भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय ११
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग)
अध्याय ११
आनन्दगिरि, वनशर्मा और पुरीशर्मा की उत्पत्ति का वर्णन

बृहस्पति जी बोले — पहले समय में नैमिषारण्य स्थान में एक अजगर नामक ब्राह्मण रह रहा था, जो वेदान्तशास्त्र में निपुण, शनि और शिव का नित्य उपासक था । बारह वर्ष के उपरान्त उसकी पार्थिव-अर्चना से प्रसन्न होकर रुद्र ने वहाँ आकर उसे जीवन्मोक्ष होने का ज्ञान प्रदान किया, जिससे उस ब्राह्मणश्रेष्ठ ने उन संकर्षण (शिव) के समीप पहुँचकर विशुद्ध स्तुतियों द्वारा उन्हें प्रसन्न करने की चेष्टा की ।om, ॐ

सदैव्यं प्रधानं परं ज्योतिरूप निराकारमव्यक्तमानन्दनित्यम् ।
त्रिधा तत्तु जातं त्रिलिङ्गैक्यभिन्नं दुभान्सत्त्वरूपो रजोरूपनारी ॥
तयोर्यतु शेषं तमोरूपण्मेव ततश्शेषनाम्ने नमस्तेनमस्ते ॥
रजभ्यादिभूतो गुणस्सैव माया तथा व्यभूतो नरस्सत्त्यरूपम् ।
तथैवान्तभूतो नपुंस्कं दमोवत्सदैवाद्य नागेश तुभ्यं नमस्ते ॥ नराधाररूपो भवान् कालकर्ता नराकर्षणस्त्वं हि सङ्कर्षणश्च ।
रमन्ते मुनीशास्त्वयि ब्रह्मधाम्रि नमस्तेनमस्ते पुनस्ते नमोऽस्तु ॥
नराङ्गेषु चाधारभूता शिवा या स्मृतः योगनिद्रा हि शक्तिस्त्वदीया ॥
(प्रतिसर्गपर्व ४ । ११ । ४-६)

अजगर ने कहा — उस दिव्य, प्रधान परं ज्योतिरूप निराकार, अव्यक्त एवं नित्यानन्द को जो तीन रूप में होकर पुनः तीनों लिंगों (पुमान्, स्त्री और नपुंसक) से भिन्न है, वही सत्व रूप से पुरुष और रजरूप से स्त्री होता है और उन दोनों के शेष तमोगुण से भिन्न है, बार-बार नमस्कार है । नररूप होकर आप कालकर्ता, नरों के आकर्षण करने के नाते संकर्षण कहे गये हैं । आप के ही ब्रह्मतेज में मुनिवृन्द रमण करते हैं और उस नररूप होने में आपकी शक्ति ही उस अंग की आधार है, जो शिवा एवं योगनिद्रा के नाम से जगत् में कथित है, उनको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ।

बृहस्पति ने कहा — इस प्रकार स्तुति करने पर शिवदेव ने उस अजगर ब्राह्मण को सायुज्य मोक्ष प्रदान करने के हेतु सर्परूप धारण किया, जो सहस्र फण, गौरवर्ण की शरीर, क्षीरसागर निवासी एवं गुणनिधि था । पश्चात् ब्रह्मा ने उस सर्प रूप शिव के पास आकर उन्हें कर्क राशि स्थित सूर्य के समय नक्षत्र मण्डल के अधिनायक चन्द्र में स्थापित किया, जिससे शिव ने चन्द्ररूप होकर अपने मुख से तेज निकालकर विंध्यपर्वत के निवासी देवदत्त ब्राह्मण के घर भेज दिया, जो वहाँ उत्पन्न होकर ‘गिरिशर्मा’ के नाम से प्रख्यात हुआ । उस ब्राह्मण ने विद्वानों को पराजित कर काशी की यात्रा की । वहाँ पहुँचकर उसने शंकराचार्य की सेवा (शिष्य रूप से) करना स्वीकार किया, जिससे आनन्दगिरि नाम से वह विख्यात हुआ । विप्र ! इस प्रकार मैंने रुद्रावतार की कथा सुना दी, किन्तु बृहस्पति की कही हुई कथा को पुनः कह रहा हूँ, सुनो !

