भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व तृतीय – अध्याय ३०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — तृतीय भाग)
अध्याय ३१

सूत जी बोले— महाभाग, विप्र ! मैं कह रहा हूँ, सुनो ! एक बार जिस समय राजा पृथ्वीराज सिंहासन पर बैठे हुए थे, उसी समय वहाँ चन्द्रभट्ट का आगमन हुआ। आये हुए उन्हें देखकर चिन्तित होकर राजा ने उनसे कहा-मंत्रिप्रवर ! मेरी एक बात सुनो ! उदयसिंह आदि महाशूरों द्वारा मेरा समस्त नगर भयभीत है, अतः इन मेरे भीषण शत्रुओं की मृत्यु कब होगी? । om, ॐउनके इस प्रकार कहने पर उस शुद्धात्मा भट्ट ने सर्वमी भगवती शिवा के ध्यानपूर्वक राजा से कहा-भूप शिरोमणि ! मैं कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनने की कृपा कीजिये । महावती (महोबा) नगर के निवासी ब्रह्मानन्द विजयशील विष्णु के अंश से उत्पन्न हैं । कृष्णांश (उदयसिंह) उनके परम मित्र हैं, जो सदैव उनके प्रिय कार्य करते रहते हैं। इसलिए वह मलना-पुत्र (ब्रह्मानन्द) अपनी शरीर के त्यागपूर्वक जिस समय यहाँ से प्रस्थान करेगा, उसी समय देवांश से उत्पन्न वे सभी लोग यहाँ से चले जाँयेंगे। ऐसा कहने वाले उस धीर गम्भीर मंत्री और राजा से महीपति (माहिल) ने विनम्र होकर कहा-मैंने एक उपाय सोच-विचारकर निश्चित कर लिया है-वह यह है कि उस नृपश्रेष्ठ एवं महाबली ब्रह्मानन्द को गौने के बहाने से अकेले बुलाकर छल-कपट द्वारा उनका निधन करके आप कृतकृत्य हो जाँयेगे । इस प्रकार कहते हुए उस राजा से प्रसन्न होकर पृथ्वीराज ने कहा-मित्र ! मेरी बात सुनो ! तुम शीघ्र महावती (भहोबा) जाकर वहाँ मलना के पास पहुँचकर स्वयं उनसे भली भाँति समझाकर कहो। पश्चात् मेरे पास आकर सूचित करो जिससे तुम चिरजीवन प्राप्तकर सुख का अनुभव करो। मुनिश्रेष्ठ ! इसे सुनकर उस महीपति (माहिल) ने नमस्कार पूर्वक वहाँ से प्रस्थान किया। रात्रि के समय घोर अंधेरे में वह मलना के पास पहुँचकर निर्भीक होकर कहने लगा तुम्हारी वेला नाम की महारानी बहू ने इस समय यौवन सौन्दर्य प्राप्त किया है जिससे दह कल्याणमुखी पति के योग्य हो गई है। किन्तु महाराज पृथ्वीराज ने यह सुना है कि उदयसिंह को जन्म नीच जाति में हुआ है। इसीलिए उन्होंने अपनी पुत्री तुम्हारे पुत्र के पास भेजना उचित नहीं समझा। अतः मेरी बात मानकर जैसा मैं कहूँ, करने को तैयार हो जाओ, क्योंकि उसी में तुम्हारा हित है । तुम्हारा पुत्र महाबली ब्रह्मानन्द अकेले मेरे साथ मेरी उर्वी (ऊरई) राजधानी में चलकर वहाँ मेरी सेना समेत पृथ्वीराज के पास पहुँच जायेगा तो अवश्य अपनी पत्नी ले आयेगा, इसमें संदेह नहीं है। नहीं तो मेरी बात सुनकर वेला अपने पति का त्यागकर अपना प्राण विसर्जन कर देगी। इसे सुनकर दैवमाया से मोहित होकर उस रानी ने अपने पति के पास पहुँचकर अपने भाई की समस्त बातें उनसे कहा। उसे सुनकर राजा ने कहा—महीपति (माहिल) महाधूर्त है, वह सदैव हमारे विनाश करने के लिए ही प्रयत्नशील रहता है । इसलिए उसकी बात मुझे रुचती नहीं है, क्योंकि वह कपट कर रहा है। इसे सुनकर रानी मलना ने उस क्रोधित राजा से कहा-‘राजन् ! जैसे भाई हैं वैसे मैं भी हूँ, आप इस कहने को मेरा ही कहना समझ कर उसे स्वीकार करने की कृपा करें, अन्यथा मैं प्राण त्याग दूंगी । इस प्रकार रानी के कहने पर विवश होकर उसी समय राजा ने अपना प्रिय पुत्र ब्रह्मानन्द माहिल को सौंप दिया। ब्रह्मानन्द भी माता की आज्ञा शिरोधार्यकर अपनी मामा के साथ में सानन्द उनके नगर उर्वी (उरई) में पहुँच गये। पश्चात् प्रातःकाल होने पर हरिनागर नामक घोड़े पर बैठकर ब्रह्मानन्द ने दैवमाया से मोहित होने के कारण अकेले ही दिल्ली को प्रस्थान किया। सायंकाल होने के समय पृथ्वीराज के भवन में पहुँचकर उन्होंने दिव्य शरीर धारिणी रानी अगमा का दर्शन