ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय १९
द्वितीया – कल्प मे महर्षि च्यवन की कथा एवं पुष्पद्वितीया – व्रत की महिमा

सुमन्तु मुनि बोले — द्वितीया तिथि को च्यवन ऋषि ने इन्द्र के सम्मुख यज्ञ में अश्विनी-कुमारों को सोमपान कराया था।
राजा ने पूछा – महाराज ! इन्द्र के सम्मुख किस विधि से अश्विनी-कुमारों को उन्होंने सोमरस पिलाया ? क्या च्यवन-ऋषि की तपस्या के प्रभाव की प्रबलता से इन्द्र कुछ भी करनेमें समर्थ नहीं हुए?om, ॐ
सुमन्तु मुनि ने कहा— सत्ययुगकी पूर्व-संध्या में गंगा के तट पर समाधिस्थ हो च्यवन-मुनि बहुत दिनों से तपस्या में रत थे। एक समय अपनी सेना और अन्तःपुर के परिजनों को साथ लेकर महाराज शर्याति गंगा-स्नान के लिये वहाँ आये। उन्होंने च्यवन-ऋषि के आश्रम के* समीप आकर गंगा स्नान सम्पन्न किया तथा देवताओं की आराधना की और पितरों का तर्पण किया। तदनन्तर जब वे अपने नगर की ओर जाने को उद्यत हुए तो उसी समय उनकी सभी सेनाएँ व्याकुल हो गयीं और मूत्र तथा विष्ठा उनके अचानक ही बंद हो गये ऑखों से कुछ भी नहीं दिखायी दिया। सेना की यह दशा देखकर राजा घबड़ा उठे। राजा शर्याति प्रत्येक व्यक्ति से पूछने लगे—यह तपस्वी च्यवन-मुनि का पवित्र आश्रम है, किसी ने कुछ अपराध तो नहीं किया? उनके इस प्रकार पूछने पर किसी ने कुछ भी नहीं कहा।
सुकन्या ने अपने पिता से कह— महाराज ! मैंने एक आश्चर्य देखा जिसका मैं वर्णन कर रही हूँ। अपनी सहेलियों के साथ मैं वन विहार कर रही थी कि एक ओरसे मुझे यह शब्द सुनायी पड़—’सुकन्ये ! तुम इधर आओ, तुम इधर आओ।’ यह सुनकर मैं अपनी सखियों के साथ उस शब्द की ओर गयी। वहाँ जाकर मैंने एक बहुत ऊँचा वल्मीक देखा। उसके अंदर के छिद्रों में दीपक के समान देदीप्यमान दो पदार्थ मुझे दिखलायी पड़े। उन्हें देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये पद्मरागमणि के समान क्या चमक रहे हैं। मैंने अपनी मूर्खता और चंचलता से कुशा के अग्रभाग से वल्मीक के प्रकाशयुक्त छिद्रों को बींध दिया। जिससे वह तेज शान्त हो गया। यह सुनकर राजा बहुत व्याकुल हो गये और अपनी कन्या सुकन्या को लेकर वहाँ गये जहाँ च्यवन-मुनि तपस्या में रत थे। च्यवन-ऋषि को वहाँ समाधिस्थ होकर बैठे हुए इतने दिन व्यतीत हो गये थे कि उनके ऊपर वल्मीक बन गया था। जिन तेजस्वी छिद्रों को सुकन्या ने कुश के अग्रभाग से बींध दिया था, वे उस महातपस्वी के प्रकाशमान नेत्र थे। राजा वहाँ पहुँचकर अतिशय दीनता के साथ विनती करने लगे।
राजा बोले— महाराज! मेरी कन्या से बहुत बड़ा अपराध हो गया है। कृपाकर क्षमा करें।
च्यवन-मुनि ने कहा— अपराध तो मैंने क्षमा किया, परंतु अपनी कन्या का मेरे साथ विवाह कर दो, इसी में तुम्हारा कल्याण है। मुनि का वचन सुनकर राजा ने शीघ्र ही सुकन्या का च्यवन ऋषि से विवाह कर दिया। सभी सेनाएँ सुखी हो गयीं और मुनि को प्रसन्नकर सुखपूर्वक राजा अपने नगर में आकर राज्य करने लगे। सुकन्या भी विवाह के बाद भक्तिपूर्वक मुनि की सेवा करने लगी। राजवस्त्र, आभूषण उसने उतार दिये और वृक्षकी छाल तथा मृगचर्म धारण कर लिया। इस प्रकार मुनि की सेवा करते हुए कुछ समय व्यतीत हो गया और वसन्त-ऋतु आयी। किसी दिन मुनि ने संतान प्राति के लिये अपनी पत्नी सुकन्याका आह्वान किया। इसपर सुकन्या ने अतिशय विनय भाव से विनती की।
