भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय २५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग)
अध्याय २५

व्यास जी बोले — कलि के चौथे चरण के आरम्भ होने पर मनुष्यों द्वारा अजीर्ण होने पर इक्कीस प्रधान नरकगण यमराज के यहाँ जाकर नमस्कार पूर्वक उनकी प्रार्थना की – धर्मराज को नमस्कार है, जिन्होंने मुझे अत्यन्त तृप्ति दी है, किन्तु सर्वज्ञ ! मेरी प्रार्थना सुनने की कृपा कीजिये – सुरोत्तम ! मुझे अब अजीर्ण का रोग हो गया है। जिस प्रकार स्वस्थ हो सकें, वह उपाय बताने की कृपा कीजिये इसे सुनकर धर्मराज चित्रगुप्त को साथ लेकर उस कलियुग के संध्याकाल में ब्रह्मा के पास आँयेगे। om, ॐपरमश्रेष्ठी, एवं पितामह ब्रह्मा ने चारों गणों समेत यमराज को देखकर उनके अभिप्राय जानने के उपरांत क्षीरसागर के निवासी विष्णु के यहाँ प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर वे सांख्यशास्त्र के स्तोत्रों द्वारा वे परब्रह्म की जो जगत् के स्वामी एवं देवों के अधिदेव हैं, आराधना करेंगे । निर्गुण एवं सगुणरूप धारण करने वाले ब्रह्म की बार-बार जय हो, जो इस चर अचरमय जगत् के जीव-तत्व का शुभ निर्माता है । जो सारभूत सतोगुण के तत्वों द्वारा देवों को उत्पन्नकर सतोगुण द्वारा उनकी रक्षा करता है, उस गुण राशि एवं देवों के हृदय में कृष्ण-रूप के विकास करने वाले को बार-बार नमस्कार है। रजोगुण तत्त्व से जगती तल के मनुष्यों की शीघ्र सृष्टिकर जो उसका पालन एवं सहार स्वयं करता है, वह अत्यन्त उदार देव हैं, क्योंकि उसी के शिर पर जगत् का समस्त भार निहित है। अतः दैत्यों के विनाश करने वाले नाथ ! हमारी रक्षा कीजिये। क्योंकि आप कलि के लीला गुणों से प्रकट होते रहते हैं । मन ! उन देवों की ऐसी बातें सुनकर समर्थवान् प्रभु भूतल पर जिस प्रकार शीघ्र अवतरित होंगे, मैं कह रहा हूँ सुनो ! उस समय विनय विनम्र देवों को देखकर विष्णु भगवान् नमः शब्द के उच्चारण पूर्वक देवों से कहेंगे-दैववृन्द ! संभल ग्राम में कश्यप जी जन्म ग्रहण करेंगे। उस समय उनकी विष्णुयशा नाम से प्रख्याति होगी और विष्णु कीर्ति उनकी पत्नी का नाम होगा । वे जिन मनुष्यों को कृष्ण लीलाप्रधान ग्रंथ को सुनायेंगे उस समय वहाँ की जनता एकत्र होकर नन्दी होने के नाते उस ब्राह्मण को पकड़कर लोहे की दृढ़ श्रृंखला से बाँध देगी और पत्नी समेत उन्हें जेल में बन्द कर देगी उससे उन महाधूर्ती को, जो नारकीयों की भाँति अत्यन्त भीषण रूप थे, अत्यन्त प्रसन्नता होगी । वहाँ उस जेल में उस ब्राह्मण पत्नी विष्णुकीत के गर्भ से पूर्ण परब्रह्म अवतरित होंगे जिन्हें नारायण हरि, महाविष्णु, एवं समस्त लोकों के कल्याणार्थ कहा जाता है।

मार्गशीर्ष मास की कृष्णाष्टमी के उस अँधेरी आधी रात के समय देवों समेत समस्त ब्रह्माण्ड के मंगलार्थ उनके अवतरित होने पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, इन्द्र वृहस्पति । अग्नि, अर्यमा, यक्ष, विभीषण समेत वरुण, चित्र, वायु, श्रुद, विश्वेदेव, सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु और केतु देवगण वहाँ पहुँचकर एक-एक पद्य द्वारा उन परमेश्वर की स्तुति करेंगे-आपकी महत्तमा मूति से जिसे अज कहा गया है, इस पूर्वमुख द्वारा सर्वप्रथम मेरी उत्पत्ति हुई है । जिसके द्वारा मैंने देवसमेत इस समस्त विश्व का विस्तृत प्रसार किया है, उस पुरुषोत्तम को मैं नमस्कार करता हूँ । अर्यमा विष्णु के उस दक्षिण मुख द्वारा, जो महत्कल्प कर्ता एवं अधिकारी है, सर्वप्रथम मेरा जन्म हुआ है, मैंने अपने नाम द्वारा इस देवसमेत विश्व का अत्यधिक विस्तार किया है अतः मैं उस देव को नमस्कार करता हूँ। अव्यक्त के पश्चिम मुख द्वारा मुझ शिव का सर्वप्रथम आविर्भाव हुआ है, मुझे सुरतत्व का कर्ता, एवं अधिकारी बनाया गया है, इसीलिए मैंने आपकी आज्ञा से तीसरे महत्वकल्प का निर्माण किया है। अतः देव ! आपको नमस्कार है। आपके प्रधान मुख द्वारा, जो उत्तर की ओर स्थित है, मुझ कल्पकर्ता गणेश का सर्वप्रथम अविर्भाव हुआ है। दैव ! मैंने देवों समेत उस समय विश्व का विस्तृत प्रसार किया है, अतः आप करुणामूर्ति को