भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७५ से १८०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १७५ से १८०
सौर-धर्म में शान्तिक कर्म एवं अभिषेक-विधि

गरुड़जी ने पूछा— अरुण ! जो आधि-व्याधि से पीड़ित एवं रोगी, दुष्ट ग्रह तथा शत्रु आदि से उत्पीडित और विनायक से गृहीत है, उन्हें अपने कल्याण के लिये क्या करना चाहिये ? आप इसे बतलाने की कृपा करें ।

अरुणजी बोले — विविध रोगों से पीड़ित, शत्रुओं से संतप्त व्यक्तियों के लिये भगवान् सूर्य की आराधना के अतिरिक्त अन्य कोई भी कल्याणकारी उपाय नहीं है, अतः ग्रहों के घात और उपघात के नाशक, सभी रोगों एवं राज-उपद्रवों को शमन करनेवाले भगवान् सूर्य की आराधना करनी चाहिये ।om, ॐगरुडजी ने पूछा — द्विजश्रेष्ठ ! ब्रह्मवादिनी के शाप से मैं पंख-विहीन हो गया हूँ, आप मेरे इन अङ्गों को देखें । मेरे लिये अब कौन-सा कार्य उपयुक्त हैं ? जिससे मैं पुनः पंख-युक्त हो जाऊँ ।

अरुणजी बोले — गरुड़ ! तुम शुद्ध-चित्त से अन्धकार को दूर करनेवाले जगन्नाथ भगवान् भास्कर की पूजा एवं हवन करो ।

गरुङजी ने कहा — मैं विकलाङ्ग होने से भगवान् सूर्य की पूजा एवं अग्निकार्य करने में असमर्थ हूँ । इसलिये मेरी शान्ति के लिये अग्नि का कार्य आप सम्पादित करें ।
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अरुणजी बोले — विनतानन्दन ! महाव्याधि से पीड़ित होने के कारण तुम इसके सम्पादन में समर्थ नहीं हो, अतः मैं तुम्हारे रोग की शान्ति के लिये पावकार्चन (अग्निहोम) करूँगा । यह लक्ष-होम सभी पापों, विघ्नों तथा व्याधियों का नाशक, महापुण्यजनक, शान्ति प्रदान करनेवाला, अपमृत्यु-निवारक, महान् शुभकारी तथा विजय प्रदान करनेवाला है । यह सभी देवों को तृप्ति प्रदान करनेवाला तथा भगवान् सूर्य को अत्यन्त प्रिय है । इस पावकार्चन में सूर्य-मन्दिर के अग्निकोण में गोमय से भूमि को लीपकर अग्नि की स्थापना करे और सर्वप्रथम दिक्पालको आहुति प्रदान करे ।

आरक्तदेहरूपाय रक्ताक्षाय महात्मने । धराधराय शान्ताय सहस्राक्षशिराय च ॥
‘अधोमुखाय श्वेताय स्वाहा’ –
इससे प्रथम आहुति दे ।
चतुर्मुखाय शान्ताय पद्मासनगताय च ॥ पद्मवर्णाय वेधाय कमण्डलुधराय च ।
‘ऊर्ध्वमुखाय स्वाहा’ –
इससे द्वितीय आहुति दे ।
हेमवर्णाय देहाय ऐरावतगजाय च । सहस्राक्षशरीराय पूर्वदिश्युन्मुखाय च ॥
देवाधिपाय चेन्द्राय विहस्ताय शुभाय च ।
‘पूर्ववदनाय स्वाहा’
– इससे तृतीय आहुति दे।
दीप्ताय व्यक्तदेहाय ज्वालामालाकुलाय च । इन्द्रनीलाभदेहाय सर्वारोग्यकराय च ॥
यमाय धर्मराजाय दक्षिणाशामुखाय च ।
‘कृष्णाम्बरधराय स्वाहा’ –
इससे चौथी आहुति दे ।
नीलजीमूतवर्णाय रक्ताम्बरधराय च । मुक्ताफलशरीराय पिङ्गाक्षाय महात्मने ॥
शुक्लवस्त्राय पीताय दिव्यपाशधराय च ।
‘पश्चिमाभिमुखाय स्वाहा’ –
इससे पाँचवीं आहुति दे ।
कृष्णपिङ्गलनेत्राय वायव्याभिमुखाय च । नीलध्वजाय वीराय तथा चेन्द्राय वेधसे ॥
‘पवनाय स्वाहा’
– इस मन्त्र से छठी आहुति दे ।
गदाहस्ताय सूर्याय चित्रस्ररभूषणायच ॥ महोदराय शान्ताय स्वाहाधिपतये तथा ।
‘उत्तराभिमुखाय महादेवप्रियाय स्वाहा’
– इससे सातवीं आहुति दे ।
श्वेताय श्वेतवर्णाय चित्राक्षायमहात्मने । शान्ताय शान्तरूपाय पिनाकवरधारिणे ॥
‘ईशानाभिमुखायेशाय स्वाहा’
– इससे आठवीं आहुति दे । (ब्राह्मपर्व १७५ । १८-३२)
[ यह दश दिक्पालहोम प्रतीत होता है, किंतु पाठकी गड़बड़ी से आग्नेय तथा नैर्ऋत्यकोण की आहुतियों का स्वरूप अस्पष्ट है] खगश्रेष्ठ ! इस प्रकार विधिपूर्वक आहुतियाँ प्रदान करने के अनन्तर ‘ॐ भूर्भुवः स्वाहा’ इसके द्वारा लक्ष हवन का सम्पादन करे । सौर-महाहोम में यही विधि कही गयी है । भगवान् भास्कर के उद्देश्य से इस अग्निकार्य को करे । यह सभी प्रकार की शान्ति के लिये उपयोगी है ।

हवन के अनन्त्तर शान्ति के लिये निर्दिष्ट मन्त्रों का पाठ करते हुए अभिषेक करना चाहिये । सर्वप्रथम ग्रहों के अधिपति भगवान् सूर्य तथा सोमादि ग्रहों से शान्त्ति की प्रार्थना करे ।

“शान्त्यर्थं सर्वलोकानां ततः शान्तिकमाचरेत् ।
सिन्दूरासनरक्ताभो रक्तपद्माभलोचनः ॥
सहस्रकिरणो देवः सप्ताश्वरथवाहनः ।
गभस्तिमाली भगवान् सर्वदेवनमस्कृतः ॥
करोतु ते महाशान्तिग्रहपीडानिवारिणीम् ।
त्रिचक्ररथमारूढ अपां सारमयं तु यः ॥
दशाश्ववाहनो देव आत्रेयश्चामृतस्रवः ।
शीतांशुरमृतात्मा च क्षयवृद्धिसमन्वितः ।
सोमः सौम्येन भावेन ग्रहपीडां व्यपोहतु ॥
पद्मरागनिभो भौमो मधुपिङ्गललोचनः ।
अङ्गारकोऽग्निसढशो ग्रहपीडां व्यपोहतु ॥
पुष्परागनिभेनेह देहेन परिपिङ्गलः ।
पीतमाल्याम्बरधरो बुधः पीड़ां व्यपोहतु ॥
तप्तगैरिकसंकाशः सर्वशास्त्रविशारदः ।
सर्वदेवगुरुर्विप्रो ह्यथर्वणवरो मुनिः ॥
बृहस्पतिरिति ख्यात अर्थशास्त्रपरश्चयः ।
शान्तेन चेतसा सोऽपि परेण सुसमाहितः ॥
ग्रहपीडां विनिर्जित्य करोतु तवशान्तिकम् ।
सूर्यार्चनपरो नित्यं प्रसादाद्भास्करस्य तु ।
हिमकुन्देन्दुवर्णाभो दैत्यदानवपूजितः ।
महेश्वरस्ततो धीमान् महासौरो महामतिः ॥
सूर्यार्चनपरो नित्यं शुक्रः शुक्लनिभस्तदा ।
नीतिशास्त्रपरो नित्यं ग्रहपीडां व्यपोहतु ॥
नानारूपधरोऽव्यक्त अविज्ञातगतिश्चियः ।
नोत्पत्तिर्जायते यस्य नोदयपीडितैरपि ॥
एकचूलो द्विचूलश्च त्रिशिखःपञ्चचूलकः ।
सहस्रशिररूपस्तु चन्द्रकेतुरिव स्थितः ॥
सूर्यपुत्रोऽग्निपुत्रस्तु ब्रह्मविष्णुशिवात्मकः ।
अनेकशिखरः केतुः स ते पीडां व्यपोहतु ॥
एते ग्रहा महात्मानः सूर्यार्चनपराः सदा ।
शान्तिं कुर्वन्तु ते हृष्टाः सदाकालं हितेक्षणाः ॥”
(ब्राह्मपर्व १७५ । ३६-५०)

