भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय २४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग)
अध्याय २४

सूत जी बोले — इन्दुल के विवाह संस्कार को सुसम्पन्न कराकर उदयसिंह के घर पहुँचने पर महीपति (माहिल) सदा दुःखी रहने लगे । पश्चात् तारक (ताहर) समेत दिल्ली जाकर उन्होंने राजा के समक्ष सभी वृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर उदयसिंह के चरित्र में राजा को महान् आश्चर्य हुआ। उसी बीच उदार एवं बुद्धिमान मंत्री चन्द्रभट्ट ने राजा से कहा-राजन् ! मैंने जगज्जननी वैष्णवी देवी की आराधना की है। om, ॐउस वरदहस्ता एवं अभयदान देने वाली देवी ने, जो मेरी आराधना द्वारा तीसरे वर्ष की समाप्ति में प्रसन्न हुई थी, कुमति का नाशक शुभज्ञान मुझे प्रदान किया है। नृप ! पश्चात् उसी ज्ञान द्वारा मुझे उदयसिंह चरित्र विषयक जानकारी हुई है। इसीलिए मैंने उनके पापापहारी चरित्र का वर्णन करते हुए एक ग्रन्थ का निर्माण किया है। इतना कहकर उन्होंने उस भाषा ग्रन्थ को जिसमें शुद्ध भाषा द्वारा देवी के भक्तों का माहात्म्य वर्णन किया गया था, सभा में स्थित लोगों को सुनाया। उसे सुनकर पृथ्वीराज उसी समय अत्यन्त आश्चर्य चकित होने लगे। उस समय महीपति (माहिल) ने कहा-जिस बलवान् उदयसिंह का यह चरित्र कथारूप में वर्णित है उन्हें दिव्य घोड़ों का अभिमान अधिक है, क्योंकि उसके दिव्य शरीरधारी चार घोड़े हैं, जो जल, स्थल एवं आकाश में समान रूप से चलते हैं उनका शीघ्र अपहरण करके आप स्वयं सबसे बली हो सकते हैं । इसे सुनकर राजा ने कुन्दनमल नामक एक सेवक को बुलाया जो व्यावहारिक वार्तालाप में अत्यन्त निपुण था और उसे सभी बातें बताकर शीघ्र भेज दिया। वह दूत महावती (महोबा) राजधानी में पहुँचकर नम्रता पूर्वक पृथ्वीराज के सन्देश को कहने लगा-राजन् ! दिव्य एवं शुभ शरीरधारी चार घोड़े आप के हैं, उन्हें देखने के लिए मेरी पुत्री वेला, जो आप की पुत्रवधू है, अपनी इच्छा प्रकट कर रही है । अतः भूप ! उसकी इच्छा के अनुसार आप आश्चर्य का परित्याग करते हुए घोड़ों को शीघ्र भेजने की व्यवस्था करे, अन्यथा (नहीं तो) इस भीषण सन्देश को सुनकर अत्यन्त भयभीत होते हुए राजा परिमल ने आह्लाद (आल्हा) आदि को बुलाकर उनसे नम्रतापूर्वक कहा-मेरी बात स्वीकार करो-अपने-अपने घोड़े प्रसन्नता पूर्वक उन्हें समर्पित कर दो।

