा आयी जो सात सखियों के साथ चित्रगुप्त की पूजा करती थी । उसने गंगा के मध्य में एक अत्यन्त सुन्दर यान अपनी माया द्वारा निर्मित कर कौतूहल प्रदर्शनार्थ रखा था, जिसमें सम्पत् भी लगा दिया गया था। उस कौतूहल को देखने के लिए अनेक देश के भूपवृन्द वहाँ आकर रह रहे थे। उस समय उदयसिंह भी देवसिंह और इन्दुल समेत अपने सौ शूर वीरों के साथ उसे देखने के लिए वहाँ आये थे । उस जल समूह में राजा बालीक की परम सुन्दरी चित्ररेखा नामक पुत्री ने उस अत्यन्त सुन्दर इन्दुल को देखा, जिसके मुख की कान्ति चन्द्रमा की भाँति निर्मल एवं सुखप्रद दिखाई देती थी तथा स्वप्न में जिसने उसके साथ रमण का सुख प्रदान किया था। अभिनंदन की पुत्री ने उन्हें आल्हाद (आल्हा) का पुत्र जानकर उन्हें शुक (तोता) बनाकर एक माया जाल (माया द्वारा रचित पिंजरे) में रख लिया। उस स्वयम्बर में उनका अपहरण करने से उसे परमानन्द की प्राप्ति हुई । पश्चात् अपने माया दृश्य को समाप्तकर वह प्रसन्नता पूर्ण होती हुई अपने घर चली गई । जागने पर उदयसिंह ने अपने बच्चे को न देखकर देवसिंह को जगाकर पूछा-लड़का कहाँ चला गया । यद्यपि देवसिंह प्रत्येक समय की बात जानते थे, किन्तु उस समय चित्ररेखा की माया से मोहित होने के कारण वे स्वयं न जान सके कि लड़का कहाँ गया है और उसने उसका अपहरण किया है। उनके कुछ उत्तर न देने तथा उन्हें स्वयं विस्मय प्रकट करते देखकर उदयसिंह उस चित्रमाया से मुग्ध होने के नाते उच्च स्वर से अत्यन्त प्रगाढ़रुदन करने लगे। उन्हें रुदन करते हुए सुनकर दुष्ट महीपति (माहिल) ने प्रसन्न होकर आह्लाद (आल्हा) के यहाँ प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचने पर उनके सामने गाढ़रुदन करते हुए नम्रता पूर्वक कहा । तुम्हारे भाई उदयसिंह ने देवसिंह तथा इन्दुल को अत्यन्त मद प्रद (नशीली) वस्तु खिलाकर मूच्छित कर दिया था । पश्चात् (उसी नशे में) इन्दुल को मृतक करके गंगा की धारा में प्रवाहित कर दिया । उस वीर ने जो कुछ किया, मैंने वहाँ अपनी आँखों से प्रत्यक्ष देखा है। उसने मुझे नम्रता पूर्वक सौ सुवर्ण मुद्रा प्रदानकर कहीं भी कहने से रोक दिया है, और पश्चात् चैतन्य होने पर देवसिंह भी अपनी बुद्धि कौशल से, उसने जो कुछ किया है, नहीं जान सके ।

उनके इतना कहने पर भी आल्हा (आह्लाद) को निश्चय नहीं हो रहा था, परन्तु, उसी समय रुदन करते हुए वे दोनों वीर भी वहाँ पहुँच गये। भ्रातृपुत्र (भतीजे) के वियोग से उदयसिंह उस समय अपनी शरीर का त्याग करने को तत्पर हो गये । उनकी उस अवस्था को देखकर आह्लाद (आल्हा) को महीपति (माहिल) की बातों का विश्वास हो गया । क्रुद्ध होकर उन्होंने वेत के दंडे से, जिसमें चर्म लगा रहता है, उदयसिंह को अत्यन्त पीटना आरम्भ किया। उनकी माता, पली, एवं भगिनी ये सभी लोग प्रेम के कारण अत्यन्त दुःखी होकर उस धूर्त की माया से मुग्ध हुए आह्लाद (आल्हा) को समझाने लगे, किन्तु चित्ररेखा की माया से मोहित होने के नाते कुछ भी ज्ञान न हो सका। उस समय पुष्पवती देवी अपने पति को भाई द्वारा पीड़ित देखकर वहाँ शीघ्र पहुँचकर पति के दुःख से दुखी होने लगी। बिना अपराध के उदयसिंह की बड़ी निन्दा हुई ।

