भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय ७
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग)
अध्याय ७
भगवान् सूर्य के तेज से आचार्य ईश्वरपुरी, आचार्य रामानन्द तथा निम्बार्काचार्य की उत्पत्ति का वर्णन

ऋषियों ने कहा — ब्रह्मन् ! भगवान् बृहस्पति ने वहाँ एकत्र स्थित देववृन्दों से मण्डलस्थ सूर्यदेव के किस माहात्म्य का वर्णन किया है । उसे जानने के लिए हमलोग अत्यन्त समुत्सुक हैं । अतः उसे सुनाने की कृपा कीजिये ।

सूतजी बोले — ऋषियों ! जीवरूप एवं गुणनिधि बृहस्पति को वहाँ प्रयाग में शोभन आसन पर आसीन देखकर देवों समेत महेन्द्र ने उनसे कहा — महाभाग ! सूर्य के उस माहात्म्य का वर्णन कीजिये, जिसे सुनकर साक्षात् सूर्य भगवान् अत्यन्त प्रसन्न हों ।om, ॐबृहस्पति बोले — बर्हिष्मती (बिटूर) नामक पुरी के रहने वाले किसी धातृशर्मा नामक ब्राह्मण ने संतानार्थ प्रजापति की तप द्वारा आराधना की । पाँचवें वर्ष प्रसन्न होकर भगवान् प्रजापति ने दो पुत्र और एक कन्या उस ब्राह्मण को प्रदान किया । उस ब्राह्मण श्रेष्ठ को वर्ष के अन्तर से तीनों संतान की प्राप्ति हो गई, जिससे वह धातृशर्मा अत्यन्त हर्षित होकर उन संतानों का लालन-पालन करने लगा । पश्चात् इनका उत्तम विवाह सम्बन्ध किस प्रकार सुसम्पन्न हो, ऐसी चिन्ता करते हुए उस ब्राह्मण ने एक वर्ष हवन द्वारा तुम्बुरु नामक गन्धर्व नायक की उपासना की । उपरान्त प्रसन्न होकर उस गन्धर्व ने उनके उस मनोरथ को सफल किया । अपने पुत्र तथा उनकी बहुओं को देखकर उस ब्राह्मण को अत्यन्त प्रसन्नता हुई । किन्तु उनके उपभोग साधनों के लिए पुनः चिन्तित होने लगा — मैं निर्धन हूँ तथा साठ वर्ष की मेरी आयु भी हो चुकी है, इसलिए इनके लिए भाँति-भाँति के भूषण और वस्त्रों की प्राप्ति कैसे हो सकेगी । इस प्रकार चिन्तित होकर उसने एक वर्ष तक चन्दनादि सामग्री द्वारा कुबेर की विधिवत् अर्चना की । उस समय प्रसन्न होकर कुबेर ने उन्हें अत्यन्त धन समेत पाँच सुवर्ण मुद्रा प्रदान करने वाली यक्ष विद्या प्रदान की । (मंत्र की) सहस्र संख्या के जप करने वाले उस ब्राह्मण ने उनकी पूजापूर्वक उसका दशांश हवन, तर्पण और मार्जन करके अपना मनोरथ सफल किया । इस प्रकार उसके सुखी-जीवन का एक महान् समय व्यतीत हुआ । मरण के दिन सन्निकट होने पर वह रोगी हो गया । रोग से पीड़ित होने पर उस ब्राह्मण ने वैदिक स्तुति द्वारा लोक के कल्याणमूर्ति श्रीशंकर की उपासना की । एक मास के उपरान्त भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उसे ज्ञान प्रदान किया, जिससे उस विनम्र धातृशर्मा ने रविवार-व्रतों द्वारा मोहनाशक भगवान् भास्कर को प्रसन्न करना आरम्भ किया । पाँच वर्ष के उपरान्त भक्तवत्सल भगवान् सूर्य ने उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर चैत्र पूर्णिमा के दिन मन इच्छित वरदान के लिए उसे प्रेरित किया । उसे सुनकर धातृशर्मा ने मोहनाशक भगवान् भास्कर जी की विनम्र एवं उत्तम वाणी द्वारा स्तुति करना प्रारम्भ किया ।
धातृशर्मा ने कहा-

