भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७१ से १७२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १७१ से १७२
सौरधर्म में सदाचरण का वर्णन

सुमन्तु मुनि बोले — राजन् ! अब मैं सौरधर्म से सम्बद्ध सदाचारों का संक्षेप में वर्णन करता हूँ । सूर्य-उपासक को भूखे-प्यासे, दीन-दुःखी, थके हुए, मलिन तथा रोगी व्यक्ति का अपनी शक्ति के अनुसार पालन और रक्षण करना चाहिये, इससे सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं । पतित, नीच तथा चाण्डाल और पक्षी आदि सभी प्राणियों को अपनी शक्ति के अनुसार दी गयी थोड़ी-भी वस्तु करुणा के कारण दिये जाने से अक्षय-फल प्रदान करती है, अतः सभी प्राणियों पर दया करनी चाहिये । om, ॐजो मधुर वाणी बोलता है, उसे इस लोक तथा परलोक में सभी सुख प्राप्त होते हैं । अमृत प्रवाहित करनेवाली प्रिय वाणी चन्दन के स्पर्श के समान शीतल होती है । धर्म से युक्त वाणी बोलनेवाले को अक्षय सुख की प्राप्ति होती है ।
‘न हीदृक् स्वर्गयानाय यथा लोके प्रियं वचः ।
इहामुत्र सुखं तेषां वाग्येषां मधुरा भवेत् ॥
अमृतस्यन्दिनीं वाचं चन्दनस्पर्शशीतलाम् ।
धर्मविरोधिनीमुक्त्वा सुखमक्षय्यमाप्नुयात् ॥ (ब्राह्मपर्व १७१ । ३८-३९)

प्रिय वाणी स्वर्ग का अचल सोपान है, इसकी तुलना में दान, पूजन, अध्यापन आदि सब व्यर्थ हैं । अतिथि के आनेपर सादर उनसे कुशल-प्रश्न करना चाहिये और यात्रा समय ‘आपका मार्ग मङ्गलमय हो, आपको सभी कार्य के साधक सुख नित्य प्राप्त हो’ —ऐसा कहना चाहिये । सभी समय ऐसे आशीर्वादात्मक वचन बोलने चाहिये । नमस्कारात्मक वाक्य में ‘स्वस्ति’, मङ्गल-वचन तथा सभी कर्मों में ‘आपका नित्य कल्याण हो’, ऐसा कहना चाहिये । इस प्रकार के आचरणों का अनुष्ठान करके व्यक्ति सम्पूर्ण पापों से मुक्त होकर सूर्यलोक में प्रतिष्ठित होता है । मनुष्यों को जैसी भक्ति भगवान् सूर्य में हो वैसी ही भक्ति सूर्यभक्तों के प्रति भी रखनी चाहिये । किसी के द्वारा आक्रोश करने या ताडित होनेपर जो न आक्रोश करता है, न ताड़न करता है, वाणी में अधिकार होने के कारण ऐसा क्षमाशील एवं शान्त व्यक्ति सदा दुःख से रहित होता है । सभी तीर्थों में क्षमा सबसे श्रेष्ठ है, इसलिये सभी क्रियाओं में क्षमा धारण करना चाहिये । ज्ञान, योग, तप एवं यज्ञ-दानादि सत्क्रियाएँ क्रोधी व्यक्ति के लिये व्यर्थ हो जाती हैं, इसलिये क्रोध का परित्याग कर देना चाहिये । ‘सर्वेषामेव तीर्थानां क्षान्तिः परमपूजिता ।
तस्मात्पूर्वं प्रयत्नेन क्षान्तिः कार्या क्रियासु वै ॥
ज्ञानयोगतपो यस्य यज्ञदानानि सक्रिया ।
क्रोधनस्य वृथा यस्मात् तस्मात् क्रोध विवर्जयेत् ॥ (ब्राह्मपर्व १७१ । ४७-४८)

अप्रिय वाणी मर्म, अस्थि, प्राण तथा हृदय को जलानेवाली होती हैं, इसलिये अप्रिय वाणी का कभी प्रयोग नहीं करना चाहिये । क्षमा, दान, तेजस्विता, सत्य, शम, अहिंसा — ये सब भगवान् सूर्य की कृपा से ही प्राप्त होते हैं ।