नमस्कार है । अज के आधे मुख द्वारा सर्व प्रथम मेरा जन्म हुआ, मैने मरुत्महत्कल्प की रचना की जिससे महेन्द्र नाम से मेरी ख्याति हुई । देव ! मैंने भी उस अपने कल्प के समय देवसमेत विश्व का निर्माण किया है। नाथ ! आपको नमस्कार है। अग्निरूप आप के भाल में स्थित उस प्रधान नेत्र द्वारा सर्वप्रथम मेरा जन्म हुआ और गुह देव के नाम से मेरी ख्याति हुई । नाथ ! आपकी आज्ञा से मैंने महाकल्प के निर्माण पूर्वक इस विश्व का विस्तृत निर्माण किया है, आपको नमस्कार है । उस अजन्मा देव की पूर्व भुजा द्वारा सर्वप्रथम मुझ अग्नि की उत्पत्ति हुई है, मैंने अपने समय में महान् कल्प की रचना की है, और इस ब्रह्माण्ड का प्रचुर विस्तार भी । अतः ब्रह्माण्ड कल्परूप आपको नमस्कार है। अजन्मा के दक्षिण बाहु द्वारा सर्वप्रथम धर्म समेत मेरी उत्पत्ति हुई, मैंने देवों समेत इस लिंगकल्प की रचना की है, अतः लिंग कल्परूप, आपको नमस्कार है। उस अजदेव की पश्चिम भुजा द्वारा सर्वप्रथम मुझ यज्ञ की उत्पत्ति हुई, मैंने मत्स्यकल्प की रचनापूर्वक इस विश्व की रचना की है। अतः मत्स्यकल्प रूप आपको नमस्कार है। प्रधान बाहु द्वारा जो उत्तर की ओर स्थित है सर्वप्रथम मुझ अचेता की उत्पत्ति हुई है नाथ ! आपकी आज्ञा से मैंने कर्म नामक महान्कल्प की रचना पूर्वक इस विश्व का प्रसार किया है, अतः कर्मकल्प नामक आपको नमस्कार है। ब्रह्माण्ड के तम द्वारा आपके दास मुझ विभीषण का जन्म हुआ है, मैंने तीनों लोकों का अत्यन्त प्रसार किया है, अतः मनुरूपी आपको नमस्कार है। ब्रह्माण्ड के सतोगुण से मुझ चित्त की उत्पत्ति हुई । मैंने मनु का निर्माण किया है और तीनों लोकों का प्रसार भी। अतः स्वायम्भुवरूप अपको नास्कार है। ब्रह्माण्ड के रजोगुण द्वारा मुझ वायु की सर्वप्रथम उहात्ति हुई। मैंने आपकी आज्ञा से मन्वन्तर का प्रसार किया है। अतः स्वामिन् ! स्वरोचिष नामक मैं आप मनुरूप को नमस्कार करता हूँ । ब्रह्माण्ड के मानसिक कर्म द्वारा ध्रुव नामक मेरी उत्पत्ति हुई । मैंने आपकी आज्ञा द्वारा मनु निर्माण पूर्वक उस उत्तम की रचना की है। अतः आपको नमस्कार है । व्राण्ड के श्रवण द्वारा मुझ ईश्वर विश्वकर्मा की उत्पत्ति हुई है। देव ! आपकी आज्ञा द्वारा मैंने रैवत की रचना की है। अतः आपको नमस्कार करता हूँ। ब्रह्माण्ड के देह से मुझ सूर्य की उत्पत्ति हुई है। मैंने चाक्षुप् तेज प्रदान पूर्वक इस विश्व का विस्तृत प्रसार किया है। अतः मनुरूप आपको नमस्कार है। ब्रह्माण्ड के नेत्र से मुझ सोम की उत्पत्ति हुई है। मैंने विश्वनिर्माणपूर्वक वैवस्वत की रचना की है , अतः मनुरूपी आपको नमस्कार है। ब्रह्माण्ड के रसना इन्द्रिय द्वारा मुझ मोह की उत्पत्ति हुई देव ! मैंने सार्वाण मनु का विस्तृत प्रसार किया है, अतः मनुरूप आपको नमस्कार है। नाथ! ब्रह्माण्ड के प्राण (नाक) इन्द्रिय द्वारा मुझ बुध की उत्पत्ति हुई है । तात ! मैंने ब्रह्म सावष्य का प्रचुर प्रसार किया है । अतः आपको नमस्कार है। ब्रह्माण्ड के मुख द्वारा मुझ जीव की उत्पत्ति हुई है। मैंने इस सावर्ण मनु के निर्माणपूर्वक अत्यन्त प्रसार किया है। अतः आपको नमस्कार है । ब्रह्माण्ड के कर द्वारा आपके दास शुक्र की उत्पत्ति हुई है । मैंने रुद्र सावर्ण की रचना की है अतः आपको नमस्कार करता हूँ । ब्रह्माण्ड के चरण से उत्पन्न होने के नाते मेरी मन्द (शनि) नाम से ख्याति हुई । नाथ मैंने गर्भ सावर्ण की प्रचुर ख्याति एवं विस्तार किया है। अतः प्रभारूप आपको नमस्कार है। उसी प्रकार ब्रह्माण्ड के लिंगेन्द्रिय द्वारा आपके प्रिय राह की उत्पत्ति हुई है। नाथ ! मैंने भौम का निर्माण किया है। अतः मनुरूपी आपको नमस्कार है । तथा ब्रह्माण्ड के गुह्येन्द्रिय द्वारा केतु की उत्पत्ति हुई है, जो आपका अनुगामी है। मैंने भूत मन्वन्तर की सर्जना की है, इसलिए उस देवरूप आपको नमस्कार है ।

व्यास जी बोले-इस प्रकार उनकी स्तुतियों को सुनकर स्वामी विष्णुदेव उन प्रत्येक देवों से वर याचना के लिए कहेंगे । इसे सुनकर वे देवगण भगवान् के उस बालरूप के नमस्कार पूर्वक उनसे लोक के मंगलार्थ अपनी-अपनी अभिलाषा प्रकट करेंगे । आप प्रत्येक कल्प के प्राणियों की कथा और मन्वन्तरों की कथा सुनाने की कृपा करें ।