प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च मनसोऽस्य तनौ प्रिया ।
रात्रिरूपा प्रवृत्तिश्च निवृत्तिर्दिनरूपिणी ॥
भवतस्तेजसा जाते लोकबन्धनहेतवे ।
अव्यक्ते तु स्थितं तेजो भवतो दिव्यसूक्ष्मकम् ।
त्रिधाभूतं तु विश्वाय तस्मै तेजात्मने नमः ॥
राजसी या स्मता बृद्धिस्तत्पतिर्भगवान्विधिः ।
भवतस्तेजसा जातस्तस्मै ते विधये नमः ॥
सात्त्विकी या तनौ बुद्धिस्तत्पतिर्भग्वान्हरिः ।
भवता निर्मितस्सवात्तस्मे ते हरये नमः ॥
तामसी मोहना बुद्धिस्तत्पतिश्च स्वयं शिवः ।
तमोभूतेन भवता जातस्तस्मै नमो नमः ॥
देहि मे भगवन्मोक्षं संज्ञाकान्त नमोनमः ।
(प्रतिसर्गपर्व ४ । ७ । २०-२४)

‘इस शरीर में रहने वाले मन की प्रवृत्ति और निवृत्ति रूप दो प्रियायें हैं, जिसमें प्रवृत्ति रात्रिरूप एवं निवृत्ति दिनरूप वाली कही जाती है । सांसारिक बंधनों की कारण भूत ये प्रवृत्ति-निवृत्ति रूप परिस्थितियाँ आपके उस तेज द्वारा ही उत्पन्न होती हैं, जो आपका तेज दिव्य एवं सूक्ष्म रूप से अव्यक्त में स्थित हैं और विश्व के लिए वही तीन भागों में विभक्त होता है, अतः उस तेजरूप वाले आत्मा को बार-बार नमस्कार है । राजस् बुद्धि, जिसके पति भगवान् ब्रह्मा हैं, आपके तेज द्वारा ही उत्पन्न हैं, अतः उस विधिरूप ब्रह्मा को बार-बार नमस्कार है । शरीर में स्थिति उस सात्त्विकी बुद्धि का जन्म जिसके अधीश्वर भगवान् विष्णु कहे गये हैं, आपके द्वारा ही हुआ है, इसलिए उस हरिरूप आपको नमस्कार है । इसी प्रकार मोहात्मक तामसी बुद्धि भी, जिसके अध्यक्ष स्वयं शिवजी हैं, तमोरूप आप से ही उत्पन्न हुई है, अतः उस रूपधारी आपको नमस्कार है । भगवन्, संज्ञाकान्त ! मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ, आप मुझे मोक्ष-प्रदान करने की कृपा करें ।’

बृहस्पति जी बोले — महेन्द्र ! धातृशर्मा ब्राह्मण के इस प्रकार स्तुति करने पर भगवान सूर्य ने उस ज्ञान-निपुण द्विजश्रेष्ठ से कहा-

मोक्षश्चतुर्विधो विप्र सालोक्यं तपसोद्भवम् ।
सामीप्यं भक्तितो जातं सारूप्यं ध्यानसम्भवम् ।।
सायुज्यं ज्ञानतः ज्ञेयं तेषां स्वामी परः पुमान् ।
सरगुणो विगुणो ज्ञेय आनन्दो मोक्षिणी क्रमात् ।।
देवानां चैव देहेषु ये मोक्षाः पुनरागताः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्विष्णोः परमं पदम् ॥
यत्प्रसन्नेन विप्पेन्द्र सायुज्यं मे भवेतव ।
मनुमात्रश्च यः कालस्तावत्ते मोक्ष आस्थितः ॥
(प्रतिसर्गपर्व ४ । ७ । २६-२९)

‘विप्र ! मोक्ष चार प्रकार का होता है सालोक्य की प्राप्ति तप द्वारा, सामीप्य भक्ति द्वारा, सारूप्य ध्यान द्वारा और सायुज्य मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान द्वारा होती है तथा इन सभी प्रकार के मोक्ष के अधिपति वही परमात्मा है और क्रमशः उत्तरोत्तर मोक्षों के आनन्द दुगुने बताये गये हैं । देवों की शरीर में वही मोक्ष आकर पुनः स्थित हैं इसलिए जहाँ पहुँचने पर पुनः वहाँ से निवृत्ति (लौटना) नहीं होता है, वही विष्णु का परमपद कहा गया है । विप्रेन्द्र ! जिसकी प्रसन्नतावश मेरे सायुज्य मोक्ष की प्राप्ति तुम्हें हुई है । यह तुम्हारा मोक्ष इस मनु की स्थिति काल तक स्थित रहेगा ।’ इतना कहकर सूर्यदेव अन्तर्हित हो गये और उस व्राह्मण को मोक्ष की प्राप्ति हुई ।