उसी समय वैदिक विद्वानों ने आह्लाद (आल्हा) से कहा-वध और त्याग दोनों समान बताये गये हैं, जो योग्य हो, आप स्वयं विचार कर लें। इतना कहने पर उन शुद्धात्मा आह्लाद (आल्हा) ने पुत्र शोक से दुःखी होकर चांडालों को बुलाकर उन्हें पुत्रहन्ता उदयसिंह को बाँधकर सौंप दिया पश्चात् उन लोगों से कहा-पत्नी समेत इन दोनों (स्त्री-पुरुष) का शीघ्र वध करो और इन दोनों के नेत्र लाकर मुझे अवश्य दिखाना इसे सुनकर वे चाण्डाल (खलासी) उन्हें लेकर अत्यन्त घोर जंगल प्रदेश में चले गये, जहाँ वाघ आदि भीषण हिंसक पशुगण रहते थे। उस समय देवसिंह वहाँ जाकर उन चाण्डालों को अधिक धन प्रदान कर पत्नी समेत उदयसिंह को साथ लेकर बल-खानि के घर चले गये। पतिव्रता गजमुक्ता (गजमोतिना) ने उन दोनों को अपने घर में छिपा कर रख लिया, और यथावत् पालन-पोषण करना आरम्भ किया। चाण्डालों ने मृग के नेत्र लाकर आह्लाद (आल्हा) को प्रदान किया।

उस समय अत्यन्त क्रुद्ध होकर देवसिंह ने उस से कहा-“तुम्हारे जैसे दुराचारी पापी को धिक्कार है, तुमने मेरे सखा का वध कराया है। मैं सत्य और अत्यन्त सत्य कह रहा हूँ तुम्हारा पुत्र जीवित है, उसके अन्वेषण के लिए मैं अनेक राजाओं के यहाँ जा रहा हूँ । इतना कहकर उस वीर ने शिरीष (सिरसा) नगरी के लिए प्रस्थान किया। गजमुक्ता (गजमोतिना) से आज्ञा प्राप्तकर उन (स्त्री-पुरुष) को साथ लेकर उसे अंधेरी रात के आधीरात के समय मयूर नगर पहुँच गये। वहाँ बलवान् मकरन्द ने समस्त कारणों को भली भाँति समझकर अपनी भगिनी तथा उदयसिंह को सप्रेम अन्तःपुर में निवास कराया । पश्चात् मकरन्द ने नाना भाँति के यज्ञ द्वारा धर्म की आराधना की । प्रसन्न होकर धर्मराज ने मकरन्द से कहा-राजा अभिनन्दन की पुत्री चित्ररेखा जो चित्रगुप्त की उपासना करती है, केशरिणी नामक उसकी सखी है जो नाट्य की पुत्री एवं दम्भ की विदुषी है उसी केशरिणी का एक कुतुक नामक गुरु है, जो योगरूप धारण करता रहता है, उसी ने सौ योजन तक अपनी माया का विस्तार किया, जिसकी भूमि शत्रुओं के लिए एक अत्यन्त दुर्गम है और वह माया भूमि शत्रु को पाषाण बना देती है। चित्रगुप्त के प्रभाव से वह राजा अत्यन्त निर्भीक रहता है। उसी राजा की चित्ररेखा नामक पुत्री ने (इन्दुल) का अपहरण किया है, वह उसे रात्रि में पुरुष के रूप में और दिन में शुक तोते के रूप में रखती है। उस चित्रमाया से मोहित होकर इन्दुल वहाँ अत्यन्त दुःख का अनुभव कर रहा है, इसलिए उदयसिंह आप देवसिंह और सूर्यवर्मा सब लोग मिलकर मेरे दिये हुए मन्त्र को लेकर चित्ररेखा के पास जाओ । वहाँ नृत्य आदि द्वारा उसे मोहितकर उस कुमारी से उसकी विद्या का अध्ययन कर चले आवो । उपरांत सेनाओं समेत वहाँ पर युद्ध करो।