कल्कि ने कहा-प्रकृति माया के शरीर में अट्ठारह महाकल्प सन्निहित हैं जिनमें सर्व प्रथम ब्रह्म महाकल्प नामक कल्प का सर्जन होता है। उसके अधिनायक श्रेष्ठ पुरुष ब्रह्म है। उनके पूर्वार्द्ध भाग से तैतीस देवों एवं परार्द्ध भाग से उस भगवान् ब्रह्मा का आविर्भाव हुआ है, जिस निरंजन का ध्यान योगीगण सदैव किया करते हैं । इस कल्प में जो लीला होती है वह ब्रह्मपुराण में विस्तारपूर्वक स्पष्ट है, वह पुराण सैकड़ों कोटि का विस्तृत है। पुराण पुरूष के मध्य महाकल्प का स्थान विद्वानों ने बताया है। ब्रह्माण्ड प्रलय के समय दिव्य चार सहस्र वर्ष तक कल्प उसमें अन्तहत रहता है। वे कल्प अट्ठारह भॉति के हैं। उनके नाम मैं बता रहा हूँ, सुनो ! कूर्मकल्प, मत्स्यकल्प, श्वेतवाराहकल्प, नृसिंहकल्प, वामन- कल्प, स्कन्दकल्प, रमकल्प, भगवतकल्प, मार्कण्डकल्प, भविष्यकल्प, लिगकल्प, ब्रह्माण्डकल्प, अग्नि कल्प, वाकल्प, पद्मकल्प, शिवकल्प, विष्णुकल्प, तथा ब्रह्मकल्प का क्रमशः निर्माण हुआ। दो सहस्र आवर्त होने के नाते ये सभी महाकल्प कहे गये हैं। उसी प्रकार एक सहस्र युग तक ब्रह्माण्ड की आयु बतायी गई है। जिस नाम द्वारा कल्प की ख्याति हुई है, उसी से इस विराट् की उत्पत्ति हुई है। चौदह मनुष्यों के मध्य में कालवान् कल्प ही बताया गया है। जिस स्वायम्भुव नामक मन्वन्तर में चारों युग क्रमशः उत्पन्न एवं व्यतीत होते रहते हैं, उन युगों में मनुष्यों की आयु बता रहा हूँ सुनो ! सत्ययुग में एक लाख, त्रेतायुग में दश सहस्र, द्वापरयुग में एक सहस्र, और कलियुग में सौ वर्ष की आयु मनुष्यों की होती है । देव ! स्वारोचिष मन्वन्तर में चारों युग क्रमशः उत्पन्न एवं व्यतीत होते हैं, उनके समय मनुष्यों की आयु बता रहा हूँ, सुनो । सत्ययुग में अस्सी सहस्र, त्रेता में चालीस, द्वापर में बीस, और कलि में दो सहस्र वर्ष मनुष्यों की आयु कही गयी है। उत्तम मन्वन्तर के समय सत्ययुग में साठ सहस्र, त्रेता में तीस सहस्र, द्वापर में पन्द्रह सहस्र और कलि में डेढ़ सहस्र वर्ष मनुष्यों की आयु बतायी गयी है। तामस मन्वन्तर में सत्ययुग में छत्तीस सहस्र, त्रेता में अट्ठारह सहस्र, द्वापर में नवसहस्र और कलि में एक सहस्र वर्ष की आयु मनुष्यों की होती है। रैवत मन्वन्तर के समय सत्ययुग में तीस सहस्र त्रेता में पन्द्रह सहस्र, द्वापर में साढ़े सात सहस्र और कलि में आठ सौ वर्ष की आयु मनुष्यों की होती है। चाक्षुष मन्वन्तर में सत्ययुग में चार सहस्र, त्रेता में तीन सहस्र, द्वापर में दो सहस्र, एवं कलि में एक सहस्र वर्ष की आयु मनुष्यों की होती है। वैवस्वत मन्वन्तर के समय सत्ययुग में चार सहस्र, त्रेता में तीन सौ, द्वापर में दो सौ, और कलि में सौ वर्ष की आयु आयुर्वेद ने मनुष्य की बतायी है । देव ! सार्वाण मन्वन्तर में सत्ययुग में बीस सहस्र त्रेता में दश सहस्र द्वापर में पाँच सहस्र, और कलि में ढाई सहस्र वर्ष की आयु मनुष्यों की होती है । ब्रह्मसार्वाण मन्वन्तर में सत्युग में दशसहस्र त्रेता में पाँच सहस्र, द्वापर में ढाई सहस्र, तथा कलि में सवा सहस्र वर्ष की आयु मनुष्यों की होती है। दक्षसार्वाण मनु के समय चारों युगों में समान आयु होती रही। रुद्र सावण के समय सत्ययुग में आठ सहस्र त्रेता में चार सहस्र, द्वापर में दो सहस्र, तथा कलि में एक सहस्र की आयु मनुष्यों की होती रही। धर्मसावण के समय भी चारों युगों में एक वर्ष की समान आयु होती रही । भौम मन्वन्तर के समय सत्ययुग में चार सहस्र, त्रेता में तीन सहस्र द्वापर में डेढ़ सहस्र एवं कलि में पन्द्रह सौ वर्ष मनुष्यों की आयु होती है। उसी भाँति भौम मन्वन्तर के समय सत्ययुग में चार सौ, त्रेता में तीन सौ, द्वापर में डेढ़ सौ, एवं कलि में साढ़े सात सौ वर्ष की आयु मनुष्यों की होती है ।

