Print Friendly, PDF & Email

भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय १९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग)
अध्याय १९
कृष्णचैतन्य यज्ञांश शिष्य बलभद्र विष्णुस्वामी और मध्वाचार्य के वृत्तान्त का वर्णन

सूत जी बोले — इस प्रकार देवों के माहात्म्य वर्णन करने के उपरान्त भगवान् बृहस्पति ने मुख द्वारा अपना अंश निकालकर ब्रह्मयोनि में उत्पन्न होने के लिए प्रेषण किया, जो इष्टिका नामक रमणीक पुरी के निवासी गुरुदत्त के यहाँ पुत्ररूप से उत्पन्न होकर ‘रोपण’ नाम से ख्याति प्राप्त की । om, ॐब्रह्ममार्ग के प्रदर्शक उस रोपण ने गाँठयुक्त सूत्र की माला, जल का तिलक और वासुदेव नामक मंत्र का अनेक मनुष्यों में प्रसार किया था । वे कृष्ण चैतन्य के पास पहुँचकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर उनका कम्बल धारण किया । फिर अपनी पुरी में जाकर कृष्ण का ध्यान करना आरम्भ किया ।

मुने ! इसके उपरान्त मैं भगवत्चरित्र का वर्णन कर रहा हूँ, सुनो ! जिसके श्रवण करने से मनुष्यों को कलिभय नहीं होता है । यज्ञांश एवं यज्ञकर्ता कृष्ण चैतन्य की पाँच वर्ष की अवस्था में एक केशव नामक ब्राह्मण आया, जो काश्मीर नगर का रहने वाला एवं शारदा प्रिय था । उस शास्त्र मर्मज्ञ विद्वान् ने शास्त्रार्थ द्वारा दिग्विजय करते हुए वाग् देवी द्वारा प्राप्त वरदान से मदान्ध होकर शान्तिपुर की यात्रा की । वह ब्राह्मण वहाँ पहुँचकर गंगा के तट पर अपने बताये हुए स्तोत्र से उनकी आराधना कर रहा था । उसी बीच यज्ञांशदेव ने वहाँ आकर उस स्तुति करने वाले केशव नामक ब्राह्मण से रम्य वाणी द्वारा कहा — सुकृत, पूर्त और अर्ण यही तीन श्रुतियों के सार बताये गये हैं, जो आपके इस स्तोत्र में दूषणरूप से हैं तथा इसमें भूषण कौन हैं, कहने की कृपा कीजिये ? इसे सुनकर केशव ने कहा — इसमें कोई दोष नहीं दिखाई देता है। इतना कहने पर यज्ञांश भगवान ने कहा — तो इसमें कोई भूपण भी नहीं दिखाई देता है । क्योंकि सुकृत धर्म, पूर्त चैतन्य और अर्ण बीज को कहते है, इसीलिए ये तीनों श्रुतियों के तत्त्व कहे गये हैं ! जिस प्रकार गंगाजल में जो दूषणरूप है, वही इस देह में भूषणरूप होता है । इसे सुनकर सरस्वती प्रिय उस ब्राह्मण ने आश्चर्यचकित नेत्र से उन्हें देखने लगा। उस समय सर्वमंगला शारदा ने अपने भक्त को लज्जित होते देखवर मन्दहासपूर्वक केशव से कहा — स्वयं भगवान् यह यज्ञांश रूप हैं । यह सुनकर उस ब्राह्मण ने उनकी शिष्य सेवा स्वीकार करके कृष्ण मंत्र की उपासना आरम्भ की, जो पश्चात् कृष्ण चैतन्य का वैष्णवश्रेष्ठ सेवक हुआ ।