किया। अगमा को भी उन्हें देखकर अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त हुई । तदुपरांत उस माघ शुक्ल की अष्टमी के दिन निर्भीक ब्रह्मानन्द ने अपने सातों सालों की उन सौन्दर्यपुर्णमुखवाली रानियों का दर्शन किया, जिसमें तीन विधवाएँ और चार सधवाएँ थी । उन विधवा स्त्रियों ने उनके आगमन से प्रसन्न होकर अपने दुःख के उद्गार प्रकट करना आरम्भ कर दिया, उन्होंने कहा-महाभाग ! ब्रह्मानन्द ! निश्चल मन से मेरी बात सुनने की कृपा कीजिये । आप की वेला पत्नी ने जो स्वयं काली एवं कलह की साक्षात् प्रतिमा है, हमारे पतियों के निधन कराकर हमें अत्यन्त दुःखी बना दिया है। अतः मन के हरण करने वाले ! आपसे हमारी करबद्ध प्रार्थना है कि ‘वीर! हम पतिविहीन स्त्रियों के पति होने की कृपा करो । क्योंकि तुम्हीं हमारे अनुरूप हो ।’ इसे सुनकर कर महाबली ब्रह्मानन्द ने उनसे मधुर एवं श्रुति स्मृति सारगर्भित वाणी द्वारा कहना आरम्भ किया-पहले सत्ययुग के समय स्त्रियाँ उत्तम पतिव्रता होती थीं। उसी प्रकार त्रेता में मध्यम, द्वापर में निकृष्ट और कलियुग में अधम स्त्रियाँ होती हैं, जो पर-पुरुष के साथ उपभोग कराती हैं। इसलिए देवल तथा असित महषियों ने अपनी स्मृतियों में कलि के समय विधवा-विवाह का समर्थन किया है । उन्हीं लोगों का यह कहना है कि-सत्ययुग में स्त्रियां सती की भाँति आचरण करती थीं त्रेता में पति के साथ भस्म हो जाती थीं। और द्वापर में विधवा रहकर सती आचरण करती हुई ब्रह्मचर्य की अन्तिम रेखा का पालन करती थीं । किन्तु कलियुग में सती-व्रत का विधान ही नहीं है। इसलिए तुम लोग मेरे सम्पर्क में रहकर सुखसागर की चरम सीमा का अनुभव अवश्य प्राप्त करो। उनकी इस श्रवण सुखद वाणी को सुनकर उन तीनों स्त्रियों ने भूषण-भूषित होती हुई अपने सौन्दर्यमय शृङ्गार की रचना करके ब्रह्मानंद के पास पहुँचकर उनसे आलिंङ्गन करने की इच्छा प्रकट की। उन्हें देखकर मलना-पुत्र ब्रह्मानन्द ने निर्भीक होकर कहा-तुम्हारे उन पतियों ने तुम लोगों का उपभोग किया है, जिन्हें रण-भूमि में हमारे भाइयों ने धराशायी कर दिया है। इसलिए तुम लोगों का ग्रहण मैं कभी नहीं कर सकता हूँ । यह सत्य ही नहीं ध्रुव सत्य कह रहा हूँ । इस हास्य-युक्त एवं घोरवाणी को सुनकर वे स्त्रियाँ पृथ्वीराज के पास जाकर रुदन करती हुई कहने लगी-राजन् ! वेला का धूर्त पति हमें धर्मच्युत कर रहा है। इसलिए उस धूर्त को दण्ड दीजिये, नहीं तो हम प्राण देने के लिए तैयार हैं। इसे सुनकर पृथ्वीराज ने महाबली ब्रह्मानन्द को बुलाकर कहा-आप अधम राजाओं के वंशज मालूम होते हैं, क्योंकि जो पर स्त्री का उपभोग करता है, उसे यमपुरी जाना पड़ता है। अतः पुत्रि कान्त ! मैं तुम्हें अभी जेल भेजता हूँ । इसे कठोर वाणी को सुनकर महाबली ब्रह्मानन्द म्यान से खड्ग निकालकर पृथ्वीराज की और दौड़े, किन्तु उन्हें देखते ही भयभीत होकर राजा चामुण्ड (चढ़ा) के पास चले गये । और उन्हें किवाड़ को अति दृढ़ता से बन्द कराकर उसी जेल के भीतर ही रखा ।

ऋषियों ने कहा-सूत जी ! उन स्त्रियों के विवाह किस प्रकार हुए हैं, तथा वे कहां की रहने वाली एवं किस के अंश से उत्पन्न हुई हैं। इसे योगबल द्वारा जिस प्रकार आपने देखा है, उसके रहस्य का विस्तार पूर्वक वर्णन करने की कृपा कीजिये ।

सूत जी बोले-मुनिश्रेष्ठ ! अङ्गदेश का मायावर्मा नामक राजा था। उसने सबको मोहित करने वाली तामसी शक्ति की उपासना दी। उससे उसे एक उत्तम वर्म (कवच) की प्राप्ति हुई, जो समस्त प्राणियों के लिए भयप्रद था । उसे अपनाकर उस राजा ने इस पृथ्वी पर पर्यटन किया। पश्चात् प्रमदा नाम की उनकी पत्नी ने दश पुत्रों को जन्म दिया, जो एक-एक वर्ष के उपरांत कौरवों के अंश से उत्पन्न थे । महाभाग ! मैं उनके नाम भी बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनिये । मत्त, प्रमत्त, उन्मत्त, सुमत्त, दुर्मद, दुर्मुख, दुर्धर, बाहु, सुरथ, और विरथ और एक छोटी बहिन भी उत्पन्न हुई जिसका नाम मदिरेक्षणा था। उस कन्या के सौन्दर्यपूर्ण रूप एवं मदभरे नेत्रों को देखकर कितव नामक दैत्य अत्यन्त मोहित हो गया। पश्चात् उसने मायावर्मा के पास जाकर उनसे विनम्र प्रार्थना की-यदि तुम अपनी पुत्री मुझ कामपीड़ित को सौंप दो, तो मैं तुम्हारे सभी कार्य सुसम्पन्न कर दिया करूँगा, इसमें संदेह नहीं। इसे सुनकर राजा ने अपनी कन्या उसे सौंप दी। तदुपरांत गुफा निवासी कितव दैत्य कामपीड़ित होकर रात्रि के घोर अंधेरे के समय राजा के घर आकर नित्य उस कन्या का उपभोग करने लगा । प्रातः काल होने पर वह अपनी कन्दरा में चला जाता था। इस प्रकार कुछ दिन व्यतीत होने पर राजा ने अपने पुरोहित द्वारा एक लक्ष द्रव्य प्रदानकर पृथ्वीराज के पुत्र तारक (ताहर) का वरण करा दिया। बलवान् पृथ्वीराज के पुत्र ने भी अपनी सोलह लाख सेना समेत सौ राजाओं को साथ लिए हुए एक मास की यात्रा कर वहाँ अपने पहुँच जाने की सूचना दी। उस समय उदयसिंह की पन्द्रहवें वर्ष की अवस्था आरम्भ थी। उस तारक (ताहर) के विवाह के उपलक्ष में वहाँ अनेक राजाओं का समाज एकत्रित हुआ था। उस समय मायावर्मा ने तारक (ताहर) समेत बैठे हुए राजा पृथ्वीराज से कहा-बलवान् राजाधिराज ! मेरी विनम्र प्रार्थना सुनने की कृपा करें । दैत्यवंश का ख्यातिप्राप्त एवं मेधावी एक कितव नामक दैत्य है, जो घोर अंधेरी रात्रि में मेरी पुत्री को पीड़ित करता रहता है। उस मेरी पुत्री के पाणिग्रहण करने के लिए अनेक राजकुमार आये थे किन्तु इस दैत्य ने उन्हें भक्षण करके यमपुरी भेज दिया और उनके अनेक प्रकार के धनों को लूटकर मेरी पुत्री को अर्पित किया है । इसलिए मेरी प्रार्थना है कि आप उस दिति-पुत्र (दैत्य) का हनन अवश्य करें। इसे सुनकर पृथ्वीराज ने सेनासमेत रणस्थल में पहुँचकर वहाँ कितव को बुलाकर उससे घोर युद्ध किया । उपरांत वह मायावी किदव दैत्य सभी बलवानों को पराजित कर तारक (ताहर) का अपहरण करते हुए अपनी गुफा में चला गया। उस समय दुःखी होकर तारक (ताहर) ने शंकर का ध्यान किया जिससे प्रसन्न होकर महादेव ने उसको पाषाण की मूर्ति बना दिया

उसी समय महावती (महोबा) निवासी क्षत्रियगण वहाँ पहुँच गये, जो दशसहस्र की संख्या एवं उदयसिंह आदि की अध्यक्षता में चल रहे थे। पृथ्वीराज ने उन्हें देखकर पुत्रशोक से संतप्त होते हुए महाबली उस बलखानि (मलखान) से कहा—उस दिति पुत्र कितव ने तारक (ताहर) का अपहरण कर लिया है, यदि तुम मेरे उस पुत्र को ला दो, तो मैं तुम्हें एक कोटि सुवर्णमुद्रा प्रदान करूंगा। इसे सुनकर उदयसिंह ने देवसिंह, तथा दोनों वत्सपुत्र (मलखान और सुखखानि) इन सबने मिलाकर उस कितव को बलात् चारों ओर से घेर लिया। उन लोगों का उस दैत्य के साथ दिन-रात अनवरत युद्ध हुआ। पश्चात् अत्यन्त क्रुद्ध होकर कितव ने उदयसिंह, देवसिंह, और मलखान को मोहितकर सिंहनाद करना आरम्भ किया। उसी बीच बलवान् सुखखान ने अपने खड्ग द्वारा उस राक्षस के शिर को शरीर से पृथक् कर दिया और उसे पृथ्वीराज के सम्मुख उपस्थित कर दिया। उस समय वे तीनों भी आनन्दमग्न होते हुए सुख्खानि की प्रशंसा कर रहे थे। जिस समय उन्होंने तारक (ताहर) समेत कितव के शिर को पृथ्वीराज के सम्मुख उपस्थित किया, उस समय वह राजपुत्री सुखखानि के साथ अपना वरण करना चाहती थी, किन्तु महीपति (माहिल) ने वहाँ आकर उस मदिरेक्षणा को अनेक भाँति से समझा बुझाकर पृथ्वीराज के पास उपस्थित किया। अनन्तर तारक (ताहर) के साथ उसका विवाह संस्कार सम्पन्न कराया और मलखान को एक कोटि सुवर्ण की प्राप्ति हुई। जिससे वे अपने भाइयों समेत अपनी शिरीष नगरी को लौट आये ।