सुकन्या बोली—  महाराज! आपकी आज्ञा मैं किसी प्रकार भी टाल नहीं सकती, किंतु इसके लिये आपको युवावस्था तथा सुन्दर वस्त्र-आभूषणों से अलंकृत कमनीय स्वरूप धारण करना चाहिये। च्यवनमुनि ने उदास होकर कहा— न मेरा उत्तम रूप है और न तुम्हारे पिता के समान मेरे पास धन है, जिससे सभी भोग-सामग्रियों को में एकत्र कर सकूँ।
सुकन्या बोली— महाराज! आप अपने तप के प्रभाव से सब कुछ करने में समर्थ हैं। आपके लिये यह कौन-सी बड़ी बात है ?
च्यवनमुनि ने कहा — राजपुत्रि !  इस कामके लिये मैं अपनी तपस्या व्यर्थ नहीं करुंगा। इतना कहकर वे पहले की तरह तपस्या करने लगे। सुकन्या उनकी सेवायें तत्पर हो गयी। इस प्रकार बहुत काल व्यतीत होने के बाद अश्विनीकुमार उसी मार्गसे चले जा रहे थे कि उनकी दृष्टि सुकन्यापर पड़ी।
अश्विनीकुमारों ने कहा भले ! तुम कौन हो ? और इस घोर वन में अकेली क्यों रहती हो ?
सुकन्याने कहा— मैं राजा शर्यातिकी सुकन्या नाम की पुत्री हूँ। मेरे पति च्यवनऋषि यहाँ तपस्या कर रहे हैं, उन्हींकी सेवाके लिये मैं यहाँ उनके समीप रहती हूँ। कहिये आप लोग कौन हैं?
अश्विनीकुमारों ने कहा— हम देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार हैं। इस वृद्ध पति से तुम्हें क्या सुख मिलेगा? हम दोनों में किसी एक का वरण कर लो।
सुकन्या ने कहा—देवताओ! आपका ऐसा कहना ठीक नहीं। मैं पतिव्रता हूँ और सब प्रकार से अनुरक्त होकर दिन-रात अपने पति की सेवा करती हूँ।
अश्विनीकुमारों ने कहा— यदि ऐसी बात है तो हम तुम्हारे पतिदेव को अपने उपचारके द्वारा अपने समान स्वस्थ एवं सुन्दर बना देंगे और जब हम तीनों गंगा में स्नानकर बाहर निकलें फिर जिसे तुम पतिरूपमें वरण करना चाहो कर लेना।
सुकन्या ने कह— मैं बिना पतिकी आज्ञा के कुछ नहीं कह सकती।
अश्विनीकुमारों ने कहा— तुम अपने पति से पूछ आओ, तब तक हम यहीं प्रतीक्षा में रहेंगे। सुकन्या ने च्यवनमुनि के पास जाकर उन्हें सम्पूर्ण वृत्तान्त बतलाया। अश्विनीकुमारों की बात स्वीकार कर च्यवनमुनि सुकन्या को लेकर उनके पास आये।
च्यवनमुनि ने कहा— अश्विनीकुमारो ! आपकी शर्त हमें स्वीकार है। आप हमें उत्तम रूपवान् बना दें, फिर सुकन्या चाहे जिसे वरण करे। च्यवनमुनिके इतना कहनेपर अश्विनीकुमार च्यवनमुनिको लेकर गंगाजी के जल में प्रविष्ट हो गये और कुछ देर बाद तीनों ही बाहर निकले
सुकन्या ने देखा कि ये तीनों तो समान रूप समान अवस्था तथा समान वस्त्राभूषणों से अलंकृत हैं, फिर इनमें मेरे पति च्यवनमुनि कौन हैं? वह कुछ निश्चित न कर सकी और व्याकुल हो अश्विनीकुमारों की प्रार्थना करने लगी।
सुकन्या बोली— देव ! अत्यन्त कुरूप पतिदेव का भी मैंने परित्याग नहीं किया था। अब तो आपकी कृपासे उनका रूप आपके समान सुन्दर हो गया है, फिर मैं कैसे उनका परित्याग कर सकती हूँ। मैं आपकी शरण , मुझपर कृपा कीजिये।
सुकन्याकी इस प्रार्थनासे अश्विनीकुमार प्रसन्न हो गये और उन्होंने देवताओंके चिह्नों को धारण कर लिया। सुकन्याने देखा कि तीन पुरुषों में से दो की पलकें गिर नहीं रही हैं और उनके चरण भूमिको स्पर्श नहीं कर रहे हैं, किंतु जो तीसरा पुरुष है, वह भूमि पर खड़ा है और उसकी पलकें भी गिर रही हैं। इन चिह्नोंको देखकर सुकन्याने निश्चित कर लिया कि ये तीसरे पुरुष ही मेरे स्वामी च्यवनमुनि हैं । तब उसने उनका वरण कर लिया। उसी समय आकाशसे उसपर पुष्प वृष्टि होने लगी और देवगण दुन्दुभि बजाने लगे।