‘रक्त कमल के समान नेत्रोंवाले, सहस्रकिरणोंवाले, सात अश्वों से युक्त रथ पर आरूढ़, सिन्दूर के समान रक्त आभावाले, सभी देवताओं द्वारा नमस्कृत भगवान् सूर्य ग्रहपीडा निवारण करनेवाली महाशान्ति आपको प्रदान करें । शीतल किरणों से युक्त, अमृतात्मा, अत्रि के पुत्र चन्द्रदेव सौम्यभाव से आपकी ग्रहपीड़ा दूर करें । पद्मराग के समान वर्णवाले, मधु के समान पिङ्गल नेत्रवाले, अग्नि-सदृश अङ्गारक, भूमिपुत्र भौम आपकी ग्रहपीड़ा दूर करें । पुष्पराग के समान आभायुक्त, पिङ्गल वर्णवाले, पीत माल्य तथा वस्त्र धारण करनेवाले बुध आपकी पीड़ा दूर करें । तप्त स्वर्ण के समान आभायुक्त, सर्व-शास्त्र-विशारद, देवताओं के गुरु बृहस्पति आपकी ग्रहपीडा दूर कर आपको शान्ति प्रदान करें । हिम, कुन्दपुष्प तथा चन्द्रमा के समान स्वच्छ वर्णवाले दैत्य तथा दानवों से पूजित, सूर्यार्चन में तत्पर रहनेवाले, महामति, नीतिशास्त्र में पारङ्गत शुक्राचार्य आपकी प्रहपीडा दूर करें । विविध रूपों को धारण करनेवाले, अविज्ञात-गति-युक्त, सूर्यपुत्र शनैश्चर, अनेक शिखरोंवाले केतु एवं राहु आपकी पीड़ा दूर करें । सर्वदा कल्याण की दृष्टि से देखनेवाले तथा भगवान् सूर्य को नित्य अर्चना करने में तत्पर ये सभी ग्रह प्रसन्न होकर आपको शान्ति प्रदान करे ।’तदनन्तर ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश — इन त्रिदेवों से इस प्रकार शान्त्ति की प्रार्थना करे —

“पद्मासनः पद्मवर्णः पद्मपत्रनिभेक्षणः ।
कमण्डलुधरः श्रीमान् देवगन्धर्वपूजितः ॥
चतुर्मुखो देवपतिः सूर्यार्चनपरः सदा ।
सुरज्येष्ठो महातेजाः सर्वलोकप्रजापतिः ।
ब्रह्मशब्देन दिव्येन ब्रह्मा शान्तिं करोतु ते ॥
पीताम्बरधरो देव आत्रेयोदयितः सदा ।
शङ्खचक्रगदपाणिः श्यामवर्णश्चतुर्भुजः ॥
यज्ञदेहः क्रमो देव आत्रेयोदयितः सदा ।
शङ्खचक्रगदापाणिर्माधवो मधुसूदनः ॥
सूर्यभक्तान्वितो नित्यं विगतिर्विगत्रयः ।
सूर्यध्यानपरो नित्यं विष्णुः शान्तिं करोतु ते ॥
शशिकुन्देन्दुसंकाशी विश्रुताभरणैरिह ।
चतुर्भुजो महातेजाः पुष्पार्धकृतशेखरः ॥
चतुर्मुखो भस्मधरः श्मशाननिलयः सदा ।
गोत्रारिर्विश्वनिलयस्तथा च क्रतुदूषणः ॥
वरो वरेण्यो वरदो देवदेवो महेश्वरः ।
आदित्यदेहसम्भूतः स ते शान्तिं करोतु वै ॥”
(ब्राह्मपर्व १७६ । १-८)

‘पद्मासन पर आसीन, पद्मवर्ण, पद्मपत्र के समान नेत्रवाले, कमण्डलुधारी, देव-गन्धर्वों से पूजित, देवशिरोमणि, महातेजस्वी, सभी लोकों के स्वामी, सूर्यार्चन में तत्पर चतुर्मुख, दिव्य ब्रह्म शब्द से सुशोभित ब्रह्माजी आपको शान्ति प्रदान करें । पीताम्बर धारण करनेवाले, शङ्ख, चक्र, गदा तथा पद्म धारण करनेवाले चतुर्भुज, श्यामवर्णवाले, यज्ञस्वरूप, आत्रेयी के पति तथा सूर्य के ध्यान में तल्लीन माधव मधुसूदन विष्णु आपको नित्य शान्ति प्रदान करें । चन्द्रमा एवं कुन्दपुष्प के समान उज्ज्वल वर्णवाले, सर्पादि विशिष्ट आभरणों से अलंकृत, महातेजस्वी, मस्तक पर अर्धचन्द्र धारण करनेवाले, समस्त विश्व में व्याप्त, श्मशान में रहनेवाले, दक्ष-यज्ञ विध्वंस करनेवाले, वरणीय, आदित्य के देह से सम्भूत, वरदानी, देवाधिदेव तथा भस्म धारण करनेवाले महेश्वर आपको शान्ति प्रदान करें ।’

तदनन्तर सभी मातृकाओं से शान्ति के लिये प्रार्थना करे —

“पद्मरागप्रभा देवी चतुर्वदनपङ्कजा ।
अक्षमालार्पितकरा कमण्डलुधरा शुभा ॥
ब्राह्मणी सौम्यवदना आदित्याराधने रता ।
शान्तिं करोतु सुप्रीता आशीर्वादपरा खग ॥
महाश्वेतेति विख्याता आदित्यदयिता सदा ।
हिमकुन्देन्दुसदृशा महावृषभवाहिनी ॥
त्रिशूलहस्ताभरणा विश्रुताभरणा सती ।
चतुर्भुजा चतुर्वक्त्रा त्रिनेत्रा पापनाशिनी ।
वृषध्वजार्चनरता रुद्राणी शन्तिदा भवेत् ॥
मयूरवाहना देवी सिन्दूरारुणविग्रहा ।
शक्तिहरूता महाकाया सर्वालंकारभूषिता ॥
सूर्यभक्ता महावीर्या सूर्यार्चनरता सदा ।
कौमारी वरदा देवी शान्तिमाशु करोतु ते ॥
गदाचक्रधरा श्यामा पीताम्बरधरा खग ।
चतुर्भुजा हि सा देवी वैष्णवी सुरपूजिता ॥
सूर्यार्चनपरा नित्यं सूर्यैकगतमानसा ।
शान्तिं करोतु ते नित्यं सर्वासुरविमर्दिनी ॥
ऐरावतगजारुढ़ा वज्रहस्ता महाबला ।
सर्वत्रलोचना देवी वर्णतः कर्बुरारुणा ॥
सिद्धगन्धर्वनमिता सर्वालंकारभूषिता ।
इन्द्राणी ते सदा देवी शान्तिमाशु करोतु वै ॥
वराहघोणा विकटा वराहवरवाहिनी ।
श्यामावदाता या देवी शङ्खक्रगदाधरा ॥
तेजयन्तीति निमिषान् पूजयन्ती सदा रविम् ।
वाराही वरदा देवी तव शान्तिं करोतु वै ॥
अर्धकोश कटीक्षामा निर्मांसा स्नायुबन्धना ।
करालवदना घोरा खड्गघण्टोद्गता सती ॥
कपालमालिनी क्रूरा खट्वाङ्गवरधारिणी ।
आरक्ता पिङ्गनयना गजचर्मावगुण्ठिता ॥
गोश्रुताभरणा देवी प्रेतस्थाननिवासिनी ।
शिवारूपेण घोरेण शिवरूपभयंकरी ॥
चामुण्डा चण्डरुपेण सदा शान्तिं करोतु ते ॥
चण्डमुण्डकरा देवी मुण्डदेहगता सती ।
कपालमालिनी क्रूरा खट्वाङ्गवरधारिणी ॥
आकाशमातरो देव्यस्तमान्या लोकमातरः ।
भूतानां मातरः सर्वास्तथान्याः पितृमातरः ॥
वृद्धिश्राद्धेषु पूज्यन्ते वास्तु देव्यो मनीषिभिः ।
मात्रे प्रमात्रे तन्मात्रे इति मातृमुखास्तथा ॥
पितामही तु तन्माता वृद्धा या च पितामही ।
इत्येतास्तु पितामह्य शान्तिं ते पितृमातरः ॥
सर्वा मातृमहादेव्यः सायुधा व्यप्रपाणयः ।
जगद्व्याप्य प्रतिष्ठन्त्यो बलिकामा महोदयाः ॥
शान्तिं कुर्वन्तु ता नित्यमादित्याराधने रताः ।
शान्ते चेतसा शान्त्यः शान्तये तव शान्तिदा ॥
सर्वावमवमुख्येन गात्रेण च सुमध्यमा ।
पीतश्यामातिसौम्येन स्निग्धवर्णेन शोभना ॥
ललाटतिकोपेता चन्द्ररेखार्धधारिणी ।
चित्राम्बरधरा देवी सर्वाभरणभूषिता ॥
वरा स्त्रीमयरूपाणां शोभा गुणसुसम्पदाम् ।
भावनामात्रसंतुष्टा उमा देवी वरप्रदा ॥
साक्षादागत्य रुपेण शान्तेनामिततेजसा ।
शान्तिं करोतु ते प्रीता आदित्याराधने रता ॥
(बाह्यपर्व १७७ । १-२५)

