भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय २२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग)
अध्याय २२
अकबर आदि अन्तिम मुगल शासकों का चरित्र; तुलसीदास, सूरदास, मीराबाई, तानसेन तथा बीरबल आदि के पूर्वजन्मों का वृत्तान्त; गुरुण्ड, मौन और सर्वत्र म्लेच्छराज्य का विस्तार

सूत जी बोले — दैत्यराज बलि ने देवों के इस प्रकार की महान् विजय को सुनकर रोपण नामक दैत्येन्द्र को बुलाकर उससे कहा तिमिरलिंग के सरुष नामद पुत्र को साथ लेकर उसी स्थान पर दैत्यों के उस महान् कार्य को पूरा करो । इसे सुनकर उस दैत्य ने दिल्ली प्रदेश में निवासपूर्वक अपने हृदय में अत्यन्त क्रुद्ध होकर वेदमार्ग के अनुयायियों का विनाश करना आरम्भ किया । om, ॐपाँच वर्ष तक राज्योपभोग करने के उपरांत उसके ‘बाबर’ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसने बीस वर्ष तक राज्य किया । पश्चात् उसके होमायु (हुमायूँ ) नामक पुत्र हुआ। उस होमायु ने मदान्ध होकर देवताओं को अपमानितकर देश से निकालना आरम्भ किया, जिससे दुःखी होकर देवों ने नदीहा के उपवन में पहुँचकर भगवान् कृष्णचैतन्य की अनेक भाँति से आराधना की जिसे सुनकर स्वयं विष्णु ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपने तेज द्वारा उस राज्य में महान् विघ्न उत्पन्न किया । वहाँ की जनता ने जो सैनिकों के पद पर काम कर रही थी, होमायु (हुमायूँ) को पराजित कर निकाल दिया । उस समय महाराष्ट्रों की सहायता से शेषशाक (शेरशाह) ने दिल्ली में पहुँचकर उस म्लेच्छराज्य को अपने अधीन किया । उन्होंने उस पद पर पाँच वर्ष तक रहकर धार्मिक कार्यों की अत्यन्त वृद्धि की । उसी समय व्रह्मचारी मुकुन्द ने जो शंकराचार्य के गोत्र में उत्पन्न होकर अपने बीस शिष्यों समेत प्रयाग में तप कर रहे थे, धूर्त म्लेच्छराज बाबर द्वारा देवों का भ्रष्ट होना सुनकर प्रदीप्त अग्नि में अपनी देह को भस्म कर दिया । उनके शिष्यगणों ने भी इस म्लेच्छ के नाशार्थ अपने को उसी अग्नि में भस्मावशेष किया । एकबार उन मुनि मुकुन्द ने गोदुग्ध के साथ लोम (गौ के रोम) का भी पानकर लिया था । उसी दोष के कारण उन्हें म्लेच्छ के यहाँ उत्पन्न होना पड़ा । उस समय होमायु (हुमायूँ) काश्मीर में रह रहा था । उसी के यहाँ पुत्ररूप में ब्रह्मचारी मुकुन्द ने जन्म ग्रहण किया । पुत्र के उत्पन्न होने के समय आकाशवाणी हुई – ‘यह पुत्र अकस्मात् (अक) प्राप्त वर (वरदान) से हुआ है । इस भाँति का पुत्र उस भीषण पिशाचों के यहाँ न हुआ और न होगा । इसलिए इस होमायु (हुमायूँ) पुत्र का ‘अकबर’ नाम होगा । जिस तपस्वी के श्रीधर, श्रीपति, शम्भु, वरेण्य, मधुव्रती, विमल, देववान्, सोम, वर्द्धन, वर्तक रुचि, मांधाता, मानकारी, केशव, माधव, मधु, देवाधि, सोमपा, शूर, और मदन शिष्य हैं, वही श्रीमान् मुकुन्द ब्राह्मण दैवात् तुम्हारे यहाँ उत्पन्न हुए हैं ।’ इस प्रकार की आकाशवाणी सुनकर होमायु (हुमायूँ) ने अत्यन्त प्रसन्न होकर क्षुधापीड़ितों को दान देकर अत्यन्त प्रेम से उस पुत्र का लालन-पालन किया । पुत्र की दस वर्ष की अवस्था में उसने दिल्ली आकर शेषशाक को पराजित कर पुनः राजपद को अपने अधीन किया । उसके एक वर्ष राज्य करने के उपरांत अकबर ने उस पद को अलंकृत किया । अकबर (मुकुन्द ब्राह्मण) के राजपद पर प्रतिष्ठित होने पर पूर्वजन्म के उनके सप्त शिष्यों ने उस राजदरबार में आकर अपने-अपने गुणों के अनुसार उन पदों को सुशोभित किया — केशव, गानसेन (तानसेन), वैजवाक् एवं माधव ने म्लेच्छ के यहाँ जन्म ग्रहण किया था, हरिदास तथा मधु मध्वाचार्य के कुल में उत्पन्न होकर सर्वरागवेत्ता वैष्णव हुए । पूर्वजन्म के देवाधि बीरबल हुए जो ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर वाग्देवी से वरदान प्राप्तकर ख्यातिप्राप्त आमात्य हुआ था । सोमपा गौतम कुल में उत्पन्न होकर आर्यश्रेष्ठ राजा के सेनापति मानसिंह हुए । सूर ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर कुशल पण्डित हुए जो उस राजा के परम मित्र एवं विल्वमंगल नाम से प्रख्यात थे । उन्हें नायिका भेद का सर्वश्रेष्ठ ज्ञान था और उसी प्रकार वेश्याओं का भी । मदन पूर्वदेश निवासी ब्राह्मणकुल में जन्म ग्रहणकर कुशल नर्तक हुए जो एकान्त क्रीड़ा में निपुण होकर चन्दन नाम से विख्यात थे । उनके शेष तेरह शिष्यों ने अन्य देशों में जाकर जन्म ग्रहण किया – शत्रु मर्मज्ञ श्रीधर ने अनघ के यहाँ पुत्ररूप में उत्पन्न होकर तुलसी शर्मा (तुलसीदास) के नाम से ख्याति प्राप्त की, जो पुराण के निपुण कवि थे । उन्होंने नारी द्वारा शिक्षा प्राप्तकर काशी में राघवानन्द के पास आकर । उनका शिष्य होकर रामानन्द मत का अवलम्बन किया । श्रीपति ने अन्धे होकर मध्वाचार्य का मत अपनाया जो सूरदास के नाम से प्रख्यात होकर कृष्णलीला के परमोत्तम कवि थे । हरिप्रिय शम्भु ने चन्द्रभट्ट के कुल में जन्म ग्रहणकर रामानन्द का मार्ग अपनाया । वे भक्तों की कीर्ति को सदैव तन्मय होकर गाया करते थे । वरेण्य अग्रभुक् नाम से प्रथित होकर रामानन्द का मत स्वीकार किया । जो ज्ञानी ध्यानी होते हुए भाषा छन्द के निपुण कवि हुए थे । मधु का कीलक नाम से ख्याति हुई, जो रामलीला करने वाले एवं रामानन्द के मतावलम्बी थे विमल दिवाकर नाम से प्रख्यात होकर सीता जी की लीला करते हुए रामानन्द के परमभक्त हुए । देवबाबू ने केशव नाम से प्रथित होकर विष्णु स्वामी का मत अपनाया जिन्होंने कविप्रिया की रचना की । किंतु उन्हें प्रेतयोनि में ही जाना पड़ा । उन्होंने राम ज्योत्स्नामय ग्रंथ की भी रचना की है । सोम ने व्यास के नाम से उत्पन्न होकर निम्बादित्य का मार्ग ग्रहण किया, जिन्होंने एकान्त क्रीड़ा के विवेचनात्मक ग्रन्थ का निर्माण किया । वर्द्धन ने ज्ञानमाला नामक ग्रन्थ की रचना कर रैदास का मत अपनाया । वर्तक ने रोपण का मत ग्रहण किया । रुचि ने रोचन नाम से प्रथित होकर मध्वाचार्य का मत अपनाया । उन्होंने अनेक भाँति के गान लीला की रचनाकर पश्चात् स्वर्ग को प्रस्थान किया। मांधाता कायस्थ कुल में उत्पन्न होकर राजपद से विभूषित हुए । मध्वाचार्य ने भाषा में शुभ भागवत की रचना की । मादकार ने नारीभाव की प्रधानता वश नारीदेह धारण किया, जो राजा की ‘मीरा’ नामक प्रख्यात पुत्री थी । विद्वानों ने जिसकी शरीर में मा (लक्ष्मी) की भाँति सौन्दर्य और गज की भाँति गति हो, उसे मीरा कहा है । वह मीरा मध्वाचार्य की अनुयायिनी थी । विप्र ! इस प्रकार भाषाग्रन्थ का प्रकरण मैंने कहकर समाप्त किया, जो प्रबन्ध रूप एवं भीषण कलि समय अत्यन्त मांगलिक है।

उस अकबर नामक राजा ने अकण्टक राज्य का सुखोपभोग करके अपने पचास शिष्यों समेत वैकुण्ठ भवन की यात्रा की । उसके सलोमा (सलीम) जहाँगीर नामक पुत्र ने अपने पिता के समान काल तक राज्य किया और खुर्दक (खुर्रम) सलीम का पुत्र था, जिसने दस वर्ष तक राज्य किया। उसके चार पुत्रों में नवरंग (औरङ्गजेब) मध्यम पुत्र था जिसने अपने पिता और भ्राताओं पर विजय प्राप्तकर राज्यपद अपने अधीन किया । पूर्वजन्म में वह अन्धक नामक दैत्य था । दैत्यराज बलि की आज्ञा से उसने इस कर्मभूमि भारत में जन्म ग्रहण किया, जिसके द्वारा अनेकों देवमूर्तियाँ भ्रष्ट की गई थी । उसे देखकर देवों ने कृष्णचैतन्य से कहा — भगवन् ! वह दैत्यराज के अंश से उत्पन्न होकर राजपद की प्रतिष्ठा के उपरांत देवों एवं वेदों को नष्ट-भ्रष्टकर दैत्यपक्षों को बढ़ा रहा है । इसे सुनकर नदीहा के उपवन में स्थित यज्ञांश ने उस दुराचारी के वंशनाशार्थ शाप प्रदान किया । उस दुष्ट के उनचास वर्ष राज्य करने के उपरांत सेवाजय (शिवाजी) नामक राजा ने, जो देवपक्ष के अभिवर्द्धक थे, और महाराष्ट्र ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर युद्ध विद्या की निपुणता प्राप्त की थी । उस दुराचारी का निधन कर उसका पद उसके पुत्र को सौंपकर दक्षिणदेश की यात्रा की ।

मुने ! उसके आलोमा नामक उस पुत्र ने पाँच वर्ष तक राज्य करने के उपरांत विद्रध (भगन्दर) नामक रोग से पीड़ित होकर शरीर का त्याग किया। विक्रमराज्य के सत्रह सौ सत्तर वर्ष उस समय आलोमा के शरीर त्याग के समय व्यतीत हुआ था । तालन कुल में उत्पन्न बली फल रुष म्लेच्छ ने मुकुल (मुगल) की कुल की समाप्तिकर स्वयं राज्यपद को अपने अधीन किया । इस भूमण्डल पर दस वर्ष तक राज्य करने के उपरांत । शत्रुओं