December 30, 2018 | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय १६ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग) अध्याय १६ रामानन्दजी के शिष्य नामदेव, भक्त-रंकण(राँका)-वैश्य एवं यंकणा (बाँका) का चरित्र, वरुणदेव और पराम्बा की महिमा का वर्णन बृहस्पति जी बोले — स्वायम्भुव मन्वन्तर काल में ध्रुववंशज राजा प्राचीन बर्हि ने यज्ञानुष्ठान करना आरम्भ किया । नारद के उपदेश से हिंसामय यज्ञों को त्यागकर उन्होंने ज्ञानी वैष्णव के रूप में रहते हुए देश पुत्रों को उत्पन्न किया । उन समान रूप वाले पुत्रों का प्रचेता नामकरण किया गया, जिन्होंने पिता की आज्ञा शिरोधार्य कर समुद्र के मध्य तप करने की इच्छा प्रकटकर समुद्र के भीतर रहना प्रारम्भ किया । उनके तप से प्रसन्न होकर लोकराट् एवं स्वयंभू चतुरानन ने सातों समुद्रों में क्रमशः उनमें से सात पुत्रों को अधिनायक पद पर प्रतिष्ठित करके आठवें पुत्र को रत्नाकर में, नवें को मानस के उत्तर प्रदेश और दसवे को मेरु की शाखा में प्रतिष्ठित करके प्रसन्नता प्रकट की । लोक में आप (जल) प्रवाहित होने के नाते ‘आपव’ प्रथम पुत्र का और यादवगण के स्वामी होने के नाते ‘वरुण’ दूसरे पुत्र का नामकरण हुआ । उस समय ब्रह्मा ने वहाँ जाकर दैत्यों के बन्धनार्थ उन्हें ‘पाश’ प्रदान किया, उसी दिन से वरुण माहात्म्य का ‘पाशीत्रय’ हुआ । पूर्व जन्म में उसने ब्रह्म शक्ति की उपासना की थी, आपव नाम से प्रख्यात वह वारुणी (मदिरा) पान में निरत रहता था । भद्रकाली का प्रिय भक्त होने के नाते वह अनेक भॉति के रक्तवर्ण के पुष्प एवं उसी भाँति के पुष्पों की माला और रक्तचन्दन द्वारा समन्त्रक भद्रकाली की नित्य पूजन करता था और पूजनोपरांत नवार्ण मन्त्र के जप भी करता था । इस प्रकार धूपदीप, नैवेद्य, ताम्बूल और ऋतु फलों द्वारा सनातनी एवं भद्रकाली रूप महालक्ष्मी की भक्तिपूर्वक आराधना करने के उपरान्त तिल, शक्कर, शहद, युक्त हवि की आहुति-प्रदान कर नित्य भगवती जगदम्बिका को प्रसन्न करता था । विष्णु देव निर्मित मध्यम चरित्र के पाठ और नवार्ण मंत्र के जप सविधान सुसम्पन्न करना उस ब्राह्मण का नित्य नियम था । इस भॉति तीन वर्ष पूजन करने के उपरान्त सर्वमंगला भगवती देवी ने प्रसन्न होकर उससे वर याचना के लिए कहा । इस प्रिय वाणी को सुनकर ब्राह्मण श्रेष्ठ आपव ने विनम्र होकर दण्डवत् करते हुए सनातनी भद्रकाली देवी की आराधना आरम्भ की । आपव ने कहा — विष्णु कल्प में पहले महिषासुर नामक दानव रहता था, जिसके कोटि-कोटि सहस्र रथ, घोड़े एवं गजराज थे । उस समय उसने तीनों लोक को अपने अधीन करके स्वयं देवेन्द्र के पद पर प्रतिष्ठित होकर उसका शासन आरम्भ किया । इस प्रकार उसके राज्य करते हुए स्वारोचिष मन्वन्तर का काल व्यतीत हो गया । तब समस्त देवों के साथ विष्णु अपने मुख द्वारा तेज निकालकर माला की भाँति ज्वालाओं से आच्छादित हो गये । उस समय भगवती देवी ने अपनी इच्छा से ज्योतिर्लिंग द्वारा प्रकट होकर उस महिषासुर का वध किया