उसे सुनकर आह्लाद (आल्हा) ने उन जगन्मयी कल्याणी पार्वती देवी का ध्यान करके मधुर वाणी द्वारा राजा से कहा-शिवप्रिय राजन् ! शरीर स्थित प्राण के समान ये घोड़े मुझे प्रिय हैं, और उन्हीं के स्थान में वे स्थित भी हैं, अतः राजन् ! घोड़े देने में हम लोग विवश हैं, यह मैं सत्य एवं ध्रुव सत्य कह रहा हूँ, यह बात अन्यथा नहीं हो सकती है, इसे सुनकर बलशाली राजा परिमल ने उन बलवीरों के समक्ष घोर शपथ किया-। ब्राह्मण मांस के समान यहाँ का भोजन, गौ के रक्त के समान जल, माता के समान शय्या, ब्रह्महत्या के समान यहाँ की सभा और मेरे राज्य में निवास करना तुम्हारे लिए महान् पाप है । इस भीषण शपथ को सुनकर देवी देवकी अत्यन्त चिंतित होकर गाढ़ रुदन करने लगी, उन्हें देखकर उनके जन परिजन सभी रुदन करने लगे। उस समय उदयसिंह की पच्चीस वर्ष की अवस्था आरम्भ थी । भाद्रपद शुक्ल की चतुर्दशी के दिन उन धार्मिक वीरों ने उनके घर से निकल कर राजा जयचन्द्र की कान्यकुब्ज (कन्नौज) नामक राजधानी को प्रस्थान किया। उस यात्रा से स्वर्णवती (सोना) पुण्यवती एवं चित्ररेखा समेत इन्दुल दश सहस्र अश्वारोहियों के साथ चल रहे थे। वे स्वयं कराल नामक घोड़े पर बैठे थे और उनके पिता पंचशब्द नामक गजराज पर स्थित थे। उसी प्रकार विन्दुल (वेंदल) पर बैठकर उदयसिंह देवकी देवी के अनुगामी होकर चल रहे थे । उन वीरों ने राजा के उस सुसम्पन्न गाँव के परित्याग पूर्वक तीन दिन की यात्रा करके जयचन्द्र की राजधानी को देखा । वहाँ पहुँचकर नमस्कार पूर्वक राजा से समस्त वृत्तान्त बताकर शीतला स्थान में रहकर चण्डिका देवी की पूजा की । अपने निष्कासन के सभी कारणों का देवसिंह द्वारा वर्णन करने पर राजा जयचन्द्र ने उन्हें कोई वृत्ति देने से इसलिए अस्वीकार किया कि परिमल की सम्मति नहीं थी पश्चात् देवसिंह ने निराश होकर उदयसिंह के पास जाकर उनसे उस वृत्तान्त का वर्णन किया जिसे सुनकर उदयसिंह ने अत्यन्त उत्तेजित होकर शीघ्र बिन्दुल पर बैठकर पाँच सौ सैनिकों समेत लक्षण (लाखन) द्वारा सुरक्षित नगर का लूट करना आरम्भ कर दिया। उसे देखकर वीर लक्षण (लाखन) ने अपने हाथी पर बैठकर उनके सामने पहुँचकर उदयसिंह के हृदय में बाण प्रहार किया। किन्तु, विष्णु मंत्र द्वारा प्रेरित होने पर भी वह बाण निष्फल हो गया । आश्चर्य चकित होकर राजा लक्षण (लाखन) हाथी से उतरकर पृथिवी में खड़े होकर उनके चरण की, जो वज्र आदि सेवकों से विभूषित थे, नमस्कार पूर्वक अपनी गद्गद् वाणी द्वारा उनकी स्तुति की ।

लक्षण (लाखन) ने कहा-स्वामिन् विष्णु का पूजन करने वाला मैं वैष्णव (विष्णु का भक्त) हूँ । महाबाहो ! मैं आपको भली भाँति जानता हूँ, आप कृष्ण भगवान् की शक्ति द्वारा अवतरित हुए हैं। क्योंकि आप के अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष मेरे बाण को असफल करने वाला इस भूतल में नहीं है। अतः नाथ! मेरी इस धृष्टता को आप क्षमा करें, क्योंकि आप की माया से प्रेरित होकर मैंने ऐसा किया है। इतना कहकर उनको साथ लेकर लक्षण (लाखन) जयचन्द्र के पास पहुँचकर उनसे