सूत जी बोले-गुजरात प्रदेश में मूलवर्मा नामक महाबली राजा रहता था। उसकी प्रभावती नामक छोटी कन्या एवं दश पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके क्रमशः बल, प्रबल, सुबल, बलवान्, बली, सुमूल, महामूल, दुर्ग, शीम, एवं भयंकर नाम बताये गये हैं। करभ नामक एक यक्ष ने जो लल्लराज का सेवक था। उस प्रभावती कुमारी को देखकर अत्यन्त मोहित हो गया। उस मदन-पीडित यक्ष ने पाँच वर्ष के भीतर ही उस कुमारी के साथ उपभोग करना आरम्भ कर दिया। मूलवर्मा को इसका पता लगने पर उन्होंने पृथ्वीराज को बुलाकर उनसे विनम्र प्रार्थना की। राजाधिराज ! मैं आपके पुत्र नृहर के साथ अपनी प्रभावती नामक पुत्री का पाणिग्रहण करना चाहता हूँ । इतना कहकर उन्होंने पुत्र नृहर को अपने महल में बुलाकर अपनी पुत्री का सविधान पाणिग्रहण उनके साथ सुसम्पन्न कराया । एक पक्ष दिन व्यतीत होने के उपरांत उस दैत्य ने वहाँ आकर राजाओं को पराजित करके उन दम्पत्ति (स्त्री-पुरुष) को पीड़ित करना आरम्भ किया। उस समय अत्यन्त दुःखी होकर पृथ्वीराज ने वत्सराज के उन दोनों पुत्रों बलखानि और सुखखानि को बुलवाकर रुदन करते हुए उनके सम्मुख अपना करुण दुःख प्रकट किया। दयानिधान ये दोनों पुत्र करभ के पास पहुँच गये । किन्तु उस यक्ष ने उन्हें देखते ही अन्र्ताहत होकर नागपाश से इन दोनों को बांधकर पुनः उन स्त्री-पुरुष को पीड़ित करना आरम्भ किया। इसे सुनकर उदयसिंह उस करभ के पास पहुँचे और अपने योगबल द्वारा उसे बाँधकर उस दम्पती को दुःख से मुक्त किया। पश्चात् भाई के पास पहुँचकर अपनी तलवार से उनके नागपाश को काट दिया। तदुपरांत पृथ्वीराज से कोटि सुवर्ण की मुद्रा का ग्रहण करते हुए प्रसन्नतापूर्वक वे लोग अपने घर चले गये और पृथ्वीराज ने भी हर्षित होकर पुत्र ,पुत्र-वधू और सेना समेत दिल्ली को प्रस्थान किया ।

सूत जी बोले-काश्मीर प्रदेश का कैकय नामक राजा था । उसके दश पुत्र तथा मदनावती नामक एक छोटी कन्या थी । काम, प्रकाम, संकाम, निष्काम, निरपत्रप, जय, विजय, जयन्त, जयवान् और जय क्रमशः यही नाम उन पुत्रों के बताये गये हैं। उस राजा ने पृथ्वीराज को बुलवाकर उनसे प्रार्थना की-कि आपके सरदन नामक पुत्र को मैं अपनी कन्या सौंप देना चाहता हूँ । किन्तु सुकल नामक गन्धर्व रात्रि के समय चन्द्रमा के पूर्ण प्रकाशित होने पर उस कल्याणमुखी मेरी कन्या का अपहरण करके उसके साथ क्रीड़ा करता है । चैत्र की पूर्णिमा के दिन वह गन्धर्व यहाँ आया था नृपश्रेष्ठ! आज वैशाख कृष्ण पक्ष की मंगला अष्टमी है, मैं चाहता हूँ कि आप उसका वध करके ही दिल्ली प्रस्थान करने का विचार करें। इसे सुनकर पृथ्वीराज ने एक लाख सैनिकों द्वारा पुत्र तथा पुत्र-वधू को सुरक्षित रखते हुए दिल्ली की यात्रा की । वैशाख मास की पूर्णिमा के व्यतीत हो जाने पर उस सुकल नामक गन्धर्व ने क्रुद्ध होकर अपने दश सहस्र गन्धर्वो द्वारा दिल्ली नगर को चारों ओर से घेर लिया। उस समय नगर से किसी भी मदान्ध योद्धा के बाहर होने पर उसे वह सुकल गन्धर्व भक्षण कर लेता था। इस प्रकार उसने अल्पकाल में ही पृथ्वीराज को अत्यन्त कष्ट प्रदान किया। शुद्धात्मा पृथ्वीराज ने भी उससे भयभीत होकर सर्दमयी भगवती शिवा के ध्यान पूर्वक ही शयन किया। उनके ध्यान करने से अत्यन्त प्रसन्न होकर जगदम्बिका ने उदयसिंह आदि को इसका ज्ञान कराती हुई उन्हें साथ ले वहाँ को प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचने पर उन लोगों का उस गन्धर्व के साथ दिन भर घोर संग्राम होता रहा।