भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७३ से १७४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १७३ से १७४
सौर-धर्म की महिमा का वर्णन, ब्रह्माकृत सूर्य-स्तुति

राजा शतानीक ने कहा — ब्राह्मणश्रेष्ठ ! आप सौरधर्म को पुनः विस्तार से वर्णन कीजिये ।

सुमन्तु मुनि बोले — महाबाहो ! तुम धन्य हो, इस लोक में सौर-धर्म का प्रेमी तुम्हारे समान अन्य कोई भी राजा नहीं हैं । इस सम्बन्ध में मैं आपको प्राचीन काल में गरुड़ एवं अरुण के बीच हुए संवाद को पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ । आप इसे ध्यानपूर्वक सुनें —om, ॐअरुण ने कहा — खगश्रेष्ठ ! यह सौर धर्म अज्ञानसागर में निमग्न समस्त प्राणियों का उद्धार करनेवाला है । पक्षिराज ! जो लोग भक्तिभाव से भगवान् सूर्य का स्मरण-कीर्तन और भजन करते हैं, वे परमपद को प्राप्त होते हैं । खगाधिप ! जिसने इस लोक में जन्म ग्रहणकर इन देवेश भगवान् भास्कर की उपासना नहीं की, वह संसार के क्लेशों में ही निमग्न रहता है । मनुष्य-जीवन परम दुर्लभ है, इसे प्राप्त कर जिसने भगवान् सूर्य का पूजन किया, उसीका जन्म लेना सफल है । जो श्रद्धा-भक्ति से भगवान सूर्य का स्मरण करता है, वह कभी किसी प्रकार के दुःख का भागी नहीं होता ।

जिन्हें महान् भोगों के सुख-प्राप्ति की कामना है तथा जो राज्यासन पाना चाहते हैं अथवा स्वर्गीय सौभाग्य-प्राप्ति के इच्छुक हैं एवं जिन्हें अतुल कान्ति, भोग, त्याग, यश, श्री, सौन्दर्य, जगत् की ख्याति, कीर्ति और धर्म आदि की अभिलाषा है, उन्हें सूर्य की भक्ति करनी चाहिये ।जो परम श्रद्धा-भाव से भगवान् सूर्य की आराधना करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है । विविध आकारवाली डाकिनियाँ, पिशाच और राक्षस अथवा कोई भी उसे कुछ भी पीड़ा नहीं दे सकते । इनके अतिरिक्त कोई भी जीव उसे नहीं सता सकते । सूर्य की उपासना करनेवाले मनुष्य के शत्रुगण नष्ट हो जाते हैं और उन्हें संग्राम में विजय प्राप्त होती है । वीर ! वह नीरोग होता है । आपत्तियाँ उसका स्पर्श तक नहीं कर पातीं । सूर्योपासक मनुष्य की धन, आयु, यश, विद्या और सभी प्रकार के कल्याण-मङ्गल की अभिवृद्धि होती रहती है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं ।

