December 31, 2018 | Leave a comment भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय १७ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग) अध्याय १७ संत कबीर, भक्त नरसी, पीपा, नानक तथा साधु नित्यानन्दजी के पूर्वजन्मों का वर्णन बृहस्पति जी बोले — सम्पूर्ण शक्ति सम्पन्न भगवान् विष्णु द्वारा उन दोनों भीषण पुत्रों के निधन होने पर दिति ने अपने पति काश्यप ऋषि को प्रसन्न करना आरम्भ किया । बारह वर्ष के उपरान्त उसके स्वामी भगवान् कश्यप ने प्रसन्न होकर अपनी उस पत्नी से कहा — सुन्दरि ! वर की याचना करो । उसे सुनकर उसने हर्षित होकर नमस्कार पूर्वक कहा — मेरी सपत्नी (सौत) अदिति देवी के बारह पुत्र हैं और मेरे दो पुत्र थे । किन्तु उनके छोटे भाई विष्णु ने जो सदैव सुरों की ही रक्षा करते हैं, मेरे उन दोनों पुत्रों का निधन कर दिया, इसीलिए मैं अत्यन्त दुःखी हूँ । स्वामिन् ! मुझे एक ऐसा पुत्र प्रदान करें, जो बारह आदित्यों का विनाशक हो, इस घोर वाणी से दुःखी होकर कश्यप ने उस पत्नी से कहा, ब्रह्मा ने लोक में धर्म और अधर्म की सृष्टि की हैं, उसमें लोक में धर्मानुयायी मनुष्य ब्रह्मा को प्रिय होते हैं और अधर्मानुयायी मनुष्य शत्रु होते हैं । अतः अधर्म के अनुयायी होने के नाते तुम्हारे दोनों पुत्रों का निधन हुआ है । धर्मप्रिये ! इस पर मेरा यह कहना है कि पहले अपने मन की शुद्धि पूर्वक धर्माचरण करो ।, इससे तुम्हें एक बलवान् पुत्र की प्राप्ति होगी, जो धीमान्, चिरजीवी एवं प्रिय होगा । इसे सुनकर दिति ने कश्यप द्वारा गर्भ धारण करने के उपरान्त व्रत धारणकर शुभाचरण द्वारा काल यापन का नियम किया । उसके गर्भ में पुत्र की अवस्थिति समझकर इन्द्र ने भयभीत होकर दिति के घर सेवक की भाँति रहकर गुरु की भाँति उसकी सेवा करना आरम्भ किया । गर्भ के सात मास के होने के उपरान्त इन्द्र की माया से मोहित दिति देवी ने अपने घर में अपवित्रता पूर्ण शयन किया । उस समय भगवान् इन्द्र ने अंगुष्ठ के समान छोटा रूप धारण कर वज्र समेत दिति के कुक्षि में प्रविष्ट होकर उस गर्भ के सात खण्ड कर दिये । उन महाबली सातों शत्रुओं को जीवित देखकर पुनः एक-एक के सात-सात खण्ड किया । पश्चात् विनम्र होकर महेन्द्र ने उन सबको साथ लिए योनि द्वार से बाहर निकालकर दिति को प्रणाम किया । उस समय प्रसन्न होकर दिति ने अपने उन सभी पुत्रों को सुरेन्द्र को सौंप दिया, जिससे वे सभी इन्द्र सेवक के रूप में रहकर ‘मरुद्गण’ के नाम से प्रख्यात हुए । वह गर्भस्थजीव पहले समय में राजा इल की भाँति ‘इल’ (अनिल) नामक प्रख्यात ब्राह्मण था । एक बार मनुपुत्र बलवान् राजा इल ने अश्वारूढ होकर एकाकी मेरुपर्वत के घोर जंगल में यात्रा की । उस राजा ने वहाँ पहुँचने पर मेरु के नीचे उस खण्ड प्रदेश को, जो स्वर्ण गर्भित एवं हरिप्रिय था, उत्तम