‘पद्मरागके समान आभावाली, अक्षमाला एवं कमण्डलु धारण करनेवाली, आदित्य की आराधना में तथा आशीर्वाद देने में तत्पर, सौम्य-वदन-वाली ब्रह्माणी प्रसन्न होकर तुम्हें शान्ति प्रदान करें । हिम, कुन्द-पुष्प तथा चन्द्रमा के समान वर्णवाली, महावृषभ पर आरूढ़, हाथ में त्रिशूल धारण करनेवाली, आश्चर्यजनक आभरणों से विश्रुत, चतुर्भुजा, चतुर्वक्त्रा तथा त्रिनेत्र-धारिणी पापों का नाश करनेवाली, वृषभध्वज शंकर की अर्चना में तत्पर, महाश्वेता नाम से विख्यात आदित्यदयिता रुद्राणी आपको शान्ति प्रदान करें । सिन्दूर के समान अरुण विग्रहवाली, सभी अलंकारों से विभूषित, हाथ में शक्ति धारण करनेवाली, सूर्य की अर्चना में तत्पर, महान् पराक्रम-शालिनी, वरदायिनी, मयूरवाहिनी देवी कौमारी आपको शान्ति प्रदान करें । गदा एवं चक्र को धारण करनेवाली, पीताम्बर-धारिणी, सूर्यार्चन में नित्य तत्पर रहनेवाली, असुर-मर्दिनी, देवताओं के द्वारा पूजित चतुर्भुजा देवी वैष्णवी आपको नित्य शान्ति प्रदान करें । ऐरावत पर आरूढ़, हाथ में वज्र धारण करनेवाली, महाबलशालिनी, सिद्ध-गन्धर्वों से सेवित, सभी अलंकारों से विभूषित, चित्र-विचित्र अरुणवर्णवाली, सर्वत्र-लोचना देवी इन्द्राणी आपको शान्ति प्रदान करें । वराह के समान नासिकावाली, श्रेष्ठ वराह पर आरूढ, विकटा, शंख, चक्र तथा गदा धारण करनेवाली, श्यामावदाता, तेजस्विनी, प्रतिक्षण भगवान् सूर्य की आराधना करनेवाली, वरदायिनी देवी वाराही आपको शान्ति प्रदान करें ।

क्षाम-कटि-प्रदेशवाली, मांसरहित कंकाल-स्वरूपिणी, कराल-वदना, भयंकर तलवार, घंटा, खट्वाङ्ग और वरमुद्रा धारण करनेवाली, क्रूर, लाल-पीले नेत्रोंवाली, गजचर्मधारिणी, गोश्रुताभरणा, प्रेतस्थान में निवास करनेवाली, देखने में भयंकर परंतु शिवस्वरूपा, हाथ में चण्ड-मुण्ड के कपाल धारण किये हुए तथा कपाल की माला पहने चन्द्ररूपिणी देवी चामुण्डा तुम्हें शान्त्ति प्रदान करें —
(ये सात विश्वमाताएँ कही गयी हैं । शारदातिलक के षष्ठ पटल में इन सातों के साथ ही भगवती महालक्ष्मी को भी विश्वमाता कहा गया है ।)
आकाशमातृकाएँ, लोकमातृकाएँ तथा अन्य लोकमातृकाएँ, भूतमातृकाएँ, अन्य पितृ-मातृकाएँ, वृद्धि-श्राद्धों में जिनकी पूजा होती है वे पितृमातृकाएँ, माता, प्रमाता, वृद्धप्रमाता— ये मातृ-मातृकाएँ, शान्त चित से आपको शान्ति प्रदान करें । ये सभी मातृकाएँ अपने हाथों में आयुध धारण करती हैं और संसार को व्याप्त करके प्रतिष्ठित रहती है तथा भगवान् सूर्य की आराधना में तत्पर रहती हैं । सुन्दर अङ्ग-प्रत्यङ्गवाली तथा सुन्दर कटि-प्रदेशवाली, पीत एवं श्याम वर्णवाली, स्निग्ध आभावाली, तिलक से सुशोभित ललाटवाली, अर्ध-चन्द्र-रेखा धारण करनेवाली, सभी आभरणों से विभूषित, चित्र-विचित्र वस्त्र धारण करनेवाली , सभी स्त्री-स्वरूपों में गुण और सम्पत्तियों के कारण सर्वश्रेष्ठ शोभावाली, आदित्य की आराधना में तत्पर, केवल भावना-मात्र से संतुष्ट होनेवाली वरदायिनी भगवती उमादेवी अपने अमित तेजस्वी एवं शान्त-रूप से प्रत्यक्ष प्रकट होकर प्रसन्न हो आपको शान्ति प्रदान करें ।’

अनन्तर कार्तिकेय, नन्दीश्वर, विनायक, भगवान् शंकर, जगन्माता, पार्वती, चण्डेश्वर, ऐन्द्री आदि दिशाएँ, दिशाओं के अधिपति, लोकपाल की नगरियाँ, सभी देवता, देवी सरस्वती तथा भगवती अपराजिता से इस प्रकार शान्ति की प्रार्थना करे —