सूत जी बोले — श्रीधर नामक एक प्रख्यात ब्राह्मण था, जो सदैव शिवजी की उपासना करता था । पत्तनाधीश्वर ने एक बार श्रीधर ब्राह्मण को सादर बुलवाकर अपने यहाँ उनके द्वारा भागवत का सप्ताह पारायण कराया, जिसमें उन्हें बहुत सा धन प्राप्त हुआ । उसे लेकर श्रीधर ने अपने श्वसुर के यहाँ प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचकर एक मास के उपरान्त पत्नी समेत अपने घर की यात्रा की । यात्रा के समय मार्ग में सात चोरगण भगवान राम के शपथ द्वारा अपनी सज्जनता का परिचय देकर उनके साथ चल रहे थे, किन्तु जंगल प्रदेश के समाप्त होने पर उन चोरों ने श्रीधर ब्राह्मण को मारकर और उनका धन और स्त्री लेकर भागने लगे । उनकी पत्नी बार-बार पीछे देखने लगी । चोरों ने कहा कि अब उधर क्या देख रही हो, तुम्हारा पति तो मर गया है । इसपर विप्रपत्नी ने कहा कि ‘मैं उन भगवान् राम को देख रही हूँ, जिनकी तुम लोगों ने शपथ ली थी ।’ उसी समय सच्चिदानन्द स्वरूप भगवान् राम ने अपने बाणों द्वारा उन चोरों को मारकर श्रीधर को जीवन-प्रदान कर उनको वृन्दावन भेज दिया । भगवान के उस चरित्र का स्मरण कर श्रीधर ने उसी समय से वृन्दावन में जाकर वैष्णव के वेष में रहते हुए उस शुभ शान्तिपुर की भी यात्रा की । यज्ञांशदेव की सात वर्ष की अवस्था में वहाँ पहुँचने पर ऊन्होंने यज्ञांशदेव द्वारा ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति की तथा उनकी शिष्य सेवा स्वीकार की और वहीं रहकर भागवत पुराण की टीका की रचना की ।

सूत जी बोले — एक बार रामशर्मा काशीपुरी में शिवरात्रि के दिन भगवान् शिव की अर्चना कर रहे थे । उस समय उस विमुक्तेश्वर स्थान में वही एकाकी ब्राह्मण शिव जी के पंचाक्षर मंत्र के जप पूर्वक ध्यान कर रहा था । उसे ध्यानमग्न देखकर लोक के कल्याणकारी भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मणश्रेष्ठ से वरयाचना के लिए कहा । उस समय रामशर्मा ने नमस्कार पूर्वक विनम्र वाणी द्वारा शिव जी से कहा — आप जिसके लिए समाधिनिष्ठ होते हैं, और जिसके ध्यान में अत्यन्त तल्लीन रहते हैं । प्रभो ! वह देव आपके वरदान द्वारा मेरे हृदय में निवास करे । ब्राह्मण के ऐसा कहने पर हँसते हुए महेश्वर जी ने कहा — उसी एक प्रकृति-माया ने जो ब्रह्मस्वरूपिणी एवं लोक की जननी है शून्य भूत उस अव्यय पुरुष के आधे तेज के ग्रहण पूर्वक स्वयं तीन भागों में विभक्त होकर पुमान् (नर) और क्लीब (नपुंसक) दो पुत्रों की उत्पत्ति की । वह पुमान् (पुरुष) साक्षात् नारायण भगवान् हैं, जो गौरवर्ण एवं आठ भुजाओं से युक्त हैं । उस विश्व के त्राता भगवान् ने स्वेच्छया तीन भागों में विभक्त होकर आधे तेज द्वारा विष्णु, वनमाली, चतुर्भुज, क्षीरशायी, एवं आदित्य के रूप में प्रकट होकर पुनः आधे तेज द्वारा नर-नारायण ऋषि के रूप में अवतरित हुआ है । जो गंधमादन पर्वत पर जिष्णु-विष्णु रूप में है । साक्षात् ब्रह्मरूप संकर्षण ने जो तीन भागों में विभक्त होकर पूर्वार्द्ध भाग से गौरवर्ण के शेष और अपरार्द्ध से राम-लक्ष्मण का रूप धारण करता है । वही गौर शेष द्वापर के अन्तिम समय में स्वयं बलभद्र होता है । इसलिए राम-लक्ष्मण ध्यान और बलभद्र का पूजन मैं सदैव करता हूँ, उसकी प्राप्ति करके तुम सुखी होगे । इतना कहकर शंकर जी अन्तर्हित हो गये और वह देव रामानन्द के यहाँ उत्पन्न बारह वर्ष की अवस्था प्राप्त कृष्ण चैतन्य के घर जाकर उनकी शिष्य सेवा स्वीकार करके कृष्ण चैतन्य के पुजारी हुए तथा कृष्ण चैतन्य की आज्ञा प्राप्तकर उन्होंने अध्यात्म रामायण की रचना की ।