अपने पराजय का क्रमशः यथोचित वर्णन किये । तदुपरान्त राजा ने उनके परीक्षार्थ कुबलयापीड नामक हाथियों को जो छाया से मोहित किये थे, शीतला-स्थान के विशाल प्राङ्गण में भेजा। उस समय आह्लाद (आल्हा) और उदयसिंह ने लीलापूर्वक उसे पूँछ की ओर पकड़कर एक कोश तक खींचा-खींची की, जिससे उस कुवलयापीड़ नामक गजराज की मृत्यु हो गई। उसका निधन देखकर भयभीत होते हुए राजा ने उन्हें राजग्रह नामक गाँव सौंप दिया । पश्चात् आश्विन शुक्ल के आरम्भ होने पर बलवान् लक्षण (लाखन) ने राजा की आज्ञा प्राप्तकर उन वीरों के साथ दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया । उस यात्रा में अपने सात लाख सैनिकों समेत तालन आदि भी चल रहे थे। वाराणसी (बनारस) पहुँचकर उसे जो गौड़ वंश में उत्पन्न एवं यशस्वी राजा रुद्रवर्मा की राजधानी थी, उन लोगों ने चारों ओर से घेर लिया। राजा रुद्रवर्मा ने अपने पचास सहस्र सैनिकों समेत रणस्थल में आकर युद्ध करना आरम्भ किया, किन्तु, एक प्रहर के भीतर ही उनपर विजय प्राप्तकर सोलह वर्ष का कर उनसे प्राप्त किया, जो एक कोटि (करोड़) की संख्या में था। उसे जयचन्द्र के पास प्रेषितकर उन लोगों ने मगधाधिप विजय के राजा पर आक्रमण किया। विजय प्राप्ति पूर्वक बीस वर्ष का कर उनसे प्राप्तकर जो एक कोटि की संख्या में था, अपने राजा के पास पहुँचा दिया। पुन: वहाँ से वंग (बंगाल) देश के अधिनायक राजा कलिवर्मा के यहाँ पहुँचकर उनके एक लाख सैनिकों के साथ लक्षण (लाखन) ने घोर युद्ध आरम्भ किया। दिन-रात (चौबीस घंटा) अनवरत युद्ध करके विजय समेत उनसे बीस वर्ष का कर प्राप्तकर जो एक कोटि (करोड़) सुवर्ण मुद्राके रूप में था, प्रसन्नतापूर्वक राजा जयचन्द्र को अर्पित कर दिया ।

वहाँ से आगे बढ़कर उष्ट्रदेशाधिपति राजा धोयी कवि की एक लाख सेना से मुठभेड़ किया। उनके भी एक लाख सैनिक थे जो जगन्नाथ की आज्ञा प्राप्तकर रणभेरी बजाते हुए युद्ध के लिए सन्नद्ध थे। दोनों सेनाओं का रोमाञ्चकारी एवं भीषण युद्ध आरम्भ हुआ । उदयसिंह ने दिन-रात के भीतर ही उस राजा को भी जीत लिया। एक करोड़ की संख्या में उन सुवर्ण मुद्राओं को, जो बीस वर्ष के कर के रूप में था उस राजा से प्राप्तकर कान्यकुब्जाधिपति जयचन्द्र के पास भेज दिया । पुनः लक्षण (लाखन) वीर ने पुण्डू देश की यात्रा की । वहाँ नागपति नामक राजा के साथ जिनके यहाँ पचास सहस्र सैनिक सदैव सुसज्जित रहा करते थे, युद्ध कर सूर्यास्त के पहले उनसे विजय प्राप्ति पूर्वक एक कोटि मुद्रा ग्रहण किया। पश्चात् महेन्द्र पर्वत पर जाकर भार्गव मुनि के नमस्कार पूर्वक राजा योगसिंह नेत्रपाल के पुर में पहुँचे। उन्होंने उदयसिंह को एक कोटि मुद्रा प्रदान पूर्वक सात दिन तक अपने यहाँ निवास कराया ।