मन्वन्तरों के समय जिस नाम से राजा चारों युग में कहे गये हैं, उसी नाम के भूप उत्पन्न होते हैं जिनकी पृथक्-पृथक् लीला का वर्णन किया गया है। इसी प्रकार प्रत्येक मनु के चारों युगों में जिस मनु का अधिपत्य रहता है, उसके वंशज दिव्य एकहत्तर युग तक स्थित रहते हैं, उसके पश्चात् इस कर्मभूमि (भारत) का प्रलय हो जाता है, जिसे कल्प कहा गया है और मनु की समाप्ति के समय समस्त भूमि का प्रलय होता है, जो पुराण पुरूष के दिनान्त का प्रलय कहा गया है। उसे ही मुख्य कहा जाता है, क्योंकि उस प्रलय में समस्त लोकों का विनाश होता है। अतः छब्बीस सहस्र कल्प का एक महाकल्प बताया गया है जिस समय पुराणपुरुष मेषराशि पर स्थित होता है । उस समय देवों समेत ब्रह्मा ‘स्वयम्भुव मनु होते है । पुनः पुराण पुरुष के मकर राशि पर स्थित होने पर स्वायम्भुव मनु के मध्यकाल में भूतल पर वह वाराह के रूप में अवतरित होता है। जिस समय पुराण पुरुष अपनी इच्छा से सिंह राशि पर स्थित होता है, उस समय स्वारोचिषु नामक मनु का काल होता है और उसके अन्त में भूतल पर नृसिंह का अवतार होता है। पुराण पुरुष के वृष राशि पर स्थित होने पर उत्तम मनु का काल आरम्भ होता है तथा उसके मध्य समय गणसमेत रुद्र अवतरित होते हैं। जिस समय पुराणपुरुष मीन (राशि) पर स्थित होता है, उस समय तामस मनु का काल होता है, उसके अन्त समय भूतल पर सनातन भगवान् का मत्स्यावतार होता है। पुराण पुरुष के मिथुन राशि पर स्थित होने पर उस वैवस्वत मनु के मध्यकाल में इस वसुन्धरा पर भगवान कृष्ण का अवतार होता है। उसी प्रकार पुराण पुरुष के कर्क राशिस्थ होने पर उस रैवतअन्त मनु के समय सनातन भगवान् का कूर्मावतार होता है।

उस पुराण पुरुष के कन्या राशि पर स्थित होने पर उस चाक्षुष मनु का काल होता है, भूतल पर भगवान् राम का जामदग्न्यावतार और उसके वृश्चिक राशिस्थ के समय उस वैवस्वत मनु के आदि काल में भगवान् का भूमण्डल पर वामनावतार होता है । जिस समय पुराण पुरुष तुला राशि पर स्थित होता है, उस समय वैवस्वत मनु के मध्यकाल में भगवान् का कल्कि अवतार होता है। उसी भाँति पुराण पुरुष के कुम्भ राशि पर गमन करने के समय उस सार्वाण मनु के आदि काल में भूतल पर भगवान् का बुद्धावतार, धनुराशि पर स्थित होने पर वैवस्वत मनु के मध्य काल में भूतल पर भगवान् का दाशरथी (दशरथपुत्र) राम का अवतार और उसके मकर राशि पर स्थित होने के समय भगवान् का सर्वपूज्यावतार होता है, जो कभी भी नहीं होता है। देववृन्द ! इन चारों युगों में होने वाले पुराण पुरुष के तीनों अवतार को बता दिया गया त्रेता के पहले चरण में भगवान राम का (दशरथ के यहाँ) रामावतार, द्वापर में शेष के साथ कृष्णावतार और कलियुग में बत्तीस सहस्र वर्ष शेष रहने पर कल्कि अवतार होता है। अतः यह खण्ड अत्यन्त पावन है, जिससे मनुष्यों के पातक नष्ट होते हैं । इस प्रकार इन चारों खण्डों के पाठ करने का दूसरे को सुनाने से मनुष्यों के सभी जन्मों के पाप नष्ट होते हैं। देववृन्द ! इस भाँति मैने महाकल्प के पवित्र चरित्र को तुम्हें सुना दिया। दूसरे महाकल्प को विष्णुकल्प कहा गया है, उसी की कथा विष्णुपुराण में कही गयी है, जिसे मनुष्यों ने सप्रेम हृदयङ्गम किया है। वह पुराण सैकड़ों कोटि का विस्तृत है। उसी महाकल्प में उस विष्णु भगवान् की नाभि का उत्पन्न होना बताया गया है। जो अपने पूर्वार्द्ध भाग से देव समेत भगवान् ब्रह्मा, और परार्द्ध भाग से पुराणपुरुष कहलाता है। शिवकल्प नामक तीसरे महाकल्प में शिवजी के पूर्वार्द्ध भाग से विष्णु और विष्णु द्वारा स्वयं ब्रह्मा का उत्पन्न होना बताया गया है, जो शिवपुराण के रूप में सौ कोटि का विस्तृत है। पद्मकल्प नामक चौथे महाकल्प में भगवान् गणेश पुराण पुरुष कहे गये हैं, जिससे रुद्र,रूद्र से विष्णु और उस विष्णु की नाभि से कमल समेत परमेष्ठी पितामह ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है। प्रत्येक कल्प के आदि में क्रमशः देवों की भी चारों ओर से स्थिति होती है ।

