भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय ६
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग)
अध्याय ६
दिल्ली नगर पर पठानों का आसन और तैमूरलंग का उत्पात

महर्षि शौनक बोले — मुनिश्रेष्ठ ! (पृथ्वीराज) के पश्चात् कौन-कौन राजा हुए । महाभाग ! इसे हमें बताने की कृपा करें, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं ।

सूत बोले — दश सहस्र यवन सेनाओं को लेकर वहाँ पहुँचने पर कुतुकोद्दीन ने राजा वीरसेन के पौत्र नृपश्रेष्ठ भूपसेन को पराजित कर पुनः दिल्ली लौटकर सुखीजीवन व्यतीत करना आरम्भ किया । किन्तु उसी बीच अनेक प्रान्तों के राजाओं ने वहाँ पहुँचकर उससे घोर संग्राम करके उस कुतुकोद्दीन (कुतुबुद्दीन) को अपने इस भारत प्रदेश से बाहर किया। om, ॐउसे सुनकर सहोद्दीन (सहाबुद्दीन) पुनः (गौर से) दिल्ली आकर उन राजाओं पर विजय प्राप्तिपूर्वक मूर्तियों के तोड़ने-फोड़ने का कार्य करता रहा । उसके अनन्तर अनेक म्लेच्छ वंश के लोगों ने यहाँ भारत में आकर पाँच सौ वर्ष तक राज्य किया । पश्चात् उनका विलय हो गया । मुनिश्रेष्ठ ! इसीलिए आज से सौ वर्ष के भीतर ही देवमूर्तियों तथा तीर्थों के विनाशक वे प्रथम यवन भूपगण अल्पायु होकर विनष्ट होते रहेगे । अतः तुम लोग मेरे साथ उस विशाला नामक श्रेष्ठपुरी चलने के लिए तैयारी करो ।

इसे सुनकर दुःख प्रकट करते हुए किसी प्रकार नैमिषारण्य तीर्थ का त्यागकर वे मुनिवृन्द पर्वतश्रेष्ट उस हिमालय पर स्थित विशाला पुरी के लिए प्रस्थित हो गये। वहाँ पहुँचकर उन लोगों ने समाधिस्थ होकर भगवान् का ध्यान करना आरम्भ किया । पश्चात् वैस ही ध्यान करते हुए वे ऋषि ब्रह्मलोक पहुँच गये ।

व्यासजी बोले — योग के अभ्यास वश जानी गई इन बातों को मैंने सुना दिया । अब इसके अतिरिक्त क्या सुनना चाहते हो !?

मनु ने कहा — भगवन् ! आप वेद के मर्मज्ञ और समस्त लोकों के कल्याणप्रद हैं तथा इस भूतल में माया द्वारा उत्पन्न और आप वेद द्वारा । इसीलिए अविद्या द्वारा मेरा समस्तज्ञान, अपहृत हो जाने के नाते मैं अनेकों योनियों में भ्रमण करता हुआ इस लोक में आया हूँ । उस परब्रह्म की यह असीम कृपा थी, जो मुझ ऐसे मन्दभागी को देखकर मेरे उद्धारार्थ व्यासरूप धारण कर यहाँ दर्शन दिया । अतः उस मुनीन्द्र वेदव्यास को नमस्कार है, जो कर्म का साक्षी रूप है और अविद्याजनित भाव-बन्धनों से मुक्त करने वाले उस ब्रह्मरूप को बार-बार नमस्कार है । मुने। तदुपरान्त सूतादिक मुनियों ने क्या किया । स्वामिन् ! मुझे उन सभी को पुनः बताने की कृपा कीजिये ।

