भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय २५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग)
अध्याय २५

सूत जी बोले-मुने ! उदयसिंह के छब्बीस वर्ष की अवस्था आरम्भ होने पर उनके द्वारा किये चरित्रों को बता रहा हूँ, सुनो ! दक्षिण दिशा में बिन्दुसर नामक एक जलाशय (सरोवर) है, उसी के तट पर ‘बिन्दुगढ़’ नामक एक दुर्ग-नगर स्थित है, जो योजन भर में विस्तृत एवं वर्ण-धर्म के प्रवर्तक व्यक्तियों से सुशोभित है । उस राजधानी का अधीश्वर शारदानन्दन जो विष्वक्सेन वंश के भूषण है, ब्रह्म-ध्यान का पारायण करते हुए भी, अपनी प्रजाओं के पालन-पोषण में तत्पर रहते है। om, ॐउन्होंने ब्रह्मचर्य के प्रभाव से वीर्य को शिर में स्थित कर लिया था, इसीलिए इस भूतल में वे ‘कामपाल’ के नाम से प्रख्यात थे।एक बार उन्होंने यज्ञानुष्ठान द्वारा देवश्रेष्ठ प्रजापति (ब्रह्मा) की आराधना किया । उसमें यज्ञ का एक अंश (प्रसाद रूप में) रानी को दिया गया जिसके भक्षण करने से उनका गर्भ स्थिर रह गया। दशवें मास में ‘पद्मिनी’ नामक एक परमसुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई, जो समस्त गुणों की खानि (निधि) एवं सम्पूर्ण सौन्दर्य की प्रतिमा थी । बारह वर्ष की अवस्था आरम्भ होने पर वह उत्तम वर्ण वाली कन्या स्वयम्बर के उपयुक्त हो गई, उसे देखकर उसका भाई पद्माकर नामक राजकुमार जो पृथ्वीराज का पदानुगामी था, अपने पिता की आज्ञा प्राप्तकर सभी राजाओं को निमंत्रित कर अपनी भागिनी का स्वयम्बर किया। उसमें अनेक देश के भूप-वृन्द उपस्थित थे । राजा लक्षण (लाखन) भी आह्लाद (आल्हा) आदि चार वीरों समेत पिता की आज्ञा प्राप्ति पूर्वक यात्रा करके उस बिन्दुगढ़ के महोत्सव में सम्मिलित थे। बलवान् पृथ्वीराज ने वहाँ लक्षण (लाखन) को भी उपस्थित देखकर समस्त राजाओं के रक्षार्थ अपनी सेना वहाँ स्थापित कर दिया। उसी बीच राजकुमारी पद्मिनी अपनी सखियों समेत स्वयम्बर में आकर समस्त राजाओं को देखती हुई लक्षण (लाखन) के पास पहुँची, जो श्यामल वर्ण, युवा सम्पूर्ण लक्षणों से विभूषित, चालीस पचास वर्ष की अवस्था सम्पन्न, विशाल वक्षःस्थल, दृढ कन्धे, देव के समान एवं पूर्ण स्वस्थ थे। उस कन्या ने अपने अनुरूप तथा आलाद (आल्हा) आदि से सुरक्षित उन्हें देखकर जयमाल लक्षण (लाखन) के गले में डाल दिया। उसी समय वीर लक्षण (लाखन) ने भी उसके कोमल हाथों को पकड़ कर अपने रथ पर बैठा लिया और प्रसन्न होकर राजाओं के मध्य से उसे लेकर प्रस्थान किया । १-१५॥ पृथ्वीराज ने समस्त अन्य राजाओं को साथ लेकर जाते हुए बलवान् लक्षण (लाखन) को चारों ओर से घेर लिया। पश्चात् सिंहिनी पर बैठे हुए तालन ने अपने परिध अस्त्र द्वारा जो भीमसेन के अंश से उत्पन्न थे, सैनिकों से युद्ध करना आरम्भ कर दिया। पंचशब्द नामक गजराज पर स्थित आह्लाद (आल्हा) भी जो बलभद्र के अंश से उत्पन्न थे, अपने तोमर अस्त्र से शत्रु सैनिकों को धराशायी करने लगे। उस समय बिन्दुल पर बैठे हुए उदयसिंह तो अपने खड्ग द्वारा बहुधा राजाओं के ही शिर छिन्न-भिन्न कर रहे थे। देवसिंह मनोरथ पर बैठे हुए अपने उस भीषण भाले से शत्रुओं का वध करते हुए बार-बार सिंह गर्जना कर रहे थे और लक्षण (लाखन) अपने धनुष पर वैष्णव शरों को रखकर पृथ्वीराज के सेना नायकों को धराशायी कर रहे थे। एक प्रहर तक दोनों दलों का भीषण संग्राम हुआ । पश्चात् पृथ्वीराज समस्त राजाओं समेत युद्द का त्यागकर दिल्ली चले गये और शारदानन्दन ने शुभ मण्डप की स्थापना समेत विवाह की सभी क्रियाओं को धनधान्य के प्रदान समेत सुसम्पन्न करके कन्यादान लक्षण (लाखन) को सौंप दिया। उसी बीच महीपति (माहिल) ने आकर राजपुत्र पद्माकर से कहा, जो अपनी एक लाख सेना समेत स्थित थे-मित्र ! महावीर! आपकी बुद्धि कैसी हो गई है । आश्चर्य है कि आप विष्वक्सेन वंश के क्षत्रिय कुल में जन्मग्रहणकर वर्णसंकर एवं धर्मच्युत लक्षण (लाखन) के साथ संबंध स्थापित किया। आह्लाद (आल्हा) आदि अहीरन के गर्भ से उत्पन्न हैं, इसलिए इनके साथ रहने से धर्ममर्मज्ञों ने इनका परित्याग कर दिया है। इसे सुनकर पद्माकर ने जो समस्त माया करने में निपुण था, अपनी शाम्बरी माया द्वारा अजेय वीरों को बाँधकर घर में पत्थर के कारागार में डाल दिया। देवी के वरदान द्वारा देवसिंह उसी आधी रात के समय चेतना प्राप्तकर कान्यकुब्ज (कन्नौज) चले गये । वहाँ पहुँचकर इन्दुल से मस्त वृत्तान्त का वर्णन किया। उसे सुनकर इन्दुल ने देवसिंह के समेत उसी समय बिन्दुगढ़ को प्रस्थान किया। पद्माकर ने उनका आगमन सुनकर उन्हें मोहित करने के लिए दिन में सूर्य को मेघ द्वारा आवृतकर लेने की भाँति अपनी शाम्बरी माया का प्रयोग किया । किन्तु इन्दुल ने उसी समय अपने धनुष पर कामबाण का संधानकर उसी द्वारा उनकी समस्त माया को भस्मकर दिया । पश्चात् कामास्त्र द्वारा चेतना प्राप्त कर उन वीरों ने अपने लोहे के बंधनों तथा किवांड़ों को तोड़कर बाहर जाकर शत्रुओं का नाश करना आरम्भ किया। पाँच सहस्र क्षत्रियों को यमपुरी भेज दिया। उपरान्त राजा शारदानन्द ने नम्रतापूर्वक वहाँ आकर यशस्वी लक्षण (लाखन) को सादर अपनी कन्या सौंप दी और भाँति-भाँति के भोजन-वस्त्र एवं आभूषणों को अन्य लोगों में सप्रेम वितरण किया। उपरांत राजा ने रुदन करती हुई उस अपनी पुत्री को लक्षण (लाखन) के साथ स्नेहपूर्ण होकर बिदा किया। माघ कृष्ण अष्टमी के दिन लक्षण (लाखन) अपने घर संकुल पहुँच गये। उनके आने पर प्रेमव्याकुल होकर राजाजयचन्द्र ने तालनादि को सौ गाँव पुरस्कार रूप में प्रदान किया और ब्राह्मणों को गौ, वस्त्र, आभूषणों को प्रदानकर महान् उत्सव करने का आयोजन किया ।

