December 29, 2018 | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय ३० ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग) अध्याय ३० सूत जी बोले— विप्र ! जिस समय उदयसिंह आदि वीरगण चीन देश गये हुए थे, उस समय राजा कामपाल ने नकुल के अंश से उत्पन्न लक्षण (लाखन) को अपने यहाँ बुलवाया। पत्र में उसने लिखा कि-महाभाग, जयचन्द्र ! सावधान होकर मेरी बातें सुनने की कृपा कीजिये ‘वैशाख शुक्ल सप्तमी के दिन द्विरागमन (गौने) का शुभ मुहूर्त निश्चित हुआ है, इसलिए वीर लक्षण (लाखन) अकेले ही मेरे यहाँ आने की कृपा करें। पश्चात् मेरी कन्या के डोला को साथ लेकर सादर अपने घर चले जायें। क्योंकि सैनिकों समेत आने से बलवान् पृथ्वीराज को उनके आगमन का पता लग जाने पर वे उन्हें पराजित कर डोला ले लेंगे। अतः मेरा ही कहना सर्वोत्तम प्रतीत हो रहा है। इसे सुनकर प्रसन्नचित्त होकर राजा जयचन्द्र ने हस्तिनी पर सुशोभित लक्षण (लाखन) को बुलाकर सौ शूरों समेत उन्हें राजा कामपाल के यहाँ भेज दिया। मार्ग में चलते हुए पाँच दिन की यात्रा समाप्तकर वे जिस दिन वहाँ उनके घर पहुँचे, उसी दिन उनके साले पद्माकर को उनके आने का पता लग गया। उसने शीघ्र पृथ्वीराज को बुलवाकर युद्धारम्भ कर दिया । नकुलांश लक्षण (लाखन) महाबली अपने शत्रु राजाधिराज पृथ्वीराज को वहाँ उपस्थित देखकर उनपर अपनी बाण वर्षा करने लगे। पश्चात् पृथ्वीराज को मूच्छित और पाँच सौ उनके वीरों का निधन करने के उपरांत राजा कामपाल के पास पहुँचकर उन्हें नमस्कार किया। अनन्तर राजा ने सादर उन्हें अपने भवन में ठहराया। चेतना प्राप्त होने पर कार्यशील राजा पृथ्वीराज ने पद्माकर के भवन में जाकर उनसे कहा—प्रिय मेरी एक बात सुनो ! लक्षण (लाखन) मेरा परम शत्रु है, और वह इस समय तम्हारे भर में उपस्थित है। यदि उसे बाँधकर मुझे सौंप दो तो मैं तुम्हें अपना पद (प्रतिनिधि) प्रदान कर दूंगा । इस लोभ में आकर पद्माकर ने लक्षण (लाखन) को हलाहल विष देकर मूच्छित होने पर उन्हें बांध लिया, और पृथ्वीराज को सौंप दिया। पृथ्वीराज ने उनके साथ के सौ शूरों का निधन करके लक्षण (लाखन) को गुप्त-गृह में छिपा दिया। इस रहस्य का पता लगने पर रानी पद्मिनी दुःख का अनुभव करती हुई अत्यन्त विलाप करने के उपरांत पति की मांगलिक कामनावश चण्डिका देवी की पूजा की। उस समय वरदायिनी सर्वमंगलादेवी ने प्रसन्न होकर रानी पद्मिनी को आश्वासन प्रदान कर पुनः लक्षण (लाखन) के पास प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचकर स्वप्न में देवी ने उनसे कहा-‘ह्रीं फट् घे घे इस मंत्र का जप करो’। इसी मंत्र के प्रभाव से तुम्हारे सभी विच्च नष्ट हो जायेगें । चेतना जागने पर लक्षण (लाखन) ने उपरोक्त मंत्र का जप किया। आषाढ़ मास के आरम्भ में उदयसिंह आदि वीरगण अपने-अपने घर चले आये ! तालन समेत उदयसिंह ने कान्यकुञ्ज (कन्नौज) को प्रस्थान किया। वहाँ जयचन्द्र के प्रिय भतीजे लक्षण (लाखन) को न देखकर उसके कारण का पता लगाया । पश्चात् योगी के वेष धारणकर उन लोगों