८१-९०। उस युद्ध में बलवान् बलखानि (मलखान) ने तीन दिन के भीतर सौ गन्धर्वो का हनन किया और सुखखानि ने भी वैसा ही किया। पश्चात् सुकल गन्धर्व ने अपनी गान्धर्वी माया की रचना की, जिसमें उस माया-जाल के सैनिकों द्वारा उन गन्धर्वो ने महोबा के वीरों को घेर लिया। उस समय वे वीरगण उससे भयभीत होकर आल्हा की शरण में पहुँचे ! प्रसन्नचित्त आह्लाद (आल्हा) ने उसी समय देवी सूक्त द्वारा सर्वमंगला शारदा जी की आराधना की जिससे प्रसन्न होकर भगवती ने उन्हें दर्शन दिया और गन्धर्वो को मोहितकर शारदा जी ने उन्हें वहाँ से भागने के लिए विवश किया। गन्धर्वो के पराजित होने पर सर्वमोहन उदयसिंह ने पृथ्वीराज के पास पहुँचकर उनसे एक कोटि सुवर्ण मुद्रा की प्राप्ति की । देवी जी के उपासक उन उदयसिंह की सोलहवें वर्ष की आयु में मार्गशीर्ष (अगहन) के मास में पृथ्वीराज के पुत्र मर्दन का पाणिग्रहण संस्कार सुसम्पन्न हुआ, जिसकी कथा इस प्रकार है-

सूत जी बोले-पुंड्रदेश के अधीश्वर महाबली नागवर्मा महाराज इस जगतीतल में परम धार्मिक एवं तक्षक की उपासना में सदैव संलग्न रहते थे। उनकी पत्नी का नाम नागवती था, जो तक्षक की पुत्री थी, जिसने पिता के शाप द्वारा कलिंगाधीश्वर के यहाँ उनकी पुत्री के रूप में जन्म ग्रहण किया था। उनके दशपुत्र तथा सुवेला नाम की एक कल्याणमुखी एवं रूपयौवन सम्पन्न एक कन्या थी । उस राजा ने अपने पुरोहित द्वारा पृथ्वीराज से कहला दिया कि मैंने मर्दन नामक आपके पुत्र का वरण कर लिया है। उसे सुनकर पृथ्वीराज ने अपने तीन लाख सैनिकों समेत उस नागपुर में जाकर मांगलिक विधान सुसम्पन्न किया। उस समय सुवेला ने अपने पिता से कहा-आप नागभूषण मुझे प्रदान करने की कृपा कीजिये, उसके मिलने पर ही मैं विवाह करूंगी, अन्यथा प्राणपरित्याग कर देंगी । इसे सुनकर नागवर्मा ने पृथ्वीराज के पास पहुँचकर उनसे सुवेला के समस्त अभिप्राय का विस्तारपूर्वक वर्णन किया। इस सुनकर पृथ्वीराज को महान् आश्चर्य एवं उसके साथ अत्यन्त दुःख का भी अनुभव हुआ । पश्चात् उन्होंने आह्लाद (आल्हा) आदि के पास पत्र भेजकर प्रार्थना की । उसे स्वीकार कर आह्लाद (आल्हा) ने उदयसिह तथा बलखानि (मलखान) और सुखखानि समेत एक दिन के भीतर वहाँ पहुँचने का प्रयत्न किया। उन लोगों ने उन घोड़ों पर बैठकर यात्रा की, जो दोपहर में सौ योजन का मार्ग समाप्त करते थे। इस प्रकार उनके पराक्रमी घोड़ों ने सहस्र योजन के उस मार्ग को उस दिन-रात में समाप्तकर वहाँ पहुँचने की सूचना दी। उन घोड़ों का जन्म इन्द्र के घोड़ों द्वारा हुआ है-इलाश्व की अंशकला से हरिणी द्वारा कपोत, कालचक्र के आवर्तक उस गायत्र नामक अश्व के अंश से उत्पन्न एवं सूर्यप्रदत्त पपीहा, तथा हरिणी की शक्ति-अंश से उस हरिणी का जन्म होना बताया गया है। इस प्रकार पपीहा नामक अश्व पर सुखखानि, कपोत पर बलखानि (मलखान), कराल पर आह्लाद (आल्हा) और तेंदुल पर उदयसिंह सवार होकर जा रहे थे। वहाँ पहुँचकर इन लोगों ने पृथ्वीराज के पास पहुँचकर उन्हें सादर नमस्कार किया । उन्हें देखकर प्रसन्नता प्रकट करते हुए पृथ्वीराज ने सादर विनम्र होकर कहा-जिस प्रकार आप लोगों ने मेरे तीन पुत्रों के विवाह संस्कार सुसम्पन्न कराये हैं, उसी भाँति वीर मर्दन को भी विवाहित करके सुख का अनुभव करें। इसे सुनकर आल्हा (आह्लाद) ने उस प्रख्यात रसातललोक में जाकर निर्भय होकर नागिनी से कहा-महारानी ! तुम्हारे पति महोदय पुण्डरीक जी शयन कर रहे हैं, मेरे आगमन की उन्हें शीघ्र सूचना दो, इस समय नागों पर दया मत करो। इसे सुनकर उसने कहा-मेरे पति पुण्डरीक जागने पर अपने वीरों समेत क्रुद्ध होकर तुम्हारे शरीर को दग्ध कर देंगे। उन्होंने हँसते हुए कहा-मुझे तुम्हारे पति का भय नहीं है। ऐसा कइते हुए उन्होंने स्वयं अपने चरणों द्वारा उनकी पूंछ में प्रहार किया। नागों के महाबली राजा उसी समय नाग बनकर अपनी शरीर से विष-ज्वालाओं की मालाएँ उत्पन्न करने लगे। उनके विष की उस ज्वाला को देखकर भगवती सर्वमंगला के ध्यान पूर्वक उस बलवान् एवं देवी उपासक ने उसे शान्त कर दिया। उस समय पुण्डरीक ने प्रसन्न होकर समस्त शृङ्गार समेत वह नागभूषण आल्हा को अर्पित किया। पश्चात् घोड़े पर बैठकर आल्हा ने पृथ्वीराज के पास पहुँच कर वह शृंगार-भूषण उन्हें सौंप दिया। तदुपरांत सविधान उनके विवाह संस्कार को सुसम्पन्न कराकर पृथ्वीराज से कोटिसुवर्ण की प्राप्तिपूर्वक अपने घर चले आये। अश्व विद्या में निपुण वे घोड़े भी शीघ्रातिशीघ्र उन्हें घर पहुँचा दिया और उनके साथ के पाँच सौ शूरवीर भी अपने घर आ गये ।