इतना कहकर देव धर्मराज अन्तर्हित हो गये और जागकर राजा अत्यन्त विस्मित होने लगे । पश्चात् उन्होंने धर्मराज के बताये हुए सभी उपायों समेत उनकी आदि से अन्त तक सभी बातें उदयसिंह से बतायी । फाल्गुन मास के आरम्भ में नृत्य-गान निपुण वे तीनों योगी का वेष धारणकर रमणीक इन्द्रगृह नगर में राजा गजपति की राजसभा में पहुँचकर देवसिंह ने मृदङ्ग, मकरन्द ने सारङ्गी बजाना आरम्भ किया और उदयसिंह सर्वमोहक नृत्य-गान करने लगे । अपनी कला कुशलता से उन लोगों ने वहाँ के नागरिकों एवं राजा को एकदम मोहित कर दिया। अपने कुल कुटुम्ब एवं सेना समेत प्रसन्न होकर राजा से कहा—योगिन् ! आप मनइच्छित वस्तु बताइये, क्या चाहते हैं । इसे सुनकर उन लोगों ने नम्रता पूर्वक कहा-आप अपने पुत्र सूर्यवर्मा दो (कुछ दिन के लिए) मुझे दे दीजिये, मुझे कुछ विशेष कार्य करना है । कार्य हो जाने पर मैं आपके पुत्र को शीघ्र लौटा हूँगा। क्योंकि ब्रह्मा ने विश्व की रक्षा के लिए ही राजाओं का धर्म बनाया है ऐसा सुनकर राजा ने उन्हें अपना पुत्र सौंप दिया, पश्चात् वे अपने अन्तः पुर में चले गये और इन लोगों ने अपना कार्यारम्भ किया। पन्द्रह दिन की यात्रा करके ये लोग बाह्नीक नगर पहुँचे, वहाँ धर्मराज द्वारा प्रदत्त यंत्र को लेकर प्रसन्नता मग्न होते हुए शत्रु के महल में प्रविष्ट हो गये, जहाँ सभी नागरिक क्षत्रीगण उपस्थित थे। इन लोगों ने अपनी नृत्य-गायन एवं वाद्य की कलाओं द्वारा वहाँ की उपस्थित जनता समेत सभी क्षत्रियगण को अत्यन्त मोहित किया। उससे तोमर कुलभूषण क्षत्रीगण ने प्रसन्नता विभोर होकर इन्हें अत्यन्त धन प्रदान किया। पश्चात् वे राजा अभिनन्दन के महल में नृत्य करने के लिए गये। वहाँ मकरन्द ने वीणा और देवसिंह ने मृदङ्ग बजाना आरम्भ किया तथा सूर्यवर्मा मजीरा बजा रहे थे एवं उदयसिंह अपने नृत्य-गान द्वारा वहाँ स्थित राजा और रानियों को मोहितकर रहे थे। इनकी कलाओं से वहाँ का नारीवृन्द अत्यन्त मुग्ध हो गया। उसी समूह में चित्ररेखा भी उपस्थित थी जिसने इन लोगों के मोहनार्थ अनेक भाँति की माया का निर्माण अनेक बार भी किया, किन्तु वह उसी समय निष्फल हो गयी। मोहित होकर उसने उन लोगों से कहा वीर ! आप क्या जानते हैं, कहिये ! उदयसिंह ने उस स्त्री से कहा-देवि ! उस शुक (तोते) को मुझे दे दीजिये नहीं तो मैं शाप प्रदान करूंगा। इसे सुनकर चिंतित होती हुई चित्ररेखा ने योगियों से कहा-सत्य कहिये, आप कौन हैं । क्योंकि मेरी जिस माया द्वारा इन्द्रादि देवराण क्षणमात्र में मुग्ध हो जाते हैं, वह आप में निष्फल हो गई, आप मोहित न हो सके, अतः आप नारायण देव, धर्मराज, अथवा स्वयं शिव देव हैं ।

उसके इतना कहने पर उदयसिंह ने कहा । देवि ! मेरा नाम उदयसिंह है, मेरे साथ में देवसिंह, मेरा साला मकरन्द और सूर्यवर्मा हैं । इन्दुल के वियोग में हम लोगों ने योगी का वेष धारण किया था। मेरे बड़े भाई आह्लाद (आल्हा) को उसके वियोग में उन्माद हो गया है, अतः देवि ! शुक (तोते) अथवा इन्दुल को शीघ्र मुझे सौंप दो । इतना कहकर वे मुक्त कंठ से रुदन करने लगे हा महाबल, इन्दुल ! मुझे शीघ्र दर्शन प्रदान करो, अन्यथा मैं प्राण त्यागकर रहा हूँ । इसे सुनकर सुन्दरी चित्ररेखा