सूत जी बोले — इस प्रकार (उनके माहात्म्य) वर्णन करने पर चैत्रमास की उस पूर्णिमा के समय सूर्य ने उन बृहस्पति को अपने स्वरूप का दर्शन प्रदान किया । पश्चात् उन सनातन एवं देवाधिदेव सूर्य ने कहा — ‘देववृन्द ! जिस कार्य के लिए आपलोग यहाँ एकत्रित हुए हैं, मैं उसे बता रहा हूँ, सुनिये । वंगदेश में मैं अपने अंश से उत्पन्न देव-कार्य को सफल करूंगा ।’ इतना कहकर सूर्य ने अपने मुख द्वारा तेज निकालकर अपने भक्त उन दोनों ब्राह्मण-पत्नियों (द्विजपत्नी सुकन्या) को समर्पित कर दिया । उस धातृशर्मा ब्राह्मण का जो सूर्य में सायुज्य मोक्ष की प्राप्तिकर सुखानुभव कर रहा था, सूर्य के तेज द्वारा काव्यकार के घर पुनः जन्म हुआ जो ईश्वर (ईश्वरपुरी) नाम से प्रख्यात एवं समस्त शास्त्रों में निपुण था । उसने वेद के पारगामी ब्राह्मणों पर विजय प्राप्तिपूर्वक अत्यन्त महान् यश की प्राप्ति की । विप्र ! इस प्रकार मैंने वृहस्पति के कहे हुए उरा समस्त माहात्म्य को सुना दिया, किन्तु देवों के लिए बृहस्पति द्वारा कही हुई उस कथा को पुनः कह रहा हूँ, सुनो —

बृहस्पति जी बोले — मायावती पुरी में मित्रशर्मा नामक कोई ब्राह्मण रहता था, जो नित्य काव्य रचना में तन्मय, रसिक एवं कामिनी प्रेमी था । कुम्भ राशि पर मेरे स्थित होने पर उस समय हरिद्वार में एक महान् उत्सव का आयोजन हुआ, जिसमें अनेक देशों के आये हुए उस तीर्थ के निवासी अनेक राजगण सम्मिलित थे । उस उत्सव के दर्शनार्थ वहाँ परमानन्द प्रेमी एवं भूषणों से सुसज्जित पुरुष तथा स्त्रियों का एक महान् समाज उपस्थित हुआ । मित्रशर्मा भी उस उत्सव में पहुँचकर दाक्षिणात्य प्रदेश के निवासी राजा कामसेन की पुत्री (चित्रिणी) को, जो काव्यक्रीड़ा में निपुण बारह वर्ष की आयु, शुभमूर्ति, सौन्दर्यपूर्णमुख तथा मृग-बच्चों के समान विशाल नेत्रवाली थी, देखकर अत्यन्त अधीर हो गया । वह चित्रिणी नामक कन्या भी मित्रशर्मा को देखते ही उस ब्राह्मण-मूर्ति को हृदय में स्थापित करती हुई मूच्छित हो गई । पश्चात् अपने घर आकर वह चित्रिणी कन्या सादर सम्मानपूर्वक भगवान् भास्कर की आराधना करने लगी । मित्रशर्मा ने भी वही रमणीक गंगा-तट पर रहकर वैशाखमास के प्रारम्भ से प्रात:काल स्नान कर जल के मध्य स्थित होकर आदित्यहृदय स्तोत्र का पाठ करना आरम्भ किया । प्रतिदिन उस स्तोत्र के बारह बार पाठ करके वह ब्राह्मण भगवान् भास्करदेव को प्रसन्न कर रहा था । मास के अन्त में भगवान् सूर्य ने प्रसन्न होकर उस वर प्रदान किया । पश्चात् वर प्राप्तकर वह ब्राह्मण अपने घर आया । चित्रिणी को भी भगवान् भास्कर द्वारा उसके मनोऽनुरूप वर की प्राप्ति हुई । सूर्यदेव ने दोनों के माता-पिता को स्वप्न द्वारा एक दूसरे का ज्ञान कराया । अनन्तर राजा कामसेन ने मित्रशर्मा को बुलाकर उसके साथ चित्रिणी का विवाह संस्कार सुसम्पन्न कराकर उन दोनों को अपने यहाँ रख लिया ।