सूत जी बोले-मद्रदेश में महाबली मद्रकेश नामक राजा राज्य करता था। उसने पाँच वर्ष तक देवश्रेष्ठ अश्विनीकुमार की उपासना की। उन्होंने उनकी आराधना से प्रसन्न होकर राजा को दशपुत्र और एक कन्या प्रदान की जिसका नाम कान्तिमती था उस कन्या के रूप यौवन सम्पन्न होने पर मुद्राधीश्वर ने तीन लाख सैनिक समेत राजा पृथ्वीराज को बुलाकर उनके पुत्र सूर्यवर्मा के साथ अपनी पुत्री का पाणिग्रहण सुसम्पन्न किया । अपनी नवोढा नवविवाहिता पत्नी समेत सूर्यवर्मा ने पृथ्वीराज के साथ अपने नगर को प्रस्थान किया। उसी बीच कर्बर नामक मायावी राक्षस ने जिसे वली एवं विभीषण का पुत्र बताया गया है, वहाँ आकर उस कल्याणमुखी कान्तिमती को देखा । पश्चात् उसने उन लोगों के देखते ही दिव्य सौन्दर्य पूर्ण उस मद्रकेश की पुत्री का अपहरणकर सह्याद्रि नामक पर्वत को प्रस्थान किया। उस समय दुःखी होकर पृथ्वीराज बार-बार विलाप कर रहे थे। किसी एकार से दिल्ली आकर उन्होने अपने एक दूत को उदयसिंह के पास भेजा। दूत ने वहाँ जाकर उदयसिंह आदि लोगों से समस्त वृत्तान्त का वर्णन किया। पश्चात् उन लोगों ने अपने-अपने घोडों पर सवार होकर पाँच सौ शूर सामन्तों समेत सहस्रादिगिरि की यात्रा की । वहाँ पहुँचकर उदयसिंह ने निर्भीक होकर उस कवुर नामक राक्षस से कहा-श्रेष्ठ राक्षस ! मेरी एक बात सुनो ! भक्तराज विभीषण के तुम प्रिय पुत्र हो । इसीलिए तुम्हें इस प्रकार के वंश-विनाशी पाप न करना चाहिए, क्योंकि पहले समय में रावण ने जानकी जी का अपहरण किया था, जो तुमसे छिपा नहीं है। इसे सुनकर उसने कहा-यह मेरी पहले की प्रेयसी पत्नी है, जो गन्धर्व कुल में उत्पन्न हुई थी। इस समय मुनि के शापवश इस भूतल में इसने जन्म ग्रहण किया है। इसीलिए मैं इसके वियोग व्यथा से पीड़ित होने पर लंका त्यागकर मद्रदेश में ही रह रहा था किन्तु वहाँ बहुत दिन से रहते हुए भी मैं राजा मद्रकेश के भयवश इस अपनी प्रेयसी का अपहरण नहीं कर सका। आज बहुत दिनों पर यह कान्तिमती मुझे मिली है। यदि इसे प्राप्त करने की आपकी इच्छा ही है, तो मुझे जीतकर ले सकते हैं, और हम लोग तो सदैव समर्थ हैं ही। इतना सुनकर उदयसिंह ने उसके साथ खङ्ग युद्ध आरम्भ किया। सात दिन के पश्चात् उन्होंने उसे पराजितकर उस शुभ कान्तिमती की प्राप्ति पूर्वक दिल्ली आकर पृथ्वीराज को उसे सौंप दिया। उस समय प्रसन्न होकर राजा ने एक कोटि सुवर्ण उस वीर उदयसिंह को अर्पित किया। अनन्तर उस वीर ने अपने भाइयों समेत प्रमदावन को प्रस्थान किया। सूत जी बोले-पटना नगर का अधीश्वर वली पूर्णामल था, जिसने प्रसन्नतापूर्ण रहकर पाँच वर्ष तक अनवरत वशुओं की आराधना की। उनकी सेवा से प्रसन्न होकर उन देवों ने उन्हें शुभ वरदान प्रदान किया, जिसके द्वारा राजा के दश पुत्र और विद्वन्माला नामक एक कन्या उत्पन्न हुई। कन्या के रूप- यौवन सम्पन्न होने पर राजा ने पृथ्वीराज को अपने यहाँ सादर निमंत्रित किया। सात लाख सैनिकों समेत उस पुत्र के साथ एथ्वीराज के वहाँ आने पर उन्होंने अपनी पुत्री का पाणिग्रहण संस्कार उनके पुत्र के साथ सुसम्पन्न किया। तत्पश्चात् पृथ्वीराज के पुत्र भीमसेन ने उस मनोरम पत्नी की प्राप्ति पूर्वक उन लोगों समेत दिल्ली आकर अपने रंगमहल में हर्षपूर्ण दिनों को व्यतीत करना आरम्भ किया। उसी बीच पिशाच देश का निवासी राजा सहोद अपने दश सहस्र म्लेच्छ सैनिकों द्वारा विद्वन्माला