ने जिसमें धान्यपाल मजीरा, तालन वीणा, और लल्लसिंह मृदङ्ग को अपनाये हुए थे, महावती (महोबा) में पहुँचकर राजा परिमल के सभा भवन में नृत्य-गान आरम्भ किया उसे देखकर वहाँ के सभी सभासद अत्यन्त मोहित हो गये। प्रसन्न होकर राजा ने स्वयं अपने गले की मोती की माला तालन को प्रदानकर पश्चात् उन दोनों को सुवर्ण की अंगूठी प्रदान किया। उस सम्मान से वे हर्षित होकर उदयसिंह के पास पहुँचे। वीर उदयसिंह ने अपने समाज वालों को अत्यन्त निपुण जानकर अपना योगमय वेष धारण किये तालन आदि के साथ बिंदुगढ़ को प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचने पर उस नगर के बाजार में इन्होंने सर्वप्रथम सुन्दर रास लीला दिखाई। तदुपरांत पद्माकर के भवन में जाकर अत्यन्त प्रसन्न होकर नृत्य किया। उसी बीच वहाँ सभी स्त्रियाँ भी आ गई थी जो वंशी बजाने वाले उदयसिंह को ही बार-बार देख रही थी। उनके नृत्य-गान को सुनकर उन स्त्रियों के मोहित होकर जड़ की भाँति हो जाने पर सर्वलक्षण सम्पन्न रानी पद्मिनी ने ‘उदयसिंह यही हैं, ऐसा निश्चित कर उनके सामने रुदन करती हुई करुण वचनों द्वारा उनसे कहा-‘बली लक्षण (लाखन) मेरे पति हैं, जिन्हें शूर पृथिवीराज ने अपने बल प्रयोग द्वारा जेल में बन्द कर दिया है। किन्तु, मैं स्त्री हूँ, और आप योगी हैं, अतः मुझे चिन्ता हो रही है कि (उनके मुक्त होने का) कार्य कैसे सम्पन्न हो सकेगा। इसे सुनकर उदयसिंह ने अपने दोनों हाँथों को उठाकर रानी पद्मिनी को आश्वासन प्रदान किया, पश्चात् दिल्ली को प्रस्थान भी । वहाँ पहुँचकर उन्होंने राजदरबार में नृत्य किया। उस नृत्य की लीला से मुग्ध होकर बलवान् पृथ्वीराज ने उनसे कहा-योगिन् ! अपनी अभिलाषा प्रकट कीजिये, आप क्या चाहते हैं मैं सभी कुछ देने को तैयार हूँ। राजा की ऐसी बात सुनकर हँसते हुए उदयसिंह ने कहा-नृप ! आप के यहाँ (शत्रु) राजाओं के लिए लोहे का जेल बना हुआ है, क्योंकि आप राजाधिराज हैं, ऐसा मैंने सुना है। मेरी इच्छा है आप वही मुझे दिखा देने की कृपा करें। इसे सुनकर कृष्णांश उदयसिंह की लीला से मुग्ध उस राजा ने उन्हें उसे शीघ्र दिखाया और धन भी प्रदान किया । उपरांत वे सभी योगी महावती (महोबा) चले गये। वहाँ पहुँचकर नमस्कार पूर्वक राजा परिमल से उन्होंने समस्त वृतान्त कह सुनाया। राजा की आज्ञा प्राप्तकर आह्लाद (आल्हा) ने अपनी महावती स्थित सेना को वहाँ चलने के लिए आदेश प्रदान किया, जो पाँच लाख की संख्या में वहाँ सदैव उपस्थित रहती थी। इस प्रकार तालन भी अपनी सात लाख सेना समेत उनके पास पहुँचे इस प्रकार बारह लाख सेना समेत जिसमें रण-दुर्धर्मक्षत्रियगण सैनिक थे, अपने शस्रास्त्रों से सुसज्जित होकर उन लोगों ने दिल्ली को प्रस्थान किया । उसी बीच निपुण मंत्री चन्द्रभट्ट ने जो सभी शास्त्रों के मर्मज्ञ एवं वैष्णवी शक्ति के उपासक थे, पृथ्वीराज के पार पहुँचकर उनसे कहा-‘देवी जी की प्रसन्नतावश मैंने एकान्त क्रीडा, का दर्शन किया है, जिसमें कृष्णांश उदयसिंह पूर्ण ब्रह्म के रूप में दिखाई दे रहे