च्यवनमुनि ने अश्विनीकुमारों से कहा— देवो ! आप लोगोंने मुझपर बहुत उपकार किया है, जिसके फलस्वरूप मुझे उत्तम रूप और उत्तम पत्नी प्राप्त हुई। अब मैं आप लोगों का क्या प्रत्युपकार करूँ, क्योंकि जो उपकार करनेवालेका प्रत्युपकार नहीं करता, वह क्रमसे इक्कीस नरकोंमें जाता है –
“उपकार वरिष्ठं या न करोत्युपकारिणः ॥ एकत्रिशत् स गच्छेच्च नरकाणि क्रमण वै।” (भविष्य पुराण, ब्राह्म पर्व १९ | ५०-५१)
इसलिये आपका मैं क्या प्रिय करुँ, आप लोग कहें।
अश्विनीकुमारों ने उनसे कहा -— महात्मन् ! यदि आप हमारा प्रिय करना ही चाहते हैं तो अन्य देवताओं की तरह हमें भी यज्ञभाग दिलवाइये। च्यवनमुनि ने यह बात स्वीकार कर ली, फिर वे उन्हें विदाकर अपनी भार्या सुकन्या के साथ अपने आश्रममें आ गये।
राजा शर्यातिको जब यह सारा वृत्तान्त ज्ञात हुआ तो वे भी रानी को साथ लेकर सुन्दर रूप प्राप्त महा-तेजस्वी च्यवन-ऋषिको देखने आश्रम में आये। राजा ने च्यवनमुनि को प्रणाम किया और उन्होंने भी राजा का स्वागत किया। सुकन्या ने अपनी माता का आलिंगन किया। राजा शर्याति अपने जामाता महामुनि च्यवन का उत्तम रूप देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए।
च्यवनमुनि ने राजासे कहा— राजन् ! एक महायज्ञ की सामग्री एकत्र कीजिये हम आपसे यज्ञ करायेंगे। च्यवनमुनि की आज्ञा प्राप्त कर राजा शर्याति अपनी राजधानी लौट आये और यज्ञ सामग्री एकत्र कर यज्ञ की तैयारी करने लगे । मन्त्री, पुरोहित और आचार्य को बुलाकर यज्ञकार्य के लिये उन्हें नियुक्त किया। च्यवनमुनि भी अपनी पत्नी सुकन्या को लेकर यज्ञ-स्थल में पधारे। सभी ऋषिगणों को आमन्त्रण देकर यज्ञ में बुलाया गया। विधिपूर्वक यज्ञ प्रारम्भ हुआ। ऋत्विक् अग्निकुण्ड में स्वाहाकार के साथ देवताओं को आहुति देने लगे। सभी देवता अपना-अपना यज्ञ-भाग लेने वहाँ आ पहुँचे। च्यवनमुनि के कहने से अश्विनीकुमार भी वहाँ आये। देवराज इन्द्र उनके आनेका प्रयोजन समझ गये।
इन्द्र बोले —  मुने ! ये दोनों अश्विनीकुमार देवताओं के वैद्य हैं, इसलिये ये यज्ञ-भाग के अधिकारी नहीं हैं, आप इन्हें आहुतियाँ प्रदान न करवायें।
च्यवनमुनि ने इन्द्र से कहा— ये देवता हैं और इनका मेरे ऊपर बड़ा उपकार है, ये मेरे ही आमन्त्रण पर यहाँ पधारे हैं, इसलिये मैं इन्हें अवश्य यज्ञ-भाग दूंगा । यह सुनकर इन्द्र क्रुद्ध हो उठे और कठोर स्वर में कहने लगे।
इन्द्र बोले— यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगे तो मैं वज्र से तुम पर प्रहार करुँगा। इन्द्र की ऐसी वाणी सुनकर च्यवनमुनि किंचित् भी भयभीत नहीं हुए और उन्होंने अश्विनीकुमारोंको यज्ञ-भाग दे ही दिया। तब तो इन्द्र अत्यन्त क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने ज्यों ही च्यवनमुनि पर प्रहार करने के लिये अपना वज्र उठाया त्यों ही च्यवनमुनि ने अपने तप के प्रभाव से इन्द्र का स्तम्भन कर दिया। इन्द्र हाथ में वज्र लिये खड़े ही रह गये। च्यवनमुनि ने अश्विनीकुमारों को यज्ञ-भाग देकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर ली और यज्ञ को पूर्ण किया। उसी समय वहाँ ब्रह्माजी उपस्थित हुए। ब्रह्माजी ने च्यवनमुनि से कहा —  महामुने ! आप इन्द्र को स्तम्भन-मुक्त कर दें। अश्विनीकुमारों को यज्ञ-भाग दे दें। इन्द्र ने भी स्तम्भन से मुक्त करने के लिये प्रार्थना की।
