भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय – २
पति कौन ?
(मधुमती की कथा)

सूत जी बोले— द्विजसत्तम ! उस वैताल ने प्रसन्नतापूर्ण होकर प्रसन्नचित्त वाले उस राजा से कहा । जो उस समय महासिंहासन पर सुशोभित हो रहा था । एक बार यमुना जी के तट पर धर्मस्थल नामक एक सुन्दर पुरी में, जो धन-धान्य से परिपूर्ण, एवं चारों वर्णों के मनुष्यों से युक्त थी, गुणाधिप नामक राजा राज्य कर रहा था । स्नान पूजन के लिए नियत हरिशर्मा नामक उनके पुरोधा (पुरोहित) थे । om, ॐसुशीला नामक पतिव्रतपरायणा उनकी पत्नी एवं सत्यशील नामक पुत्र था, जो विद्याध्ययन के लिए कटिबद्ध रहता था । शील, रूप, और गुणों से सम्पन्न मधुमती नामक उनकी एक पुत्री भी थी । बारह वर्ष की अवस्था होने पर उसके विवाहार्थ पिता और भ्राता दोनों कन्या के अनुरूप वर की खोज करने लगे । उसी बीच पिता राजकुमार के विवाह में और भ्राता सप्तशील अपने अध्ययनार्थ काशी चला गया । राजन् ! उस समय वामन नामक एक ब्राह्मण, जो रूप, शील एवं वयस्क था, हरिशर्मा के यहाँ आ पहुँचा । मधुमती कन्या उसे देखकर कामातुर हो गई उसने व्याकुल होकर भोजन, वस्त्र, पान और शयन का त्यागकर दिया केवल चन्द्र के वियोग में चकोरी की भाँति कामबाण की पीड़ा का अनुभव करने लगी ।

सुशीला ने अपनी पुत्री की अवस्था और उस वामन व्राह्मण को देखकर कुछ स्वर्ण द्रव्य के साथ ताम्बूल प्रदान द्वारा उसका वरण कर लिया । हरिशर्मा ने प्रयाग में किसी त्रिविक्रम नामक ब्राह्मण को देखकर, जो वेद और वेदाङ्ग के तत्त्व का निष्णात ज्ञाता था, अपनी कन्या के निमित्त उसका वरण किया । उधर सत्यशील ने केशव नामक अपने गुरुपुत्र को अपनी बहिन के निमित्त वरण करके अत्यन्त आनन्द विभोर होता हुआ घर को प्रस्थान किया । माघकृष्ण त्रयोदशी शुक्रवार के दिन शुभ लग्न में कन्या का पाणिग्रहण करने के लिए वे तीनों ब्राह्मण उसके रूप पर मोहित होकर वहाँ पहुँच गये । उसी समय किसी सर्प ने उस कन्या को काट लिया, जिससे पूर्व कर्म के प्रभाव से उसे प्राण त्यागने पर प्रेत होना पड़ा । उस समय उन तीनों ब्राह्मणों ने उसकी प्राणरक्षा के लिए अनेक यत्न किया, पर विष की तीक्ष्णतावश वह स्त्री जीवित न रह सकी । पश्चात् हरिशर्मा ने वैदिक विधान द्वारा उसकी अन्येष्टि क्रिया समाप्त की । राजन् ! अपनी कन्या के गुणों के स्मरण द्वारा अत्यन्त मुग्ध होते हुए वे अपने घर लौट आये ।

आये हुए उन ब्राह्मणों में त्रिविक्रम काम पीड़ित होकर अनेक दुःखों का अनुभव करता हुआ कंधा (गुदड़ी) धारण कर देश-देशान्तर भ्रमण के लिए चल पड़ा । केशव ने महादुःखी होकर अपनी प्रिया की अस्थियों का संचय करके कामबाण से पीड़ित होकर एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ को प्रस्थान किया और वामन उसके विरह से संतप्त होकर उसकी भस्म को लेकर कामार्त्त एवं केवल पत्नी का ध्यान करता हुआ चिता पर बैठ गया ।

एक बार सरयू नदी के तट पर स्थित लक्ष्मण नामक नगर में किसी ब्राह्मण के दरवाजे पर भिक्षा के निमित्त त्रिविक्रम पहुँच गया । शिवध्यान का पारायण करने वाले रामशर्मा ने उस दिन भोजनार्थ अपने घर उस यती (संन्यासी) को बुलाया था । उनकी पत्नी विशालाक्षी अनेक भाँति के भोजन पात्र में आये हुए यति के सम्मुख रख रही थी, कि राजन् ! उसी समय उसका पुत्र अपने कर्म के प्रभाव से मृतक हो गया । पश्चात् उनकी सहचरी विशालाक्षी ने जब भर्त्सना करने पर भी पुत्रशोक से संतप्त होने के कारण रुदन करना बन्द नहीं किया । तब रामशर्मा ने संजीवनी मन्त्र की प्राप्ति करके उसके जप और संमार्जन द्वारा पुत्र को जीवित किया । अनन्तर विनम्र होकर उस व्राह्मण ने उस संन्यासी को भोजन कराकर उसे शुभ-संजीवनी-मन्त्र भी प्रदान किया । त्रिविक्रम ने उस मन्त्र की सिद्धि यमुना तट के उस स्थान पर प्राप्त की, जहाँ हरिशर्मा ने उस स्त्री (पुत्री) का दाह किया था । उसी समय वहाँ के राजपुत्र का निधन हो गया । उपरान्त उसके पिता ने शोक-संतप्त होकर उसका दाहकर्म किया । उस बालक ने भी उस मन्त्र के प्रभाव से जीवनदान प्राप्त किया । तदुपरान्त राजा गुणाधिप के उस महाबली पुत्र ने जिसे उस मन्त्र के प्रभाव से जीवनदान प्राप्त हुआ था, त्रिविक्रम से कहा — आप ने मुझे जीवनदान दिया है, अतः मन इच्छित वरदान माँग लीजिये ।

ब्राह्मण ने कहा — राजन् ! केशव नाम का व्राह्मण जो अस्थियों को लेकर तीर्थ चला गया है, शीघ्र उसका अन्वेषण होना चाहिए । राजकुमार वीरबाहु ने दूत द्वारा अपनी जीवनदान प्राप्ति की कथा उससे कहला दिया । ऐसी बातें सुनकर केशव ने अस्थियों समेत मार्ग से ही वापस आकर उस व्राह्मण (त्रिविक्रम) को समस्त अस्थियाँ प्रदान की । अनन्तर जीवित होने पर वह स्त्री केशव आदि उन तीनों ब्राह्मणों से कहने लगी कि धर्मतः मैं जिसकी स्त्री होने के योग्य हूँ, उसी धार्मिक के साथ मैं चलने के लिये तैयार हूँ । इसे सुनकर वे तीनों ब्राह्मण मौन हो गये । अतः धर्मज्ञ, विक्रमादित्य तुम्हीं इसका निर्णय बताओ कि वह मधुमती नामक कन्या किसकी स्त्री होने के योग्य हैं ।

सूत जी बोले — राजा विक्रमादित्य ने नम्रता पूर्वक हँसकर वैताल से कहा — वह मधुमती कन्या उस वामन नामक ब्राह्मण की स्त्री होने के योग्य है । क्योंकि प्राण देने वाला पिता के समान और अस्थि देने वाला, भ्राता के समान होता है ।
(अध्याय २)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१

4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व तृतीय – अध्याय २०
5. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व प्रथम – अध्याय ७
6. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १

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