द्वारा मृतक होकर उसने दैत्यलोक की यात्रा की । उसके पुत्र महामद ने बीस वर्ष तक राज्य किया । पश्चात् उसके राज्य में नादर (नादिर शाह) नाम का दैत्य ने आर्यों एवं देवों पर विजय प्राप्तिपूर्वक खुरजा (ईरान) प्रदेश में आगमन किया । उसके पुत्र महामत्स्य ने अपने पिता के पद को अपने अधीन कर पाँच वर्ष तक राज्य किया । तदनन्तर महाराष्ट्रों द्वारा तालनवंशीय उस दुष्ट के निधन होने पर दिल्ली सिंहासनासीन होकर माधव ने दस वर्ष तक राज्य किया । उन्होंने आलोमा के समस्त राज्यपर अपना आधिपत्य स्थापित किया था । उस राज्य में अपने देश के अनेक लोग राजा थे और अनेक ग्रामपति भी अनेक देशों में राज्यपद पर रहकर राज्य कर रहे थे उस समय मण्डलीक पद के नष्ट होने पर प्रत्येक गाँवों के अधिपति राजा कहे जाते थे । इस प्रकार उन राजाओं के उस पद पर तीस वर्ष व्यतीत हो जाने के उपरांत समस्त देवों ने कृष्णचैतन्य के पास जाकर उनसे कहा । जिसे सुनकर साक्षात् विष्णु रूप यज्ञांशदेव ने पृथिवी तल पर लोगों को दुःखी देखकर एक मुहूर्त ध्यान करने के उपरांत देवों से कहा — पहले समय में धीमान् राघव ने रावण राक्षस को पराजित कर चारों ओर अमृत वर्षा करके वानरों को जीवित किया था । उस समय वहाँ उपस्थित होकर विकट, वृजिल, जाल, वरलीन, सिंहल, जव, और सुमात्रा नामक वानरों ने रामचन्द्र जी से कहा — प्रभो ! मनइच्छित वरदान देने की कृपा कीजिये । उसे सुनकर भगवान् दाशरथी श्रीमान् राम ने उन लोगों के मनोरथ को जानकर रावण द्वारा देवाङ्गनाओं के गर्भ से उत्पन्न कन्याएँ उन्हें प्रदान की तथा तदनन्तर हर्षित होकर कहा — जालंधर के बनाये हुए जो द्वीप आप लोगों के नाम से हैं, उन्हीं के राजाओं के यहाँ उत्पन्न होकर आप लोग उनके हितैषी बने । नन्दिनी नामक गौ के रुण्ड (धड़) से भीषण म्लेच्छों की उत्पत्ति हुई थी । उन्ही की गुरुण्ड जाति हुई, जो उनमें से सदैव स्थित रहती है । उन गुरुण्डों को जीत कर तुम लोग उस राज्य को अपनाओं । इसे सुनकर उन वानरों ने भगवान राम के नमस्कार पूर्वक अपने उन द्वीपों को प्रस्थान किया । विकट नामक वानर कुल में उत्पन्न उन गुरुण्डों ने जिनके मुख वानरों की भाँति होते हैं, और बौद्ध मत के अनुयायी हैं, व्यापार के उद्देश्य से वहाँ आगमन किया । किन्तु उनके हृदय में ईशामत की ओर अत्यन्त विनम्रता हैं। वे सत्यवती, कामजीतने वाले, एवं क्रोधहीन होते हैं और सूर्य की ही आराधना करते हैं । आप देवगण वहाँ जाकर मनुष्यों के हित साधन में शीघ्रता करें । इसे सुनकर उन देवों ने सादर अर्चना करके उस कलकत्ता नगर में राजधानी स्थापित किया । विकट नामक पश्चिम दीप के राजा की पत्नी का विकटावती (विक्टोरिया) नाम था। जिसने आठ प्रकार के कुशल मार्गों द्वारा (पार्लियामेन्ट के परामर्श से ) वहाँ का शासन संचालित किया उसके पति पुलोमाच कलकत्ता में रह रहे थे । उस समय विक्रम काल के अट्ठारह सौ चालीस वर्ष के व्यतीत हो जाने पर राजा हुए थे । उस गुरुण्ड (गोरे अंग्रेज) कुल में सात राजा हुए । गुरुण्ड जाति के आठवें राजा के शासनाधिकार के समय कलिपक्ष के समर्थक दैत्यराज बलि ने मुर नामक महासुर को बुलाकर उस मुर दैत्य ने वार्डिल नामक राजा को अपने वशीभूत कर उनके हृदय पर अधिकार किया-उसकी बुद्धि को इस भाँति भ्रष्ट किया कि वह आर्यधर्मों के विनाशपूर्वक देव मूर्तियों को तोड़ने-फोड़ने लगा । उस समय मूर्ति में स्थित देवों ने यज्ञांशदेव के पास जाकर नमस्कार पूर्वक मुर राक्षस का पूर्ण वृत्तान्त सुनाया । उसे सुनकर यज्ञांशदेव ने उन बौद्धमार्गानुयायी गुरुण्डों को शाप दिया — मुरराक्षस के अधीन रहने वाले सभी गुरुण्ड नष्ट हो जाँयेगे । उनके इस प्रकार शाप देने पर अपनी सेनाओं द्वारा नष्ट-भ्रष्ट हो गये । उस समय उनकी संख्या तीस सहस्र की थी, वे सबके सब मृतक होकर यमराज के यहाँ चले गये । उस वागदंड द्वारा वाडिल राजा का भी नाश हुआ । अनन्तर ‘मेकल’ (लार्ड मेकाले) नामक नवें गुरुण्ड राजा ने जो महान् शक्तिशाली था, अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक न्याय द्वारा बारह वर्ष तक राज्य का उपभोग किया । उस समय आर्यों के प्रदेश में न्यायप्रिय शासनाधिकार सर्वत्र विस्तृत हो रहा था । तदुपरांत लार्डल (लार्ड वेवल) नामक दशवें गुरुण्ड राजा ने भी उस प्रकार धर्मपूर्वक बत्तीस वर्ष तक राज्य किया । लार्डल राजा के स्वर्गीय होने पर मकरन्द वंश के मौन आर्यों ने, जो हिमालय के शिखर निवासी एवं वभ्रू वर्ण, सूक्ष्मनासा, गोल एवं विस्तृत मस्तक वाले होते हैं, एक लाख की संख्या में दिल्ली पहुँचकर उनमें श्रेष्ठ ‘आर्जिक’ ने उस सिंहासन पद को विभूषित किया । गंगोत्री पर्वत के निवासी उसके पुत्र देवकर्ण ने उस राज्य को विस्तृत करने की इच्छा से बारह वर्ष तक घोर तप किया, जिसके प्रभाव से भगवती गंगा ने अपने स्वरूप की प्राप्तिकर स्वेच्छया ब्रह्मलोक की यात्रा की । पश्चात् कुबेर ने उस राजपुत्र के पास जाकर उसे ‘आर्यमण्डलीक’ नामक महान् पद प्रदान किया । उसी दिन से राजा देवकर्ण की मण्डलीक नाम से ख्याति हुई । इस भूमण्डल पर उस राजा ने साठ वर्ष तक राज्य किया । उनके वंशज आठ राजाओं ने क्रमशः उस राजपद को दो सौ वर्ष तक अलंकृत कर पश्चात् स्वर्ग की यात्रा की । उसने ग्यारहवें पन्नगारि नामक मौन राजा के प्रयत्न पूर्वक चालीस वर्ष तक राज्य करने के उपरांत पन्नगों द्वारा मृतक होकर स्वर्ग की यात्रा की । इस प्रकार इन मौन जातीयों का इस भूमण्डल पर राज्य करने का वर्णन कर दिया गया ।
(अध्याय २२)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.