बृहस्पति जी बोले — पहले प्रयाग में नैर्ऋत नामक एक ब्राह्मण रहता था, जो भगवद्भक्त, मन्दभागी-दरिद्र था । वह नैर्ऋत ब्राह्मण संध्या समय तक किसी भाँति भिक्षा की प्राप्तिकर अपने पुत्र और पत्नी का पालन कर रहा था । इस प्रकार उत्तरोत्तर प्रतिदिन दारिद्र्य से अत्यन्त पीड़ित उस ब्राह्मण के घर एक बार वैष्णव-प्रिय नारद जी का आगमन हुआ । ब्राह्मण ने यथाशक्ति उनकी पूजा की । पश्चात् वे विष्णुलोक चले गये । वहाँ पहुँचकर नारायण देव को बार-बार दण्डवत् प्रणाम करके सदैव भगवत्प्रिय नारद ने विनम्र होकर उनसे कहा — भगवन् ! आपकी पूजा में निरन्तर संलग्न देवों के जितने भक्त होते हैं, सभी धन-धान्य से पूर्ण रहते हैं, किन्तु भूतल में मैंने आपके भक्तों को भी देखा है, जो दरिद्रता से अत्यन्त पीड़ित रहते हैं, स्वामिन्, जनार्दन मैं इसमें कुछ निश्चय नहीं कर पाता हूँ कि इस विभेद का क्या कारण है, अतः मैं आपको नमस्कार कर रहा हूँ, इसके भेद बताने की कृपा करें । इस प्रकार नारद जी के कहने पर भक्तवत्सल भगवान् ने उनसे सुन्दर वाणी में कहा — सुरोत्तम ! मैं बता रहा हूँ, सुनो ! मेरे भक्त भगवान् ब्रह्मा नारायण प्रिय मनुष्यों को देखकर उन्हें अपने अधीनकर लोक का कार्य करते रहते हैं । उन्होंने धर्म और अधर्म का निर्माण किया जिसमें धर्म वेदमय कहा गया है । उस बुद्धिमान् ने धर्म के सात लोकों का निर्माण किया, जो भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक एवं सत्यलोक के नाम से निर्मित होकर मनुष्यों को उत्तरोत्तर क्रमशः दुगुने सुख प्रदान करने की चेष्टा करता है । उसी प्रकार वेदरहित को अधर्म कहा गया है, जो भूतल में प्रतिकूल शब्दों की रचना करता है, महावाणी द्वारा दूषित उन शब्दों को अपनाने पर प्राणियों को उसी प्रकार के लोकों की प्राप्ति होती है । वेदरहित होने के नाते वह अधर्म पापमय दैत्यों की सदैव वृद्धि करता रहता है । उस अधर्म के भी सात लोक विदित हैं, जो भूमि के गर्त (नीचे भाग) में ब्रह्मा द्वारा निर्मित होकर वहाँ के प्राणियों के लिए सुखावह होते हैं । अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और शताल उनके नामकरण हैं । इनमें देवगण धर्म और असुरगण अधर्म को अपनाते हैं, अतः धर्मपक्ष के देव एवं अधर्मपक्ष के दैत्य बताये जाते हैं, किन्तु इन देवों और दैत्यों से हीन एवं दूषित जो अन्य मार्ग है, उसे विधर्म कहा गया है । उसमें रहने वाले प्राणी सदैव व्यथित रहते हैं — तामिस्र, अंधतामिस्र, कुम्भीपाक, रौरव, महारौरव, मूर्तिरय, ऊखयंत्र (कोल्हू) शाल्मल (फांसी देने के लिए सेमर का वृक्ष), असि (तलवार के समान) पत्र वाला वन आदि इक्कीस स्थानों की ब्रह्मा ने रचना की है । इस प्रकार इस समस्त को लोकमय ब्रह्माण्ड कहते हैं, जिससे मेरा परमपद अत्यन्त समुन्नत है । भूमण्डल के रहने वाले मेरे भक्त ही उस परमपद की प्राप्ति करते हैं, किन्तु देवों के भक्तगण उन्हीं स्वर्ग आदि