उसी प्रकार वायुकल्प नामक पाँचवें महाकल्प में महेन्द्र भगवान् पुराणपुरुष के स्थानापन्न होते हैं । उस महेन्द्र द्वारा महेन्द्र, महेन्द्र द्वारा इन्द्रियाँ और इन्द्रियों द्वारा देवों की उत्पत्ति होती है, जिनके विषय में मैं बता रहा हूँ, सुनो ! शनि, बुध, रवि, शुक्र, विश्वकर्मा, बृहस्पति, इन्द्र, विष्णु, ब्रह्मा,रुद्र और सोम (चंद्र) नामक देवों की क्रमशः उत्पत्ति होती है। उसके लिंगेन्द्रिय द्वारा उत्पन्न होने के नाते ब्रह्मा सृष्टिकर्ता का पद सुशोभित करते हैं, और वरण द्वारा उत्पन्न होकर सृष्टि का पालन करने के नाते विष्णु को अवतारी कहा गया है। प्रत्येक कल्प के चौबीस तत्त्वों में भगवान् सन्निहित रहते हैं—सनतकुमार, हंस, वाराह, नारद, नर, नारायण, कपिल, यज्ञाश्व, कंटद, वृषभ, पृथु, मत्स्य, कू, धन्वन्तरि, मोहिनी, नृसिंह, वामन, भार्गव, राम, व्यास, बल, कृष्ण, बुद्ध और भगवान् का कल्की स्वरूप अपने-अपने कल्प के तत्त्व में निहित है । इसी प्रकार गुह्येन्द्रिय द्वारा महादेव की उत्पत्ति हुई है, जो सृष्टि एवं दैत्यों के विनाशक हैं। पाँचवे महाकल्प में इस प्रकार तीनों देवों की उत्पत्ति बतायी गयी है।

बह्रिकल्प नामक छठे महाकल्प में स्कन्ददेव पुराणपुरुष कहे जाते हैं उस अव्यय पुरुष के स्कन्द होने से उनका स्कन्द नाम हुआ । इसलिए वे महा अर्चिमान् (पूर्णप्रकाश युक्त) कहे गये हैं। उन्हीं सूर्य रूप महार्चि से स्वयं विष्णु की वह्निरूप महाचि द्वारा पितामह ब्रह्मा और चन्द्र रूप महाच द्वारा शिव की उत्पत्ति होती है । इसी भाँति पितामह (ब्रह्मा) द्वारा ऋषि, मुनि, वर्ण एवं लोकों की उत्पत्ति हुई है, विष्णु द्वारा आदित्यगण, विश्वावसु देव, तुषित, भास्वर, अनिल, और महाराजिक साध्व देवी की उत्पत्ति हुई है । और रुद्र द्वारा यक्ष राक्षस, गन्धर्व, पिशाच, किन्नर, दैत्य, दानव एवं भूतगणों की उत्पत्ति हुई है। इस प्रकार प्रत्येक कल्पों में ब्रह्माण्ड के सर्जन को शुभ बताया गया है। ब्रह्माण्ड कल्प नामक सातवें महाकल्प में पुराण पुरुष के आसन पर भगवान् पावक प्रतिष्ठित होते हैं, जिस अजेय तेजस्वी पुरुष द्वारा अग्नि का जन्म हुआ। उसी अग्नि द्वारा महासागर और उसी सागर द्वारा इस विराट् की उत्पत्ति हुई, जिसके रोम रोम में कोटि ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुए हैं । उस ब्रह्माण्ड से समस्त लोकों के पितामह ब्रह्मा, ब्रह्मा से विभु विष्णु, और उस विष्णु द्वारा स्वयं हर की उत्पत्ति हुई । इसीलिए उस ब्रह्माण्ड नामक पुराण का सैकड़ों कोटि का विस्तार हुआ है। शिव के तीन नेत्र, पाँच मुख और दश भुजाएँ हैं अट्ठारह कल्पों के वैदिकों ने वायु नाम से ख्याति की है। इस महाकल्प में सबकी उत्पत्ति होने से दो सहस्र उसी समय नष्ट हो गये । लिगकल्प नामक आठवें महाकल्प में भगवान् धर्म पुराणपुरुष के आसनासीन होते है, जो अचिन्त्य, अव्यक्त एवं सनातन धर्मरूप हैं । उस धर्म से काम की उत्पत्ति हुई और काम द्वारा वह लिग तीन (पुल्लिंग स्त्रीलिंग एवं नपुसंकलिंग) भागों में विभक्त होकर पुल्लिंग द्वारा विष्णु स्त्रीलिंग द्वारा इन्दिरा (लक्ष्मी), एवं नपुंसक लिंग से उस शेष का आविर्भाव हुआ, जिस पर विष्णु शयन किये रहते हैं । पुनः इन तीनों तमोमय रूप द्वारा एक समुद्र जगत् की उत्पत्ति होती है । उसी में नारायण देव के शयन करने पर उनकी नाभि द्वारा एक उत्तम कमल की उत्पत्ति होती है। जिससे ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा द्वारा यह विराट् ! इसलिए लिंग पुराण की कथा सैकड़ों कोटि की विस्तृत है । उसी का साररूप गीता ब्रह्मा के सम्मुख उपस्थित हुआ है। मत्स्यकल्प नामक नवें महाकल्प में भगवान् कुबेर पुराणपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित होते हैं। पश्चात् उस अव्यय द्वारा एक अत्यन्त बड़ी धूल राशि उत्पन्न होती है, जिस रजोभूत धूलि द्वारा कुबेर जन्म ग्रहण करते हैं । पुनः कुबेर द्वारा वेदमूर्ति एवं सद्गुण रूप मत्स्य की उत्पत्ति होती है। उसी मत्स्य के उदर से स्वयं नारायण विष्णु देव उत्पन्न होते हैं। और विष्णु की नाभि से पितामह ब्रह्मा, ब्रह्मा से दैव और दैव द्वारा देवों की उत्पत्ति होती है । पश्चात् उन्हीं देवों ने चौबीस तत्वों को उत्पन्न किया है । इस प्रकार प्रत्येक कल्प में देव प्रधान नाम द्वारा कल्पों के नाम होते हैं-मत्स्यकल्प में महामत्स्य द्वारा मत्स्य की उत्पत्ति कही गयी है । जिस मत्स्य के द्वारा भगवान् विष्णु और विष्णु द्वारा ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई । कूर्मकल्प में महामत्स्य द्वारा कूर्म (कच्छप) का आविर्भाव और उसी कूर्म द्वारा भगवान् विष्णु, उनसे ब्रह्मा और ब्रह्मा द्वारा विराट् उत्पन्न होते हैं। श्वेत वाराहकल्प में वराह द्वारा विष्णु उत्पन्न होते हैं। उसी विष्णु की नाभि द्वारा ब्रह्मा और उस ब्रह्मा से विराट् उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार विद्वानों को सभी कल्पों में उनकी प्रधानता एवं समस्त कथा का ज्ञान करना चाहिए । कूर्मकल्प नामक दशवें महाकल्प में भगवान् अचेता पुराण कहे गये हैं। जो प्रकृति से परे तुरीय, अव्यय एवं शून्यभूत हैं । उसी से भगवान् अचेता स्वयं उत्पन्न होते हैं और अचेता द्वारा महासागर उत्पन्न होता है जिसमें शयन करने पर भगवान् को जलपति नारायण कहा गया है। उनके अर्द्धभाग से महाकूर्म और महाशेष की उत्पत्ति होती है। वह शेष पुनः तीन रूप में विभक्त होकर भूमा, शेष और भौमनी के रूप में प्रकट होता है, उस भूमा को विराट् कहा गया है, जो भूमा (विराट् ) के हृदय में स्थित है। उसी भूमा द्वारा सृष्टि, स्थिति एवं उसके विनाशक देवों की उत्पत्ति होती है । वही ब्रह्मा प्रत्येक कल्पों में त्रिधा विभक्त होकर तीनों रूपों को धारण करता है ।
पुराण पुरुष का वह आसन है, जो उसके शयन काल का स्तरण घर रूप है वहाँ पहुँचने पर इन्द्रियाँ तृप्त होकर नष्ट हो जाती है। वह अहंकार चैतन्य रुप से मन में स्थित होता है, उसे वंचितकर अपनी लीला द्वारा जो लोक-निर्माण करती है, वह सनातनी तुरीय शक्ति महाकाली है। समस्त महाकल्प एवं श्रुतियों द्वारा जिसके अंगभूत (लोक कथाओं) का वर्णन किया गया है, उस अपनी माता महाकाली को मैं नमस्कार करता हूँ । तथा उसी द्वारा पुराणपुरुष का आविर्भाव और विलय होता है । देववृन्द ! दश महाकल्प व्यतीत हो चुके हैं। इस समय भविष्य महाकल्प का आरम्भ है। इसमें देवों समेत मेरा जिस प्रकार जन्म हुआ है, उसे मैं कह रहा हूँ, सुनो ! अचिन्त्य, अविनाशी, तुरीय रूप से सदैव स्थित, तथा जिसके पद की प्राप्तिकर मनुष्यों को पुनः संसार में नहीं आना पड़ता है, वह अपनी लीला द्वारा अनेक सृष्टियों की रचना करता है। उसके अंत को देवगण नहीं जान सकते हैं तो उसके लिए मनुष्यों को क्या कहा जा सकता है । वेद तो यही कहता है कि महाकल्प हुए हैं, किन्तु भविष्य रूप में होने वाले कल्पों को वे भी नहीं जानते हैं । कुछ वेदों का यह कहना है कि तैतीस महाकल्प होते हैं, कुछ लोग अष्टादश कल्पों को स्वीकार करते हैं, जो अपने नामानुसार पृथक्पृथक् णित हैं और किसी प्राचीन वादी ने ग्यारह महाकल्प को स्वीकार किया है। देवगण ! अतः मैंने निश्चय किया है-भावी कल्पों के विषय में वेदों की बातें सत्य माननी चाहिए, जो किसी प्रकार कभी अन्यथा नहीं हो सकती है और उसने बताया है कि उस अव्यय द्वारा सनातन राधाकृष्ण का आविर्भाव हुआ है, जिस दोनों के अंग एक हो जाने पर विद्वानों ने उसे राधाकृष्ण कहा है। प्रकट होने के उपरांत राधाकृष्ण ने सहस्र युग तक घोर तपस्या की । पश्चात् वह दो भागों में विभक्त होकर राधाकृष्ण के नाम से पृथक्-पृथक् अवस्थित होकर उन दोनों ने एक सहस्र युग तक पुनः घोर तपस्या की जिससे उन दोनों के अंग से तम नष्ट करने वाली ज्योत्स्ना का अविर्भाव हुआ। उसी ज्योत्स्ना द्वारा शुभमूति वृन्दावन का निर्माण हुआ, जिसके एक-एक योजन की दूरी पर इक्कीस प्रकृति तत्त्व का सन्निहित होना बताया गया है। वह दिव्य वृन्दावन चौरासी कोश में विस्तृत है। प्रभो ! उसके लिंग की व्याख्या कर रहा हूँ सुनो ! । दश प्राकृतिक इन्द्रियों द्वारा उसके दश ग्रामों का निर्माण हुआ है-गोकुल, वार्षभ, नान्द, भांडीर, माथुर, ब्रज, यामुन, मान्य, श्रेयस्क, एवं गोपियों की क्रमशः उत्पत्ति हुई। दश तन्मात्रा प्रकृति द्वारा दश रमणीक वन उत्पन्न हुए हैं, उनके नाम बता रहा हूँ सुनो ! वृन्दावन, गोपवन, बहुलावन, मधुवन, भृङ्गवन, दधिवन, एकान्त क्रीडावन, रम्य वेणु और पद्मवन का क्रमशः जन्म हुआ। प्रकृति के मन द्वारा महान् गोवर्द्धन पर्वत का अविर्भाव हुआ, जिसने दिव्य वृन्दावन को देखकर अत्यन्त हर्ष प्रकट किया है। भगवान् कृष्ण द्वारा तीन कोटि