लज्जा का भाव प्रदर्शित करती हुई उनसे कही–पुत्र समेत मुझे भी ग्रहण करने की कृपा कीजिये। इतना कहकर उसने इन्दुल का सर्वाङ्ग सुन्दर पुरुष रूप बनाया । पश्चात् वे दम्पती उनके चरण पर गिरकर उच्च स्वर से रुदन करने लगे । हर्षमग्न होकर उदयसिंह ने उन्हें आश्वासन पूर्वक इन्दुल से एक पत्र लिखवाया। उसे लेकर वे उसी यंत्र के प्रभाव द्वारा मयूर नगर पहुँच गये । पश्चात् मकरन्द से सम्मानित होकर सूर्यवर्मा अपने घर चले गये । बलवान् देवसिंह ने उस पत्र को लेकर मनोरथ नामक घोड़े पर बैठकर महाबली (महोवा) के लिए प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर वे आल्हाद (आल्हा) के पास गये ।

वहाँ पुत्र शोक से व्यथित होकर उन्मादी की भाँति बैठे हुए आल्हाद (आल्हा) ने उन्हें देखकर कहा-आप कौन हैं, उन्मादी की भाँति घूम रहे हैं। उन्होंने कहा-मैं आप के पुत्र का अन्वेषण करने वाला देवसिंह हूँ। वीर! इस पत्र को ग्रहण कीजिये, जिसे स्वयं आप के पुत्र ने लिखा है। इसे सुनकर आह्लाद (आल्हा) को परम आनन्द की प्राप्ति हुई । जिस प्रकार उनके पुत्र का अपहरण हुआ था, उन्होंने सभी कारणों के जानने की चेष्टा की । पश्चात् महीपति ! (माहिल) को बुलवाकर नम्रता पूर्वक उन्होंने उनसे कहा राजन् ! जिस प्रकार उदयसिंह द्वारा मेरे पुत्र का अपहरण हुआ है, आप सत्य बताने की कृपा करें। उन्होंने कहा-वीर ! उदयसिंह ने जिस प्रकार उसका वध किया मैंने सुना था और आप को बताया भी था। इतना कहकर उन्होंने हँसते हुए कहा–‘मेरा कार्य तो सिद्ध हो गया।’ इतना सुनते ही आह्लाद (आल्हा) के दोनों नेत्र क्रुद्ध होने के नाते ताँबे की भाँदि रक्त वर्ण के हो गये। उन्होंने बेत की छड़ी लेकर स्वयं अपने हाथ से उन पर आघात करना आरम्भ किया। उसे सुनकर पत्नी समेत राजा परिमल ने वहाँ आकर रामांश एवं अनेकरूप धारी आह्लाद (आल्हा) को प्रवोधित (समझाने) करने लगे। क्रुद्ध होकर दण्डित करते समय आलाद (आल्हा) उससे कह रहे थे-अरे धूर्त महापापिन् ! तुमने मेरे भाई का निधन कराया है, इसलिए वह मेरा प्राण जहाँ गया है, उसी स्थान में मैं तुम्हें सकुटुम्ब भेज रहा हूँ। उस समय महीपति (माहिल) भी मौन होकर दीर्घ निश्वास लेते हुए अपने हृदय में किये हुए अपराध के स्मरण पूर्वक उस महापीडा का अनुभव कर रहे थे। उसी बलखानि (मलखान) ने आकर उन मातुल (मामा) को अपने बड़े भाई द्वारा वध किये जाने से मुक्त कराया। पश्चात् अपने भतीजे के विवाह की तैयारी करने लगे। उस आयोजन में एक लाख सैनिक समेत नेत्रसिंह डेढ़ सहस्र शूरवीरों समेत तारक (ताहर), साढ़े नब्बे सहस्र सेना लेकर वीरसेन एक लाख सेना लेकर तालन, एक लाख सैनिक समेत सूर्य वर्मा तीन लाख सैनिक समेत ब्रह्मानन्द और अत्यन्त चितित अवस्था में आह्लाद (आल्हा) भी एक लाख सैनिकों समेत विलाप करते हुए चल रहे थे—हा बंधो ! मुझ नीच पुरुष को छोड़कर तुम कहाँ चले गये । उनकी चेतना भी कभी-कभी लुप्त हो जाती थी । बलवान् बलखानि (मलखान) ने भी देवसिंह के साथ में अपने एक लाख सैनिकों समेत बालीक नगर को