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भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय – ३
स्वामी एवं सेवक की परस्पर भक्ति का आदर्श
(राजा रूपसेन तथा वीरवर की कथा)

शौनक ने कहा — महाभाग, श्रेष्ठविप्रवृन्द ! सुन्दर गाथा कह रहा हूँ सुनो ! वैताल ने उस श्रेष्ठ राजा विक्रमादित्य से कहा —
वर्द्धमान नामक नगर में, जो रमणीक एवं अनेक भाँति के मनुष्यों से सुसेवित था, महाबली रूपसेन नामक राजा राज्य करता था । उसकी स्त्री का नाम विद्युन्माला था, जो पति सेवा का ही पारायण करती थी । एक बार वीरवर नामक एक क्षत्रिय अपने पुत्र, कन्या और पत्नी समेत सेवावृत्ति (नौकरी) — के लिए उस राजा के दरबार में उपस्थित हुआ और विनम्र होकर उसने राजा रूपसेन से कह कर नौकरी निश्चित करा लिया जिसमें राजा प्रतिदिन एक सहस्र सुवर्ण की मुद्रा उसे प्रतिदिन देने लगा । om, ॐवीरसेन (वीरवर) उसे वेतन के रूप में ग्रहण कर अग्नि, तीर्थ, एवं द्विजातियों में व्यय करने से जो अवशिष्ट होता था, उसी से अपने परिवार समेत जीवन निर्वाह करता था ।
राजन् ! इस प्रकार एक वर्ष के व्यतीत होने के उपरान्त भगवान् शिव की आज्ञा शिरोधार्य कर राजलक्ष्मी उस (वीरवर) की परीक्षा के लिए श्मशान में जाकर अत्यन्त रुदन करने लगी । आधी रात के समय राजा जागकर अपने सेवक से कहा — वीरवर ! जाओ इस (रुदन की) ध्वनि का, जिसे तुम सुन रहे हो, कारण का भली-भाँति पता लगाकर शीघ्र मुझसे कहो । ऐसा सुनकर शस्त्रास्त्र के निपुण एवं बली उस वीरवर ने वहाँ जाकर जहाँ वह राजलक्ष्मी रुदन कर रही थी, उस शुभ मुखवाली से प्रियवाणी कहा — देवि ! क्यों रुदन कर रही हो ?, तुम्हें क्या महान् कष्ट है ?, मुझे बताओ ।इसे सुनकर राजलक्ष्मी ने उस वीरसेन से कहा — वलिन् ! मै राजा रूपसेन दी राजलक्ष्मी हूँ, इस मास के अन्त समय में मेरा प्रलय (नाश) हो जायेगा, इसीलिए मैं शोक कर रही हूँ । पश्चात् उसने कहा — देवि ! सुनो इससे तो तुम्हारी अल्पायु मालूम हो रही है, किन्तु किसी पुण्य के द्वारा तुम्हारी दीर्घायु सम्भव हो सके, तो उसे बताने की कृपा करो ।

देवी जी बोली — ‘महाबाहो, महाप्राज्ञ ! यदि तुम, अपने पुत्र का शिर चण्डिका देवी के लिए अर्पित कर सको तो हे अनघ ! मेरी दीर्घायु हो जाये । अतः अपने स्वामी के लिए इसकी सिद्धि अवश्य करो ।’
इसे सुनकर वीरवर ने स्वयं अपने घर, आकर प्रसन्न हृदय से पत्नी से कहा — पुत्र, देवी जी के लिए समर्पित कर दो’ उस पतिव्रता ने निर्भय होकर उसे स्वीकार किया, पश्चात् पुत्र से कहा — ‘पुत्र! राजा के किसी कार्य के लिए ही तुम्हारे शरीर का पालन-पोषण किया गया है, अतः उसे अवश्य पूरा करो ।’ पुत्र ने उसे स्वीकार कर अपनी भगिनी और माता के साथ चण्डिका देवी के मन्दिर में पहुँचकर अपने पिता से कहा — हे पिता ! मेरा शिर चण्डिका के लिए समर्पित कर दीजिये क्योंकि राजलक्ष्मी जिस प्रकार से दीर्घायु प्राप्त करें, वह कार्य हम लोगों को प्रयत्न पूर्वक करना चाहिए । ऐसा सुनकर वीरसेन ने उसका शिर काटकर देवी को अर्पित कर दिया । तत्पश्चात् उसी प्रकार क्रमशः उसकी भगिनी, माता और पिता सभी लोग मृतक हो गये । आदि से अन्त तक समस्त कारण को जानकर राजा रूएसेन ने अपने उस सेवक को सत्यवक्ता समझते हुए, अपना भी शिर अर्पित कर दिया । उस समय प्रसन्न होकर देवी ने राजा को प्राणदान देकर उससे कहा — राजन् ! यथेच्छ वरदान माँगो, मैं उसे शीघ्र देने को तैयार हूँ ।

राजा ने कहा — यह वीरसेन सपरिवार जीवित हो जायें । वैसा ही करके देवी उसी समय अन्र्ताहत हो गई । तदुपरान्त रूपसेन ने प्रसन्न होकर सौन्दर्यपूर्ण अपनी पुत्री का पाणिग्रहण उस (वीरवर) के पुत्र के साथ सुसम्पन्न कर दिया । अनन्तर वैताल आश्चर्य करता हुआ (विक्रम) से कहा । उनमें मुख्य स्नेह किसका था ।

राजा ने कहा — मुख्य स्नेह राजा का था, क्योंकि अपने सेवक के निमित्त उसने अपनी शरीर का परित्याग किया था और वीरवर उस सुवर्ण की मुद्रा का स्नेही था, उसकी पतिव्रता धर्म से प्रेम करती थी, भगिनी अपने माता की प्रेमिका थी और उसका पुत्र अपने पिता का स्नेही था । इसलिए बुद्धिमान् राजा रूपसेन ने उन लोगों के साथ महान् स्नेह प्रकट किया ।
(अध्याय ३)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१

4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व तृतीय – अध्याय २०
5. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व प्रथम – अध्याय ७
6. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १
7. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २

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