थे। उन्होंने प्रसन्न होकर कहा-शरीरधारी जीव ! मैं अग्निवंश के क्षत्रियों के समूल विनाशार्थ दिल्ली को प्रस्थान कर रहा हूँ । वहाँ कौरवॉश से उत्पन्न उन क्षत्रियों का विनाश करने के उपरान्त इस भुतल में कलि की स्थापना करके मैं पुनः तुम्हारे पास पहुँचकर एकान्त क्रीड़ा करूंगा । इतना कहकर उस वीर ने बिंदुल (बेंदुल) नामक अश्वपर बैठकर यहाँ आने का प्रस्थान कर दिया है । भूप ! इन बातों को मैंने योगनिद्रा देवी द्वारा उन कृष्णांश (उदयसिंह) से पूछा था । इसे सुनकर राजा पृथ्वीराज को अत्यन्त आश्चर्य हुआ। भयभीत होकर उन्होंने एक सहस्र शूरों को बुलाकर उन्हें लक्षण (लाखन) को सौंप दिया और कहा कि-इन्हें ले जाकर राजा पद्माकर को सौंप देने के उपरांत दहाँ की सभी बातें मुझसे शीघ्र आकर कहो ! इसे सुनकर अग्निवंशीय महावली उन क्षत्रियों ने वहाँ जाकर कार्य सम्पन्न करने के उपरांत पृथ्वीराज के पास आकर निवेदन किया । उन सहस्र क्षत्रिय शूरों के अधिनायक भगदन्त ने पृथिवीराज से कहा-कि वहाँ के राजा ने जो कुछ कहा है, मैं बता रहा हूँ, कृपया सावधान होकर श्रवण कीजिये । उन्होंने कहा- ‘राजन् ! मेरी भगिनी पद्मिनी जो गुप्तविद्या में अत्यन्त निपुण है, पहले समय में यज्ञाधीश देव की भली-भाँति आराधना की है। उसी से उन्होंने उसे अन्तर्धान होने का सुन्दर वरदान प्रदान किया है। इससे वह अपने पति लक्षण (लाखन) को अन्तर्हित कर देगी। इसे सुनकर पृथ्वीराज को परमानन्द की प्राप्ति हुई। उसी बीच महाबलवान् उदयसिंह आदि वीरों ने वहाँ पहुँचकर पृथिवीराज की राजधानी दिल्ली को चारों ओर से घेर लिया। उस समय पृथ्वीराज ने उन लोगों के पास पहुँचकर उन्हें अनेक भाँति के भूषण उपहार प्रदान करके नम्रता पूर्वक सप्रेम उनसे कहा—तुम्हारे राजा लक्षण (लाखन) मेरे जेल में नहीं हैं, यदि हमारे नगर में भी वे होते, तब आप को इस प्रकार का क्रोध करना उचित था। इतना कहकर उन्होंने उदयसिंह को वह (जेल) स्थान दिखा दिया। पश्चात् भयभीत होकर राजा ने महादेव की शपथ भी की। उस समय राजा की बात सत्यमान कर उदयसिंह ने दुःख का अनुभव करते हुए सैनिकों समेत बिन्दुगढ़ को प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचने पर राजा कामपाल ने उनके आगमन को सुनकर भाँति-भाँति के उपहार समेत उदयसिंह की शरण में जाकर सादर सप्रेम हाथ जोड़ते हुए करुण वाणी द्वारा उनसे कहा-मेरी पुत्री पद्मिनी लक्षण (लाखन) के साथ कहाँ चली गई, इसे हम लोग कुछ भी नहीं जानते हैं । यह मैं सत्य एवं ध्रुव सत्य कह रहा हूँ । इसे सुनकर उदयसिंह ने अपने सैनिकों समेत कान्यकुब्ज (कन्नौज) आकर जयचन्द्र से कहा-आपके भतीजे लक्षण (लाखन) पद्मिनी समेत कामपाल के घर में नहीं है, यह मैंने अनेक प्रकार से वहाँ देखकर निश्चित किया है। प्राण के समान वह मेरा राजा इस पृथ्वी में न जाने कहाँ चला गया। राजन् ! यदि मैं उन्हें न देखेंगा, तो मैं अवश्य प्राण-परित्याग कर दूंगा, हा रत्न भानु के पुत्र ! विष्णु के कल्याणकर भक्त ! मुझ अपने मित्र को छोड़कर आप कहाँ चले गये। इतना कहकर वैष्णवप्रिय उदयसिंह मूच्छित हो गये। उस समय देवी स्वर्णवती (सोना) ने अपनी दासी शोभा समेत शुकरूप धारण करके वहाँ पहुँचकर म्लेच्छ माया की विदुषी उस शोभना को जयचन्द्र के पास भेजा।