भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९८ से २०२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – १९८ से २०२
सूर्यनारायण की महिमा, अर्घ्य प्रदान करनेका फल तथा आदित्य-पूजन की विधियाँ

महाराज शतानीक ने कहा — सुमन्तु मुने ! इस लोक में ऐसे कौन देवता हैं जिनकी पूजा-स्तुति करके सभी मनुष्य शुभ-पुण्य और सुख का अनुभव करते हैं । सभी धर्मों में श्रेष्ठ धर्म कौन हैं ? आपके विचार से कौन पूजनीय है तथा ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र आदि देवता किसकी पूजा-अर्चना करते हैं और आदिदेव किस देवता को कहा जाता है ?om, ॐसुमन्तु जी बोले — राजन् ! मैं इस विषय में भगवान् वेदव्यास और भीष्म-पितामह के उस संवाद को कह रहा हूँ जो सभी पापों का नाश करनेवाला तथा सुख प्रदान करनेवाला है, उसे आप सुने ।

एक समय गङ्गा के किनारे वेदव्यासजी बैठे हुए थे । वे अग्नि के समान जाज्वल्यमान, तेज में आदित्य के समान, साक्षात् नाराणतुल्य दिखायी दे रहे थे । भगवान् वेदव्यास महाभारत के कर्ता तथा वेद के अर्थों को प्रकाशित करनेवाले हैं और ऋषियों तथा राजर्षियों के आचार्य हैं, कुरुवंश के स्रष्टा हैं, साथ ही मेरे परमपूज्य हैं । इन वेदव्यासजी के पास कुरुश्रेष्ठ महातेजस्वी भीष्मजी आये और उन्हें प्रणाम कर कहने लगे । भीष्मपितामह ने पूछा — हे महामते पराशरनन्दन ! आपने सम्पूर्ण वाङ्मय की व्याख्या मुझसे की है, किंतु मुझे भगवान् भास्कर के सम्बन्ध में संशय उत्पन्न हो गया है । सर्वप्रथम भगवान् आदित्य को नमस्कार करने के पश्चात् ही अन्य देवताओं को नमस्कार किया जाता है । इसमें क्या कारण है ? ये भगवान् भास्कर कौन हैं ? कहाँ से उत्पन्न हुए हैं ? हे द्विजश्रेष्ठ ! इस लोक के कल्याण के लिये उस परम तत्व को कहिये । मुझे जानने की बड़ी ही अभिलाषा है ।

व्यासजी ने कहा — भीष्म ! आप अवश्य ही किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है कि भगवान् भास्कर की स्तुति, पूजन-अर्चन सभी सिद्ध और ब्रह्मादि देवता करते हैं । सभी देवताओं में आदिदेव भगवान् भास्कर को ही कहा जाता है । ये संसार-सागर के अन्धकार को दूरकर सब लोकों और दिशाओं को प्रकाशित करते हैं । ये सभी धर्मों में श्रेष्ठ धर्मस्वरूप हैं । ये पूज्यतम हैं । ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि सभी देवता आदिदेव भगवान् आदित्य की ही पूजा करते हैं । आदित्य ही अदिति और कश्यप के पुत्र हैं । ये आदिकर्ता है, इसलिये भी आदित्य कहे जाते हैं । भगवान् आदित्य ने ही सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न किया है । देवता, असुर, गन्धर्व, सर्प, राक्षस, पक्षी आदि तथा इन्द्रादि देवता, ब्रह्मा, दक्ष, कश्यप सभी के आदिकारण भगवान् आदित्य ही हैं । भगवान् आदित्य सभी देवताओं में श्रेष्ठ और पूजित हैं ।भीष्मपितामह ने पूछा — पराशरनन्दन महर्षि व्यासजी ! यदि भगवान् सूर्यनारायण का इतना अधिक प्रभाव है तो प्रातः, मध्याह्न और सायंकाल — इन तीनो कालों मे राक्षसादि कैसे इन्हें संत्रस्त करते हैं तथा भगवान् आदित्य फिर कैसे चक्रवत् घूमते रहते हैं ? हे द्विजोत्तम ! राहु उन्हें कैसे ग्रसित करता है ?

