December 30, 2018 | aspundir | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय १ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग) अध्याय १ भविष्यपुराण के प्रतिसर्गपर्व के इस चतुर्थ खण्ड का इतिहास की दृष्टि से विशेष महत्व है । इसमें मुख्यरुप से सत्ययुग, त्रेता, द्वापर तथा विशेषरूपसे कलियुग के चारों चरणों का इतिहास, राजवंश और युगधर्म निरूपित है । साथ ही अनेक आचार्यों, संतों, भक्त-कवियों तथा पुरी, भारती आदि साधुओं के पूर्वजन्मों का इतिवृत भी संग्रहीत हुआ है । इन्हें प्रायः द्वादश आदित्यों, एकादश रुद्रों, अष्ट वसुओं तथा अश्विनीद्वय का अवतार बतलाया गया है । चैतन्य महाप्रभु की महिमा का इसमें विशेष निरूपण हुआ है और जगनाथजी में उनके लय होने की बात भी आयी है । साथ ही पूर्वापर के सभी आचार्यों तथा संतों को उनके भक्तिभाव से विशेष प्रभावित दिखलाया गया है । पर वास्तव में देश-काल की दृष्टि से कई विसंगतियाँ दिखलायी पड़ती हैं, जिससे इन अशों की मौलिकता पर संदेह होना भी स्वाभाविक है । कलियुगमें उत्पन्न आन्ध्रवंशीय राजाओं के वंशवृक्ष का वर्णन श्रीगणेशजी को नमस्कार है, श्रीराधावल्लभ की जय हो । नैमिषारण्यवासी ऋषियों ने कहा — सूतजी महाराज ! हमलोगों ने आपके द्वारा कहे गये कृष्णांश (उदयसिंह)—के चरित्र को सुना । अब आप अग्निवंश में उत्पन्न हुए राजाओं (प्रमर, चयहानि तथा परिहार आदि)— के राजवंशों का वर्णन करें । जब भगवान् हरि त्रियुगी कहे जाते हैं तो वे कलियुग में किस प्रकार अवतरित हुए इसे भी आप बतलायें । सूतजी बोले — मुनिश्रेष्ठ ! आपलोगों ने बहुत ही उत्तम प्रश्न किया है । अग्निवंश के राजा के चरित्र को मैं कह रहा हूँ, आपलोग सुनिये — दक्षिण दिशा में अम्बा द्वारा रचित दिव्य अम्बावती नाम की पुरी में प्रमर नाम का एक राजा हुआ । वह राजा सामवेदी था । महाबली उस राजा ने अम्बावती में छः वर्षों तक राज्य किया । प्रमर का पुत्र महामर (महामद) हुआ, उसने तीन वर्षों तक राज्य किया और उसका पुत्र हुआ देवापि । उसने भी पिता के समान राज्य किया और उसका पुत्र देवदूत हुआ । देवदूत ने भी अपने पिताके समान ही राज्य किया । देवदूत का महाबलशाली गन्धर्वसेन नामक पुत्र हुआ । गन्धर्वसेन पचास वर्षों तक राज्य करने के पश्चात् तपस्या करने के लिये वन में चला गया । कुछ समय के बाद शिव के आशीर्वाद से उसे विक्रम नाम का पुत्र हुआ । महाराज विक्रम ने सौ वर्षों तक राज्य किया और उसका पुत्र हुआ देवभक्त । देवभक्त ने दस वर्षों तक राज्य किया और वह दुष्ट शकों द्वारा मारा गया । देवभक्त का पुत्र हुआ शालिवाहन । उसने शकों को जीतकर साठ वर्ष तक राज्य किया । अनन्तर वह दिवंगत हो गया । उसका पुत्र शालिहोत्र हुआ और शालिहोत्र ने पचास वर्षों तक राज्य किया । उसका पुत्र शालिवर्धन राजा हुआ, उसने पिता के समान राज्य किया । उसको शकहन्ता नाम का पुत्र प्राप्त हुआ, उसका पुत्र सुहोत्र हुआ और उसका पुत्र हुआ हविर्होत्र । उसने भी पिता के समान पचास वर्ष तक राक्य किया और उसका पुत्र इन्द्रपाल हुआ । इन्द्रपाल