राष्ट्र के रूप में परिणत कर वहाँ निवास पूर्वक अपना आधिपत्य स्थापित किया । इल के अधित्य स्थापित होने पर देवगण भी वहाँ रहने लगे । इसलिए उस देवप्रिय खण्ड की ‘इलावृत’ प्रदेश से प्रख्याति हुई । पश्चात् भारत के सभी जनवर्ग इलावृत प्रदेश में पहुँच गये । ब्रह्मा ने मेरुपर्वत का निर्माण वृक्ष की भाँति किया । जिसमें आरोहण करने के लिए मनुष्यों ने स्वर्णमयी सीढ़ियों की रचना की है । उस पर चढ़कर सभी लोग क्रमशः स्वर्ग लोक पहुँचने लगे । उस समय देवों ने उस स्वर्ग मण्डल में मनुष्यों को सदेह,पहुँचते हुए देखकर आश्चर्यचकित होकर महेश जी के यहाँ जाकर उनसे सब वृत्तान्त कहा, जिसे सुनकर भगवान् शंकर ने भवानी पार्वती को साथ लेकर उसी वन में जाकर रमण करना आरम्भ किया । उसी बीच वैवस्वत पुत्र इल ने मृगया (शिकार) के लिए भ्रमण करते हुए उस वन में यात्रा की वहाँ पहुँचने पर उस राजा ने सदाशिव भगवान् को नग्न देखकर नेत्र मूंदकर वहीं खड़ा हो गया । उस समय गिरिजा को लज्जित होते देखकर भगवान् शिव ने यह शाप प्रदान किया कि — इस खण्ड प्रदेश में जो कोई आयेगा, मेरे अतिरिक्त वे सभी स्त्री हो जायेगें । उनके इस प्रकार कहने पर वहाँ सभी लोग स्त्री के रूप में परिणत हो गये । राजा इल भी एक परम सुन्दरी कन्या के रूप में परिणत हो गया । उस इला कन्या ने वहाँ उस मेरे शृंग पर रहकर समाधिस्थ होकर महान् तप करना आरम्भ किया । सत्ताईस बार चारों युगों के व्यतीत होने के उपरांत इस इला ने इन्द्र पुत्र बुध देव को अपना पति स्वीकारकर चन्द्रवंश की उत्पत्ति की । जिस समय अयोध्या नरेश इल ने इलावृत में अपना आधिपत्य स्थापित किया उस समय उसकी रानी मदमती ने सुरा द्वारा पार्वती देवी को प्रसन्न किया । उसी समय इला नामक ब्राह्मण ने जो राजा के समान सौन्दर्य पूर्ण था, रानी के रूप पर मोहित होकर कामपीड़ा से अधीर होते हुए उस रानी मदमती का स्पर्श किया । उस समय आकाशवाणी हुई — यह राजा इल नहीं अपितु इल नामक ब्राह्मण है, जो तुम्हारे रूप पर आसक्त हैं, वहाँ अनिल नाम से उस ब्राह्मण की ख्याति हुई । पश्चात् कामव्यथित होकर उस ब्राह्मण ने पावकदेव की आराधना की बार-बार अपने सिर को आहुति रूप में उन्हें अर्पित किया, जो सौन्दर्य पूर्ण पुनः पुनः उत्पन्न हो रहा था । उससे प्रसन्न होकर धनञ्जय ने कहा — तुम अपने को उनचास रूपों में उत्पन्न करोगे, और मैं तुम सबको यथेच्छ सहायक रहूंगा । जिस प्रकार भगवान् कुबेर उन छब्बीस वरुणों के प्रिय सहायक हैं । उसी भाँति मैं तुम उनचासों का प्रिय रहूँगा । इतना कहने पर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने दिति के कुक्षि में जाकर वायु नाम से उत्पत्ति की, जो पावक का प्रिय सखा था । सूत जी बोले — बृहस्पति की ऐसी बात सुनकर वह काशीपुरी के वैश्य कुल में धनपाल के घर मूल गण्डान्त के