भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २०८ से २०९
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – २०८ से २०९
सप्त-सप्तमी तथा द्वादश मास-सप्तमी-व्रतों का वर्णन

शतानीक ने कहा — मुने ! भगवान् भास्कर को अति प्रिय जिन अर्क-सम्पुटिका आदि सात सप्तमी-व्रतों की आपने पूर्व में चर्चा की है, उन्हें बतलाने की कृपा करें ।om, ॐसुमन्तुजी बोले — महामते ! मैं सात सप्तमियों का वर्णन कर रहा हूँ, उन्हें सुनिये । पहली सप्तमी अर्क-सम्पुटिका नाम की है । दूसरी मरिच-सप्तमी, तीसरी निम्ब-सप्तमी, चौथी फल-सप्तमी पाँचवीं अनोदना-सप्तमी, छटी विजय-सप्तमी तथा सातवीं कामिका नाम की सप्तमी है । इनकी संक्षिप्त विधि इस प्रकार है —उत्तरायण या दक्षिणायन, शुक्ल पक्ष में, रविवार के दिन ग्रहण में, पुँल्लिङ्गवाची नक्षत्र में इन सप्तमी-व्रतों को ग्रहण करना चाहिये । व्रती को जितेन्द्रिय, पवित्रता-सम्पन्न और ब्रह्मचारी होकर सूर्य की अर्चना में रत रहना चाहिये तथा जप-होमादि में तत्पर रहना चाहिये । व्रती को चाहिये कि पञ्चमी के दिन एकभुक्त रहकर षष्ठी के दिन जितेन्द्रिय रहे एवं निन्द्य पदार्थों का भक्षण न करे । अर्क-सेवन से पहली सप्तमी, मरिच से दूसरी सप्तमी तथा निम्ब-पत्र से तीसरी सप्तमी व्यतीत करे । फल-सप्तमी में फलों का भक्षण करना चाहिये । अनोदना सप्तमी के दिन अन्न भक्षण न करके उपवास करे । विजय-सप्तमी के दिन वायु भक्षण कर उपवास करे । कामिका-सप्तमी को भी हविष्य भोजन कर यथा-विधि सम्पन्न करना चाहिये । जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इन सप्तमी-व्रत को करता है, वह सूर्यलोक को प्राप्त कर लेता है । अर्कसम्पुटिका-व्रत से सात पीढ़ी तक अचल सम्पत्ति बनी रहती है । मरिच-सप्तमी के अनुष्ठान से प्रिय पुत्रादि का साथ बना रहता है । निम्ब-सप्तमी के पालन से सभी रोग नष्ट हो जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है और फल-सप्तमी-व्रत के करने से व्रती अनेक पुत्र-पौत्रादि से युक्त हो जाता है । अनोदना-सप्तमी के व्रत से धन-धान्य, पशु, सुवर्ण, आरोग्य तथा सुख सदा सुलभ रहते हैं । विजय-सप्तमी का व्रत करने से शत्रुगण नष्ट हो जाते हैं । कामिका-सप्तमी के विधिवत अनुष्ठान करने से पुत्र की कामना करनेवाला पुत्र, अर्थ की कामना करनेवाला अर्थ, विद्या-प्राप्ति की कामना करनेवाला विद्या और राज्य की कामना करनेवाला राज्य प्राप्त करता है । पुरुष हो या स्त्री इस व्रत को विधिपूर्वक सम्पन्न कर परमगति को प्राप्त कर लेते हैं । उनके लिये तीनों लोकों में कुछ भी दुर्लभ नहीं हैं । उनके कुल में न कोई अन्धा होता है, न कुष्ठी, न नपुंसक और न कोई विकलाङ्ग तथा न निर्धन । लोभवश, प्रमादवश सा अज्ञानवश यदि व्रत-भङ्ग हो जाय तो तीन दिन तक भोजन न करे और मुण्डन कराकर प्रायश्चित करे । पुनः व्रत के नियमों को ग्रहण करे । सुमन्तुजी ने कहा — राजन् ! चैत्रादि बारह मास की शुक्ल सप्तमियों में गोमय, यावक, सूखे पत्ते, दूध अथवा भिक्षान्न भक्षण कर अथवा एकभुक्त रहकर उपवास करना चाहिये । भगवान् सूर्य की पूजा कमल-पुष्प, नाना प्रकार के गन्ध, चन्दन, गुग्गुल धूप आदि विविध उपचारों से करनी चाहिये तथा इन्हीं उपचारों से श्रेष्ठ ब्राह्मणों की भी पूजा कर उन्हें दक्षिणा देकर संतुष्ट करना चाहिये । इससे व्रती को अपार दक्षिणावाले यज्ञ का फल प्राप्त होता है और वह सूर्यलोक में पूजित होता है । चैत्रादि बारह महीनों में पूजित होनेवाले भगवान् सूर्य के बारह नाम इस प्रकार हैं — चैत्र में विष्णु, वैशाख में अर्यम्मा, ज्येष्ठ में विवस्वान्, आषाढ़ में दिवाकर, श्रावण में पर्जन्य, भाद्रपद में वरुण, आश्विन में मार्तण्ड, कार्तिक में भार्गव, मार्गशीर्ष में मित्र, पौष में पूषा, माघ में भग तथा फाल्गुन में त्वाष्टा ।
(अध्याय २०८-२०९)

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