वहाँ, आनन्दमग्न रहकर उन दोनों ने सूर्यदेव की आराधना आरम्भ की — ताँबे के पत्र पर उनका यंत्र लिखकर प्रतिदिन रक्तपुष्पों द्वारा उसकी पूजा और सूर्यप्रिय उस रविवार व्रत द्वारा उन्हें प्रसन्न करना प्रारम्भ किया । इससे वे दोनों देवों की भाँति सदैव युवा ही रहकर आरोग्य एवं सुखी-जीवन व्यतीत करते हुए अन्त में मरण के अवसर पर शरीर परित्यागकर सामीप्य मोक्ष द्वारा सूर्य के यहाँ पहुँच गये । वैशाख मास के सूर्य के इस माहात्म्य को सुनकर महेन्द्र देव ने देवों समेत भास्कर देव का प्रत्यक्ष दर्शन किया । अत्यन्त भक्ति से विनम्र उन देवों को देखकर अन्धकारनाशक भगवान् सूर्य ने उन लोगों से कहा — सुरोत्तम ! देवकार्य के सिद्धयर्थ भूतल में मेरा अंश उत्पन्न होगा ।

सूतजी बोले — इतना कह सूर्य ने अपने बिम्ब मण्डल से तेजराशि प्रदान की जो इन्हीं के पुत्र रुप में कान्यकुब्ज में देवल ब्राह्मण के घर में सूर्य भगवान् अवतरित हुए । ये ही काशी में रामानन्द के नाम से विख्यात हुए । किसी कान्यकुब्ज ब्राह्मण एवं मन्दिर के पुजारी के घर रामानन्द का जन्म हुआ, जो बाल्यकाल से ही ज्ञानी तथा रामनाम के अत्यन्त प्रेमी थे । पिता-माता के त्याग करने पर वे भगवान् की शरण में चले गये । सीतापति भगवान् ने, जो चौदह कलाओं से युक्त एवं विष्णु के रूप में स्थित हैं, प्रसन्न होकर साक्षात् उनके हृदय में निवास किया । विप्र ! इस प्रकार मैंने सूर्यदेव के अंश की, जो रामानन्द के रूप में परिणत होकर भगवान् का महान् भक्त हुआ, कथा तुम्हें सुना दिया ।

बृहस्पति ने कहा — इन्द्र ! सूर्य की ज्येष्ठ मास की एक रम्य कथा तुम्हें सुना रहा हूँ । पहले सत्ययुग में अर्यमा नामक एक ब्राह्मण हुआ, जो वेद, वेदाङ्ग का मर्मज्ञ और धर्मशास्त्र का महान् विद्वान् था । श्राद्धयज्ञ नामक राजा की पितृमती नामक कन्या उसकी पत्नी थी । उस अर्यमा ब्राह्मण ने उस पत्नी द्वारा सात पुत्र और एक साध्वी पुत्री उत्पन्न किया । उसके वे पुत्र धर्मशास्त्र के निपुण विद्वान् थे । एक बार उस बुद्धिमान् ब्राह्मण ने अपने हृदय में भली-भाँति विचारकर धन के लिए अनेक पूजनों द्वारा भास्कर देव की उपासना की । प्रातःकाल में श्वेतपुष्प एवं चन्दनादि, मध्याह्न में रक्तपुष्प और सायंकाल में पीतपुष्पों द्वारा उनकी आराधना प्रारम्भ की । विधानपूर्वक एक मास तक उनकी पूजा करने के उपरान्त ज्येष्ठ-मास के अन्त में भगवान सूर्य ने उसे एक शुभमणि प्रदान किया, जिससे उस मणि के प्रभाव से एक प्रस्थ स्वर्ण प्रतिदिन उन्हें मिलने लगा । उसके द्वारा उन्होंने अत्यन्त धर्म किया — पृथ्वी में अनेक स्थानों पर बाबली, कुएँ, तालाब और सुन्दर मन्दिरों का निर्माण कराया । पश्चात् सूर्यदेव के प्रसन्नतावश इन कार्यों के सुसम्पन्न होने के उपरान्त उस धार्मिक ने एक सहस्र वर्ष तक तरुण एवं आरोग्य जीवन व्यतीत किया । अनन्तर अपने शरीर को त्यागकर रमणीक सूर्यलोक की प्राप्तिपूर्वक वहाँ एक लाख वर्ष तक रह पुनः सूर्यरूप की प्राप्ति की । इस प्रकार सूर्य का माहात्म्य मैंने तुम्हें सुना दिया । इसलिए इन्द्र ! देवों समेत तुम मण्डलस्थ सूर्य की उपासना करो।