व्यासजी ने कहा — पिशाच, सर्प, डाकिनी, दानव आदि जो क्रोध से उन्मत्त हो भगवान् सूर्यनारायण पर आक्रमण करते हैं, भगवान् सूर्यनारायण उन्हें प्रताड़ित करते हैं । यह मुहूर्तादि कालस्वरूप भगवान् सूर्य का ही प्रभाव है । संसार में धर्म एकमात्र भगवान् सूर्य का आधार लेकर प्रवर्तित होता है । ब्रह्मादि देवता सूर्यमण्डल में स्थित रहते हैं । भगवान् सूर्यनारायण को नमस्कार करने मात्र से ही सभी देवताओम को नमस्कार प्राप्त हो जाता है । तीनों कालों में संध्या करनेवाले ब्राह्मणजन भगवान् आदित्य को ही प्रणाम करते हैं । भगवान् भास्कर के बिम्ब के नीचे राहु स्थित है । अमृत की इच्छा करनेवाला राहु विमानस्थ अमृत-घट से थोड़ा भी अमृत छलकने पर अमृत को प्राप्त करने के उद्देश्य से जब विमान के अति संनिकटपहुँचता है तो ऐसा प्रतीत होता है कि राहु ने सूर्यनारायण को ग्रसित कर लिया है, उसे ही ग्रहण कहा जाता है । आदित्य भगवान् को कोई ग्रसित नहीं कर सकता; क्योंकि वे ही इस चराचर जगत् का विनाश करनेवाले हैं । दिन, रात्रि, मुहूर्त आदि सब आदित्य भगवान् के ही प्रभाव से प्रकाशित होते हैं । दिन, रात्रि, धर्म, अधर्म जो कुछ भी इस संसार में दृष्टिगोचर हो रहा है, उन सबको भगवान् आदित्य ही उत्पन्न करते हैं । वे ही उसका विनाश भी करते हैं । जो व्यक्ति भगवान् आदित्य की भक्तिपूर्वकपूजा करता है, उस व्यक्ति को भगवान् आदित्य शीघ्र ही संतुष्ट होकर वर प्रदान करते हैं तथा बल, वीर्य, सिद्धि, ओषधि, धन-धान्य, सुवर्ण, रूप, सौभाग्य, आरोग्य, यश, कीर्ति, पुत्र-पौत्रादि और मोक्ष आदि सब कुछ प्रदान करते हैं, इसमें संदेह नहीं है ।भीष्म ने कहा — महात्मन् ! अब आप मुझसे सौर-धर्म के स्नान की विधि रहस्य सहित बतलायें । जिससे भगवान् आदित्य की पूजा कर मनुष्य सभी प्रकार के दोषों से छुटकारा प्राप्त कर लेता है ।