“अबलो बालरूपेण खट्वाङ्गशिखिवाहनः ।
पूर्वेण वदनः श्रीमांस्त्रिशिखः शक्तिसंयुतः ॥
कृत्तिकायाश्च रुद्रस्य चाङ्गोद्भुतः सुरार्चितः ।
कार्तिकेयो महातेजा आदित्यवरदर्पितः ॥
शान्तिं करोतु ते नित्यं बलं सौख्यं च तेजसा ॥
आत्रेयो बलवान् देव आरोग्यं च खगाधिप ।
श्वेतवस्त्रपरीधानस्त्र्यक्षः कनकसुप्रभः ॥
शुलहस्तो महाप्राज्ञो नन्दीशो रविभावितः ।
शान्तिं करोतु ते शान्तो धर्मे व मतिमुत्तमाम् ॥
धर्मेतरावुभौ नित्यमचलः सम्प्रयच्छतु ।
महोदरो महाकायः स्निग्धाञ्जनसमप्रभः ॥
एकदंष्ट्रोत्कटो देवो गजवक्त्रो महाबल ।
नागयज्ञोपवीतेन नानाभरणभूषितः ॥
सर्वार्थसम्पदुद्धारो गणाध्यक्षो वरप्रदः ।
भीमस्य तनयो देवो नायकोऽथ विनायकः ।
करोतु ते महाशान्तिं भास्करार्चनतत्परः ॥
इन्द्रनीलनिभस्त्र्यक्षो दीप्तशूलायुधोद्यतः ।
रक्ताम्बरधरः श्रीमान् कृष्णाङ्गो नागभूषणः ॥
पापापनोदमतुलमलक्ष्यो मलनाशनः ।
करोतु ते महाशान्तिं प्रीतः प्रीतेन चेतसा ॥
वराम्बरधरा कन्या नानालंकारषिता ।
त्रिदशानां च जननी पुण्या लोकनमस्कृता ॥
सर्वसिद्धिकरा देवी प्रसादपरमास्पदा ।
शान्तिं करोतु ते माता भुवनस्य खगाधिप ॥
स्निग्धश्यामेन वर्णेन महामहिषमर्दिनी ।
धनुश्चक्रप्रहरणा खड्गपट्टिशधारिणी ॥
आतर्जन्यायतकरा सर्वोपद्रवनाशिनी ।
शान्तिं करोतु ते दुर्गा भवानी च शिवा तथा ॥
अतिसूक्ष्मो अतिक्रोधस्त्र्यक्षो भृङ्गिरिटिर्महान् ।
सूर्यात्मको महावीरः सर्वोपद्रवनाशनः ।
सूर्यभक्तिपरो नित्यं शिवं ते सम्प्रयच्छतु ॥
प्रचण्डगणसैन्येशो महाघण्टाक्षधारकः ।
अक्षमालार्पितकरश्चाथ चण्डेश्वरी वरः ॥
चण्डपापहरो नित्यं ब्रह्महत्याविनाशनः ।
शान्तिं करोतु ते नित्यमादित्याराधने रतः ।
करोतु च महायोगी कल्याणानां परम्पराम् ॥
आकाशमातरो दिव्यास्तथान्या देवमातरः ।
सूर्याचनपरा देव्यो जगद्वव्याप्य व्यवस्थिताः ।
शान्तिं कुर्वन्तु ते नित्यं मातरः सुरपूजिताः ॥
ये रुद्रा रौद्रकर्माणो रौद्रस्थाननिवासिनः ।
मातरो रुद्ररूपाश्च गणानामधिपाश्च ये ॥
विघ्नभूतास्तथा चान्ये दिग्विदिक्षु समाश्रिताः ।
सर्वे ते प्रीतमनसः प्रतिगृह्णन्तु मे बलिम् ।
सिद्धिं कुर्वन्तु ते नित्यं भयेभ्यः पान्तु सर्वतः ॥
ऐन्द्रादयो गणा ये तु वज्रहस्ता महाबलाः ।
हिमकुन्देन्दुदृशा नीलकृष्णाङ्गलोहिताः ॥
दिव्यान्तरिक्षा भौमाश्च पातालतलवासिनः ।
ऐन्द्राः शान्तिं प्रकुर्वन्तु भद्राणि च पुनः पुनः ॥
आग्नेय्यां ये भृताः सर्वे ध्रुवहत्यानुषङ्गिणः ।
सूर्यानुरक्ता रक्ताभा जपासुमनिभास्तथा ॥
विरक्तलोहिता दिव्या आग्नेयां भास्करादयः ।
आदित्याराधनपरा आदित्यगतमानसाः ॥
शान्तिं कुर्वन्तु ते नित्यं प्रयच्छन्तु बलि मम ।
भयादित्यसमा ये तु सततं दण्डपाणयः ।
आदित्याराधनपराः शं प्रयच्छन्तु ते सदा ॥
ऐशान्यां संस्थिता ये तु प्रशान्ताः शूलपाणयः ।
भस्मोद्धूलितदेहाश्व नीलकण्ठा विलोहिताः ॥
दिव्यान्तरिक्षा भौमाश्च पातालतलवासिनः ।
सूर्यपूजाकरा नित्यं पूजयित्वांशुमालिनम् ॥
तत: सुप्रीतमनसो लोकपालै समन्विताः ।
शान्तिं कुर्वन्तु मे नित्यं शं प्रयच्छन्तु पूजिताः ॥
अमरावती पुरी नाम पूर्वभागे व्यवस्थिता ।
विद्याधरगणाकीर्णा सिद्धगन्धर्वसेविता ॥
रत्नप्राकाररुचिरा महारत्नोपशोभिता ।
तत्र देवपतिः श्रीमान् वज्रपाणिर्महाबलः ।
गोपतिर्गोसहस्रेण शोभमानेन शोभते ॥
ऐरावतगजारुढो गैरिकाभो महाद्युतिः ।
देवेन्द्रः सततं हृष्ट आदित्याराधने रतः ॥
सूर्यज्ञानैकपरमः सूर्यभक्तिसमन्वितः ।
सूर्यप्रणामः परमां शान्तिं तेऽद्य प्रयच्छतु ॥
आग्नेयदिग्विभागे तु पुरी तेजस्वती शुभा ।
नानादेवगणाकीर्णा नानारत्नोपशोभिता ॥
तत्र ज्वालासमाकीर्णो दीप्ताङ्गारसमद्युतिः ।
पुरगो दहनो देवो ज्वलनः पापनाशनः ॥
वैवस्वती पुरी रम्या दक्षिणेन महात्मनः ।
सुरासुरशताकीर्णा नानारत्नोपशोभिता ॥
तत्र कुन्देन्दुसंकाशो हरिपिङ्गललोचनः ।
महामहिषमारूढः कृष्णस्रग्वस्त्रभूषणः ॥
अन्तकोऽथ महातेजाः सूर्यधर्मपरायणः ।
आदित्याराधनपरः क्षेमारोग्ये ददातु ते ॥
नैर्ऋते दिग्विभागे तु पुरी कृष्णेति विश्रुता ।
महारक्षोगणाशौचपिशाचमृतसंकुला ॥
तत्र कुन्दनिभो देवो रक्तस्रग्वस्त्रभूषणः ।
खड्गपाणिर्महातेजाः करालवदनोज्वलः ॥
रक्षेन्द्रो वसते नित्यमादित्याराधने रतः ।
करोतु मे सदा शान्तिं धन धान्यं प्रयच्छतु ॥
पश्चिमे तु दिशो भागे पुरी शुद्धवती सदा ।
नानाभोगिसमाकीर्णा नानाकिन्नरसेविता ॥
तत्र कुन्देन्दुसंकाशो हरिपिङ्गललोचनः ।
शान्तिं करोतु मे प्रीतः शान्तः शान्तेन चेतसा ॥
यशोवती पुरी रम्या ऐशानीं दिशमाश्रिता ।
नानागणसमाकीर्णा – नानाकृतशुभालया ।
तेजःप्रकारपर्यन्ता अनौपम्या सदोज्ज्वला ॥
तत्र कुन्देन्दुसंकाशश्चाम्बुजाक्षो विभूषितः ।
त्रिनेत्रः शान्तरूपात्मा अक्षमालाधराधरः ।
ईशानः परमो देवः सदा शान्तिं प्रयच्छतु ॥
भूलोके तु भुवर्लोके निवसन्ति च ये सदा ।
देवादेवाः शुभायुक्ताः शान्तिं कुर्वन्तु ते सदा ॥
जनलोके महर्लोके परलोके गताश्च ये ।
ते सर्वे मुदिता देवाः शान्तिं कुर्वन्तु ते सदा ॥
सरस्वती सूर्यभक्ता शान्तिदा विदधातु मे ।
चारुचामीकरस्था या सरोजकरपल्लवा ।
सूर्यभक्त्याश्रिता देवी विभूतिं ते प्रयच्छतु ॥
हारेण सुविचित्रेण भास्वत्कनकमेखला ।
अपराजिता सूर्यभक्ता करोतु विजयं तव ॥”
(ब्राह्मपर्व १७८ । १-४८)


‘खट्वाङ्ग धारण किये हुए, शक्ति से युक्त, मयूरवाहन, कृतिका और भगवान् रुद्र से उद्भूत, समस्त देवताओं से अर्चित तथा आदित्य से वर-प्राप्त भगवान् कार्तिकेय अपने तेज से आपने बल, सौख्य एवं शान्ति प्रदान करें । हाथ में शूल एवं श्वेत वस्त्र धारण किये हुए, स्वर्ण-आभा-युक्त, भगवान् सूर्य की आराधना करनेवाले, तीन नेत्रों वाले नन्दीश्वर आपको धर्म में उत्तम बुद्धि, आरोग्य एवं शान्ति प्रदान करें । चिकने अञ्जन के समान आभा-युक्त, महोदर तथा महाकाय नित्य अचल आरोग्य प्रदान करें । नाना आभूषणों से विभूषित नाग को यज्ञोपवीत के रूप धारण किये हुए, समस्त अर्थ-सम्पत्तियों के उद्धारक, एकदन्त, उत्कट-स्वरूप, गजवक्त्र, महाबलशाली, गणों के अध्यक्ष, वर-प्रदाता, भगवान् सूर्य की अर्चना में तत्पर, शंकरपुत्र विनायक आपको महाशन्ति प्रदान करें । इन्द्रनील के समान आभावाले, त्रिनेत्रधारी, प्रदीप्त त्रिशूल धारण करनेवाले, नागों से विभूषित, पापों को दूर करनेवाले तथा अलक्ष्य रूपवाले, मलों के नाशक भगवान् शंकर प्रसन्न चित्त से आपको महाशान्ति प्रदान करें । नाना अलंकारों से विभूषित, सुन्दर वस्त्रों को धारण करनेवाली, देवताओं की जननी, सारे संसार से नमस्कृत, समस्त सिद्धियों की प्रदायिनी, प्रसाद-प्राप्ति की एकमात्र स्थान जगन्माता भगवती पार्वती आपको शान्ति प्रदान करें । स्निग्ध श्यामल वर्णवाली, धनुष-चक्र, खड्ग तथा पट्टिश आयुधों को धारण की हुई, सभी उपद्रव का नाश करनेवाली, विशाल बाहुओं वाली, महामहिषमर्दिनी भगवती भवानी दुर्गा आपको शान्ति प्रदान करें । अत्यन्त सूक्ष्म, अतिक्रोधी, तीन नेत्रोंवाले, महावीर, सूर्यभक्त भृंगिरिटि (भगवान् शिव के द्वारपाल व गण) आपका नित्य कल्याण करें । विशाल घण्टा तथा रुद्राक्ष माला धारण किये हुए, ब्रह्महत्यादि उत्कट पापों का नाश करनेवाले, प्रचण्ड़गणों के सेनापति, आदित्य की आराधना में तत्पर महायोगी चण्डेश्वर (शिव जी के मुख से चण्डेश्वर नामक गण प्रकट हुआ था। चण्डेश्वर भूत-प्रेतों का प्रधान है। शिवलिंग पर चढ़ा हुआ प्रसाद चण्डेश्वर का भाग होता है। चण्डेश्वर का अंश यानी प्रसाद ग्रहण करना भूत-प्रेतों का अंश ग्रहण करना माना जाता है। इसलिए कहा जाता है कि शिवलिंग पर चढ़ा प्रसाद नहीं खाना चाहिए। ) आपको शान्ति एवं कल्याण प्रदान करें । दिव्य आकाश-मातृकाएँ, अन्य देव-मातृकाएँ, देवताओं द्वारा पूजित मातृकाएँ जो संसार को व्याप्त करके अवस्थित हैं और सूर्यार्चन में तत्पर रहती हैं, वे आपको शान्ति प्रदान करें । रौद्र कर्म करनेवाले तथा रौद्र स्थान में निवास करनेवाले रुद्रगण, अन्य समस्त गणाधिप, दिशाओं तथा विदिशाओं में जो विघ्नरूप से अवस्थित रहते हैं, वे सभी प्रसन्नचित्त होकर मेरे द्वारा दी गयी इस बलि (नैवेद्य) को ग्रहण करें । ये आपको नित्य सिद्धि प्रदान करें और आपकी भयों से रक्षा करें ।