की प्राप्ति के लिए तैयारी करने लगा। उसने बलि दैत्य की आज्ञा प्राप्तकर उस शुभस्थल कुरुक्षेत्र में पहुँचकर डेरा डाल दिया, जहाँ उसने सर्वप्रथम देवताओं की मूर्तियों को तोड़-फोड़ कर गौओं के रक्तों से तीर्थजल की अभिवृद्धि की थी। उस बलवान् ने पत्र लिखकर अपने दूत द्वारा उसे धार्मिक राजा पृथ्वीराज के पास भेज दिया। उसे सुनकर उसके प्रत्युत्तर में राजा ने यह कहा-आप म्लेच्छाधीश्वर होकर विद्वन्मालार्थ यहाँ आये हुए हैं, तो मुझे भी चौर्यदेश का धुरन्धर शब्दवेधी जान लेना । इतना कहकर वे अपनी तीन लाख सेना समेत उस कुरुक्षेत्र की रणभूमि में पहुँच गये । वहाँ उन दोनों का भीषण संग्राम आरम्भ हुआ जो दिन-रात चलता रहा । ज्येष्ठ मास की उस अँधेरी रात्रि की आधीरात के समय बलि दैत्य ने पाताल से आकर अपने दशसहस्र सैनिकों समेत पृथ्वीराज के सैनिकों को मार-मार कर भक्षण करना आरम्भ किया। उस समय भयभीत होकर राजा शारदा की शरण में पहुँचे। उसी बीच उदयसिंह आदि वीरगण भी वहाँ पहुँच गये । मुने ! भगवती की कृपावश वे सब वहाँ क्षणमात्र में पहुँच गये थे । एक सहस्र दैत्यों के निधन करने के उपरांत ये वलि के सम्मुख पहुँचकर उनके ऊपर वत्सराज के दोनों पुत्रों और देव-सिंह ने अपने-अपने खड्ग द्वारा प्रहार करना आरम्भ किया। उनके युद्ध कौशल से प्रसन्न होकर दैत्य- राज बलि ने इन लोगों से अभिलषित वर की याचना करने के लिए दहा । उसे सुनकर इन लोगों ने कहा-आप प्रसन्न हैं, तो अपने दैत्यों समेत आप इस आर्यप्रदेश में कभी भी न आने का वचन दें किन्तु ग्लेच्छ देश में ही जाकर उन्हीं म्लेच्छों का ही भक्षण करते रहें। इस घोर एवं अप्रिय वाणी को सुनकर राजा बलि ने स्वयं उदयसिंह के पास जाकर उनके महत्त्व का स्मरण करते हुए विनम्र प्रार्थना की। पश्चात् प्रसन्न होकर उदयसिंह ने कहा-जब तक मैं इस लोक में रह रहा हूँ, तब तक तुम अपने घर में ही निवास करो। अनन्तर इस लोक में आकर यथायोग्य व्यवहार करने की चेष्टा करना। इसे सुनकर सहोदधी नील समेत पिशाच देश जाकर रसातल चला गया और पृथ्वीराज ने भी प्रसन्नतापूर्ण होकर इन लोगों को एक कोटि सुवर्ण मुद्रा प्रदान किया। पश्चात् गजराज पर बैठकर वे पाँचों अपनी महावती (महोबा) नगरी पहुँच गये ।

सूत जी बोले-पृथ्वीराज के वर्द्धन नामक पुत्र ने जो सभी पुत्रों में श्रेष्ठ थे, पाँच वर्ष की अवस्था में ही लक्ष्मीपति की आराधना आरम्भ की थी। उनकी उस निश्चल भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने वर्ष के भीतर ही सम्पूर्ण निधि उन्हें सौंप दी, जिससे गन्धर्वराज के प्रभाव से पृथ्वीराज का कोष सम्पूर्ण निधि से परिपूर्ण हो गया। पश्चात् हर्षमग्न होकर कुबेर ने मंकण की किन्नरी नामक कन्या भी उस पुत्र को सौंप दी। इस प्रकार मुने ! पृथ्वीराज़ के पुत्रों के विवाह चरित का वर्णन कर दिया गया। तदुपरांत महावली धंधुकार (धांधु) ने अपने एक लाख सैनिकों समेत वहाँ आकर युद्ध के लिए ब्रह्मानन्द को ललकारा। उस समय बलदान् उदयसिंह की इकतीसवें वर्ष की अवस्था आरम्भ थी। उस रोना को देखकर मलनापुत्र ब्रह्मानन्द ने अकेले ही अपने ब्रह्मास्त्र वाण द्वारा उनकी आधी सेना दग्ध कर दिया। शेष पचास सहस्र सैनिक भयभीत होकर इधर-उधर भाग गये। अनन्तर धुंधुकार (धांधू) भी रणस्थल छोड़कर पृथ्वीराज के पास चला गया। उसे सुनकर राजा पृथ्वीराज ने दुःखी एवं भयभीत होकर महीपति (माहिल) और चन्द्रभट्ट को बुलाकर उनसे कहा-‘किस प्रकार मेरी विजय होगी इसका शीघ्रातिशीघ्र विचार कर निश्चय कीजिये । उस समय महीपति (माहिल) ने कहा-भूप शिरोमणे ! मैं अपनी सम्मति प्रदान कर रहा हूँ, सुनने की कृपा कीजिये । बलशाली चामुण्ड (चौढ़ा) को स्त्री का वेष बनाकर उसे वेला मानकर उसका डोला ब्रह्मानन्द को सौंप दिया जाय और धुंधुकार (धांधु) के साथ आपके