व्यासजी बोले — भीष्म ! मैं सौर-स्नान की संक्षिप्त विधि बतला रहा हूँ, जो सभी प्रकार के पापों को दूर कर देती है । सर्वप्रथम पवित्र स्थान से मृत्तिका ग्रहण करे, तदनन्तर उस मृत्तिका को शरीर में लगाये । फिर जल को अभिमन्त्रित कर स्नान करे । शङ्ख, तुरही आदि से ध्वनि करते हुए सूर्यनारायण का ध्यान करना चाहिये । भगवान् सूर्य के “ह्रां ह्रीं सः” इस मन्त्रराज से आचमन करना चाहिये । फिर देवताओं एवं ऋषियों का तर्पण और स्तुति करनी चाहिये । अपसव्य होकर पितरों का तर्पण करे । अनन्तर संध्या-वन्दन करे । उसके बाद भगवान् भास्कर को अञ्जलि से जल देना चाहिये । स्नान करने के बाद त्र्यक्षर-मन्त्र “ह्रां ह्रीं सः” अथवा षडक्षर-मन्त्र “खखोल्काय नमः” का जप करना चाहिये । जिस मन्त्रराज को पूर्व में कहा है उस मन्त्रराज से हृदयादि-न्यास करना चाहिये । मन्त्र को हृदयङ्गम कर भगवान् सूर्यनारायणको अर्घ्य प्रदान करना चाहिये । एक ताम्रपात्र में गन्ध, लाल चन्दन आदि से सूर्यमण्डल बनाकर उसमें करवीर (कनेर) आदि के पुष्प गन्धोदक, रक्त चन्दन, कुश, तिल, चावल आदि स्थापित कर घुटने को मोड़ उस ताम्रपात्र को उठाकर सिर से लगाये और भक्तिपूर्वक “ह्रां ह्रीं सः” इस मन्त्रराज से भगवान् सूर्यनारायण को अर्घ्य प्रदान करे । जो व्यक्ति इस विधि से भगवान् आदित्य को अर्घ्य निवेदन करता है, वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है । हजारों संक्रान्तियों, हजारों चन्द्रग्रहणों, हजारों गोदानों तथा पुष्कर एवं कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों में स्नान करने से जो फल प्राप्त होता है, वह फल केवल सूर्यनारायण को अर्ध्य प्रदान करने से ही प्राप्त हो जाता है । सौर-दीक्षा-विहीन व्यक्ति भी भगवान् आदित्य को संवत्सरपर्यन्त अर्घ्य प्रदान करता है तो उसे भी वही फल प्राप्त होता , इसमें कोई संदेह नहीं है । फिर दीक्षा को ग्रहण कर जो विधिपूर्वक अर्घ्य प्रदान करता है, वह व्यक्ति इस संसार-सागर को पारकर भगवान् भास्कर में विलीन हो जाता है ।

भीष्म ने कहा — ब्रह्मन् ! आपने पाप -हरण करने वाली स्नान-विधि तो बता दी, अब कृपाकर उनकी पूजा-विधि बतायें, जिससे मैं भगवान् सूर्य की पूजा कर सकूँ ।

व्यासजी बोले — भीष्म ! अब मैं आदित्य-पूजन की विधि कह रहा हूँ, आप सुनें ।
आदित्य-पूजक को चाहिये कि स्नानादि से पवित्र होकर किसी शुद्ध एकान्त स्थान में प्रसन्न होकर भास्कर की पूजा करे । वह श्रेष्ठ सुन्दर आसन पर पूर्वाभिमुख बैठे । सूर्य-मन्त्रों से करन्यास एव हृदयादि-न्यास करे । इस प्रकार आत्म-शुद्धि कर न्यास द्वारा भगवान् सूर्य की अपने में भावना करे । अपने को भास्कर समझकर स्थण्डिल पर भानु की स्थापना करके विधिवत् पूजा करे । दक्षिण पार्श्व में पुष्प की टोकरी एवं वाम पार्श्व में जल से परिपूर्ण ताम्रपात्र स्थापित करे । पूजा के लिये उपकल्पित सभी द्रव्यों का अर्घ्यपात्र के जल से प्रोक्षण कर पूजन करे, अनन्तर मन्त्रवेत्ता एकाग्रचित्त होकर सूर्यमन्त्रों का जप करे ।

भीष्म ने कहा — भगवन् ! अब आप भगवान् सूर्य की वैदिक अर्चा-विधि बतलायें ।

व्यासजी बोले — भीष्म ! आप इस सम्बन्ध में सुरज्येष्ठ ब्रह्मा तथा विष्णु के मध्य हुए संवाद को सुनें । एक बार ब्रह्माजी मेरु-पर्वत पर स्थित अपनी मनोवती नाम की सभा में सुखपूर्वक बैठे हुए थे । उसी समय विष्णुभगवान् ने प्रणाम कर उनसे कहा — ‘ब्रह्मन् ! आप भगवान् भास्कर की आराधना-विधि बतायें और मण्डलस्थ भगवान् सूर्यनारायण की पूजा किस प्रकार करना चाहिये, इसे कहें ।’