हाथों में वज्र लिये हुए, महाबलशाली, सफेद, नीले, काले तथा लाल वर्णवाले, पृथ्वी, आकाश, पाताल तथा अन्तरिक्ष में रहनेवाले ऐन्द्रगण निरन्तर आपका कल्याण करें और शान्ति प्रदान करें । आग्नेय दिशा में रहनेवाले निरन्तर ज्वलनशील, जपाकुसुम के समान लाल तथा लोहित वर्णवाले, हाथ में निरन्तर दण्ड धारण करनेवाले सूर्य के भक्त भास्कर आदि मेरे द्वारा दिये गये बलि (नैवेद्य) को ग्रहण करें और आपको नित्य शान्ति एवं कल्याण प्रदान करें । ईशानकोण में अवस्थित शान्ति-स्वभावयुक्त, त्रिशूलधारी, अङ्गों में भस्म धारण किये हुए, नीलकण्ठ, रक्तवर्णवाले, सूर्य-पूजन में तत्पर, अन्तरिक्ष, आकाश, पृथ्वी तथा स्वर्ग में निवास करनेवाले रूद्रगण आपको नित्य शान्ति एवं कल्याण प्रदान करें ।

रत्नों के प्राकारों एवं महारत्नों से शोभित, विद्याधर एवं सिद्ध-गन्धर्वों से सुसेवित पूर्वदिशा में अवस्थित अमरावती नामवाली नगरी में महाबली, वज्रपाणि, देवताओं के अधिपति इन्द्र निवास करते हैं । वे ऐरावत पर आरूढ एवं स्वर्ण की आभा के समान प्रकाशमान हैं, सूर्य की आराधना में तत्पर तथा नित्य प्रसन्न-चित्त रहनेवाले हैं, वे परम शान्ति प्रदान करें । विविध देवगणों से व्याप्त, भाँति-भाँति के रत्नों से शोभित, अग्निकोण में अवस्थित तेजस्वती नामकी पुरी है, उसमें स्थित जलते हुए अंगारों के समान प्रकाशवाले, ज्वालमालाओं से व्याप्त, निरन्तर ज्वलन एवं दहनशील, पापनाशक, आदित्य की आराधना में तत्पर अग्निदेव आपके पापों का सर्वथा नाश करें एवं शान्ति प्रदान करें । दक्षिण दिशा में संयमनीपुरी स्थित है, वह नाना रत्नों से सुशोभित एवं सैकड़ों सुरासुरों से व्याप्त है, उसमें रहनेवाले हरित-पिङ्गल नेत्रोंवाले महामहिष पर आरूढ, कृष्ण वस्त्र एवं माला से विभूषित, सूर्य की आराधना में तत्पर महातेजस्वी यमराज आपको क्षेम एवं आरोग्य प्रदान करें । नैर्ऋत्यकोण में स्थित कृष्णा नाम की पुरी है, जो महान् रक्षोगण, प्रेत तथा पिशाच आदि से व्याप्त है, उसमें रहनेवाले रक्त माला और वस्त्रों से सुशोभित हाथ में तलवार लिये, करालवदन, सूर्य की आराधना में तत्पर राक्षसों के अधिपति निर्ऋतिदेव शान्ति एवं धन-धान्य प्रदान करें । पश्चिम दिशा में शुद्धवती नाम की नगरी है, वह अनेक किंनरों से सेवित तथा भोगिगणों से व्याप्त है । वहाँ स्थित हरित तथा पिङ्गल वर्ण के नेत्रवाले वरुणदेव प्रसन्न होकर आपको शान्ति प्रदान करें । ईशान-कोण में स्थित यशोवती नाम की अनुपम पुरी में रहनेवाले त्रिनेत्रधारी शान्तात्मा रुद्राक्ष-मालाधारी परमदेव ईशान (भगवान् शंकर) आपको नित्य शान्ति प्रदान करें । भूः, भुवर्, महर् एवं जन आदि लोकों में रहनेवाले प्रसन्नचित्त देवता आपको शान्ति प्रदान करें ।

सूर्यभक्ता सरस्वती आपको शान्ति प्रदान करें । हाथ में कमल धारण करनेवाले तथा सुन्दर स्वर्ण-सिंहासन पर अवस्थित, सूर्य की आराधना में तत्पर भगवती महालक्ष्मी आपको ऐश्वर्य प्रदान करें और आदित्य की आराधना में तल्लीन, विचित्र वर्ण के सुन्दर हार एवं कनक-मेखला धारण करनेवाली सूर्यभक्ता भगवती अपराजिता आपको विजय प्रदान करें ।’

इसके अनन्तर सत्ताईस नक्षत्रों, मेषादि द्वादश राशियों, सप्तर्षियों, महातपस्वियों, ऋषियों, सिद्ध, विद्याधरों, दैत्येन्द्रों तथा अष्ट नागों से शान्ति की प्रार्थना करे —