व्यासजी बोले — ब्रह्माण्ड में स्थित सभी लोकों के और इस शरीर में अहंकार ही जीवात्मा कहलाता है, जो अत्यन्त हीन होता है । पुराण (प्राचीन), अणु (सूक्ष्म) और सूक्ष्मतर आदि भेद से वह सनातन परात्मा ही आत्मा कहलाता है । पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (श्रवण, नेत्र, नासिका, जिह्वा, एवं त्वक्), पाँच कर्मेन्द्रिय (वाक्, पाणि, पाद, वायु और उपस्थ) और मन संयुक्त इस शरीर में रहने वाला जीव ही ज्ञेय (जानने के योग्य है, जो इस शरीर का अधिष्ठाता होकर (तीनों) गुणों (सत्व, रज, और तम्) द्वारा बँधा हुआ है । वह परात्मा अष्टादशात्मा और जीव का कल्याणकर्ता शंकर कहा जाता है । बुद्धि मन और इन्द्रियाँ यही इसके विषय हैं । जीवात्मा अहंकार ही ईश महादेव एवं सनातन कहा जाता है । किन्तु वही जीवात्मा होने पर, जो साक्षात् ब्रह्म रूप है, शंकर द्वारा विमोहित होने पर तीनों गुणरूपी पाश से आवद्ध होता है और वही एक से अनेक भी, जो काल, भगवान्, ईश एवं महाकल्प रूपधारी कहा जाता है । शिवकल्प, ब्रह्मकल्प और विष्णुकल्प, यही तीनों कल्प उस ईश के नेत्र हैं और वही ईश का नेत्र चौथा बन्धकल्प कहा गया है । वायुकल्प, वह्निकल्प, ब्रह्माण्ड और लिंगकल्प को ईश का पाँचों मुख उन तत्वज्ञों ने बताया है । भविष्य कल्प, गरुडकल्प, भागवतकल्प और मार्कण्डेयकल्प तथा वामन, नृसिंह, वाराह, मत्स्य और कूर्म (कच्छप) उस ज्ञानात्मा महेश्वर की दस भुजाएँ हैं । उस अव्यक्त ब्रह्म के ये अट्ठारहकल्प अट्ठारह दिन में निर्मित होते हैं, जिनकी गणना के लिए विद्वानों ने विलोमतः बताया है । पहला कूर्मकल्प, दूसरा मत्स्य कल्प और तीसरे श्वेत वाराहकल्प को जानने के लिए पुरातन महर्षियों ने सर्वप्रथम प्रयत्न किया है । भगवान् ब्रह्मा ने अपने को दो रूपों में विभक्तकर सूक्ष्म, स्थूल, निर्गुण, गुणी, सगुण और विराट रूप में अपनी ख्याति की है, जिनका भगवान् विष्णु की नाभि से प्रकट होना बताया जाता है । उन्हीं निर्गुण, व्ययरूप, अव्यक्तजन्मा एवं स्वयंभू (अपने द्वारा उत्पन्न होने वाले) कहे जाने वाले सगुण ब्रह्मा की सौ वर्ष की आयु होती है । मनुष्यों के अस्सी सहस्र वर्षों का उस विराट् ब्रह्मा का एक दिन होता है । निर्गुण एवं अव्यक्त जन्मा वह सर्वेश्वर काल से भी महान् है । उस परमेश्वर की अव्यक्त प्रकृति और बारह अंग बताये गये हैं — पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय मन एवं बुद्धि यही उस अव्यक्त के अंग हैं । अव्यक्त से वह परव्रह्म आविर्भूत होता है, जिसकी सूक्ष्म ज्योति अव्यय कही जाती है । उसके अव्यक्त अवस्था में स्वयं प्राप्त होने पर उसे अव्यक्तजन्मा कहा जाता है, जो सगुण अवस्था में प्राप्त होकर निरन्तर सौ वर्ष तक समाधिस्थ रहता है । यह सूक्ष्ममन वायु के रूप में सतत प्रयत्न करते हुए ब्रह्मा के जिस स्थान की प्राप्ति करता है, वही सनातन एवं योग द्वारा जानने योग्य सत्यलोक बताया गया है । उस स्थान पर पहुँचकर महर्षिगण समाधिस्थ होकर एक लक्ष वर्ष तक रहने के उपरान्त क्षणमात्र में भूलोक से सच्चिदानन्द धन की उसे शरीर में प्रविष्ट हो गये ।

दूसरे दिन के आरम्भ में आँखें खोलने पर उन लोगों ने सभी मनुष्यों को पशुतुल्य सूक्ष्म रूप में देखा, जो साठ वर्ष की आयु, घोर एवं दो बित्ते के ऊँचे थे । कहीं-कहीं पर तो वर्णशंकर के अनुसार जातियाँ दिखायी देती थीं, किन्तु वे सभी लोग पाखंडी, म्लेच्छ तथा अनेक रूपधारी थे । उस समय सभी तीर्थ और चारों वेद पृथ्वी परित्यागकर गोपी के रूप में भगवान् के साथ उस महोत्सव में सम्मिलित हो गये थे । इस भूतल में कलि ने सभी मनुष्यों को पाखण्डी, अनेक जातियाँ, एवं अनेक पंथ के प्रदर्शक बनाकर उन्हें अपने धर्मकर्म से वंचितकर स्वयं दृढ़ स्थिति कर लिया, ऐसा देखकर महर्षिवृन्द रोमहर्षण (सूतजी) के पास पहुँचने का प्रयत्न करेंगे तथा वहाँ पहुँचकर मन ही मन हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम भी । इस प्रकार उन महर्षियों द्वारा स्तुत होने पर सूतजी अपनी उस सनातनी योगनिद्रा का त्यागकर उन्हें कल्प के आख्यान सुनायेंगे । इन्द्रियश्रेष्ठ ! सूत द्वारा वर्णित किये जाने वाले आख्यान को मैं तुम्हें बता रहा हूँ, सुनो —