इन्द्र ने कहा —  मुने ! आपके तप की प्रसिद्धि के लिये ही मैंने इन अश्विनीकुमारोंको यज्ञमें भाग लेने से रोका था, अब आज से सब यज्ञों में अन्य देवताओंके साथ अश्विनीकुमारों को भी यज्ञ-भाग मिला करेगा और इनको देवत्व भी प्राप्त होगा। आपके इस तपके प्रभाव को जो सुनेगा अथवा पढेगा वह भी उत्तम रूप एवं यौवन को प्राप्त करेगा। इतना कहकर देवराज इन्द्र देवलोक को चले गये और च्यवनमुनि सुकन्या तथा राजा शर्यातिके साथ आश्रमपर लौट आये।
वहाँ उन्होंने देखा कि बहुत उत्तम-उत्तम महल बन गये हैं, जिनमें सुन्दर उपवन और वापी आदि विहारके लिये बने हुए हैं। भाँति-भाँति की शय्याएँ बिछी हुई हैं, विविध रत्नों से जटित आभूषणों तथा उत्तम-उत्तम वस्त्रों के ढेर लगे हैं। यह देखकर सुकन्या सहित च्यवनमुनि अत्यन्त प्रसन्न हो गये और उन्होंने यह सब देवराज इन्द्र द्वारा प्रदत्त समझकर उनकी प्रशंसा की।
महामुनि सुमन्तु राजा शतानीक से बोले— राजन् ! इस प्रकार द्वितीया तिथि के दिन अश्विनीकुमारों को देवत्व तथा यज्ञ-भाग प्राप्त हुआ था। अब आप इस द्वितीया तिथि के व्रत का विधान सुनें
शतानीक बोले — जो पुरुष उत्तम रूप की इच्छा करे वह कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया से व्रत को आरम्भ करे और वर्ष-पर्यन्त संयमित होकर पुष्प-भोजन करे। जो उत्तम हविष्य-पुष्प उस ऋतु में हों उनका आहार करे। इस प्रकार एक वर्ष सोने-चाँदी के पुष्प बनाकर अथवा व्रत कर कमलपुष्पों को ब्राह्मणों को देकर व्रत सम्पन्न करे। इससे अश्विनीकुमार संतुष्ट होकर उत्तम रूप प्रदान करते हैं। व्रती उत्तम विमानों में बैठकर स्वर्ग में जाकर कल्पपर्यन्त विविध सुखोंका उपभोग करता है। फिर मर्त्यलोक में जन्म लेकर वेदवेदांगों का ज्ञाता, महादानी, आधि-व्याधियों से रहित, पुत्र-पौत्रों से युक्त, उत्तम पत्नी वाला ब्राह्मण होता है अथवा मध्यदेशके उत्तम नगरमें राजा होता है। राजन्! इस पुष्पद्वितीया व्रतका विधान मैंने आपको बतलाया। ऐसी ही फल-द्वितीया भी होती है, जिसे अशून्यशयना-द्वितीया भी कहते हैं। फलद्वितीया को जो श्रद्धापूर्वक व्रत करता है,वह ऋद्धि-सिद्धिको प्राप्तकर अपनी भार्यासहित आनन्द प्राप्त करता है। (भविष्य पुराण, ब्राह्म पर्व, अध्याय 19)

* अन्य पुराणों में तथा महाभारतके अनुसार यह आश्रम सोनभद्र और वधूसरा नदीके संगमपर था, जो आज देवकुण्डके नामसे प्रसिद्ध है। प्राय: पुराणों में यह श्लोक भी प्राप्त होता है-
मगधे तु गया पुण्या नदी पुण्या पुनपुना। व्यवनस्य आश्रम पुण्य पुण्यं राजगृहं वनम् ॥
तथा – वधूसरेति सरिता च्यवनस्याश्रमं प्रति।
See Also :-

1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२

2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3

3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४

4. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५

5. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६

6. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७

7. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८-९

8. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०-१५

9. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६

10. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७

11. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८

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