“कृत्तिका परमा देवी रोहिणी च वरानना ।
श्रीमन्मृगशिरा भद्रा आर्द्रा चाप्यपरोज्ज्वला ॥
पुनर्वसुस्तथा पुष्य आश्लेषा च तथाधिप ।
सूर्यार्चनरता नित्यं सूर्यभावानुभाविताः ॥
अर्चयन्ति सदा देवमादित्यं सुरते सदा ।
नक्षत्रमातरो ह्येताः प्रभामालाविभूषिताः ॥
मघा सर्वगुणोपेता पूर्वा चैव तु फाल्गुनी ।
स्वाती विशाखा वरदा दक्षिणां दिशमाश्रिताः ॥
अर्चयन्ति सदा देवमादित्यं सुरपूजितम् ।
तवापि शान्तिकं द्योतं कुर्वन्तु गगनोदिताः ॥
अनुराधा तथा ज्येष्ठा मूलं सूर्यपुरः सरा ।
पूर्वाषाढा महावीर्या आषाढा चोत्तरा तथा ॥
अभिजिन्नाम नक्षत्रं श्रवणं च बहुश्रुतम् ।
एताः पश्चिमतो दीप्ता राजन्ते चानुमूर्त्तयः ॥
भास्करं पूजयन्त्येताः सर्वकालं सुभाविताः ।
शान्तिं कुर्वन्तु ते नित्यं विभूतिं च महर्द्धिकाम् ॥
धनिष्ठा शतभिषा तु पूर्वभाद्रपदा तथा ॥
उत्तराभाद्ररेवत्यौ चाश्विनी च महामते ।
भरणी च महादेवी नित्यमुत्तरतः स्थिताः ॥
सूर्यार्चनरता नित्यमादित्यगतमानसाः ।
शान्तिं कुर्वन्तु ते नित्यं विभूतिं च महर्द्धिकाम् ।
मेषो मृगाधिपः सिंहो धनुर्दीप्तिमतां वरः ।
पूर्वेण भासयन्त्येते सूर्ययोगपराः शुभाः ॥
शान्तिं कुर्वन्तु ते नित्यं भक्त्या सूर्यपदाम्बुजे ।
वृषः कन्या च परमा मकरश्चापि बुद्धिमान् ॥
एते दक्षिणभागे तु पूजयन्ति रविं सदा ।
भक्त्या परमया नित्यं शान्तिं कुर्वन्तु ते सदा ॥
मिथुनं च तुला कुम्भः पश्चिमे च व्यवस्थिताः ।
जपन्त्येते सदाकालमादित्यं ग्रहनायकम् ॥
शान्तिं कुर्वन्तु ते नित्यं खखोल्कज्ञानतत्पराः ।
सगन्धोदकपुष्पाभ्यां ये स्मृता सततं बुधेः ॥
ऋषयः सप्त विख्याता ध्रुवान्ताः परमोज्ज्वलाः ।
भानुप्रसादात् सम्पन्नाः शान्तिं कुर्वन्तु ते सदा ॥
कश्यपो गालवो गार्ग्यो विश्वामित्रो महामुनिः ।
मुनिर्दक्षो वसिष्ठश्च मार्कण्डः पुलहः क्रतुः ।
नारदो भृगुरात्रेयो भारद्वाजश्च वै मुनिः ।
वाल्मीकिः कौशिको वात्स्यः शाकल्योऽथपुनर्वसुः ॥
शालंकायन इत्येते ऋषयोऽथ महातपाः ।
सूर्यध्यानैकपरमाः शान्तिं कुर्वन्तु ते सदा ॥
मुनिकन्या महाभागा ऋषिकन्याः कुमारिकाः ।
सूर्यार्चनरता नित्यं शान्तिं कुर्वन्तु ते सदा ॥
सिद्धाः समृद्धतपसो ये चान्ये वै महातपाः ।
विद्याधरा महात्मानो गरुडश्च त्वया सह ॥
आदित्यपरमा ह्येते आदित्याराधने रताः ।
सिद्घिं ते सम्प्रयच्छन्तु आशीर्वादपरायणाः ॥
नमुचिर्दैत्यराजेन्द्रः शंकुकर्णो महाबलः ।
महानाथोऽथ विख्यातो दैत्यः परमवीर्यवान् ॥
ग्रहाधिपस्य देवस्य नित्यं पूजापरायणाः ।
बलं वीर्यं च ते ऋद्धिमारोग्यं च ब्रुवन्तु ते ॥
महाढ्यो यो हयग्रीवः प्रह्लादः प्रभयान्वितः ।
अग्निमुखो महान् दैत्यः कालनेमिर्महाबलः ॥
एते दैत्या महात्मानः सूर्यभावेन भाविताः ।
तुष्टिं बलं तथाऽरोग्यं प्रयच्छन्तु सुरारयः ॥
वैरोचनो हिरण्याक्षस्तुर्वसुश्च सुलोचनः ।
मुचकुन्दो मुकुन्दश्च दैत्यो रैवतकस्तथा ॥
भावेन परमेणेमं यजन्ते सततं रविम् ।
सततं च शुभात्मानः पुष्टिं कुर्वन्तु ते सदा ॥
दैत्यपत्न्यो महाभागा दैत्यानां कन्यकाः शुभाः ।
कुमारा ये च दैत्यानां शान्तिं कुर्वन्तु ते सदा ॥
आरक्तेन शरीरेण रक्तान्तायतलोचनाः ।
महाभागाः कृताटोपाः शङ्खााद्याः कृतलक्षणाः ॥
अनन्तो नागराजेन्द्र आदित्याराधने रतः ।
महापापविषं हत्वा शान्तिमाशु करोतु ते ॥
अतिपीतेन देहेन विस्फुरद्भोगसम्पदा ।
तेजसा चातिदीप्तेन कृतस्वस्तिकलाञ्छनः ॥
नागराट् तक्षकः श्रीमान् नागकोट्या समन्वितः ।
करोतु ते महाशान्तिं सर्वदोषाविषापहाम् ॥
अतिकृष्णेन वर्णेन स्फुरिताधिकमस्तकः ।
कण्ठरेखात्रयोपेतो घोरदंष्ट्रायुधोद्यतः ॥
कर्कोटको महानागो विषदर्पबलान्वितः ।
विषशस्त्राग्निसंतापं हत्वा शान्तिं करोतु ते ॥
पद्मवर्णः पद्मकान्तिः फुल्लपद्मायतेक्षणः ।
ख्यातः पद्मो महानागो नित्यं भास्करपूजकः ॥
स ते शान्तिं शुभं शीघ्रमचलं सम्प्रयच्छतु ।
श्यामेन देहभारेण श्रीमत्कमललोचनः ॥
विषदर्पबलोन्मत्तो ग्रीवायां रेखयान्वित ।
शङ्खपालश्रिया दीप्तः सूर्यपादाब्जपूजकः ॥
महाविषं गरश्रेष्ठं हत्वा शान्तिं करोतु ते ।
अतिगौरेण देहेन चन्द्रार्धकृतशेखरः ॥
दीपभागे कृताटोपशुभलक्षणलक्षितः ।
कुलिको नाम नागेन्द्रो नित्यं सूर्यपरायणः ।
अपहृत्य विषं घोरं करोतु तव शान्तिकम् ॥
अन्तरिक्षे च ये नागा ये नागाः स्वर्गसंस्थिताः ।
गिरिकन्दरदुर्गेषु ये नागा भुवि संस्थिताः ॥
पाताले ये स्थिता नागाः सर्वे यत्र समाहिताः ।
सूर्यपादार्चनासक्ताः शान्तिं कुर्वन्तु ते सदा ॥
नागिन्यो नागकन्याश्च तथा नागकुमारकाः ।
सूर्यभक्ताः सुमनसः शान्तिं कुर्वन्तु ते सदा ॥
य इदं नागसंस्थानं कीर्तयेच्छ्रणुयात् तथा ।
न तं सर्पा विहिंसन्ति न विषं क्रमते सदा ॥
(ब्राह्मपर्व १७९ । १-४४)

‘परमश्रेष्ठ कृत्तिका, वरानना रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य तथा आश्लेषा (पूर्व दिशा में रहनेवाली)— ये सभी नक्षत्र-मातृकाएँ सूर्यार्चन में रत हैं और प्रभा-माला से विभूषित हैं । मघा, पूर्वा तथा उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा — ये दक्षिण दिशा का आश्रय ग्रहण कर भगवान् सूर्य की पूजा करती रहती हैं । आकाश में उदित होनेवाली ये नक्षत्र-मातृकाएँ आपको शान्ति प्रदान करें । पश्चिम दिशा में रहनेवाली अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा तथा उत्तराषाढ़ा, अभिजित् एवं श्रवण— ये नक्षत्र-मातृकाएँ निरन्तर भगवान् भास्कर की पूजा करती रहती हैं, ये आपको वर्धनशील ऐश्वर्य एवं शान्ति प्रदान करें । उत्तर दिशा में अवस्थित धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्व तथा उत्तरभाद्रपद, रेवती, अश्विनी एवं भरणी — नाम की नक्षत्र-मातृकाएँ नित्य सूर्य की पूजा करती रहती हैं, ये आपको नित्य वर्धनशील ऐश्वर्य एवं शान्ति प्रदान करें ।

पूर्वदिशा में अवस्थित तथा भगवान् सूर्य के चरणकमलों में भक्तिपूर्वक आराधना करनेवाली मेष, सिंह तथा धनु राशियाँ आपको नित्य शान्ति प्रदान करें । दक्षिण दिशा में स्थित रहनेवाली, भगवान् सूर्य की अर्चना करनेवाली वृष, कन्या तथा मकर राशियाँ परमा भक्ति के साथ आपको शान्ति प्रदान करें । पश्चिम दिशा में स्थित एवं निरन्तर ग्रहनायक भगवान् आदित्य की आराधना करनेवाली मिथुन, तुला तथा कुम्भ राशियाँ आपको नित्य शान्ति प्रदान करें । [कर्क, वृश्चिक तथा मीन राशियाँ जो उत्तर दिशा में स्थित रहती हैं तथा भगवान् सूर्य की भक्ति करती हैं. आपको शान्ति प्रदान करें ।]