ब्रह्माजी ने भगवान् सूर्य की आराधना कर ब्राह्म-पद की प्राप्ति की थी । देवों के ईश भगवान् विष्णु ने विष्णत्व-पद को सूर्य के अर्चन से ही प्राप्त किया है । भगवान् शंकर भी भगवान् सूर्य की आराधना से ही जगन्नाथ कहे जाते हैं तथा उनके प्रसाद से ही उन्हें महादेवत्व-पद प्राप्त हुआ है एवं उनकी ही आराधना से एक सहस्र नेत्रों वाले इन्द्र ने भी इन्द्रत्वको प्राप्त किया है । मातृवर्ग, देवगण, गन्धर्व, पिशाच, उरग(साँप, विषधर), राक्षस और सभी सुरों के नायक भगवान् सूर्य की सदा पूजा किया करते हैं । यह समस्त जगत् भगवान् सूर्य में ही नित्य प्रतिष्ठित हैं । जो मनुष्य अन्धकारनाशक भगवान् सूर्य की पूजा नहीं करता, वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अधिकारी नहीं है । पक्षिश्रेष्ठ ! आपत्तिग्रस्त होनेपर भी भगवान् सूर्य की पूजा सदा करणीय है । जो मनुष्य भगवान् सूर्य की पूजा नहीं करता, उसका जीवन व्यर्थ है । प्रत्येक व्यक्ति को देवाधिदेव भगवान् सूर्य की पूजा-उपासना करके ही भोजन करना चाहिये । जो सूर्यभक्त हैं, वे समस्त द्वन्द्वों के सहन करनेवाले, वीर, नीति-विधि-युक्त-चित्त, परोपकार-परायण तथा गुरु की सेवामें अनुरक्त रहते हैं । वे अमानी, बुद्धिमान्, असक्त, अस्पर्धावाले, निःस्पृह, शान्त, स्वात्मानन्द, भद्र और नित्य स्वागतवादी होते हैं । सूर्यभक्त अल्पभाषी, शूर, शास्त्र-मर्मज्ञ, प्रसन्नमनस्क, शौचाचार-सम्पन्न और दाक्षिण्य-युक्त होते हैं ।सूर्य के भक्त दम्भ, मत्सरता, तृष्णा एवं लोभ से वर्जित हुआ करते हैं । वे शठ और कुत्सित नहीं होते । जिस प्रकार कमल का पत्र जल से निर्लिप्त रहता है, उसी प्रकार सूर्यभक्त मनुष्य विषयों में कभी लिप्त नहीं होते । जबतक इन्द्रियों की शक्ति क्षीण नहीं होती, तबतक भगवान् सूर्य की आराधना सम्पन्न कर लेनी चाहिये; क्योंकि मानव असमर्थ होनेपर इसे नहीं कर सकता और यह मानव-जीवन यों ही व्यर्थ चला जाता है । भगवान् सूर्य की पूजा के समान इस जगत् में अन्य कोई भी धर्म का कार्य नहीं है । अतः देवदेवेश भगवान् सूर्य का पूजन करे । जो मानव भक्तिपूर्वक शान्त, अज, प्रभु, देवदेवेश सूर्य की पूजा किया करते हैं, वे इस लोक में सुख प्राप्त करके परम पद को प्राप्त हो जाते हैं । सर्वप्रथम ब्रह्माजी ने अपने परम प्रहृष्ट (अत्यंत प्रसन्न, आह्लादित) अन्तरात्मा से भगवान् सूर्य की पूजा कर अञ्जलि बाँध कर जो स्तोत्र कहा था, उसका भाव इस प्रकार हैं —

“भगवन्तं भगकरं शान्तिचित्तमनुत्तमम् ।
देवमार्गप्रणतारं प्रणतोऽस्मि रविं सदा ॥
शाश्वतं शोभनं शुद्धं चित्रभानुं दिवस्पतिम् ।
देवदेवेशमीशेशं प्रणतोऽस्मि दिवाकरम् ॥
सर्वदुःखहरं देवं सर्वदुःखहरं रविम् ।
वराननं वराङ्गं च वरस्थानं वरप्रदम् ॥
वरेण्यं वरदं नित्यं प्रणतोऽस्मि विभावसुम् ।
अर्कमर्यमणं चेन्द्रं विष्णुमीशं दिवाकरम् ॥
देवेश्वरं देवरतं प्रणतोऽस्मि विभावसुम् ।
य इदं शृणुयान्नित्यं ब्रह्मणोक्तं स्तवं परम् ।
स हि कीर्तिं परां प्राप्य पुनः सूर्यपुरं व्रजेत् ॥
(ब्राह्मपर्व १७४ । ३६-४०)

‘षडैश्वर्य-सम्पन्न, शान्त-चित्त से युक्त, देवों के मार्ग-प्रणेता एवं सर्वश्रेष्ठ श्रीभगवान् सूर्य को मैं सदा प्रणाम करता हूँ । जो देवदेवेश शाश्वत, शोभन, शुद्ध, दिवस्पति, चित्रभानु, दिवाकर और ईशों के भी ईश हैं, उनको मैं प्रणाम करता हूँ । समस्त दुःखों के हर्ता, प्रसन्नवदन, उत्तमाङ्ग, वर के स्थान, वर-प्रदाता, वरद तथा वरेण्य भगवान् विभावसु को मैं प्रणाम करता हूँ । अर्क, अर्यमा, इन्द्र, विष्णु, ईश, दिवाकर, देवेश्वर, देवरत और विभावसु नामधारी भगवान सूर्य को मैं प्रणाम करता हूँ ।’

इस स्तुति का जो नित्य श्रवण करता है, वह परम कीर्ति को प्राप्तकर सूर्यलोक को प्राप्त करता है ।
(अध्याय १७३-१७४)

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