गुणी गोपों का जन्म हुआ है, जिसमें श्रीदामा आदि गोपा के जन्म सतोगुण द्वारा अर्जुन आदि के रजोगुण और कंस आदि के जन्म तमोगुण द्वारा हुए हैं, जो दिव्य लीला के विषय में उसी भाँति क्रमश: राधा जी के अंग द्वारा ललिता आदि तीन कोटि गोपियों के जन्म हुए हैं, जिसमें ललिता आदि गोपियाँ सात्त्विकी, कुब्ज़ा आदि राजसी, और पूतना आदि गोपियाँ तामसी प्रकृति द्वारा उत्पन्न हुई हैं । जो अनेक हाव-भाव के चरित्रों का चित्रण किये हैं इन लोगों ने एक सहस्र युग तक अनेक भाँति की लीला करने के उपरांत इन (राधाकृष्ण) दोनों ने अपने में उन सब के संहरण पूर्वक पुनः घोर तप किया है। कृष्ण और राधादेवी पृथक् पृथक् दो-दो भागों में विभक्त हुए। कृष्ण ने अपने पूर्वार्द्ध भाग से एक-एक पुरुष को प्रकट किया जिसके- सहस्र शिर, सहस्र नेत्र और सहस्र चरण हैं तथा उत्तरार्द्ध भाग कृष्णरूप हुआ। उसी प्रकार राधा देवी के पूर्वार्द्ध भाग द्वारा दो सहस्त्र (मूर्ति) उत्पन्न हुई, जिनके एक शिर तीन नेत्र एवं दो चरण हैं और परार्द्ध भाग राधारूप हुआ। उस शुभ एवं दिव्य वृन्दावन में उन प्रकृति-पुरुष दोनों ने सहस्र युग पर्यन्त घोर तप किया जिसके कारण उनकी इतनी वृद्धि हुई हैं कि उसका पार न मिलने से उनका अनंत नामकरण हुआ । पश्चात् वे दोनों मैथुन करने की इच्छा से एक होकर स्थित हुए। उस समय उनके अङ्ग के रोमकूपों में कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुए, जो पृथक्-पृथक् स्थित होकर आधे-आधे कोटि के विस्तृत थे । देवगण ! उनके हृदय रोम द्वारा इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई । अनन्तर व्रह्माण्ड द्वारा कमलपुष्प पर स्थित ब्रह्मा का आविर्भाव हुआ। वह कमलपुष्प भूमि में एक योजन के विस्तार में स्थित था । वह ब्रह्म-कमल जिससे उत्पन्न हुआ वह पद्मसरोवर के नाम से प्रख्यात होकर पुष्कर क्षेत्र में स्थित है। उस समय चतुर्मुख धारण किये नररूप में अवस्थित ब्रह्मा ने उस कमल को देखकर अत्यन्त आश्चर्य प्रकट किया । तदुपरांत उसके नाल में प्रवेशकर ब्रह्मा ने दिव्य सौ वर्ष तक उसके मूलका पता लगाया किन्तु उसके अन्त का पार न प्राप्त कर सके। किन्तु माया से मोहित होकर अनेक भाँति रुदन करना आरम्भ किया, जिससे रुद्र की उत्पत्ति हुई, जो उनके कल्याण कर्ता हुए। उन्होंने कहा-महाभाग ! क्यों रुदन कर रहे हो, तुम्हारा स्वामी तो तुम्हारे हृदय में ही स्थित हैं इसे सुनकर लोकपितामह ब्रह्मा ने अपनी इच्छा से अपने हृदय में उनके ध्यान पूर्वक समाधि लगाना प्रारम्भ किया। सौ दिव्य वर्ष व्यतीत होने के उपरांत विष्णु भगवान् के स्वयं आविर्भूत होकर अपनी मेघ-गम्भीर वाणी द्वारा गर्जना करते हुए ब्रह्मा से कहा-ब्रह्मन् ! यह कर्मभूमि है, जिसमें जीवगण उत्पन्न एवं विलीन होते रहते हैं। इस विश्व के भूमण्डल में यह सहस्र योजन में विस्तृत है, जिसके उत्तर में हिमालय पर्वत, पूर्व में समुद्र, पश्चिम में रलाकर समुद्र और दक्षिण में बडवानल वाला समुद्र है। अतः कर्मभूमि के ऊपर नीचे लोकों की अवस्थिति होगी और मध्य में इस सनातन पुष्कर को मुझसे वेदों की प्राप्ति करके आप लोग यज्ञानुष्ठान सुसम्पन्न करेंगे जिससे तीनों युगों के तीन भाग द्वारा देवों की उत्पत्ति होगी उस सात्त्विक गुण के तीन भागों में विभक्त होने से सिद्ध विद्याधर एवं चारण राजस् द्वारा पर्वत निवासी गन्धर्व यक्ष तथा राक्षस और अधोलोक में रहने वाले पिशाच एवं गुह्यकों की उत्पत्ति तामस गुणों द्वारा होगी । उसी प्रकार पितृगणों के लिए स्वधामय यज्ञ (पिंडदान) तीन भागों में विभक्त होकर देवों के यानों से अधिक रमणीक विमान रूप में आकाश में उनके समीप स्थित होंगे । पुनः सतोगुण द्वारा खेचरों की उत्पत्ति होगी, जो गौरवर्ण एवं श्यामल वर्ण के होते हैं। राजस् गुण द्वारा गिरि, द्वीप एवं सरोवरों की उत्पत्ति होगी और पितृगणों के समीप रहने वाले भूचर तीन भागों में विभक्त होंगे। विल (पाताल आदि) रूप, और यातनामय नरकाकुण्डों की तमोगुण द्वारा उत्पत्ति होगी जो पितरों के नीचे भूतल पर अवस्थित हैं । क्रमशः लोकों में ऊपर के लोकों का मध्य व्यय मध्य वाले की वृद्धि और नीचे वाले