भगवान् सूर्य के अनुग्रह से सम्पन्न ध्रुव-मण्डल में रहनेवाले सप्तर्षिगण आपको शान्ति प्रदान करें । कश्यप, गाल्व, गार्ग्य, विश्वामित्र, दक्ष, वसिष्ठ, मार्कण्डेय, क्रतु, नारद, भृगु, आत्रेय, भारद्वाज, वाल्मीकि, कौशिक, वात्स्य, शाकल्य, पुनर्वसु तथा शालंकायन —ये सभी सूर्य-ध्यान में तत्पर रहनेवाले महातपस्वी ऋषिगण आपको शान्ति प्रदान करें । सूर्य की आराधना में तत्पर ऋषि तथा मुनिकन्याएँ, जो निरन्तर आशीर्वाद प्रदान करने में तत्पर रहती हैं, आपको नित्य सिद्धि प्रदान करें ।

भगवान् सूर्य की पूजा में तत्पर दैत्यराजेन्द्र नमुचि, महाबली शङ्कुकर्ण, पराक्रमी महानाथ — ये सभी आपके लिये बल, वीर्य एवं आरोग्य की प्राप्ति के लिये निरन्तर कामना करें । महान् सम्पत्तिशाली हयग्रीव, अत्यन्त प्रभाशाली प्रह्लाद, अग्निमुख, कालनेमि — ये सभी सूर्य की आराधना करनेवाले दैत्य आपको पुष्टि, बल और आरोग्य प्रदान करें । वैरोचन, हिरण्याक्ष, तुर्वसु, सुलोचन, मुचुकुन्द, मुकुन्द तथा रैवतक — ये सभी सूर्यभक्त आपको पुष्टि प्रदान करें । दैत्यपत्नियाँ, दैत्यकन्याएँ तथा दैत्यकुमार— ये सभी आपकी शान्ति के लिये कामना करें ।

नागराजेन्द्र अनन्त, अत्यन्त पीले शरीरवाले, विस्फुरित फणवाले, स्वस्तिक-चिह्न से युक्त तथा अत्यन्त तेज से उद्दीप्त नागराज तक्षक, अत्यन्त कृष्ण वर्णवाले, कण्ठ में तीन रेखाओं से युक्त, भयंकर आयुधरूपी दंष्ट्र से समन्वित तथा विष के दर्प से बलान्वित महानाग कर्कोटक पद्म के समान कान्तिवाले, कमल के पुष्प के समान नेत्रवाले, पद्मवर्ण के महानाग पद्म, श्यामवर्णवाले, सुन्दर कमल के समान नेत्रवाले, विषरूपी दर्प से उन्मत्त तथा ग्रीवा में तीन रेखावाले शोभासम्पन्न महानाग शंखपाल, अत्यन्त गौर शरीरवाले, चन्द्रार्धकृत-शेखर, सुन्दर फण से युक्त नागेन्द्र कुलिक (और नागराज वासुकि) सूर्य की आराधना करनेवाले — ये सभी अष्टनाग महाविष को नष्ट करके आपको निरन्तर अचल महाशान्ति प्रदान करें । अन्तरिक्ष, स्वर्ग, गिरिकन्दराओं, दुर्गों तथा भूमि एवं पाताल में रहनेवाले, भगवान् सूर्य के अर्चन में आसक्त समस्त नागगण और नागपत्नियाँ, नागकन्याएँ तथा नागकुमार सभी प्रसन्नचित होकर आपको सदा शान्ति प्रदान करें ।’ जो इस नाग-शान्ति का श्रवण या कीर्तन करता है, उसे सर्पगण कभी भी नहीं काटते और विष का प्रभाव भी उनपर नहीं पड़ता ।

तदनन्तर गङ्गादि पुण्य नदियों, यक्षेन्द्रों, पर्वतों, सागरों, राक्षसों, प्रेतों, पिशाचों, अपस्मारादि ग्रहों, सभी देवताओं तथा भगवान् सूर्य से शान्ति की कामना के लिये इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये —

“गङ्गा पुण्या महादेवी यमुना नर्मदा नदी ।
गौतमी चापि कावेरी वरुणा देविका तथा ॥
सर्वग्रहपतिं देवं लोकेश लोकनायकम् ।
पूजयन्ति सदा सूर्यसद्भावभाविताः ।
शान्तिं कुर्वन्तु ते नित्यं सूर्यध्यानैकमानसाः ॥
निरञ्जना नाम नदी शोणश्चापि महानदः ।
मन्दाकिनी च परमा तथा संनिहिता शुभा ॥
एताश्चान्याश्व बहवो भुविदिव्यन्तरिक्षके ।
सूर्यार्चनरता नद्यः कुर्वन्तु तव शान्तिकम् ॥
महावैश्रवणो देवो यक्षराजो महर्षिकः ।
यक्षकोटिपरीवारो यक्षासंख्येयसंयुतः ॥
महाविभवसम्पन्नः सूर्यपादार्चने रतः ।
सूर्यध्यानैकपरमः सूर्यभावेन भावितः ॥
शान्तिं करोतु ते प्रीतः पद्मपत्रायतेक्षणः ।
मणिभद्रो महायक्षो मणिरत्नविभूषितः ॥
मनोहरेण हारेण कण्ठलग्रेन राजते ।
यक्षिणीयक्षकन्याभिः परिवारितविग्रहः ।
सूर्यार्चनसमासक्तः करोतु तव शान्तिकम् ॥
सुचिरो नाम यक्षेन्द्रो मणिकुण्डलभूषितः ।
ललाटे हेमपटलप्रबद्धेन विराजते ॥
बहुयक्षसमाकीर्णो यक्षैर्नमितविग्रहः ।
सूर्यपूजापरो युक्तः करोतु तव शान्तिकम् ॥
पाञ्चिको नाम यक्षेन्द्रः कण्ठाभरणभूषितः ।
कुक्कुटेन विचित्रेण बहुरत्नान्वितेन तु ॥
यक्षवृन्दसमाकीर्णो यक्षकोटिसमन्वितः ।
सूर्यार्चचनपरः श्रीमान् करोतु तव शान्तिकम् ॥
धृतराष्ट्रो महातेजा नानायक्षाधिपः खग ।
दिव्यपट्टः शुक्लच्छत्रो मणिकाञ्चनभूषितः ॥
सूर्यभक्तः सूर्यरतः सूर्यपूजापरायणः ।
सूर्यप्रसादसम्पन्नः करोतु तव शान्तिकम् ॥
विरूपाक्षश्च यक्षेन्द्रः श्वेतवासा महाद्युतिः ।
नानाकाञ्चनमालाभिरुपशोभितकन्धरः ॥
सूर्यपूजापरो भक्तः कञ्जाक्षः कञ्जसंनिभः ।
तेजसादित्यसंकाशः करोतु तव शान्तिकम् ॥
अन्तरिक्षगता यक्षा ये यक्षाः स्वर्गगामिनः ।
नानारूपधरा यक्षाः सूर्यभक्ता दृढव्रताः ॥
तद्भतास्तद्रतमनसः सूर्यपूजासमुत्सुकाः ।
शान्तिं कुर्वन्तु ते हृष्टाः शान्ताः शान्तिपरायणाः ॥
यक्षिण्यो विविधाकारास्तथा यक्षकुमारकाः ।
यक्षकन्या महाभागाः सूर्याराधनतत्पराः ॥
शान्तिं स्वस्त्ययनं क्षेमं बलं कल्याणमुत्तमम् ।
सिद्धिं चाशु प्रयच्छन्तु नित्यं च सुसमाहिताः ॥
पर्वताः सर्वतः सर्वे वृक्षाश्चैव महर्द्धिकाः ।
सूर्यभक्ताः सदा सर्वे शान्तिं कुर्वन्तु ते सदा ॥
सागराः सर्वतः सर्वे गृहारण्यानि कृत्स्नशः ।
सूर्यस्याराधनपराः कुर्वन्तु तव शान्तिकम् ॥
राक्षसाः सर्वतः सर्वे घोररूपा महाबलाः ।
स्थलजा राक्षसा ये तु अन्तरिक्षगताश्च ये ॥
पाताले राक्षसा ये तु नित्यं सूर्यार्चने रताः ।
शान्तिं कुर्वन्तु ते सर्वे तेजसा नित्यदीपिताः ॥
प्रेताः प्रेतगणाः सर्वे ये प्रेताः सर्वतोमुखाः ।
अतिदीप्ताश्च ये प्रेता ये प्रेता रुधिराशनाः ॥
अन्तरिक्षे व ये प्रेतास्तथा ये स्वर्गवासिनः ।
पाताले भूतले वापि ये प्रेताः कामरूपिणः ॥
एकचक्ररथो यस्य यस्तु देवो वृषध्वजः ।
तेजसा तस्य देवस्य शान्तिं कुर्वन्तु ते सदा ॥
ये पिशाचा महावीर्या वृद्धिमन्तो महाबलाः ।
नानारूपधराः सर्वे सर्वे च गुणवत्तराः ॥
अन्तरिक्षे पिशाचा ये स्वर्ग ये च महाबलाः ।
पाताले भूतले ये च बहुरूपा मनोजवाः ॥
यस्याहं सारथिर्वीर यस्य त्वं तुरगः सदा ।
तेजसा तस्य देवस्य शान्तिं कुर्वन्तु तेऽञ्जसा ॥
अपस्मारग्रहाः सर्वे सर्वे चापि ज्वरग्रहाः ।
ये च स्वर्गस्थिताः सर्वे भूमिगा ये ग्रहोत्तमाः ॥
पाताले तु ग्रहा ये च ये ग्रहाः सर्वतो गताः ।
दक्षिणे किरणे यस्य सूर्यस्य न स्थितो हरिः ॥
हरो यस्य सदा वामे ललाटे कञ्जजः स्थितः ।
तेजसा तस्य देवस्य शान्तिं कुर्वन्तु सदा ॥
इति देवादयः सर्वे सूर्ययज्ञविधायिनः ।
कुर्वन्तु जगतः शान्तिं सूर्यभक्तेषु सर्वदा ॥
जय सूर्याय देवाय तमोहन्त्रे विवस्वते ।
जयप्रदाय सूर्याय भास्कराय नमोऽस्तु ते ॥
ग्रहोत्तमाय देवाय जय कल्याणकारिणे ।
जय पद्मविकाशाय बुधरूपाय ते नमः ॥
जय दीप्तिविधानाय जय शान्तिविधायिने ।
तमोघ्नाय जयादैव अजिताय नमो नमः ॥
जयार्क जय दीप्तीश सहस्रकिरणोज्ज्वल ।
जय निर्मितलोकस्त्वमजिताय नमप नमः ॥
गायत्रीदेहरूपाय सावित्रीदयिताय च ।
धराधराय सूर्याय मार्तण्डाय नमो नमः ॥
(ब्राह्मपर्व १८० । १-३९)