समय पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, जिससे उसके माता-पिता ने विंध्यवन में लाकर परित्याग कर दिया । उसी समय अलिक नामक एक म्लेच्छ वहाँ आ गया । सन्तानहीन होने के नाते उस जुलाहे ने उस शिशु को लेकर अपने घर को प्रस्थान किया । पश्चात् वह सुन्दर बालक ‘कबीर’ के नाम से प्रख्यात हुआ । सात वर्ष की अवस्था तक वह बालक गोदुग्ध का पान ही करता रहा और उसी समय से रामानन्द को अपना गुरु मानकर उसने राम का ध्यान भी करना आरम्भ किया । वह अपने हाथ से स्वयं भोजन बनाकर भगवान् को अर्पित करता था और भगवान् ने भी साक्षात् प्रकट होकर उसकी सभी कामनाओं की पूर्ति की । बृहस्पति जी बोले — पहले समय में राजा उत्तानपाद के प्रिय पुत्र राजा ध्रुव हुए थे, जो पाँच वर्ष की अवस्था में ही माता-पिता द्वारा परित्यक्त किये गये थे । पश्चात् उन्होंने नारद जी के उपदेश से गोवर्द्धन पर्वत की यात्रा की । उस समय महाव्रती ने वहाँ पहुँचकर छः मास तक भगवान् का ध्यान किया, जिससे प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु नारायण स्वामी ने आकाशमण्डल के पद पर उन्हें प्रतिष्ठित किया । उनके सुन्दर बदन को देखकर माया शक्ति जो दश दिशाओं में पूर्ण व्याप्त है, ध्रुव को अपना स्वामी स्वीकार कर भक्तिपूर्वक अपनी विनम्र अवस्थिति की । अनन्तर भगवान् ध्रुव भी साक्षात् सर्व पूज्य हुए तथा वे दिशाओं, नक्षत्रों, एवं आकाश के भी पति वहीं हैं वे कालकर्ता, शिशुमार पति तथा पाँच तत्वों वाली उस प्रकृति माया के भी पति हैं । उसी प्रकार पृथ्वी के गर्भ से महाग्रह भौम, जल देवी के गर्भ से महाग्रह शुक्र, अग्नि की स्त्री के गर्भ से महाग्रह मैं (गुरु), वासुदेवी के गर्भ से महाग्रह केतु, और नमो देवी के गर्भ से महाग्रह राहु, जो घोर एवं उपग्रह भी कहा जाता है । उन्हीं ध्रुव द्वारा उत्पन्न हुए हैं । उनके द्वारा पूर्व दिशा में ऐरावत नामक गज, अग्नि दिशा में पुण्डरीक नामक गज, और वामन, कुमुद एवं पुष्पदन्त नामक गजेन्द्रों की उत्पत्ति हुई । सार्वभौम एवं सुप्रतीक नामक उन गजेन्द्रों के पुत्र उन्हीं द्वारा उत्पन्न हुए जो आकाश दिशाओं के अधिपति हैं एवं अभ्रभु, कपिला, पिंगला, ताम्रकर्णी, शुभ्रदन्ती, अंगना, अंजनावती आदि उनकी पत्नियाँ भी उन्हीं द्वारा उत्पन्न हुईं, जो पृथ्वी की दिशाओं में रहती हैं । उसी प्रकार उनकी भगिनी,माता, पुत्री, पुत्रवधू आदि भी जो पशुयोनि में उत्पन्न नरपशुओं की सदैव स्त्रियाँ ही रही हैं । देवयोनि में उत्पन्न नरों की स्वसा उनकी स्वसा (भगिनी) ही पत्नी और मनुवंश में उत्पन्न पुरुषों की पत्नियाँ अन्य द्वारा उत्पन्न स्त्रियाँ हुई हैं । देववृन्द ! इस धर्म की व्याख्या ब्रह्मा ने स्वयं की थी, मैंने तुम्हें सुना दिया । वह ध्रुव दो भागों में विभक्त होकर भूमि के ऊपर एवं नीचे लोकों में