ने इन्द्रावती (इन्दौर) नाम की पूरी बनाकर राज्य उसमें राज्य किया । इन्द्रपाल ने भी अपने पिता हविर्होत्र के समान राज्य किया और उसका पुत्र हुआ माल्यवान् । माल्यवान् ने भी माल्यवती नाम की पुरी बनाकर पिता समान के राज्य किया । उसके राज्य में चार वर्ष तक अनावृष्टि होने से घोर अकाल पड़ गया । अन्न के दाने का दर्शन भी दुर्लभ हो गया । प्रजा के साथ-साथ राजा भी भूख से व्याकुल हो गया । अनावृष्टि दूर करने के लिये राजा ने भगवान् शालग्राम की शरण ली । राजाके पास नैवेद्य निवेदित करने के लिये कुछ भी न था । एक स्थान पर पड़े कुछ अनाज के दानों को राजा ने बीन लिया और जिस किसी तरह उन्हें धोकर पवित्र कर उन्हीं से पूजा आदि की । उसकी श्रद्धा-भक्ति से संतुष्ट होकर भगवान् ने आकाशवाणी द्वारा कहा — ‘राजन् ! आज से तुम्हारे वंशजों के उत्तम राज्य में पृथ्वी पर कभी भी अनावृष्टि का भय नहीं होगा।’ माल्यवान् का पुत्र शंकरभक्त शम्भुदत्त हुआ और उसका पुत्र भौमराज हुआ। भोमराज का पुत्र भोजराज तथा भोजराज का पुत्र वत्सराज हुआ । उसका पुत्र शम्भुदत हुआ । उसने चालीस वर्ष तक राज्य किया । शम्भुदत्त का पुत्र बिंदुपाल हुआ । बिंदुपाल ने बिंदुखण्ड नामक राष्ट्रका निर्माण कर सुखपूर्वक राज्य किया । बिंदुपाल ने अपने पिता के समान ही राज्य किया । बिंदुपाल का पुत्र राजपाल हुआ और उसको महीनर नाम का पुत्र हुआ । महीनर का पुत्र सोमवर्मा और उसका पुत्र कामवर्मा हुआ । कामवर्मा का पुत्र भूमिपाल हुआ । उसने एक तालाब खुदवाया और उसके किनारे एक सुन्दर नगर का निर्माण कराया । भूमिपाल का पुत्र रंगपाल हुआ । भूमिपाल ने राजा का पद प्राप्त कर अनेक राजाओं पर विजय प्राप्त की और इस पृथ्वी पर वह वीरसिंह के नाम से विख्यात हुआ । अपने राज्य पर अपने पुत्र रंगपाल का अभिषेक कर वह तपस्या करने वन में चला गया । राजा में उत्तम रंगपाल को कल्पसिंह नाम का पुत्र हुआ । कल्पसिंह के कोई संतान नहीं हुई । एक बार स्नान करने के लिये वह गंगा तट पर गया । वहाँ उसने प्रसन्न होकर द्विजातियों को दान दिया । निर्जन कल्पक्षेत्र की पुण्यभूमि को देखकर उस भूमि पर प्रसन्नचित्त हो उसने वहाँ एक नगर का निर्माण कराया । वह नगर ‘कलाप’ नाम से इस पृथ्वी पर प्रसिद्ध हुआ । कलाप में उसने राज्य किया और गंगा की कृपा से उसको गंगासिंह नाम का पुत्र प्राप्त हुआ । उसने नब्बे वर्षों तक राज्य किया किंतु उसके कोई संतान न हुई । अन्त में युद्ध करते हुए कुरुक्षेत्र में प्राण त्यागने के बाद उसने स्वर्गलोक को प्राप्त किया । सूतजी ने पुनः कहा — मुनियों ! इस प्रकार पवित्र प्रमरवंश समाप्त हो गया । गंगासिंह के वंश में उसके बाद जो क्षत्रिय शेष बच गये थे। उनकी स्त्रियों से आगे चलकर अनेकों वर्णसंकर पैदा हुए । वे सभी वैश्य-वृत्ति वाले थे । वे सभी म्लच्छों के समान पृथ्वी पर निवास करने लगे । इस प्रकार मैंने दक्षिण के राजाओं के वंश का वर्णन किया । (अध्याय १) Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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