‘ग्रहाधिपति भगवान् सूर्य की नित्य आराधना करनेवाली पुण्यतोया गङ्गा, महादेवी यमुना, नर्मदा, गौतमी, कावेरी, वरुणा, देविका, निरञ्जना तथा मन्दाकिनी आदि नदियाँ और महानद शोण, पृथ्वी, स्वर्ग एवं अन्तरिक्ष में रहनेवाली नदियाँ आपको नित्य शान्ति प्रदान करें । यक्षराज कुबेर, महायक्ष मणिभद्र, यक्षेन्द्र सुचिर, पाञ्चिक, महातेजस्वी धृतराष्ट्र, यक्षेन्द्र विरूपाक्ष, कञ्जाक्ष तथा अन्तरिक्ष एवं स्वर्ग में रहनेवाले समस्त यक्षगण, यक्षपलियाँ, यक्षकुमार तथा यक्ष-कन्याएँ जो सभी सूर्य की आराधना में तत्पर रहते हैं — ये आपको शान्ति प्रदान करें, नित्य कल्याण, बल, सिद्धि भी शीघ्र प्रदान करें एवं मङ्गलमय बनायें ।

भगवान् सूर्य की आराधना करनेवाले सभी पर्वत, ऋद्धि प्रदान करनेवाले वृक्ष, सभी सागर तथा पवित्रारण्य आपको शान्ति प्रदान करें । पृथ्वी, अत्तरिक्ष, स्वर्ग तथा पाताल में निवास करनेवाले एवं भगवान् सूर्य की आराधना करनेवाले महाबलशाली और कामरूप सभी राक्षस, प्रेत, पिशाच एवं सभी दिशाओं में अवस्थित अपस्मारग्रह तथा ज्वरग्रह आदि आपको नित्य शान्ति प्रदान करें ।

जिन भगवान् सूर्य के दक्षिण भाग में विष्णु, वाम भाग में शंकर और ललाट में ब्रह्मा सदा स्थित रहते हैं, ये सभी देवता उन भगवान् सूर्य के तेज से सम्पन्न होकर आपको शान्ति प्रदान करें तथा सौरधर्म को जाननेवाले समस्त देवगण संसार के सूर्यभक्तों एवं सभी प्राणियों को सर्वदा शान्ति प्रदान करें ।

अन्धकार दूर करनेवाले तथा जय प्रदान करनेवाले विवस्वान् भगवान् भास्कर की सदा जय हो । ग्रहों में उतम तथा कल्याण करनेवाले, कमल को विकसित करनेवाले भगवान् सूर्य की जय हो, ज्ञानस्वरूप भगवान् सूर्य ! आपने नमस्कार है । शान्ति एवं दीप्ति का विधान करनेवाले, तमोहन्ता भगवान् अजित ! आपको नमस्कार है, आपकी जय हो । सहस्त्र-किरणोज्ज्वल, दीप्ति-स्वरूप, संसार के निर्माता आपको बार-बार नमस्कार हैं, आपकी जय हो । गायत्री-स्वरूपवाले, पृथ्वी को धारण करने वाले सावित्री-प्रिय मार्तण्ड भगवान् सूर्यदेव ! आपको बार-बार नमस्कार है, आपकी जय हो ।’सुमन्तु मुनि बोले — राजन् ! इस विधान से अरुण के द्वारा वैनतेय गरुड के कल्याण के लिये शान्ति-विधान करते ही वे सुन्दर पंखों से समन्वित हो गये। वे तेज में बुध के समान देदीप्यमान और बल में विष्णु के समान हो गये । राजन् ! देवाधिदेव सूर्य के प्रसाद से सुपर्ण के सभी अवयव पूर्ववत् हो गये ।

राजन् ! इसी प्रकार अन्य रोगग्रस्त मानवगण इस अग्निकार्य से (सौरी-शान्ति से) नीरोग हो जाते हैं । इसलिये इस शान्ति-विधान को प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये । ग्रहोपघात, दुर्भिक्ष, सभी उत्पातों में तथा अनावृष्टि आदि में लक्ष-होम-समन्वित सौर-सूक्त से यत्नपूर्वक पूजन कर एवं वारुण-सूक्त से प्रसन्नचित्त हो घी, मधु, तिल, यव एवं मधु के साथ पायस से हवन एवं शान्ति करे और सावधान हो बलि (नैवेद्य) प्रदान करे । ऐसा करने से देवतागण मनुष्यों के कल्याण की कामना करते हैं एवं उनके लिये लक्ष्मी की वृष्टि करते हैं।

जो मनुष्य भगवान् दिवाकर को ध्यान कर इस शान्ति-अध्याय को पढ़ता या सुनता है, वह रण में शत्रु पर विजयी हो परम सम्मान को प्राप्त कर एकच्छत्र शासक होकर सदा आनन्दमय जीवन व्यतीत करता है । वह पुत्र-पौत्रों से प्रतिष्ठित होकर आदित्य के समान तेजस्वी एवं प्रभा-समन्वित व्याधि-शून्य जीवन-यापन करता है । वीर ! जिसके कल्याण के उद्देश्य से इस शान्तिकाध्याय (शान्तिकल्प) — का पाठ किया जाता हैं, वह वात-पित्त, कफजन्य रोगों से पीड़ित नहीं होता एवं उसकी न तो सर्प के दंश से मृत्यु होती है और न अकाल में मृत्यु होती है । उसके शरीर में विष का प्रभाव भी नहीं होता एवं जड़ता, अन्धत्व, मूकता भी नहीं होती । उत्पत्ति-भय नहीं रहता और न किसी के द्वारा किया गया अभिचार-कर्म सफल होता है । रोग, महान् उत्पात, महाविषैले सर्प आदि सभी इसके श्रवण से शान्त हो जाते हैं । सभी गङ्गादि तीर्थों का जो विशेष फल है, उसका कई गुना फल इस शान्तिकाध्याय के श्रवण से प्राप्त होता हैं और दस राजसूय एवं अन्य यज्ञों का फल भी उसे मिलता है । इसे सुननेवाला सौ वर्ष तक व्याधि-रहित नीरोग होकर जीवन-यापन करता है । गोहत्यारा, कृतघ्न, ब्रह्मघाती, गुरुतल्पगामी। और शरणागत, दीन, आर्त, मित्र तथा विश्वासी व्यक्ति के साथ घात करनेवाला, दुष्ट, पापाचारी, पितृघातक तथा मातृघातक सभी इसके श्रवण से निःसंदेह पापमुक्त हो जाते हैं । यह अग्निकार्य अतिशय उत्तम एवं परम पुण्यमय है ।
(अध्याय १७५-१८०)

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