सातलोको की उसी भाँति दैत्यों के उपासक तामसी पुरुष पृथ्वी के नीचे स्थित उन पातालादि लोकों की प्राप्ति करते हैं । पाताल से अधोलोक एक लक्ष योजन की दूरी पर स्थित है, जिसमें विधर्मी प्राणियों की यात्रा होती है । इसलिए मेरे भक्त ब्रह्मा द्वारा उस (समस्त पदों) से भ्रष्ट होकर दरिद्र होते हैं, किन्तु जो मेरा भक्त देवों की पूजापूर्वक मेरी उपासना करता है, वह लक्ष्मीयुक्त एवं भुक्ति-मुक्ति परायण होता है और प्रयागनिवासी वह नैर्ऋत ब्राह्मण मेरे प्रिय देवों के त्यागपूर्वक केवल अनन्यभाव से मेरी ही उपासना करता है इसीलिए दरिद्र है । नारद ! देवों के दिये हुए द्रव्यों का उपभोग सर्वदा सभी मनुष्य किया करते हैं, किन्तु मैं जो वस्तु अपने भक्त को प्रदान करता हूँ, वह ब्रह्माण्ड में है ही नहीं । इसलिए मेरी आज्ञा से उसे शुभात्मक वरदान प्रदान करो । विश्व रचयिता भगवान् के इस भाँति कहने पर नारद ने उसके घर जाकर उसकी पत्नी से कहा — पतिव्रते ! तुम अपने अभिलषित वर की याचना करो ।’ इसे सुनकर उसने कहा- प्रिन् ! मेरी राजरानी होने की इच्छा है । इतना कहते ही वह एक दिव्य रूप में परिणत हो गई और उस समय राजा आकर उसे अपने घर ले गया । सायंकाल होने पर ब्राह्मण देव के घर आने पर नारद जी ने उनसे कहा — भगवत्प्रिय, ब्राह्मणदेव ! मैं कुछ कह रहा हूँ, सुनिये ! वरदान प्राप्तकर आपकी पत्नी राजरानी हो गई है, अब आप भी मुझसे अपनी मन-इच्छित वस्तु प्राप्तकर सुख का अनुभव करें । इसे सुनकर उस ब्राह्मण ने दैववश क्रुद्ध होकर कहा — विप्र ! मुझे यही वरदान देने की कृपा कीजिये कि मेरी पत्नी गीदड़ी हो जाये ।’ इतना कहने पर वह ब्राह्मण पत्नी गीदड़ी हो गई । उसी समय उस ब्राह्मण के गुरुभक्त पुत्र ने वहाँ आकर उन कारणों को सुनकर नारद जी से कहा — स्वामिन् ! मेरी माता पूर्व की भाँति हो जायें । इस प्रकार वे तीनों दैवमाया से मोहित होने के कारण वरदान प्राप्त करने पर भी अपने मनोरथों से वंचित ही रहे । उस समय दुःखी होकर नारद ने नैर्ऋत से कहा — विप्र ! देवमय होने के नाते इस समस्त ब्रह्माण्ड के अधीश्वर महेश्वर जी हैं, अतः तुम उनकी उपासना करो, वे तुम्हारा कार्य शीघ्र सफल करेंगे । इस प्रकार कहने पर उस ब्राह्मण नैर्ऋत ने पार्थिव पूजन द्वारा भगवान् शंकर की आराधना की । एक वर्ष के उपरान्त प्रसन्न होकर भक्तवत्सल भगवान् महेश जी ने कुबेर के समान दिव्य एवं अगाध धन उसे प्रदान किया । उस धन द्वारा ब्राह्मण ने अनेकों धर्म-कार्य सुसम्पन्न किया जिससे इस भूतल में उसकी द्रव्यजन (देवमूर्ति कुबेर) के नाम से अत्यन्त ख्याति हुई । इस भाँति शिवजी की भक्ति के प्रभाव से निष्कटंक द्रव्य की प्राप्तिपूर्वक एक सहस्र वर्ष तक दिव्य जीवन व्यतीत करने के उपरान्त उसे स्वर्ग की प्राप्ति हुई । वृषराशि पर सूर्य के स्थित होने पर चन्द्रराज सोम की भाँति वह नैर्ऋत ब्राह्मण भी सर्वजनप्रिय और रुद्र की भाँति प्रख्यात हुआ ।