सुमन्तु मुनि पुनः बोले — महाराज ! अब आप आदित्य-सम्मत सौर-धर्म पुनः सुनें । यह सौर-धर्म पापनाशक, भगवान सूर्य को प्रिय तथा परम पवित्र है । यदि मार्ग में कहीं रवि की पूजा-अर्चा होती देखे तो यह समझना चाहिये कि वहाँ भगवान् सूर्यदेव स्वयं प्रत्यक्ष उपस्थित हैं । भगवान् सूर्य का मन्दिर देखकर वहाँ भगवान् सूर्य को नमस्कार करके ही वहाँ से आगे जाना चाहिये । देव-पर्व, उत्सव, श्राद्ध तथा पुण्य दिनों में विधिपूर्वक भगवान सूर्य की पूजा करनी चाहिये । देवगण तथा पितृगण सूर्य का आश्रयण करके ही स्थित हैं । भगवान् सूर्य के प्रसन्न होनेपर निःसंदेह सभी प्रसन्न हो जाते हैं । सौर-धर्म के अनुष्ठान से ज्ञान प्राप्त होता है तथा उससे वैराग्य । ज्ञान और वैराग्य से सम्पन्न व्यक्ति की सूर्ययोग में प्रवृत्ति होती है । सूर्य के योग से वह सर्वज्ञ एवं परिपूर्ण हो जाता है तथा अपनी आत्मा में अवस्थित होकर सूर्य के समान स्वर्ग में आनन्द-लाभ करता है ।ब्रह्मचर्य, तप, मौन, क्षमा तथा अल्पाहार — ये तपस्वियों के पाँच विशिष्ट गुण हैं । भाग्य या अन्य विशिष्ट मार्ग से तथा न्यायपूर्वक प्राप्त धन गुणवान् व्यक्ति को देना ही दान है । हजारों सस्य-राशियों को उत्पन्न करनेवाली जल-युक्त उर्वरा भूमि का दान भूमिदान कहा जाता है । सभी दोषों से रहित, कुलीन, अलंकृता कन्या निर्धन विद्वान् द्विज को देना कन्यादान कहा जाता है । मध्यम या उत्तम नवीन वस्त्र का दान वस्त्रदान कहा जाता है । एक मास में दो सौ चालीस ग्रासों शुक्ल पक्ष में प्रतिदिन एक-एक ग्रास की वृद्धि तथा कृष्ण पक्ष में एक-एक ग्रास की न्यूनता के नियम का पालन करने से दो सौ चालीस ग्रास एक मास में होते हैं। का भक्षण करना चान्द्रायण-व्रत चान्द्रायण के मुख्य तीन भेद हैं — यव-मध्य, पिपीलिका-मध्य और शिशु-चान्द्रायण । यव-मध्य में शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ कर पूर्णिमा को पंद्रह ग्रास से लेकर क्रमशः घटाते हुए अमावास्या को समाप्त कर दिया जाता है । पिपीलिका में पूर्णिमा को प्रारम्भ कर कृष्ण पक्ष में क्रमशः एक-एक ग्रास घटाते हुए अमावास्या को उपवास कर फिर पूर्णिमा को पूरा किया जाता है और शिशु या सामान्य चान्द्रायण में प्रतिदिन आठ ग्रास लिया जाता है । इस प्रकार तीस दिनों में दो सौ चालीस ग्रास हो जाता है। कहलाता है । सभी शास्त्रों के ज्ञाता तथा तपस्यापरायण जितेन्द्रिय ऋषियों एवं देवों से सेवित जल-स्थान तीर्थ कहा जाता है । सूर्यसम्बन्धी स्थानों को पुण्य-क्षेत्र कहा जाता है । उन सूर्यसम्बन्धी क्षेत्रों में मरनेवाला व्यक्ति सूर्यसायुज्य को प्राप्त करता है । तीर्थों में दान-देने से, उद्यान लगाने एवं देवालय, धर्मशास्त्र आदि बनवाने से अक्षय फल प्राप्त होता है । क्षमा एवं निःस्पृहता, दया, सत्य, दान, शील, तप तथा अध्ययन — इन आठ अङ्गों से युक्त व्यक्ति श्रेष्ठ पात्र कहा जाता है । भगवान् सूर्य में भक्ति, क्षमा, सत्य, दसों इन्द्रियों का विनिग्रह तथा सभी के प्रति मैत्रीभाव रखना सौर-धर्म हैं ।

जो भक्तिपूर्वक भविष्यपुराण लिखवाता है, वह सौ कोटि युग वर्षों तक सूर्यलोक में प्रतिष्ठित होता है । जो सूर्यमन्दिर का निर्माण करवाता है, उसे उत्तम स्थान की प्राप्ति होती है ।
(अध्याय १७१-१७२)

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1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२

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70. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ११२

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भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६८
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भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६९ से १७०

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