सूत जी बोले —
इस भाँति यज्ञांशदेव के चरित को सुनकर जीवानन्द ने रुपानन्द के साथ शान्तिपुरी की यात्रा की । वहाँ पहुँचकर वे दोनों यज्ञांशदेव (चैतन्य महाप्रभु) को नमस्कार करके उनके पास बैठ गये और कृष्ण चैतन्य से प्रश्न किया कि — आप किस मत के अनुयायी हैं ? उस समय यज्ञेश देव की सोलह वर्ष की अवस्था थी । उन्होंने हँसकर कहा — ब्राह्मण देव ! मैं शाक्तमत को स्वीकार कर शक्ति की उपासना करता हूँ, लोक के कल्याणार्थ शंकर के व्रतानुष्ठान को सुसम्पन्न करते हुए शैव, और देवाधिदेव का भक्ति पूर्वक ध्यान करने वाला वैष्णव भी हूँ । मैं भक्तिरूपी मद का पानकर पापपुरुष की बलि उस शक्ति देवी को समर्पित करते हुए ज्ञानरूप अग्नि की ज्वाला में हवन करके यज्ञ की पूर्ति करता हूँ । इसे सुनकर वे दोनों उनकी शिष्य सेवा स्वीकार पूर्वक आचार मार्ग अपनाकर सर्वपूज्य हुए। वहाँ रहकर मतिमान् जीवानन्द (जीव गोस्वामी) ने आचार-भाष्य (षट्संदर्भ)की रचना करके कृष्ण चैतन्य की ही उपासना करते रहे ।
महामुनि रुपानन्द (रुप गोस्वामी) ने भी गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर दशसहस्रात्मक कृष्णखण्ड की रचना की, जो पुराण का अंग कहा गया है । पश्चात् राधा कृष्ण की उपासना करते हुए गुरु की सेवा में तत्पर रहकर जीवन व्यतीत किया ।

सूत जी बोले — विप्रवर विष्णु स्वामी ने भी उस शुभ शान्तिपुरी जाकर नमस्कार पूर्वक उन्नीस वर्षीय यज्ञांशदेव से कहा — इस निखिल ब्रह्माण्ड में समस्त देवों का पूजक कौन देव है? उसे सुनकर भगवान् यज्ञांशदेव ने उस ब्राह्मण श्रेष्ठ से कहा — सर्वपूज्य भगवान् महादेव हैं, वही भक्तों के ऊपर कृपा किया करते हैं । भगवान् शिव ही विष्णु, रुद्र एवं ब्रह्म के ईश्वर हैं । अतः बिना शिव की पूजा किये सभी पदार्थ निष्फल हो जाते हैं । जो विष्णुभक्त नित्य शिव की अर्चना करता है, उसे शिव जी की प्रसन्नता द्वारा भगवान् विष्णु की उत्तम भक्ति सुलभ हो जाती है । जो पुरुष इस कर्म भूमि में उत्पन्न होकर वैष्णव होते हुए लोक शंकर भगवान् शंकर की पूजा नहीं करता है, वह नारकीय है । इसे सुनकर विष्णु स्वामी ने उनके गुणों पर मुग्ध होकर उनकी शिष्य सेवा स्वीकार की । कृष्ण मंत्र की आराधना पूर्वक शिव जी की अर्चना कर जीवन व्यतीत किया । वहाँ रहकर उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर वैष्णवी संहिता की रचना की ।

