भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १६३
विभिन्न पुष्पों द्वारा सूर्य-पूजन का फल

सुमन्तु मुनि बोले — राजन् ! अमित तेजस्वी भगवान् सूर्य को स्नान कराते समय ‘जय’ आदि माङ्गलिक शब्दों का उच्चारण करना चाहिये तथा शङ्ख, भेरी आदि के द्वारा मङ्गल-ध्वनि करनी चाहिये । तीनों संध्याओं में वैदिक ध्वनियों से श्रेष्ठ फल होता है । शङ्ख आदि माङ्गलिक वाद्य के सहारे नीराजन करना चाहिये । जितने क्षणों तक भक्त नीराजन करता है, उतने युग सहस्त्र वर्ष वह दिव्यलोक में प्रतिष्ठित होता है । भगवान् सूर्य को कपिला गौ के पञ्चगव्य से और मन्त्रपूत कुश-युक्त जल से स्नान कराने को ब्रह्मस्नान कहते हैं । वर्ष में एक बार भी ब्रह्मस्नान करानेवाला व्यक्ति सभी पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक में प्रतिष्ठित होता है ।om, ॐजो पितरों के उद्देश्य से शीतल जल से भगवान सूर्य को स्नान कराता है, उसके पितर नरकों से मुक्त होकर स्वर्ग चले जाते हैं । मिट्टी के कलश की अपेक्षा ताम्र-कलश से स्नान कराना सौ गुना श्रेष्ठ होता है । इसी प्रकार चाँदी आदि के कलश द्वारा स्नान कराने से और अधिक फल प्राप्त होता है । भगवान् सूर्य के दर्शन से स्पर्श करना श्रेष्ठ हैं और स्पर्श से पूजा श्रेष्ठ है और घृत-स्नान कराना उससे भी श्रेष्ठ है । इस लोक और परलोक में प्राप्त होनेवाले पापों के फल भगवान् सूर्य को घृतस्नान कराने से नष्ट हो जाते हैं एवं पुराण श्रवण से सात जन्मों के पाप दूर हो जाते हैं ।

एक सौ पल (लगभग छः किलो बीस ग्राम) प्रमाण से (जल, पञ्चामृत आदिसे) स्नान कराना ‘स्नान’ कहलाता है । पचीस पल (लगभग डेढ़ किलो) से स्नान कराना ‘अभ्यङ्ग-स्नान’ कहलाता है और दो हजार पल (लगभग एक सौ चौबीस किलो) से स्नान कराने को ‘महास्नान’ कहते हैं ।जो मानव भगवान् सूर्य को पुष्प-फल से युक्त अर्घ्य प्रदान करता है, वह सभी लोकों में पूजित होता है और स्वर्गलोक में आनन्दित होता है । जो अष्टाङ्ग अर्घ— जल, दूध, कुश का अग्रभाग, घी, दही, मधु, लाल कनेर का फूल तथा लाल चन्दन — बनाकर भगवान् सूर्य को निवेदित करता है, वह दस हजार वर्ष तक सूर्यलोक में विहार करता है । यह अष्टाङ्ग अर्घ भगवान् सूर्य को अत्यन्त प्रिय हैं ।
‘आपः क्षीरं कुशाग्राणि घृत दधि तथा मधु ।
रक्तानि करवीराणि तथा रक्तं च चन्दनम् ॥
अष्टाङ्ग एष अर्घो वै ब्रह्मणा परिकीर्तितः ।
सततं प्रीतिजननो भास्करस्य नराधिप ॥’
(ब्राह्मपर्व १६३ । ३७-३८)

बाँस के पात्र से अर्घ-दान करने से सौ गुना फल मिट्टी के पात्र से होता है, मिट्टी के पात्र से सौ गुना फल ताम्र के पात्र से होता है और पलाश एवं कमल के पतों से अर्घ देने पर ताम्रपात्र का फल प्राप्त होता है । रजतपात्र के द्वारा अर्घ प्रदान करना लाख गुना फल देता है । सुवर्णपात्र के द्वारा दिया गया अर्घ कोटि गुना फल देनेवाला होता है । इसी प्रकार स्नान, अर्घ, नैवेद्य, धूप आदिका क्रमशः विभिन्न पात्रों की विशेषता से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ फल प्राप्त होता है ।धनिक या दरिद्र दोनों को समान ही फल मिलता है, किंतु जो भगवान् सूर्य के प्रति भक्ति-भावना से सम्पन्न रहता है, उसे अधिक फल मिलता है । वैभव रहने पर भी मोहवश जो पूर्व विधि-विधान के साथ पूजन आदि नहीं करता, वह लोभ से आक्रान्त-चित होनेके कारण उसका फल नहीं प्राप्त कर पाता । इसलिये मन्त्र, फल, जल तथा चन्दन आदि से विधिपूर्वक सूर्य की पूजा करनी चाहिये । इससे वह अनन्त फल को प्राप्त करता है । इस अनन्त फल-प्राप्ति में भक्ति ही मुख्य हेतु है । भक्तिपूर्वक पूजा करने से वह सौ दिव्य कोटि वर्ष सूर्यलोक में प्रतिष्ठित होता है ।