४१-५६। उसने दिव्य रूप धारण कर जयचन्द्र के पास पहुँचकर कहा-भूपशिरोमणे ! मेरी बात सुनने की कृपा कीजिये। मैं शोभना नामक प्रख्यात मायाविनी हूँ । आपके पुत्रवधू र समेत पुत्र का अपहरण जिसने किया है, वहाँ महामद समेत मैं जा रही हूँ । मेरे साथ आह्लाद (आल्हा) इंदुल देवसिंह, एवं बली तालन आदि उदयसिंह की अध्यक्षता में चलेंगे। इतना कहकर योगमय शरीर धारण करके उस रुद्र किंकर महामद नामक पिशाच के ऊपर आसीन होकर उस शोभना ने योगी वेषधारी उन महाबलवानों को आगे करती हुई वहाँ को प्रस्थान किया। उस यात्रा में आह्लाद (आल्हा) गज पर, इन्दुल कराल नामक अश्व पर, तालन सिंहनी नामक घोड़ी, देवसिंह मनोरथ पर और उदयसिंह अपने बेंन्दुल घोड़े पर बैठे हुए उसको नचाते हुए चल रहे थे । वहाँ से कामरूप देश की सौ योजन की यात्रा करके उन बलवानों ने वहाँ के प्रत्येक घरों एवं मनुष्यों से लक्षण (लाखन) का अनुसंधान किया किन्तु कहीं उसका पता न चल सका । पुनः वह शोभना प्रत्येक मनुष्यों में हूँढती हुई वह मयूर नगर आई किन्तु वहाँ पर भी उनका पता नहीं चला। इसी प्रकार उस शोभना नामक मायाविन ने इन्नगढ़ और बाह्नीक नगर में जाकर वहाँ के प्रत्येक नागरिकों एवं उनके घरो में हूँढने पर भी लक्षण (लाखन) का पता न चलने से पुनः अपने वाह्नीक प्रदेश में पहुँचकर मरुस्थल निवासी मर्कटेश्वर महादेव की सविधान पूजा करके उनके सम्मुख नृत्य गान आरम्भ किया ।५७-६६॥ पश्चात् उस देव ने जो म्लेच्छों के पूज्य थे, भूमि के भीतर से बाहर निकलकर नम्रतापूर्वक उदयसिंह से कहा-वीर ! कालाग्नि रुद्रदेव ने मुझे इसी भूमि के गड्डे के (भीतर) बैठा दिया है, अत: आपके मनोरथ सफल करने में मैं असमर्थ हैं। कृपयां यहाँ व्यर्थ कष्ट न कीजिये। इसे सुनकर वहाँ से निराश होकर शोभना ने पुनः स्वर्णवती (सोना) के पास पहुँचकर उससे समस्त वृत्तान्त कहा। उदयसिंह की तीसवें वर्ष की अवस्था आरम्भ होने पर चैत्र शुक्ल के नवरात्र के दिन में उस सुवर्ण वदना (सोना) ने अपने अनुयायियों को आश्वासन प्रदानकर भगवती देवी चण्डिका की सविधान पूजा करना आरम्भ किया तथा नवरात्र के दिनों में भोजन और शय्या-शयन के त्याग भी । पश्चात् अन्त की रात्रि में उस घोर अँधेरी आधीरात के समय भगवती जगदम्बिका ने वर्णवती (सोना) से कहा-जिस पद्मिनी स्त्री को (लाखन समेत) तुम खोज रही हो, वह मणिदेव यक्ष की प्रिया हो । यस में अपमानित होने पर उसने कामपाल के यहाँ जन्म ग्रहण किया है। वह मणिदेव कुबेर का सेनानायक है, युद्ध में जिसे पराजित कर भीमसेन ने हनन कर दिया था। उस समय पद्मिनी ने निराहार रहकर देवाधिदेव एवं उमापति शिब से बार-बार यही प्रार्थना किया है-हे शंकर ! मेरा पति मुझे प्रदान करो ! सौ वर्ष की आराधना करने के उपरांत महादेव ने उससे कहा-कलियुग में विक्रम काल (संवत्सर) के बारहवीं शताब्दी