अवस्थित हैं, जो सतोगुण रूप से दिवारूप और तमोगुण रूप से रात्रिरूप है तथा पृथ्वी के नीचे रात्रिरूप में सदैव अवस्थित है, जहाँ नारकीयों की स्थिति होती है । पृथ्वी के ऊपर ध्रुव की अवस्थिति होने से ऊपर के लोकों में सदैव दिवस, मध्य के तपलोक में रात्रि दिवस दोनों, तथा महर्लोक, जनलोक के तपलोक और सत्यलोक में दिन रहता है । उसी भाँति पण्डितों ने रौरव, अंधकूप, और तमोमय तामिस्र में सदैव रात्रि ही रहती है । यह ध्रुव पूर्व जन्म में माधव नामक ब्राह्मण थे, जो अत्यन्त भगवत्प्रिय थे । उन्होंने साठ वर्ष की अवस्था तक सभी तीर्थों में भ्रमणकर प्रातः स्नान किया था । जिस पुण्य के प्रभाव से वे भगवान् के अत्यन्त प्रिय हुए । पश्चात् रानी सुनीति के गर्भ द्वारा उत्पन्न होकर ध्रुव नाम से राजपद पर प्रतिष्ठित हुए । इस प्रकार छत्तीस सहस्र वर्ष तक राज का उपभोग करके उन्होंने अटल ध्रुव का पद प्राप्त किया । सूत जी बोले — इस प्रकार बृहस्पति की वाणी सुनकर पाँचवें वसु ध्रुव ने अपने तेज को निकाल कर फेंका । उसी द्वारा गुजरात देश निवासी गुण वैश्य नामक वैश्य-शिरोमणि के घर पुत्र रूप से उत्पन्न हुए, ‘नर श्री’ (नरसी मेहता) नाम से प्रख्यात हुए । धन के ब्याज द्वारा जीवन-यापन करने वाले गुणगुप्त वैश्य अपने पुत्र को बहुत प्यार करता था, किन्तु वेश्यपुत्र ध्रुव ने अल्पकाल में ही अपना प्राण परित्याग कर स्वर्ग की यात्रा की । शिव जी की प्रसन्नता से वे उस उत्तम वृन्दावन में भगवान् की रासक्रीडा का दर्शन प्रत्यक्ष किया करते थे, जो उन्हें अत्यन्त हर्षातिरेक से प्राप्त हुआ था । उस भक्तराट् के पुत्र के विवाह में भक्तवत्सल भगवान् कृष्ण ने अपने यादवगणों समेत आकर उनका मनोरथ पूरा किया । पश्चात् विष्णुधर्म प्रिय नरश्री ने काशीपुरी में जाकर रामानन्द की शिष्य सेवा स्वीकार की। बृहस्पति जी बोले — एकबार भगवान् अत्रि ऋषि ने अपनी अनसूया नामक पत्नी समेत गंगा के तट पर ब्रह्मध्यान में निमग्न होकर महान् तप करना आरम्भ किया । उस समय ब्रह्मा, विष्णु, एवं शिवजी ने अपने-अपने वाहनों पर बैठकर वहाँ पहुँचने का प्रयत्न किया । वहाँ पहुँचकर उन लोगों ने ब्रह्मपुत्र अत्रि से वर याचना करने के लिए कहा । किन्तु अत्रि इन लोगों की बात पर कुछ ध्यान न देकर पूर्व की भाँति ब्रह्मध्यान में मग्न ही रहे । उनके भाव को जानकर उन तीनों देवों ने उनकी पत्नी अनसूया के पास जाकर उनसे कहना आरम्भ किया । उस समय अनसूया के वशीभूत होकर रूद्र हाथ से लिंग ग्रहण किये थे, विष्णु उसमें रस वृद्धि कर रहे थे और ब्रह्मा अपनी कामवासना नष्ट करने पर तुले थे । वे लोग उससे बार-बार यही कह रहे थे कि मदभरे नेत्रों से कटाक्षपात करने वाली प्रिये ! मुझे रति दान प्रदान करो, अन्यथा तुम्हारे सामने मेरा प्राण निकल रहा है । उस समय पतिव्रता अनसूया ने उन