राजन् ! सूर्य को भक्तिपूर्वक तालपत्र को पंखा समर्पित करनेवाला दस हजार वर्षों तक सूर्योलोक में निवास करता है । मयूर-पंख का सुन्दर पंखा सूर्य को समर्पित करनेवाला सौ कोटि वर्षों तक सूर्यलोक में निवास करता है ।
नरश्रेष्ठ ! हज़ारों पुष्पों से कनेरका पुष्प श्रेष्ठ, हजारों बिल्वपत्रों से एक कमल-पुष्प श्रेष्ठ है । हजारों कमल-पुष्पों से एक अगस्त्य-पुष्प श्रेष्ठ है, हजारों अगस्त्य-पुष्पों से एक मोंगरा-पुष्प श्रेष्ठ है, सहस्र कुशाओं से शमीपत्र श्रेष्ठ है तथा हजार शमी-पत्रों से नीलकमल श्रेष्ठ है । सभी पुष्पों में नीलकमल ही श्रेष्ठ है । लाल कनेर के द्वारा जो भगवान् सूर्य की पूजा करता है, वह अनन्त कल्पों तक सूर्यलोक में सूर्य के समान श्रीमान् तथा पराक्रमी होकर निवास करता है । चमेली, गुलाब, विजय, श्वेत मदार तथा अन्य श्वेत पुष्प भी श्रेष्ठ माने गये हैं । नाग-चम्पक, सदाबहार-पुष्प, मुद्गर (मोंगरा) ये सब समान ही माने गये हैं । गन्धयुक्त किंतु अपवित्र पुष्पों को देवताओं पर नहीं चढ़ाना चाहिये । गन्धहीन होते हुए भी पवित्र कुशादिकों को ग्रहण करना चाहिये । पवित्र पुष्प सात्त्विक पुष्प हैं और अपवित्र पुष्प तामसी हैं । रात्रि में मोंगरा और कदम्ब का पुष्प चढ़ाना चाहिये । अन्य सभी पुष्पों को दिन में ही समर्पित करना चाहिये । अधखिले पुष्प तथा अपक्व पदार्थ भगवान् सूर्य को नहीं चढ़ाने चाहिये । फलों के न मिलने पर पुष्प, पुष्प न मिलने पर पत्र और इनके अभाव में तृण, गुल्म और औषध भी समर्पित किये जा सकते हैं । इन सबके अभाव में मात्र भक्तिपूर्वक पूजन-आराधन से भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं । जो माघ मास के कृष्ण पक्ष में सुगन्धित मुक्ता-पुष्पों द्वारा सूर्य की पूजा करता है, उसे अनन्त फल प्राप्त होता है । संयतचित्त होकर करवीर-पुष्पों से पूजा करनेवाला सभी पापों से रहित हो सूर्यलोक में प्रतिष्ठित होता है ।

अगस्त्यके पुष्पों से जो एक बार भी भक्तिपूर्वक सूर्य की पूजा करता है, वह दस लाख गोदान का फल प्राप्त करता है और उसे स्वर्ग प्राप्त होता है ।

मालती, रक्त कमल, चमेली, पुंनाग, चम्पक, अशोक, श्वेत मन्दार, कचनार, अंधुक, करवीर, कल्हार, शमी, तगर, कनेर, केशर, अगस्त्य, बक तथा कमल-पुष्प द्वारा यथाशक्ति भगवान् सूर्य की पूजा करनेवाला कोटि सूर्य के समान देदीप्यमान विमान से सूर्यलोक को प्राप्त करता है अथवा पृथ्वी या जल में उत्पन्न पुष्पों द्वारा श्रद्धापूर्वक पूजन करनेवाला सूर्यलोक में प्रतिष्ठित होता है ।
(अध्याय १६३)

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