पुनः उन मदोन्मत्त वीरों ने वीरसिंह की नगरी में पहुँचकर उसे जो हिमालय की चोटी पर स्थित थी, चारों ओर से घेर लिया, जिसे योगी गोरखनाथ ने राजा के भक्त होने के नाते अत्यन्त सुरक्षित रखा था। राजा के छोटे भाई प्रवीर ने अपने दश सहस्र सैनिकों समेत लक्षण (लाखन) की सेना से घोर युद्ध आरम्भ किया। वह बलवान् वीर प्रतिदिन एक सहस्र सैनिकों को धराशायी कर सायंकाल में घर पहुँचने पर उस योगी की पूजा करता था। उसके पूजन से प्रसन्न होकर वह योगी राजा के सैनिकों को जीवित कर दिया करता था। और उन्हें हाथी के समान बल प्रदानकर वे पुनः योगनिष्ठ हो जाते । इस प्रकार उन बलशालियों का डेढ़ मास तक युद्ध होता रहा। उस समय हताश होकर सैनिकों समेत उदयसिंह ने देवसिंह से कहा राजन् ! हम लोगों की विजय क्यों नहीं हो रही है, इसका कारण हमें बताने की कृपा कीजिये । इसे सुनकर उन्होंने कहा उदयसिंह ! मेरी बातें सुनो ! योगी गोरखनाथ को अपने नृत्य द्वारा पराजित करके पुनः युद्ध करने से तुम्हें निश्चय विजय प्राप्ति होगी। इतना कहने पर उदयसिंह आदि वीरों ने योगी के वेष धारणकर प्रातः काल उस योगी के मन्दिर के लिए प्रस्थान किया ! इधर रणस्थल में सेना की रक्षा लक्षण (लाखन) कर रहे थे।

वहाँ मन्दिर में पहुँचकर वंशी वाद्य में निपुण उदयसिंह नृत्य कर रहे थे, जिसमें देवसिंह मृदङ्ग, तालन वीणा और मजीरा आह्लाद (आल्हा) बजा रहे थे। तथा सनातनी गीता का गान आरम्भ था । योगनिपुण गोरखनाथ ने उसके अर्थ को हृदयङ्गम करके उन लोगों से कहा-वर की याचना करो! इसे सुनकर उन लोगों ने कहा-हम लोग आपको नमस्कार कर रहे हैं, यदि आप प्रसन्नता पूर्ण होकर वरप्रदान करना चाहते हैं, तो श्रेष्ठ आह्लाद (आल्हा) को संजीवनी विद्या प्रदान करने की कृपा कीजिये । इसे सुनकर कुछ समय तक ध्यान करने के उपरांत प्रसन्न होकर उन्होंने कहा-यह संजीवनी विद्या एक वर्ष तक तुम्हें फल प्रदानकर सकेगी, पश्चात् निष्फल होने पर मेरे पास लौट आयेगी । अतः वीर ! आज से मैं इस जगत का परित्याग करके शिष्य भर्तृहरि के यहाँ जाकर शयन करूंगा। इतना कहकर योगी गोरखनाथ अन्तहित हो गये उन वीरों ने रणस्थल में पहुँचकर प्रवीर समेत वीरसिंह पर विजय प्राप्ति पूर्वक उनकी दश सहस्र सेना और गृह में लूट कराकर राजा को अपना सेवक बनाया। तदनन्तर प्रसन्न होकर लक्षण (लाखन) ने कौशल प्रदेश में पहुँचकर वहाँ के राजा सूर्यधर को जो अपनी दश सहस्र की सेना के साथ युद्ध कर रहे थे, पराजित कर उनसे सोलह वर्ष का कर, जो एक कोटि की संख्या में था, प्राप्त करके नैमिषारण्य में स्नानार्थ प्रस्थान किया। उस समय वहाँ होली के अवसर पर बली लक्षण (लाखन) ने ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के