सूत जी बोले — भगवान् कृष्ण के उपासक मध्वाचार्य ने देवश्रेष्ठ यज्ञांश को अवतरित सुनकर शान्तिपुरी को प्रस्थान किया । वहाँ पहुँचने पर उस ब्राह्मण ने नमस्कार पूर्वक यज्ञांशदेव से कहा — साक्षात् यह कृष्ण ही सब के भगवान् एवं आराध्य देव हैं और अन्य ब्रह्मादि देवता केवल विश्व स्रष्टा आदि हैं अतः इनके पूजन से कोई लाभ नहीं । शक्ति मार्ग अपना कर जो ब्राह्मण हिंसापूर्ण अश्वमेधादि यज्ञों द्वारा देवों की आराधना करते हैं, उनका वह करना व्यर्थ है।’ इसे सुनकर इन्द्राणी पुत्र यज्ञांशदेव ने हँसकर कहा — कृष्ण साक्षात् भगवान् नहीं अपितु तामसी शक्ति द्वारा उत्पन्न होने के नाते तामस है ये चोर, सर्वभोगी, हिंसक, और मांसभोजी भी हैं क्योंकि परस्त्री का उपभोग करने वाले चोर और विशेषकर जीवहिंसक को यमपुरी जाना पड़ता है । भगवान् इन लक्षणों से हीन एवं प्रकृति से भी परे हैं । उसकी बुद्धि अहंकार शिव, शब्दमात्रा गणेश, स्पर्शमात्रा यम, रूपमात्रा कुमार, रसमात्रा कुबेर, गंधमात्रा विश्वकर्मा, श्रवण शनि, त्वक् बुध एवं नेत्र सनातन सूर्य, जिह्वा शुक्र, घ्राण (नासा) अश्विनी कुमार, मुख वृहस्पति, हाथ देवेन्द्र, हैं । यह कृष्ण उसी देव के चरण, लिंग दक्ष प्रजापति, तथा मृत्यु हैं, उस भगवान् को नमस्कार है । वह भगवान् हिंसापुर्ण यज्ञों के अनुष्ठान सुसम्पन्न करने से ही प्रसन्न होता है और वह पशु, जो आहुति द्वारा अग्नि में प्रविष्ट होता है परमपद की प्राप्ति करता है। उसके मोक्ष हो जाने पर कर्ता को अत्यन्त पुण्य की प्राप्ति होती है । जो पापी पुरुष हिंसायज्ञ की पूर्ति सविधान नहीं करता है, उसी दोष के कारण वह अंध तामिस्र नामक नरक में चिरकाल तक निवास करता है। इसलिए हिंसायज्ञ के अनुष्ठान में अत्यन्त पुण्य और अत्यन्त पाप की भी प्राप्ति होती है । अतः भगवान् कृष्ण ने इस कलि के समय हिंसायज्ञ का निषेध कर कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के दिन इस भूतल पर अन्नकूट यज्ञ की स्थापना की है। उस समय देवराज ने क्रुद्ध होकर अपने अनुज के लिए दुःख प्रकट करते हुए वह व्रज को डुबा देने की आयोजना की थी। किन्तु कृष्ण ने उसी समय लोक के कल्याणार्थ सनातनी प्रकृति देवी की आराधना की । प्रसन्न होकर प्रकृति माता ने अपने पूर्वाद्ध देह से महत्त्वपूर्ण राधा का रूप धारणकर कृष्ण के हृदय में निवास किया। उसी शक्ति द्वारा भगवान् कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाया था, जिससे उस देव का गिरिधर नाम हुआ और वह स्वयं सर्वपूज्य हुए। वहीं राधा कृष्ण भगवान् एवं सनातन पूर्ण ब्रह्मा हैं । इसलिए कृष्ण नहीं प्रत्युत राधाकृष्ण भगवान् कहे जाते हैं, जो सबसे पर एवं स्वामी हैं । इसे सुनकर कृष्णप्रिय मध्वाचार्य ने उनकी शिष्य सेवा स्वीकार करते हुए उन कृष्ण चैतन्य की सदैव आराधना की ।
(अध्याय १९)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.