के अन्तिम समय के लगभग नकुलांश (लाखन) को (पति रूप में) प्राप्तकर अत्यन्त सुख का उपभोग करती हुई उससे वियोग होने पर इस सौरभ से सुवासित देह के त्यागपूर्वक अपने पति समेत पुनः तुम्हें कैलास की प्राप्ति होगी। राष्ट्रपाल के लिए उस रमणीक महावती (महोबा) नामक राजधानी के निर्माण करती हुई देवी शारदा के ही द्वारा तुम्हें पति रूप में मणिदेव की प्राप्ति होगी । इस भूतल में देवी द्वारा उत्पन्न होकर वह ग्राम रक्षार्थ नियुक्त (राजा) होगा। पश्चात् पद्मिनी नामक तुम्हें स्त्रीरूप में प्राप्तकर पुनः कैलास चला आयेगा। इसलिए स्वर्णवती (सोना) देवि ! मेरी बात स्वीकार कर यक्षों के निवासरूप उस कैलास की शीघ्र यात्रा करके वहाँ पद्मिनी को इन बातों की जानकारी कराओ। इसे सुनकर उस सुवर्णाङ्गी (सोना) ने वहाँ पहुँचकर पद्मिनी से सभी वृत्तान्त का वर्णन किया। उससे प्रभावित होकर दयावती पद्मिनी ने कामपाल के घर निवास करना स्वीकार किया। उस समय रानी (सोना) ने महावती (महोबा) में शीघ्र पहुँचकर राजा परिमल को पद्मिनी का लिखा हुआ वह पत्र दिया जिसमें उसने अपने (पिता के) घर में निवास करना आदि सभी बातें लिखी थी । तथा यह भी लिखा था कि सेना समेत बलवान् उदयसिंह शीघ्र आकर भाई पद्माकर को पराजित करके मेरे पति को शीघ्र मुक्त कराइये। राजा लक्षण (लाखन) इस पृथ्वी पर जीवित तथा पद्माकर द्वारा पोड़ित हैं, ऐसा जानकर उदयसिंह ने अपने बारह लाख सैनिकों समेत वहाँ पहुँचकर कामपाल की उस राजधानी को चारों ओर से घेर लिया। राजा कामपाल ने भी अन्य पुत्रों की आज्ञावश पद्माकर पुत्र तथा अपने तीन लाख सैनिकों समेत युद्धस्थल में पहुँचकर युद्धाभ कर दिया। दोनों सेनाओं में महान् एवं घोर संग्राम हुआ जो अविराम गति से दिन-रात चलता रहा। सेना के पराजित होने पर कामपाल ने पुत्र समेत पद्मिनी की शरण में पहुँचकर अपनी विजय की प्रार्थना की। उन दोनों की विजयकामना वश उसने उस अन्तहत करनेवाले पत्र को उन्हें अर्पित कर दिया। उस समय उन दोनों ने अन्र्ताहत होकर शत्रु के दश सहस्र सैनिकों के हनन किये। इसे देखकर तालन आदि सेनाध्यक्षों को महान् आश्चर्य हुआ । फलतः रणभूमि छोड़कर वे सभी उदयसिंह की शरण पहुँचे। उसे सुनकर दुःख का अनुभव करते हुए उदयसिंह ने सर्वमयी भगवती पार्वती की आराधना करके दिव्यदृष्टि प्राप्त की, जिससे आकाश स्थित होकर युद्ध करते हुए उन दोनों को देखा । पश्चात् निर्भय होकर उन दोनों को बाँधकर लक्षण (लाखन) के पास पहुँचे और उनके समेत पद्मिनी का डोला साथ लेकर अपने घर को प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर राजा जयचन्द्र को दम्पती राजा लक्षण (लाखन) और उनकी रानी पद्मिनी सौंपकर अपने को कृतकृत्य होने का अनुभव करने लगे। बलवान् जयचन्द्र ने भी अपने घर में पुत्र तथा पुत्र-वधु को उपस्थित देखकर हर्ष निमग्न होते हुए ब्राह्मणों को दान तथा बंधन समेत जेल में पड़े हुए राजाओं को साथ ही बंधन मुक्त किया। इस प्रकार ज्येष्ठमास के आरम्भ में उदयसिंह अपने घर पहुँच गये। (अध्याय ३०) Related