इसे सुनकर देवों ने सूर्यदेव की पद्यात्मक कथाओं द्वारा उनकी आराधना आरम्भ की । उससे प्रसन्न होकर ज्येष्ठ मास में सूर्य ने वहाँ प्रकट होकर देवों से कहा —देवगण ! भयानक कलि के समय में कृष्ण-सप्त-सुदर्शन निम्बादित्य के रूप में उत्पन्न होकर ख्यातिपूर्वक देवों का कार्य सफल करेगा, तथा धर्म की ग्लानि को हरेगा ।

सूत जी बोले — ऋषियों ! अब आप महात्मा निम्बार्क के चरित्र को सुनिये, जिसको भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा था । भगवान् श्रीकृष्ण ने सुदर्शन से कहा था कि मेरी आज्ञा से आप देवकार्य सम्पन्न करें । मेरु के दक्षिण तरफ नर्मदा के शुभ तट पर, देवर्षियों द्वारा सेवित तेलङ्ग देश है । वहाँ आप अवतीर्ण होकर देवर्षि नारद से उपदेश प्राप्तकर मथुरा, नैमिषारण्य, द्वारावती, सुदर्शनाश्रम आदि स्थानों में स्थित होकर धर्म का प्रचार करें । इस आदेश को ‘ ओम्’ के द्वारा स्वीकार कर भक्तों की अभिलाषा को पूर्ण करने वाले भगवान् श्रीसुदर्शन पृथ्वीतल पर अवतीर्ण हुए ।

पवित्र सुदर्शनाश्रम में भृगुवंश में उत्पन्न वेद-वेदाङ्ग पारङ्गत अरुण नाम के एक महामनस्वी द्विजश्रेष्ठ मुनि रहते थे । उनकी भार्या का नाम था जयन्ती । अरुणमुनि ने ध्यान द्वारा भगवान् विष्णु के सुदर्शनचक्र के तेज को धारण किया और उस तेज को पतिपरायणा जयन्तीदेवी ने मन से धारण किया । उस तेज के प्रभाव से देवी जयन्ती चन्द्रमा के समान सुशोभित होने लगी । परम शुभ समय उपस्थित हुआ । दिशाएँ निर्मल हो गयीं । कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा में जब चन्द्रमा वृषराशि पर स्थित थे, कृत्तिका नक्षत्र था, पाँच ग्रह अपने उच्च स्थान पर स्थित थे, उस समय सायंकाल में मेषलग्न में जयरूपिणी जयन्तीदेवी से जगदीश्वर निम्बादित्य प्रादुर्भुत हुए । जिन्होंने इस विश्व को वेदधर्म में नियोजित किया ।

एक समय निम्बार्क के आश्रम में भगवान् विरिञ्चि पधारे । उन्होंने कहा ‘मैं भूख से व्याकुल होकर आपके पास आया हूँ । जबतक आकाश में भगवान् सूर्य स्थित , तब तक ही मुझे भोजन करा दीजिये विरिञ्चि की इस बात को सुनकर निम्बार्क ने उन्हें भोजन दिया । परंतु भगवान् सूर्य अस्ताचल पर पहुंच गये थे । तब निम्बार्क-मुनि ने अपने तेज से भगवान् सुदर्शन के तेज को निकटस्थ एक निम्ब वृक्ष पर प्रतिष्ठित कर दिया । ब्रह्मा सूर्य के समान उस तेज को देखकर आश्चर्य में पड़ गये और एक-दूसरे सूर्य के समान बालमुनि को दण्डवत् प्रणाम कर उसे संतुष्ट किया और बार-बार साधुवाद देते हुए कहा कि आज से आप सारी पृथ्वी पर निम्बादित्य नाम से प्रसिद्ध होंगे ।’
(अध्याय ७)

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