दान-प्रदान पूर्वक महोत्सव कराया। उस समय हमलोग तथा मुनिगण समाधिस्थ थे। राजा लक्षण (लाखन) नैमिषारण्य में पहुँचकर समस्त तीर्थों के स्नान पूर्वक व्राह्मणों एवं देवताओं को प्रसन्न किये। उपरांत चैत्र कृष्ण की अष्टमी के दिन कान्यकुञ्ज (कन्नौज) के लिए प्रस्थान किया। विप्र । इस प्रकार मैंने तुम्हें उनके दिग्विजय का वर्णन सुना दिया। विप्र ! अब उम कथा को सुना रहा हूँ, जिसमें बलखानि (मलखान) के स्वर्गवासी होने का वर्णन किया गया है, सुनो ! बलवान् निर्भीक पृथ्वीराज ने मार्गशीर्ष (अगहन) मास के कृष्ण सप्तमी दिन महीपति (माहिल) द्वारा भेजे सामन्त से कहा- मैंने सुना है कि आपका पुत्र शारदा के वरदान से अत्यन्त मदोन्मत होकर रक्तबीज हो गया है। अतः उसे मुझे सौंप देने की कृपा करें। इस प्रकार कहने एवं राजा द्वारा सत्कृत होने पर उस सामन्त ने चामुण्ड नामक अपने पुत्र को बुलाकर यह कहा-‘रणप्रिय ! पुत्र राजा का कार्य करने के लिए तुम सदैव तैयार रहो’ पिता की ऐसी बातें सुनकर उसने राजा से कहा-‘राजन् ! मुझे आज्ञा प्रदान कीजिये, आपकी शीघ्र विजय होगी। इसे सुनकर राजा ने कहा-महाबली बलखानि (मलखान) ने शिरीष नामक बन को काटकर उस मेरे उत्तम राष्ट्र को अपना लिया है । उस गृह में वह बाहुशाली एवं संयमी वीर निर्भय होकर रह रहा है । यदि तुम बलखानि (मलखान) पर विजय प्राप्तकर उसे मुझे समर्पित कर दो, अथवा उसकी हत्या कर दो, तो वह सम्पूर्ण राष्ट्र तुम्हारा हो जायेगा। इतना कहकर उन्होंने अपनी सात लाख सेना उसे प्रदान किया और उसने भी प्रसन्नता पूर्वक सैन्य समेत प्रस्थान किया। मार्ग में तीन दिन व्यतीत कर शिरीष बन में पहुँचकर उस यशस्वी बलखानि (मलखान) की नगरी को चारों ओर से घेर लिया। बलशाली बलखानि (मलखान) ने चामुण्ड का आगमन सुनकर महामाया की पूजा समेत अनेक प्रकार के दान करके अपने एक लाख सैनिकों को लेकर नगर से बाहर रणस्थल की ओर यात्रा की। उसके छोटे भाई महाबली सुखखानि भी साथ में चल रहे थे। हरिणी नामक अश्व पर बैठकर उसने शत्रु-सैनिकों को धराशायी करना आरम्भ किया और कपोत (कबूतर) नामक अश्व पर बैठे बलखानि (मलखान) भी शत्रु की सेना का संहार कर रहे थे। पश्चात् प्रसन्नता पूर्वक वे चामुण्ड (चौंढा) के पास पहुँचे। उन दोनों का घोर युद्ध आरम्भ हुआ, जिसमें दोनों दल के सैनिक शीघ्रता से नष्ट हो रहे थे । अविराम गति से दिन-रात होने वाले उस युद्ध में अनेक शूरवीर क्षत्रिय काम आये । प्रातः काल स्नान आदि क्रिया सुसम्पन्न करने के उपरांत वे दोनों धनुर्विद्या के निपुण वीर रण में पहुँच गये । बलखानि (मलखान) रथ पर और चामुण्ड (चौंढा) गजपृष्ठ पर स्थित होकर दोनों आपस में विस्मय जनक घोरयुद्ध करने लगे। दोनों देवी भक्तों ने बाण से बाण को काटकर पश्चात् एक दुसरे के वाहनों को धराशायी कर स्वयं पृथिवी पर स्थित होकर खड्ग युद्ध करना आरम्भ किया। रक्तबीज के अंग से रक्त के जितनी बँदे गिरती थी, उतने रक्तबीज के समान पराक्रमी पुरुष उत्पन्न हो जाते थे ।