था, उन्हें मैं बार-बार नमस्कार कर रहा हूँ । पहले रुद्र कल्प में रुद्र शिव जी के मुख द्वारा सहस्र मुख वाला एक राक्षस उत्पन्न हुआ जिसका ब्रह्माण्ड रावण नाम था । वह बलवान् एवं घोर राक्षस लोक पर्वत के नीचे अपना वासस्थान बनाकर देव, दैत्य एवं मनुष्यों के भक्षण करता था । इस प्रकार उसने छठे मन्वन्तर काल तक समस्त ब्रह्माण्ड को अपने अधीन रखकर उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया था । तदनन्तर वैवस्वत् मन्वन्तर काल के अट्ठाईसवें त्रेतायुग में राघव के घर स्वयं संकर्षण राम ने अवतरित होकर सोलह वर्ष की अवस्था में जनकपुर जाकर ‘अजगव’ नामक धनुष का भंजन किया । उस समय ब्रह्मादिक देवों ने वहाँ आकर उन्हें सनातन राम समझते हुए कहा — सहस्र वदन रावण ने लोक को अत्यन्त पीड़ित किया है । उसे सुनकर सीता समेत हंसयान पर बैठकर लोकालोक पर्वत पर जाकर उन्होंने उस राक्षस से घोर युद्ध किया । उस समय उनके हंसयान में पताका के उपर हनुमान जी अवस्थित रहते थे, वेद घोड़ों के रूप में और उसके नेता स्वयं ब्रह्मा थे । दिव्य वर्ष तक घोर युद्ध करने के उपरान्त उस राक्षस ने क्रुद्ध होकर अपनी दो सहस्र भुजाओं द्वारा राम लक्ष्मण को मूर्च्छित कर भीषण गर्जना की । उस समय ब्रह्मा ने ब्रह्मरूपिणी, आप माता जी की स्तुति की जिससे प्रसन्न होकर सनातनी एवं शान्तिमयी सीता रूप आपने उस ब्रह्माण्ड रावण.का विनाश किया था । अतः आपको बार-बार नमस्कार है । पहले ब्रह्मकल्प में तालजंघ के कुल में मुर नामक एक दैत्य उत्पन्न हुआ था, जो ब्रह्मा द्वारा वर प्राप्तकर अत्यन्त मदान्ध हो गया था । उसने देवेन्द्र समेत समस्त देवों एवं ब्रह्माण्ड नायक महादेव को पराजितकर उस रौद्र आसन का अधिकार प्राप्त कर लिया था । पश्चात् देवों समेत महादेव ने क्षीरशायी भगवान् के पास जाकर उनसे समस्त वृतान्त का वर्णन किया । उसे सुनकर विष्णु ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर गरुड पर बैठकर क्रूर दैत्य के यहाँ युद्धार्थ प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचने पर उन दोनों का भीषण युद्ध आरम्भ हुआ । इस प्रकार एक सहस्र वर्ष व्यतीत होने पर भयभीत होकर ब्रह्मा ने अपनी विनम्र वाणी द्वारा परा प्रकृति की उपासना की । उससे प्रसन्न होकर देवी ने सात वर्ष की कुमारी का रूपधारण कर जो चार भुजाओं में अस्त्र लिए सुसज्जित थी, मुर दैत्य से कहा — दैत्यराज ! यह भगवान् तुमसे पराजित हो चुके हैं । मैं अभी तक युद्ध में किसी से पराजित नहीं हुई हूँ, अतः मेरा विजया नाम है । प्रत्येक वर्ष में क्रमशः उन्मीलिनी, विञ्जुली, त्रिस्पृशा, पक्षवर्द्धिनी, जया, जयन्ती, और विजया के नाम में परिवर्तित हुआ करती हूँ । शुभाचार को अपनाने वाले विष्णव आदि एकादश (ग्यारह) मेरे पुत्र हैं, इसलिए एकादशी नाम से मैं वेदमध्य में सदैव निवास करती हूँ । अतः तू बलवान् होकर युद्ध में विजय प्राप्ति पूर्वक विजया नामक मुझ विष्णु माता का पाणिग्रहण कर सर्वपूज्य बनो । इसे सुनकर मुर दैत्य ने उस