चारों पुत्र भी वहाँ उपस्थित रहकर कपट करते हुए अपने-अपने अस्त्रों द्वारा उन पर आघात करें। इसे सुनकर हर्षित होकर पृथ्वीराज ने माघशुक्लाष्टमी के सायंकाल के समय उसी भाँति बनाकर पाँचों शूरों से सुरक्षित उस डोले को ब्रह्मानन्द के पास भेजवा दिया । वेलारूपधारी चामुण्ड (चौंदा) ने ब्रह्मानन्द के पास पहुँचकर कपट करके बलात् उनकी छाती में त्रिशूल का प्रहार किया, जिससे व्यथित होकर उस बलवान् ने रुदन करना आरम्भ किया। उसी बीच उन पाँचों शूरों ने भी वहाँ पहुँचकर तारक (ताहर) ने उनके हृदय में वाण, सूर्यवर्मा ने तोमर, भीम ने गदा, बर्द्धन ने तलवार और धुंधुकार (धांधु) ने भाले का प्रहार शत्रु के शिर पर साथ ही साथ किया । उन आघातों से मूच्छित होकर महाबली ब्रह्मानन्द पृथ्वी पर गिर पड़े, किन्तु उनकी शरीर में उतने बड़े व्रण के हो जाने पर भी वहाँ उन्होंने अपने खड्ग ग्रहणकर भीम और वर्द्धन के शिर को उनके धड़ से छिन्न-भिन्न करते हुए सूर्यवर्मा के पास पहुँचकर उन्हें भी धराशायी कर दिया। उस समय तारक (ताहर) धुंधुकार (धांधु) और चामुण्ड (चौंदा) ब्रह्मानन्द को छोड़कर पृथ्वीराज के पास चले गये। तीनों पुत्रों के हनन होने पर भयभीत होकर पृथ्वीराज ने वेला के पास पहुँच अत्यन्त कारुणिक रुदन किया। इसे सुनकर उसी समय वेला ने डोला पर बैठकर अतिशीघ्र ब्रह्मानन्द के पास पहुँचकर उन्हें उसी मूच्छित अवस्था में देखा । पश्चात् वह मृतक अपने छोटे भाइयों को उठाकर रुदन करने लगी । उस समय ब्रह्मानन्द की आँख खुल गई, रुदन करती हुई उस सुन्दरी को देखकर उससे उन्होंने पूँछा इस युद्ध में तुम मेरे पास आई हो, तो बताओ तुम किसकी पुत्री एवं किसकी प्रिया हो ! महासुभ्र ! यदि मेरा प्रिय करना चाहती हो, तो मुझे जलपिलाने की कृपा करो। उस सदाचारिणी वेला ने उन्हें उसी समय जलपान कराकर उसी रात्रि उनसे कहा-मलना-पुत्र! मैं आपसे कुछ निवेदन करना चाहती हूँ, उसे सुनने की कृपा कीजिये । मैं पृथ्वीराज की वेला नाम की कन्या हूँ, आप मेरे वीर पति हैं, इसीलिए मैं आपके पास आई हूँ । राजेन्द्र ! यद्यपि उन वंचकों ने कपटपूर्ण आघात करके आपका हनन कर दिया है, तथापि मेरी प्रार्थना है कि आप अपना जीवन सुरक्षित कर मेरे साथ अनेक भाँति के भोगों के उपभोग करने की कृपा करें। इसे सुनकर उन्होंने उससे कहा-इस कलि काल के समय में जीवित रहने से मरना ही श्रेष्ठ है, इसलिए मेरी बात स्वीकार करोशुभानने ! मेरे साथ हरिनागर पर बैठकर चलो मैं तीर्थों में पहुँच अपने शरीर का त्याग करना चाहता हूँ।१६९-१७९। इतना कहकर उन दोनों ने उसी घोड़े पर बैठकर सर्वप्रथम पूर्व दिशा में स्थित कपिलमुनि के आश्रम (गंगा सागर) में पहुँचकर सविधान स्नान-दान दिया। पश्चात् प्रसन्न होकर वे लोग उसके आगे भी पहुँचे। सभी तीर्थों में पहुँचकर पृथक्-पृथक् स्नान-दान सविधान सुसम्पन्न करके वे परम सन्तुष्ट होते थे । इस प्रकार पूर्व में कपिलाश्रम दक्षिण में सेतुबन्ध, पश्चिम में द्वारिका, और उत्तर में बदरिकाश्रम में स्नानदान सुसम्पन्न करने के उपरांत गंधमादन पर्वतपर पहुँचकर महाबली व्रह्मानन्द ने वेला से कहा ‘रानी ! आज भाद्रशुक्ल की अष्टमी के इस शुभ अवसर पर मैं अपने शरीर का त्याग करना चाहता हूँ, तुम पृथ्वी में रहकर तारक (ताहर) का वध अवश्य करना’ । इसे सुनकर उसने विनम्र प्रार्थना की-स्वामिन् ! मेरी एक बात स्वीकार करने की कृपा करें। आप मेरे साथ कुरुक्षेत्र चलकर वहाँ रहकर ही अपने मंगल की कामना करते रहें और मैं वहाँ से महावती (महोवा) जाकर वहाँ से पुनः दिल्ली लौटने पर तारक (ताहर) का वध करके आपके पास आ जाऊँगी । इसे सुनकर उन्होंने वेला की बात स्वीकार कर कुरुक्षेत्र पहुँचकर ब्रह्मा का ध्यान करना आरम्भ दिया ।
(अध्याय ३१)

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