सूत जी बोले — मुनिश्रेष्ठ ! उस एक लाख वर्ष के उपरान्त जो कुछ हुआ है, मैंने अपनी योगनिद्रा द्वारा उसका पूर्णज्ञान कर लिया है, अतः उस कल्प के आख्यान को मैं तुम्हें बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो । म्लेच्छों में तिमिर लिङ्ग (तैमूर) नामक राजा हुआ, जो मुकुल (मुगल) वंश में उत्पन्न एवं पिशाच धर्मी था । उस कालरूपी तिमिरलिंग (तैमूर) ने मध्यदेश में जाकर आर्यों तथा म्लेच्छराजों पर विजय प्राप्त करते हुए दिल्ली नगर में पहुँचकर भीषण वध करना आरम्भ किया । आर्य देश निवासी सभी ब्राह्मणों को बुलाकर उसने लोगों से कहा — आप लोग मूर्ति के पुजारी हैं तथा जिस व्यक्ति द्वारा उस मूर्ति का निर्माण हुआ वह उसके पुत्र के समान है । इसलिए उस मूर्ति का पूजन करना उचित हो सकता है ? क्योंकि शिलामय शालिग्राम को तुम लोगों ने विष्णुदेव बताया है, अतः वे शालिग्राम निर्मित होने के नाते विष्णु नहीं हो सकते हैं । इसलिए मेरा कहना है कि तुम्हारे मुनियों ने तुम्हारे वेदों एवं शास्त्रों को लोगों को ठगने के लिए व्यर्थ बनाया है । इतना कहकर उन ब्राह्मणों को अत्यन्त प्रज्जलित अग्नि में डलवा दिया । अनन्तर शालग्राम शिला और उसके पुजारियों को बलात् पकड़कर ऊँटों पर उन्हें बैठाकर साथ में लिए अपने घर गया । वहाँ पहुँचकर उस तैत्तिर देश (तातार) में एक दुर्ग (किले) का निर्माण कराकर रहने लगा और शालिग्राम को अपनी शय्या का आरोहण (पावदान) बनाया ।

उस समय समस्त देवों ने दुःखी होकर अपने स्वामी इन्द्र के पास पहुँचकर उन देवनायक एवं शचीपति से सभी वृत्तान्त का वर्णन किया । भगवन् ! भगवान् कृष्णांश के द्वारा प्रबोधित होने पर हमलोग सभी मूर्तियों को त्यागकर शालिग्राम शिलाओं के मध्य में सहर्ष निवास करते हैं तथा देव ! वे शिलाएँ शालदेश में उत्पन्न होती हैं, किन्तु उस म्लेच्छराज ने उन शिलाओं को अपने पैर का आरोहण (पावदान) बना लिया है । इसे सुनकर देवसम्राट् भगवान् इन्द्र के समस्त देव-पूजन को बलि द्वारा तिरस्कृत करना जानकर दैत्यों के ऊपर महान् क्रोध किया । मेघवाहन इन्द्र ने अपने उस दैत्यनाशक एवं अतुल वज्रायुध को ग्रहणकर उन्हें म्लेच्छों के निवासभूत तैत्तिर प्रदेश में भेजा । वहाँ उनके शब्दों से वह सम्पूर्ण देश कई भागों में छिन्न-भिन्न होकर नष्ट हो गया और वह म्लेच्छराज अपने कुल समेत विनष्ट हो गया । पश्चात् देवों ने उस शालग्राम शिला को लेकर उस गण्डकी नदी में डालकर स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचने पर महेन्द्र देव ने देवों समेत गुरु वृहस्पति के पास पहुँचकर उनसे कहा — भगवन् ! पृथ्वी पर कलि के आने पर दानवगण वेदधर्म का उल्लंघन करके मेरे नाश के लिए तुल जायेंगे । अतः भगवन् ! कलियुग में देवों समेत मेरी रक्षा करना ।

बृहस्पति ने कहा — महेन्द्र ! विष्णु ने तुम्हारी शची नाम की श्रेष्ठ पत्नी को वरदान दिया है कि ‘कलि के समय मैं तुम्हारा पुत्र हूँगा ।’ तुम्हारी आज्ञा प्राप्तकर वह देवी उस शान्तिमयी एवं शुभपुरी में, जो गौड़देश में गङ्गा के तट पर स्थित है, ब्राह्मण के यहाँ उत्पन्न होकर कार्यसिद्धि करेगी अतः आप भी ब्राह्मण होकर देवकार्य के सफल होने की चेष्टा कीजिये । इस प्रकार गुरु की बात सुनकर इन्द्र ने एकादश रुद्र, आठ वसु और अश्विनी कुमार के साथ माघ में मकर के अवसर पर सूर्यप्रिय तीर्थराज प्रयाग में जाकर सूर्यदेव की उपासना की । उस समय वृहस्पति ने भी वहाँ पहुँचकर बारह अध्याय में निर्मित सूर्य माहात्म्य उन इन्द्रादि देवों को सुनाया ।
(अध्याय ६)

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