प्रस्थान किया। दिन-रात की यात्रा करते हुए वे सब वीरगण एक मास में वालीकनगर पहुँचे। उस दिन ज्येष्ठ कृष्ण की पञ्चमी थी। वहाँ पहुँचने पर बलखानि (मलखान) ने व्यूह रचना आरम्भ किया। पहले रथ के सैनिक, गज, पचास घोड़े पश्चात् उनके पीछे दश-दश पदाति (पैदल) की सेना स्थित की गई । उस एक सेना का प्रमाण मैं बता रहा हूँ जिसमें रथ, गज, और पचास-पचास घोड़े थे-सेना में पाँच सहस्र तोपें, और पचास सहस्र पदाति (पैदल) सैनिक थे।

इस प्रकार बलखानि (मलखान) की सोलह सेना थी, जिसमें दश सहस्र मदोन्मत्त गजराज पृथक्-स्थित किये गये थे। शत्रुओं पर आघात करने वाली उनकी सेना की इस प्रकार गणना कर दी गई। राजा अभिनन्दन की सेना की गणना इस प्रकार बतायी गयी है-पिशाचधर्मी म्लेच्छ तीन लाख की संख्या में अश्वारोही थे, एक लाख तोपें और एक लाख पदाति (पैदल) सैनिक, जो भुशुण्डी एवं परिघ अस्त्र से सुसज्जित थे। तोमर कुल के वीर क्षत्रीगण दश लाख की संख्या में गजों पर आसीन होदर रणस्थल में आह्लाद (आल्हा) की सेना के समीप पहुँच गये। दोनों सेनाओं का रोमाञ्चकारी एवं भीषण तुमुल युद्ध होने लगा। उन मदमत्त वीरों ने निर्भय होकर रणभेरी बजाना आरम्भ कर दिया, अविराम गति से दिन-रात होते हुए वह युद्ध सात दिन तक हुआ । वाह्लीक की आधी सेना और बलखानि (मलखान) की एक लाख सेना उस युद्ध में काम आई । शत्रु की सेना में हाय-हाय मच गया, भयभीत होकर वे लोग इधर-उधर भागने लगे और बलखानि (मलखान) आदि के सैनिक ‘जयदुर्गे’ के नारे लगाते हुए हर्षित हो रहे थे। अपनी सेनाओं को विनष्ट होते देखकरवे सातों राजकुमार, जो कौरवों के अंश से उत्पन्न थे, रण-क्षेत्र में पहुँच गये। महानन्द, नन्द, परानन्द, उपनन्द, सुनन्द, सुरानन्द और प्रनन्द उनके नाम थे, और तोमर कुल के वे भूषण गजराजों पर स्थित थे। अपने तीक्ष्ण वाणों के प्रहारों से बलखानि (मलखान) के सैनिकों को धराशायी करने लगे। पश्चात् भयभीत होकर वे सैनिक बलखानि (मलखान) की शरण में पहुँच गये । अपनी सेना को पराजित होते देखकर बलखानि (मलखान) ने क्रुद्ध होकर कपोत (कबूतर) नामक घोड़े पर बैठकर उस रण क्षेत्र को प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचकर नन्द के साथ देवसिंह, परानन्द के साथ तालन, उपनन्द से सूर्यवर्मा, सुनन्द से तारक (ताहर), सुरानन्द के साथ नेत्रसिंह, एवं प्रनन्द के साथ यादव (मकरन्द) का भीषण युद्ध आरम्भ हुआ। उन वीरों ने परस्पर एक दूसरे के वध की इच्छा करते हुए दोपहर तक घोर युद्ध किया। जिसमें अनेक वीरगण हताहत हुए । पश्चात् बाह्नीक के वे राजकुमार बलखानि (मलखान) के भय से भयभीत होकर युद्ध छोड़कर भाग निकले। राजा अभिनन्दन ने शत्रु की सेना को भीषण देखकर कुतुक तथा नाट्या केशरिणी को बुलवाकर उनसे अपने पराजय का सभी कारण यथावत् बताया। इसे सुनकर कुतुक ने राजा को आश्वासन देते हुए महादेव द्वारा निर्मित उस शांबरी माया के ध्यान पूर्वक शत्रुओं की सेनाओं को पाषाण बनाकर चेतनाहीन कर दिया। उस समय नाट्या केशरिणी ने महाबलवान् उन आठों वीरों को