ब्रह्मा ने कहा — महाबाहो ! आपने बहुत उत्तम बात पूछी है, आप एकाग्रचित्त होकर भगवान् भास्कर की पूजन-विधि सुनिये ।

सर्वप्रथम शास्त्रोक्त विधि से भूमि का विधिवत् शोधन कर केसर आदि गन्धों से सात आवरणों से युक्त कर्णिका-समन्वित एक अष्ट-दल-कमल बनाये । उसमें दीप्ता आदि सूर्य की दिव्य अष्ट शक्तियों को पूर्वादि-क्रम से ईशानकोण तक स्थापित करे । बीच में सर्वतोमुखी देवी की स्थापना करे । दीप्ता, सूक्ष्मा, जया, भद्रा, विभूति, विमला, अमोघा, विद्युता और सर्वतोमुखी — ये नौ सूर्य-शक्तियाँ हैं । इन शक्तियों का आवाहन कर पद्य की कर्णिका के ऊपर भगवान् भास्कर को स्थापित करना चाहिये । “उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः । दृशे विश्वाय सूर्यम् ॥” (यजु० ७ । ४१) तथा “अग्निं दूतं पुरोदधे, हव्यवाहमुपब्रुवे । देवाँऽआसादयादिह ।” (यजु० २२ । १७) — ये मन्त्र आवाहन और उपस्थान के कहे गये हैं । ‘आ कृष्णेन रजसा’ (यजु० ३३ । ४३) तथा ‘हा, सः शुचिषद्० ‘(यजु १० । २४) इन मन्त्रों से भगवान् सूर्य की पूजा करनी चाहिये। ‘अप्ते तारकं० ‘ मन्त्र से दीप्तादेवी की पूजा करे । ‘अदृश्रमस्य केतवो० ‘ (यजु० ८ । ४०) मन्त्र से सूक्ष्मादेवी की, ‘तरणिर्विश्वदर्शतो०’ (यजु० ३३ । ३६) से जया की, ‘प्रत्यङ्देवाना० ‘ इस मन्त्र से भद्रा की, ‘येना पायक चक्षसा० ‘ (यजु० ३३ । ३२) इस मन्त्र से विभूति की, ‘विद्यामेषि० ‘ इस मन्त्र से विमलादेवी की पूजा करनी चाहिये ।
इसी प्रकार से अमोघा, विद्युता तथा सर्वतोमुखी देवियों की भी पूजा करनी चाहिये । अनन्तर वैदिक मन्त्रों से सप्तावरण-पूजन-पूर्वक मध्य में भगवान् सूर्य की पूजा करे । भगवान् सूर्य एक चक्रवाले रथपर बैठकर श्वेत कमल पर स्थित हैं । उनका लाल वर्ण है । ये सर्वाभरणभूषित तथा सभी लक्षणों से समन्वित और महातेजस्वी हैं । इनका बिम्ब वर्तुलाकार है । वे अपने हाथों में कमल और धनुष लिये हैं । ऐसे उनके स्वरूप का ध्यानकर नित्य श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये ।

भगवान् विष्णु ने कहा —
हे सुरश्रेष्ठ ! मण्डलस्थ भगवान् भास्कर की प्रतिमा-रूप में किस प्रकार से पूजा की जाय, उसे आप बताने की कृपा करें ।