लोगों की उस अशुभ वाणी को सुनकर भी उनके कोपभय से भयभीत होने के नाते उन लोगों से कुछ नहीं कहा । किन्तु अत्यन्त मोहित उन बलवान् देवों ने जो माया विमुग्ध थे, बलात् उसे पकड़कर मैथुनार्थ प्रयत्न किया । उस समय क्रुद्ध होकर उस सती मुनिपत्नी ने उन्हें शाप दिया कि — काम मोहित होने के नाते तुम लोग मेरे पुत्र होंगे । सुरश्रेष्ठ ! महादेव का लिंग, ब्रह्मा का सिर और विष्णु के चरण की पूजा मनुष्यों द्वारा सदैव जो होती है, यह एक उत्तम उपहास की बात होगी । इस घोर वाणी को सुनकर नमस्कार पूर्वक उन देवो ने भक्ति नम्र होकर वेद ऋचाओं के पाठ द्वारा उस मुनिपत्नी की आराधना की । पश्चात् अनसूया ने कहा — आप लोग मेरे पुत्र होकर शापमुक्ति पूर्वक ही प्रसन्नचित्त हो सकेंगे । ऋषि पत्नी के इस प्रकार कहने पर उस पाप के परित्यागार्थ ब्रह्मा ने चन्द्रमा, विष्णु ने दत्तात्रेय, और रूद्र ने दुर्वासा के रूप में परिणत होकर योग करना आरम्भ किया । उसी बीच समस्त धर्मधारिणी प्रकृति देवी ने जिसे गुणात्मक (सत्, रज एवं तम रूपा) कहा गया है, अन्य ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर का निर्माणकर अपना कार्य सुसम्पादन करना आरम्भ किया था । इस प्रकार योग करते हुए उपरोक्त ऋषियों का वह मन्वन्तर काल समाप्त हो गया । पश्चात् हर्षित होकर उन तीनों देवों ने उन योगियों के पास जाकर उनके कल्याणार्थ मांगलिक वाणी द्वारा उन सब से कहा — सोम नामक देव विप्र छठाँ वसु चन्द्रमा, प्रत्यूष नामक सातवाँ वसु रुद्रांश दुर्वासा, और प्रभास नामक आठवाँ वसु, योगिश्रेष्ठ दत्तात्रेय होंगे । इस भाँति उन दोनों की बातें सुनकर वे तीनों योगी वसु हो गये । सूत जी बोले — बृहस्पति जी इस बात को सुनकर हर्षपूर्ण उन तीनों वसुओं ने कलि शुद्धार्थ इस भूतल में अपने अंश का प्रेषण किया, जो दक्षिण देश के वैश्य-शिरोमणि राजकुल में सुदेव के गृह उत्पन्न होकर पीपा नामक पुत्र हुआ । अपने पिता के समान ही पीपा ने यथावसर राजपद पर प्रतिष्ठित होकर राज्य का उपभोग किया था । पश्चात् रामानन्द के शिष्य होकर उन्होंने द्वारका की यात्रा की । वहाँ रहकर उन्होंने भगवान् कृष्ण द्वारा प्रेत-तत्व-नाशिनी सुवर्ण की मुद्राओं को प्राप्तकर वैष्णवों में वितरण करने का नियम किया था । उसी भाँति प्रत्यूष ने भी पाञ्चाल (पंजाब) प्रदेश में वैश्य श्रेष्ठ मार्गपाल के घर पुत्ररूप में जन्म ग्रहण किया । जिनकी नानक नाम से ख्याति हुई । रामानन्द के शिष्य होकर नानक ने म्लेच्छों (यवनों) को अपने अधीन कर उन्हें सूक्ष्म मार्ग का दिग्दर्शन कराया और प्रभास ने शांतिपुर में ब्राह्मणश्रेष्ठ शुक्लदत्त के घर पुत्ररूप में जन्म ग्रहण किया । उनकी ख्याति नित्यानन्द नाम से हुई थी । इस प्रकार शौनक ! मैंने तुम्हें वसु माहात्म्य का वर्णन सुना दिया । (अध्याय १७) Related