लोकों का क्षय होता है । यह पवित्र भूमि सनातनी है, किन्तु इस पर स्थायी मेरु के रूप में तथा द्वीपगण, और इलार्वत आदि खंग अपने रूप में सदैव स्थित नहीं रहते हैं अर्थात् महाप्रलय होने पर विलीन हो जाते है । विमान के समान आकाश में दिखायी देने वाले तारागण यज्ञों : द्वारा सुरक्षित होने पर स्वेच्छया लोक की रक्षा किया करते हैं। जिस समय भूतल पर यज्ञानुष्ठान नहीं होते उस समय वे भगण नित्य उनकी और अतिचारी होकर लोक में विघ्न उत्पन्न करते हैं । ब्रह्मन् ! श्रुति रूप एवं संसारमयी यह कर्मभूमि गौरूप है, जो इसका पालन-पोषण करता है, उसे गोप कहा जाता है । गोपशक्ति एवं गोरूप भगवान् विष्णु है, जो गोपियों की सदैव पूजा करते हैं । सहस्र कोटि के उत्पन्न सभी गोप भगवान् के कला स्वरूप है और उतने ही ब्रह्माण्ड गोप नाम से कहे गये हैं। इस कर्म भूमि से ऊपर एक लक्ष योजन की दूरी पर सूर्य स्थित हैं, उनसे उतनी ही दूर चन्द्रमा और उनसे ऊपर उतने दूर पर नक्षत्रों का मण्डल स्थित है। उनसे दो लक्ष योजन की दूरी पर मंगल, उनसे उतनी दूर बुध, बुध से उतनी दूरी पर बृहस्पति, बृहस्पति से उतने दूर शुक्र, शुक्र से शनि, शनि से राह और राह से केतु उपरोक्त दो लाख की समान दूरी पर स्थित हैं। केतु से सात लाख योजन की दूरी पर सप्तर्षियों का मण्डल अवस्थित है। इस प्रकार सभी ग्यारह लाख योजन की दूरी पर स्थित हैं और उनसे एक लाख योजन की दूरी पर धुब्र का स्थान, उससे लक्ष योजन पर महात्पद हात्पद से ऊपर लक्ष योजन पर जनपद, उस से ऊपर लक्ष योजन पर तप लोक स्थित है। इस भाँति कर्मभूमि से तपलोक आधे कोटि योजन की दूरी पर है। कर्मभूमि से एक लक्षयोजन की दूरी पर नीचे पाताल आदि लोक और उससे उतनी ही दूर नीचे नरक कुण्ड अवस्थित हैं, जो भूमि से आधे कोटि योजन पर कहा गया है । कर्मभूमि के उत्तर आठ खण्डों का निर्माण हुआ है-लवण सागर उसके अनन्तर द्वीप, उसके पश्चात् क्षीरसागर है। इसी भाँति द्वीप सागर और पुनः द्वीप का निर्माण किया गया है, जो आधे कोटि लक्ष योजन की दूरी पर है । कर्मभूमि के चारों ओर लोकालोक नामक पर्वत अवस्थित है। विधे ! इन्हीं सब समुदायों का यह प्रख्यात ब्रह्माण्ड नाम है जो तुम्हारे द्वारा उत्पन्न होकर कल्प पर्यन्त सुस्थित रहेंगे। ओम् इस एकाक्षर ब्रह्म द्वारा विष्णु की उत्पत्ति होती है, जो विष्णु, कृष्ण, एवं विराट् रूप से प्रख्यात होते हैं। वही विष्णु पुराण पुरुष आदि ब्रह्मा के नाम से प्रख्यात हैं, जिनकी चिरायु होती है। दिव्य दो सहस्र युग का उनका दिन रात होता है। इस विष्णु के रोमकूपों में कोटि ब्रह्माण्ड स्थित हैं। ब्रह्मन् ! विष्णु मैं इस भूतल पर तुम्हारे विध्न के अपहरणार्थ स्थित हैं। इतना कर विष्णु अन्र्ताहत हो गये और ब्रह्मा ने सृष्टि करना आरम्भ किया। उन्होंने ही यह बताया है कि भावीकल्प भविष्यमहाकल्प के नाम से प्रख्यात होगा, जिसकी दो सहस्र वर्ष की आयु बतायी गयी है। पुराण पुरुष के पूर्वार्द्ध भाग द्वारा उत्पन्न अट्ठारह सहस्र कल्पव्यतीत हो चुके हैं और इस समय वर्तमान परार्द्धभाग के भी दो दिन व्यतीत हो गये हैं । यहाँ कूर्म और अग्नि का मत्स्य, तथा तीसरा श्वेत वाराह नामक कल्प उसका दिवस रूप बताया गया है । सुरवृन्द ! इस समय उस भविष्य महाकल्प का मध्याह्न काल है, जिसकी कथा भावी जनों द्वारा निर्मित होकर ब्रह्मा के सम्मुख कही गयी है। वह महाकल्प सैकड़ों कोटि का विस्तृत और उन शतलक्षणों से अंकित है, जो सैकड़ों कोटि विस्तृत है, उसे ही महापुराण कहा गया है। पुराणों के पाँच लक्षण होते हैं और उसमें तीस सहस्र पद्य जो प्रत्येक कल्पों में विरचित होते हैं । कल्प नाम पुराण का है, जिसे महादेव जी ने स्वयं निर्मित किया है। इस प्रकार शिव जी ने अठ्ठारह पुराणों का निर्माण किया है, जिसे द्वापर युग के अन्तिम समय में सत्यवती पुत्र व्यास जी ने लोकों के हितार्थ उत्पन्न (दृष्टि गोचर) किया है।
व्यास जी बोले-कल्कि देव की इस प्रकार की बातें सुनकर देवों को अत्यन्त विस्मय हुआ । अनन्तर वे नमस्कार करके अपने-अपने लोक चले जाँयेगे ।
(अध्याय २५)

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