ब्रह्माजी बोले — हे सुव्रत ! आप एकाग्रचित-मन से प्रतिमा-पूजन-विधि को सुनिये । ‘इषे त्वो० ‘ (यजु० १ । १) इस मन्त्र से भगवान् सूर्य के सिर-प्रदेश का पूजन करना चाहिये । ‘अग्निमीळे० ‘ (ऋ० १ । १ । १) इस मन्त्र से भगवान् सूर्य के दक्षिण हाथ की पूजा करनी चाहिये । ‘अग्न आ याहि० ‘ (ऋ० ६ । १६ । १०) इस मन्त्र से सूर्यभगवान् के दोनों चरणों की पूजा करनी चाहिये । ‘आ जिघ्र० ‘ (यजु० ८ । ४२) इस मन्त्र से पुष्पमाला समर्पित करनी चाहिये । ‘योगे योगे०’ (यजु ११ । १४) इस मन्त्र से पुष्पाञ्जलि देनी चाहिये । ‘समुद्रंगच्छ० ‘ (यजु० ६ । २१) तथा ‘इमं मे गङ्गे० ‘ (ऋ० १० । ७५ । ५) तथा ‘समुद्रज्येष्ठा० ‘ (ऋ० ७ । ४१ । १) इन मन्त्रों से उन्हें अङ्गराग लगाये । ‘आ प्यायस्व० ‘ (यजु० १२ । ११२) इस मन्त्र से दुग्ध-स्नान, ‘दधिक्राव्णो० ‘ (यजु० २३ । ३२) इस मन्त्र से दधिस्नान, ‘तेजोऽसि शुक्र० ‘ (यजु० २२ । १) इस मन्त्र से घृत-स्नान तथा ‘या ओषधी० ‘ (यजु० १२ । ७५) इस मन्त्र द्वारा ओषधि-स्नान कराये । इसके बाद ‘द्विपदा० ‘ (यजु० २३ । ३४) इस मन्त्र से भगवान् का उद्वर्तन करे । फिर ‘मा नस्तोके० ‘ (यजु० १६ । १६) इस मन्त्र से पुनः स्नान कराये । ‘विष्णो रराट० ‘ (यजु० ५। २१) इस मन्त्र से गन्ध तथा जल से स्नान कराये। ‘स्वर्ण घर्मः० ‘ (यजु० १८ । ५०) इस मन्त्र से पाद्य देना चाहिये । ‘इदं विष्णुर्वि चक्रमे० ‘ (यजु० ५ । १५) इस मन्त्र से अर्घ्य प्रदान करना चाहिये । ‘वेदोऽसि० ‘ (यजु० २ । २१) इस मन्त्र से यज्ञोपवीत और ‘बृहस्पते० ‘ (यजु० २६ । २३) इस मन्त्र से वस्त्र-उपवस्त्र आदि भगवान् सूर्य को चढ़ाना चाहिये । इसके अनन्तर पुष्पमाला चढ़ाये। ‘धूरसि धूर्व० ‘ (यजु० १ । ८) इस मन्त्र से गुग्गुलसहित धूप दिखाना चाहिये । ‘समिद्धो० ‘ (यजु० २९ । १) इस मन्त्र से रोचना लगाये। ‘दीर्घायुस्त० ‘(यजु० १२ । १००) इस मन्त्र से आलक्त (आलता) लगाये । ‘सहस्रशीर्षा० ‘ (यजु० ३१ । १) इस मन्त्र से भगवान् सूर्य के सिर का पूजन करना चाहिये । ‘संभावया० ‘ इस मन्त्र से दोनों नेत्रों और ‘विश्वश्चक्षु० ‘ (यजु० १७ । १९) इस मन्त्र से भगवान् सूर्य के सम्पूर्ण शरीर का स्पर्श करना चाहिये । ‘श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च ‘ (यजु० ३१ । २२) इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए विधिपूर्वक भगवान् सूर्यनारायण का श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पूजन अर्चन करना चाहिये ।
(अध्याय १९८-२०२)

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21. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३१

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भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८६

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118. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९० से १९२

119. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९३

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