बाँधकर राजा को ले जाकर सौंप दिया और स्वयं अपने घर चली गई । बाह्रीक राज्याधिपति (अभिनन्दन) ने उन्हें हथकड़ी बेड़ी से दृढ़ आबद्धकर उनके कोष को लुटवाकर अपने कोष में संचित करा लिया। देवी द्वारा प्राप्त किये हुए वरदान के नाते देवसिंह शेष रह गये, जो उसकी माया से प्रभावित न हो सके थे, उन्होंने भयातुर होकर महावती (महोवा) में पहुँचकर स्वर्णवती (सोना) से सभी वृत्तान्त कहा। सम्पूर्ण विद्याओं की विदुषी स्वर्णवती (सोना) उसी समय वाज पक्षी का रूप धारणकर पुष्पवती के पास चली गई।

बहाँ मकरन्द के घर दम्पती (स्त्री-पुरुष) को देखकर रुदन करती हुई उनसे अपने पक्ष के पराजय का कारण बताया। उस समय दुःखी होकर उदयसिंह ने मकरन्द से कहा-मेरे साथ चलने के लिए शीघ्र तैयारी करो, क्योंकि मेरे गुरु (आह्लाद) भी बंधन में फँस गये हैं। पूर्व के विद्वानों ने बताया है कि-कुलक्षय होने पर महापातक की प्राप्ति होती है ! अतः मेरे प्रिय ! दुःख सागर में डूबते हुए मेरा उद्धार करो। इतना सुनकर उनके साले ने दश सहस्र सैनिकों समेत संन्यासी का वेष धारणकर हाथ में खड्ग और चर्म (दाल) लिए बाह्रीक नगर को प्रस्थान किया। घोड़े पर बैठे हुए उदयसिंह उस सैन्य का संचालन शीघ्रता से कर रहे थे। उस समय स्वर्णवती (सोना) भी पुष्पवती समेत उसी बाज पक्षी के वेष में वहाँ के रणस्थल में पहुँच गई। उसने शाम्बरी माया के विध्वंस पूर्वक अपने सैनिकों को चेतना प्रदान की जो चैतन्य होने पर पुनः अभिनन्दन की राजधानी को चारों ओर से घेर लिये । शत्रु सेना को चैतन्य देखकर उनसे ऊपर कुतुक ने केशरिणी के साथ रहकर पुनः शाम्बरी माया (जादू) का जाल रचा। इन दोनों (युवतियों) ने पुनः उनकी माया के नाशपूर्वक उन दोनों दुष्टों को बाँध लिया पश्चात् उस राजधानी को भस्म करने का प्रयत्न किया, किन्तु राजा की माया द्वारा सुरक्षित होने के नाते दाह में ज्वलन शक्ति रह न गई, अतः भस्म किये जाने पर वह भस्म न हो सका। क्योंकि उस माया का निर्माण स्वयं चित्ररेखा ने किया था। स्वर्णवती (सोना) के उस प्रयास को विफल होते देखकर पुष्पवती देवी ने क्रुद्ध होकर केशरिणी का निधन कर उसके मांसों से गीधों और स्यारों को तृप्त किया। उधर स्वर्णवती (सोना) ने भी कुतुक का हनन करके जेल में लोहे की श्रृंखलाओं से दृढ़ आबद्ध उन अपने वीरों को मुक्त किया । पश्चात् वह (स्वर्णवती) देवी पुष्पवती के साथ मकरन्द के पास आई, जहाँ वे उदयसिंह समेत स्थित थे । शत्रु के सैनिकों ने अपने को देवी द्वारा अत्यन्त मुग्ध जानकर अत्यन्त क्रुद्ध होकर पुनः युद्ध करने के लिए प्रस्थान किया। उन दोनों सैनिकों का घोर युद्ध आरम्भ हुआ, जिसमें बलखानि (मलखान) के साथ महानन्द, आह्लाद से नंद, देवसिंह से परानन्द, तारक से उपनंद, नेत्रसिंह से सुनन्द और तालन से सुरानन्द, वीरसेन से प्रनन्द, और ब्रह्मा से स्वयं राजा युद्ध कर रहे थे। राजकुमार गण गजराज पर स्थित होकर धनुर्युद्ध अविराम गति से कर रहे थे। वह युद्ध दिन-रात चलता रहा पश्चात् उसी बीच रात्रि में चित्ररेखा ने