भृगुवर्य ! बृहस्पति के इस प्रकार देवों से कहने पर उस नैर्ऋत ने अपने अंश द्वारा गिरिनाल पर्वत के वन में रहने वाले सिद्धसांख्य योगी के यहाँ पुत्ररूप में जन्म-ग्रहण किया । वेदशास्त्र के पारायण में निरत रहकर उन्होंने ‘वनशर्मा’ के नाम से अत्यन्त ख्याति प्राप्त की । बारह वर्ष की अवस्था में अनेकों विद्वानों को पराजितकर वनशर्मा ने काशी आकर तत्त्वज्ञानार्थ योगी शिरोमणि शंकराचार्य की शिष्य-सेवा स्वीकार की ।

बृहस्पति जी बोले — पहले समय में माहिष्मती नामक पुरी में वसुशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था । उसने पुत्रप्राप्ति के लिए पार्थिव पूजन एवं व्रत विधान द्वारा भगवान् आशुतोष की उपासना आरम्भ की । देववृन्द ! चौबीस वर्ष तक उसने अनवरत आराधना की, किन्तु शिव जी की प्रसन्नता उसके ऊपर न हुई । पश्चात् दुःखी होकर उस ब्राह्मण ने प्रज्वलित अग्नि की भीषण ज्वाला में मुख से चरण तक की अपनी देह के मांस को आहुतिरूप में हवन कर दिया, परन्तु रुद्रदेव तब भी न प्रसन्न हुए । उस समय शोक-पीड़ित होकर उस ब्राह्मण ने पवित्र होकर एक उत्तम भेड़ का संस्कार करके उसके समेत उसी अग्नि में प्रवेश किया कि उसी समय भगवान् रुद्रदेव ने अपने गणों समेत वहाँ आकर शुद्ध स्फटिक के समान अपने सुन्दर स्वरूप का दर्शन उसे दिया । तदुपरांत उन्होंने वसुशर्मा से कहा — यथेच्छ वर की याचना करो । उसे सुनकर प्रसन्नता से गद्गद होकर उन पार्वतीप्रिय के नमस्कार पूर्वक उसने विनम्र होकर शंकर जी से कहा — स्वामिन्, शरणागत वत्सल ! मुझे पुत्र देने की कृपा कीजिये !’ इतना कहने पर शिव जी ने हँसते हुए कहा — पुत्रदाता तो स्वयं ब्रह्मा जी हैं, जो परमोत्तम एवं भाग्यविधाता हैं । उन्होंने सौ जन्म तक तुम्हें पुत्र नहीं दिया है । अतः विप्र ! मैं अपने अंश से तुम्हें पुत्र दे रहा हूँ । इतना कहकर भगवान् महेश्वर जी ने अपने मुख से तेज निकालकर उनकी पत्नी को प्रदान किया, जो दो भागों में विभक्त होकर दशवें मास में प्रथम बकरे के समान चरण वाला और दूसरा मनुष्य के रूप में उत्पन्न हुआ तथा इस भूतल में ‘अजैकपाद’ के नाम से उसकी अत्यन्त ख्याति भी हुई । चार सौ वर्ष के सुखी जीवन व्यतीत करने के उपरान्त मृत्युदेव अपने रोगगणों समेत उस पुत्र के समक्ष उपस्थित हुए, किन्तु उसी समय दोनों का भीषण युद्ध आरम्भ हो गया । पश्चात् उस उत्कट योद्धा ने उस संग्राम में वर्ष के भीतर ही उन सबको पराजित कर पृथ्वी मण्डल में मृत्युञ्जय’ के नाम से अत्यन्त ख्याति प्राप्त की । अनन्तर मृत्युदेव ने दुःखी होकर उस ब्राह्मण द्वारा पराजित होने पर ब्रह्मा के पास जाकर उनसे सभी वृत्तान्त का वर्णन किया, जिससे भगवान् ब्रह्मा ने निखिल देवों समेत वहाँ आकर कुभ-राशि पर सूर्य के स्थित होने पर उस भीषण रुद्ररूप ब्राह्मण को चन्द्रमण्डल में राजपद पर प्रतिष्ठित किया ।

सूत जी बोले — इसे सुनकर ब्राह्मण रूपधारी उस ‘अजपाद’ महादेव ने, जो कलि के शुद्धि-निर्माता एवं प्रभु हैं, माहिष्मती पुरी में जाकर यतिदत्त के पुत्र पुरीशर्मा के नाम से ख्यातिप्राप्त करते हुए सोलह वर्ष की अवस्था में वेदनिष्णात् विद्वानों को पराजित करने के उपरान्त शंकराचार्य की शिष्य सेवा स्वीकार की । विप्र ! इस प्रकार मैंने मृत्युञ्जय की उत्पत्ति कथा तुम्हें सुना दिया ।

(अध्याय ११)

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