भृगुश्रेष्ठ ! इस प्रकार उन मदोन्मत्त वीरों के चारों ओर से घेर लेने पर बलखानि (मलखान) ने शारदा की शरण प्राप्ति की। उनके छोटे भाई वीर सुखखानि ने वहाँ पहुँचकर अपने आग्नेय बाण द्वारा रक्तबीज को दग्ध कर दिया। पहले समय में सुखखानि ने हव्य (खीर) द्वारा पाँच वर्ष तक अग्निदेव की आराधना की थी। उससे प्रसन्न होकर स्वयं पावक देव ने प्रत्यक्ष होकर उन्हें अपना आग्नेय बाण प्रदान किया, जिससे शत्रु का संहार हो जाता है। उसी बाण के प्रयोग द्वारा उन्हें विजय प्राप्त हुई, इसे देखकर बलवान् बलखानि (मलखान) उस शत्रुहन्ता एवं पराजित चामुण्ड को बाँधकर अपने घर लाये और ब्रह्महत्या के भय से उनका वध न कर केवल स्त्री का वेष धारण कराकर डोला में बैठा उन्हें शत्रु (पृथ्वीराज) के पास भेज दिया। पश्चात् शेष पाँच लाख सैनिकों ने दिल्ली जाकर युद्ध का यथावत् वर्णन किया। उस समय स्त्री-वेष में चामुण्ड को देख कर पृथ्वीराज ने क्रुद्ध होकर महीपति (माहिल) मे कहा–‘जब तक सुखखानि जीवित रहेगा, मेरी विजय कैसे हो सकेगी।’ इसे सुनकर महीपति (माहिल) ने कहा-‘छल छद्म से कार्य कीजिये ।’ उन दोनों वीरों की माता ब्राह्मी हैं, जिन्हें युद्ध पतिव्रता कहा गया है। उन्हीं से दूती द्वारा उनके मरण के कारण का पता लगाकर पुनः युद्धारम्भ कीजिये। इसे सुनकर पृथ्वीराज ने एक छल-कपट निपुण दूतीवृन्द को बलखानि (मलखान) के घर भेजा। उन दुतियों ने अपना ब्राह्मणी वेष बनाकर बलखानि (मलखान) के घर को प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचने पर पुत्री समेत उनकी प्रशंसा करके अत्यन्त विनम्र वाणी द्वारा कहा—सौभाग्य है कि आप के दोनों पुत्र इतने बड़े वीर हैं कि पहुँचते ही शत्रु का नाश कर देते हैं, ईश्वर करें , इनकी सौ वर्ष की आयु होगी, भला, इनकी मृत्यु भी कभी हो सकती है। उसे सुनकर उस समय ब्राह्मी ने कहा-सुखखानि को प्राणदान देने वाला यह आग्नेय बाण है और बलखानि (मलखान) को प्राणदान देने वाला उनका चरण । इस मर्म को जानकर उन दूतियों ने दिल्ली पहुँचकर राजा के समक्ष सभी बातों को कहा। पश्चात् राजा से पुरस्कार रूप में धन प्राप्तकर अपने घर को प्रस्थान किया। दूती की बातों को सुनकर राजा ने उसी समय से आरम्भ कर एक सहस्र दिनों तक प्रसन्नतापूर्ण रहकर अविरत पार्थिव पूजन द्वारा उमापति महादेव की आराधना की ।
( अध्याय २४)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.