वहाँ रणस्थल में आकर अपने पक्ष के सैनिकों को व्याकुल देखकर चित्रगुप्त के ध्यान पूर्वक चित्रमाया का निर्माण किया। उसने उस माया में अनेक सहायक बन्धुगण का निर्माण किया था, जो अधिकांश अभिनंदन वंश के दिखाई दे रहे थे। उन्हें देखकर महावती के सैनिक अत्यन्त भयभीत एवं आश्चर्य चकित होकर पलायन करने लगे । शोकग्रस्त तथा व्याकुल होकर उन सैनिकों ने वहाँ से भागकर पाँच योजन (बीस कोश) की दूरी पर अपना निवास स्थान बनाया। संध्या समय अँधरे में वे बलवान सैनिकगण हतोत्साहित होकर रुदन करते हुए विलाप कर रहे थे–महा महाबाहो, उदयसिंह ! शरणागत को अपनाने वाले चित्ररेखा ने तुम्हारे इन्दुल कुमार का अपहरण कर लिया है। उसी द्वारा विमोहित होकर हमलोग तुम्हारी शरण में प्राप्त हैं । इस भॉति विलाप करके उच्चस्वर से रुदन किया। हा महामते ! तुम कहाँ हो । सैनिकों के रुदन करने पर मंहान् कोलाहल (शोर) हुआ। वे सब आह्लाद (आल्हा) की निन्दा करते हुए मूच्छित होकर पृथ्वी पर गिर गये ।

इसे सुनकर आह्लाद (आल्हा) भी वज्रपात हो जाने की भॉति स्वयं आहत होकर उन्मादी की भाँति अपने वक्षःस्थल को ताडित करने लगे। उसी बीच भगवान की कला एवं कृष्ण के अंश से उत्पन्न उदयसिंह योगी के वेष में मकरन्द तथा दशसहस्र सैनिकों समेत अष्टमी शुक्रवार के दिन चन्द्रोदय होने पर वहाँ पहुँच गये। तदुपरान्त बलखानि (मलखान) की सेनाओं में लूट करना आरम्भ किया सभी राजाओं को जीतकर विपुल धन की प्राप्ति की। पुनः पंचशब्द नामक गजराज पर स्थित अपने भाई के सामने आकर सिंहनाद किया। उनके शब्द को सुनकर बलशाली (मलखान) ने उन्हें पहचान लिया। उस समय उस पराक्रमी को शुभ शकुन भी हो रहा था, अतः उसने अटल भाव से अपने दोनों हाथों को ऊपर उठाकर योगी वेषधारी उदयसिंह को अपने अंक (गोद) में बैठा लिया, पश्चात् उनके प्रेम में अधीर होकर आँसुओं की धारा से उन्हें स्नान कराया, और ब्राह्मणों को दान द्वारा तृप्त करते हुए सभी कारणों का आद्योपान्त वर्णन किया। प्रसन्न होकर उदयसिंह ने भी अपनी सकल कथा सुनाई । अनन्तर पुनः सैन्यों का संचालन करते हुए बाह्नीक नगर को प्रस्थान किया। वहीं पहुँचकर उन्होंने चित्ररेखा द्वारा अधीत उस विद्या का प्रबल प्रयोग करके चित्ररेखा की माया का ध्वंस-कर दिया। राजा अभिनन्दन को उनके पुत्रों एवं मंत्रियों समेत बाँधकर इन्दुल द्वारा उनकी पुत्री चित्ररेखा का पाणिग्रहण सुसम्पन्न कराया । उस समय राजा अभिनन्दन ने भी अत्यन्त हर्षमग्न होकर अत्यन्त धन समेत अपनी पुत्री इन्दुल को समर्पित की जिसमें सौ हाथी, सौ, घोड़े, सहस्र गायें, सौ दास और उतनी ही दासियाँ थीं । इन्हें सादर ग्रहण करते हुए बलखानि (मलखान) ने महावती (महोबा) को प्रस्थान किया । और श्रावणमास में सभी दल-बल समेत महामती (महोबा) पहुँचने पर आह्लाद (आल्हा) ने सभी सैनिकों एवं राजाओं का यथोचित्त पुरस्कार पुरस्सर सम्मान किया, पश्चात् वे सब आतिथ्य ग्रहण करते हुए अपने-अपने घर चले गये ।
(अध्याय २३)

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