रूप पर मोहित होकर देवी के साथ युद्ध करना आरम्भ किया, किन्तु एक क्षण के आधे समय तक भी युद्ध में न ठहर सका । देवी ने उसे नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। पश्चात् मुर दैत्य के निधन होने पर उसके अनुज नरकासुर ने देव विनाशिनी एक महाभीषण माया की रचना की, पर जगन्माता एकादशी देवी ने अपने हुंकार द्वारा नरकासुर समेत उस माया का विनाशकर भीषण गर्जना की । उस समय उन दोनों दैत्यों का तेज अन्न के मध्य में व्याप्त हो गया। जिससे अन्न के दूषित होने के नाते मनुष्यों के अनेक रोग उत्पन्न होने लगे । उसे देखकर देवी जी ने सूर्य और शुक्र से कहा — आप लोग लोक प्रख्यात हैं अतः अन्न का अन्तःस्थल शुद्ध करो । पश्चात् वे दोनों उनकी आज्ञा का पालनकर देव पूज्य हुए । इस प्रकार माता आपने सब कुछ सुसम्पन्न किया है । अतः आपको बार-बार नमस्कार है । इस भाँति दिव्य कथामय उस स्तोत्र को सुनकर भद्रकाली देवी ने उस वेद निपुण आपव नामक ब्राह्मण से कहा — स्थावर जंगमरूप इस जगत् के प्रलय होने पर उस एकार्णव के समय भी तुम मेरे प्रसाद से सुखी जीवन व्यतीत करो और इस स्तोत्र द्वारा प्रसन्न होकर मैं मनुष्यों को सदैव वर प्रदान करती रहूँगी। इतना कहकर देवी अन्तर्हित हो गई और वह विप्र वरुण के रूप में परिवर्तित हो गया । सूत जी बोले — बृहस्पति की ऐसी बात सुनकर भगवान् वरुण ने जो दूसरे वसु कहलाते है अपने मुख द्वारा तेज निकालकर भूतल में प्रक्षिप्त किया । जो दिल्ली नगर में धर्मभक्त के घर उनकी विधवा कन्या के गर्भ में प्रविष्ट हुआ । कन्या के गर्भ में भगवान् स्वयं अपना अंश स्थापितकर पुत्र रूप में अवतरित होंगे, यह जानकर धर्मभक्त को अत्यन्त प्रसन्नता हुई । पुत्र के उत्पन्न होने पर उन्होंने उसका ‘नामदेव’ नामकरण किया, जो सांख्ययोग का निपुण विद्वान् था । उसने निपुण ज्ञान प्राप्तकर आब्रह्मस्तम्ब पर्वत पर्यन्त इस जगत् को विष्णुमय समझकर काशी की यात्रा की । वहाँ पहुँचने पर हरिप्रिय रामानन्द को नमस्कार कर शिष्य सेवा स्वीकार कर वहाँ निवास करने लगा । उस समय दिल्ली अधीश्वर पद पर प्रतिष्ठित होकर सिकन्दर ने नामदेव को बुलवाकर उनकी परीक्षा ली । उससे प्रसन्न होकर उस कलिप्रिय म्लेच्छ ने उन्हें अर्धकोटि द्रव्य प्रदान किया । उस द्रव्य द्वारा नामदेव ने काशी में गंगा में स्नानार्थ पत्थर की उत्तम शिलामय सीढ़ियां बनवाई । उस योगी ने अपने योगबल द्वारा दश ब्राह्मण, पाँच राजाओं एवं पाँच वैश्यों और सौ गौओं को पुनः जीवनदान प्रदान किया । बृहस्पति जी बोले — पहले समय में विश्वानर नामक एक वेद निपुण ब्राह्मण था । उसने सन्तानहीन होने के नाते पितामह ब्रह्मा की अनेक भाँति की पूजा आरम्भ की । एक वर्ष के व्यतीत होने पर उस पूजन से प्रसन्न होकर भगवान् ब्रह्मा ने वहाँ आकर उस ब्राह्मण से वर याचना करने के लिए कहा । उसे सुनकर उसने कहा —भगवन् ! तुम्हें नमस्कार है, आप मुझे यही वरदान दें कि प्रकृति से परे रहने वाला वह परब्रह्म मेरे पुत्र के रूप में अवतरित हो । इसे