सूत जी बोले-पाथवपूजन द्वारा शिव जी से वरदान प्राप्तकर राजा पृथ्वीराज ने फाल्गुन मास में सात लाख सैनिकों की एक विशाल सेना लेकर शिरीप नगर को प्रस्थान किया । राजा की आज्ञा प्राप्त कर चामुण्ड ने पुनः क्रुद्ध होकर सुखखानि से अपनी एक लाख की सेना लेकर नगर के बाहर रणस्थल में आकर भीषण युद्ध करना आरम्भ किया। उन्होंने अपने आग्नेय अस्त्र से दशसहस्र सैनिकों के वध करने के उपरांत पृथ्वीराज के पास पहुँचकर उनसे निर्भय होकर कहा-आज मैं तुम्हरा हनन करूँगा । अथवा इस रणक्षेत्र में मेरे हुन्ता तुम्हीं होंगे। अतः भूप ! अपनी विद्या का प्रयोग पहले कर लो, नहीं तो तुम्हें नरक की तैयारी करनी होगी। इसे सुनकर पृथ्वीराज ने अपने धनुषपर रौद्रबाण का संधान किया जिससे भीषण एवं महाअग्नि का उत्थान हुआ । उसकी शांति के लिए सुखखानि ने अपने पावक, अस्त्र का प्रयोग किया, किन्तु उस रौद्र-अग्नि द्वारा अपने अस्त्र समेत मुखखानि भस्म हो गये । अपना कार्य करके वह अस्त्र शिव जी ते तरकस में प्रविष्ट हो गया। इस घटना को सुनकर बलखानि (मलखान ) भयभीत होकर वहाँ रणस्थल में पहुँचकर भ्रातृबैर स्मरणपूर्वक शत्रुओं का नाश करने लगे ।

उसी अवसर पर शारदा के ध्यान पुर्वक पृथ्वीराज भी वहाँ पहुँचकर उन्हें देखते हुए उनके बलाधिक्य पर मोहित हो गये । पश्चात् उन्होंने प्रेम पूर्वक बलखानि (मलखान) से कहा-मेरी एक बात सुनो ! मैंने एक कोश के भीतर बाहर गढ्ढे बनाये हैं, युद्ध निपुण बारह सौ शूर जिसकी रक्षा में नियुक्त किये गये हैं। वीरों पर विजय प्राप्त करते हुए उन बारहों गड्ढ़ों को पारकर लेने पर तुम्हें मैं अपना आधाराज्य सौंप दूंगा । उस बलवान् ने राजा के कहे हुए उस प्रिय वाक्य को सत्य मानकर कपोत तथा घोड़े पर बैठ हाथ में खड्ग लिए वहाँ के लिए प्रस्थान किया। वहाँ के गड्ढ़ों को देखकर उस बलवान् ने सौ-सौ वीरों को धराशायी करते हुए उस संयमी एवं बाहुशाली महाबली ने बारहवें गड्ढ़े पर पहुँचकर उस चामुण्ड से जो दश सहस्र की सेना लेकर उसे घेर लिया था, युद्ध करना आरम्भ किया । बलखानि (मलखान) ने उस कपटी एवं ब्राह्मणाधम की सेना का हनन करके चामुण्ड के समीप पहुँचकर बार-बार गर्जना की। वहाँ तेरहवाँ गड्ढा भी बनाया गया था, जो केवल तृण (फूसो) और मिट्टी से नाम मात्र को आवृत कर दिया गया था। उसके नीचे विषयुक्त भाले भी गड़े थे। दैवयोग से घोड़ा समेत (मलखान) उसी गढ्ढे में गिर पड़ा, जो अंधकार पूर्ण, महाघोर, गंभीर एवं एक कोश में विस्तृत था ! वत्सपुत्र (मलखान) के चरण भाले द्वारा विदीर्ण हो गये । उस समय उनका घोड़ा अत्यन्त कष्ट से बाहर निकलकर अपने चरणों द्वारा शत्रुओं का हनन करने लगा। उसी अवसर पर चामुण्ड ने वहाँ पहुँचकर बलखानि (मलखान) के शिर से छेदन पूर्वक उनकी सेनाओं का नाश किया। उसे सुनकर गजमुक्ता (गजमोतिना) चिता लगवाकर पति के साथ सती हो गई। इस घटना को सुनकर अपनी स्त्री समेत ब्रह्मानन्द वहाँ आकर सुखखानि का दाह संस्कार किया। उपरांत पृथ्वीराज ने उस वीरशून्य राजधानी का नाशकर अपने दिल्ली में उसका महोत्सव मनाया ।
(अध्याय २५)

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