सुनकर विस्मय प्रकट करते हुए ब्रह्मा ने उस ब्राह्मण से कहा — ‘एक उसी माया प्रकृति ने जो स्वयं त्रिलिंग जननी है, अपने द्वारा इस समस्त दृश्य जगत् की उत्पत्ति की है और उस प्रकृति से परे रहने वाला परमात्मा है, जो अधम कहलाता है, बुद्धिहीन होने पर भी बोद्धा, बिना काल के श्रवण, बिना देह के स्पर्श, एवं बिना नेत्र के देखता है तथा विना जिह्वा के अन्न का ग्रहण, बिना नासा के गन्ध ग्रहण, बिना मुख के वेद-वेक्ता, कर(हाथ) बिना सर्व कर्मकर्ता, बिना पैर के चलना और बिना लिंग के नारी भोग करता है उसी भाँति बिना गुह्येन्द्रिय के प्रकृति को गुह्य युक्त करता है । वही ब्रह्म शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्धात्मक हैं, अतः उस ब्रह्म को नमस्कार करता हूँ । इस भाँति प्रकृति और पुरुष वे दोनों अनादि और प्रकृति से उत्पन्न सभी गुण विकारी कहे जाते हैं । इसलिए वे दोनों एकार्थ, एक शब्द, एक रूप, एवं नित्य शरीररात्मक हैं, जो आदि, मध्य, अन्तरहित, नित्य, शुद्ध, सनातन हैं । उसमें पुं (पुल्लिग) स्त्रीलिंग और नपुंसक की जननी वह परा प्रकृति है, एवं वह पुरुष कवि, सूक्ष्म, कूटस्थ, ज्ञानवान् और पर होने के नाते अजन्मा है । यद्यपि वह उपरोक्त गुण सम्पन्न होने पर भी मेरे द्वारा जन्म ग्रहण करता है, तथापि वह तुम्हारा पुत्र कैसे हो सकेगा । इसलिए विश्वानर ! माया विशिष्ट भगवान् जिन्हें जनार्दन कहा गया है, मेरे वर द्वारा तुम्हारे यहाँ पुत्र रूप में अवतरित होंगे ।’ इतना कहकर ब्रह्मा के अन्तर्हित हो जाने पर ‘पावक’ उत्पन्न हुए जो आठों वसुओं के अधीश्वर हैं । उन स्वाहापति पावक की वैश्वानर नाम से प्रख्याति हुई । वे पहले कल्प में ‘अनल’ नाम से ब्राह्मण कुल में उत्पन्न, जो निषध देश में राजा नल के समय रहा करते थे । जिस समय राजा नल संकट में पड़कर जीवन व्यतीत कर रहे थे, उस समय पतिव्रता दमयन्ती अपने पिता के घर रहकर राजा नल का अन्वेषण कर रही थी । उस समय अनल ब्राह्मण को देखकर दमयन्ती ने मोहित होकर उन्हें अपना पति निश्चित किया था, किन्तु उसी बीच आकाशवाणी हुई कि यह तुम्हारे पति नल नहीं अनल हैं । इसने ब्रह्मा की उपासना से यह रूप प्राप्तकर अनल नाम से ख्याति प्राप्त की है और उसने मोहित होकर देवी सरस्वती की भी उपासना की है, जिससे विश्वानर के यहाँ पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ है । सूत जी बोले — बृहस्पति की इन बातों को सुनकर भगवान् पावक ने मुख द्वारा अपना तेज निकालकर भूतल पर भेज दिया, जो काञ्चनपुर नगरी के प्रतिष्ठित एवं वैश्य शिरोमणि लक्ष्मीदत्त के यहाँ पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ, जो रंकण (राँका)—नाम से प्रख्यात था । उसकी पतिव्रता पत्नी का नाम यंकणा (बाँका) था । वे दम्पती (दोनों) अपने सम्पूर्ण द्रव्यों को धार्मिक कार्यों में व्यय करने के उपरान्त लकड़ी बेच-बेचकर अपना जीवन व्यतीत करने लगे जो अपने गुरु रामानन्द से वैसी ही शिक्षा ग्रहण किये हुए थे । (अध्याय १६) Related