भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१५
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – २१५
निम्ब-सप्तमी तथा फल-सप्तमी-व्रत का वर्णन

सुमन्तुजी ने कहा — हे वीर ! अब मैं तृतीय निम्ब-सप्तमी (वैशाख शुक्ल-सप्तमी)— की विधि बता रहा हूँ, आप सुने । इसमें निम्ब-पत्र का सेवन किया जाता है । यह सप्तमी सभी तरह की व्याधियों को हरनेवाली है । इस दिन हाथ में शार्ङ्गधनुष, शङ्ख, चक्र और गदा धारण किये हुए भगवान् सूर्य का ध्यान कर उनकी पूजा करनी चाहिये । भगवान् सूर्य का मूल मन्त्र हैं— ‘ॐ खखोल्काय नमः ‘। “ॐ आदित्याय विद्महे विश्वभागाय धीमहि । तन्नः सूर्यः प्रचोदयात् ।” यह सूर्य का गायत्री मन्त्र है ।om, ॐपूजा में सर्वप्रथम समाहित-चित्त होकर प्रयत्नपूर्वक मन्त्र-पूत जल से पूजा के उपचारों का प्रोक्षण करे । अपने में भगवान् सूर्य की भावना करके उनका ध्यान करते हुए मन्त्रवित् हृदय आदि अङ्गों में मन्त्र का विन्यास करे । सम्मार्जनी मुद्रा से दिशाओं का प्रतिबोधन करे । भू-शोधन करना चाहिये । पूजा की यह विधि सभी के लिये अभीष्ट फल देनेवाली हैं ।

पवित्र स्थान में कर्णिकायुक्त एक अष्टदल-कमल बनाये, उसमें आवाहिनी मुद्रा के द्वारा भगवान् सूर्य का आवाहन करे । वहाँ पर मनोहर-स्वरूप खखोल्क भगवान् सूर्य को स्नान करावे । मन्त्रमूर्ति भगवान् सूर्य की स्थापना और स्नान आदि कर्म मन्त्र द्वारा करने चाहिये । आग्नेय दिशा में भगवान् सूर्य के हृदय की, ईशानकोण में सिर की, नैर्ऋत्यकोण में शिखा की एवं पूर्वदिशा में दोनों नेत्रों की भावना करे । इसके अनन्तर ईशानकोण में सोम, पूर्व दिशा में मंगल, आग्नेय में बुध, दक्षिण में बृहस्पति, नैर्ऋत्य दिशा में शुक्र, पश्चिम में शनि, वायव्य में केतु और उत्तर में राहु की स्थापना करे । कमल की द्वितीय कक्षा में भगवान् सूर्य के तेज से उत्पन्न द्वादश आदित्यों — भग, सूर्य, अर्यमा, मित्र, वरुण, सविता, धाता, विवस्वान्, त्वष्टा, पूषा, चन्द्र तथा विष्णु को स्थापित करे । पूर्व में इन्द्र, दक्षिण में यम, पश्चिम में वरुण, उत्तर में कुबेर, ईशान में ईश्वर, अग्निकोण में अग्निदेवता, नैर्ऋत्य में पितृदेव, वायव्य में वायु तथा जया, विजया, जयन्ती, अपराजिता, शेष, वासुकि, रेवती, विनायक, महाश्वेता, राज्ञी, सुवर्चला आदि तथा अन्य देवताओं के समूह को यथास्थान स्थापित करना चाहिये । सिद्धि, वृद्धि, स्मृति, उत्पलमालिनी तथा श्री इनको अपने दक्षिण पार्श्व में स्थापित करना चाहिये । प्रज्ञावती, विभा, हारीता, बुद्धि, ऋद्धि, विसृष्टि, पौर्णमासी तथा विभावरी आदि देव-शक्तियों को अपने उत्तर भगवान् सूर्य के समीप स्थापित करना चाहिये ।इस प्रकार भगवान् सूर्य तथा उनके परिकरों को एवं देव-शक्तियों की स्थापना करने के अनन्तर मन्त्रपूर्वक धूप, दीप, नैवेद्य, अलंकार, वस्त्र, पुष्प आदि उपचारों को भगवान् सूर्य तथा उनके अनुगामी देवों को प्रदान करे । इस विधि से जो भास्कर की सदा अर्चना करता है, वह सभी कामनाओं को पूर्ण कर सूर्यलोक को प्राप्त करता है । निम्नलिखित मन्त्र द्वारा निम्ब की प्रार्थनाकर उसे भगवान् को निवेदित करके प्राशन करे —

“त्वं निम्ब कटुकात्मासि आदित्यनिलयस्तथा ।
सर्वरोगहरः शान्तो भव में प्राशनं सदा ॥”

‘हे निम्ब ! तुम भगवान् सूर्य के आश्रयस्थान हो । तुम कटु स्वभाववाले हो, तुम्हारे भक्षण करने से मेरे सभी रोग सदा के लिये नष्ट हो जायें और तुम मेरे लिये शान्तस्वरूप हो जाओ ।’

इस मन्त्र से निम्ब का प्राशन कर भगवान् सूर्य के समक्ष पृथ्वी पर बैठकर सूर्यमन्त्र का जप करे । इसके बाद यथाशक्ति ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा दे । अनन्तर संयत-वाक् हो लवण-वर्जित मधुर भोजन करे । इस प्रकार एक वर्ष तक इस निम्ब-सप्तमी का व्रत करनेवाला व्यक्ति सभी रोगों से मुक्त हो सूर्यलोक को जाता है । सुमन्तुजी ने कहा — राजन् ! भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को उपवास कर भगवान् सूर्य की सौर-विधान से पूजा करनी चाहिये । पुनः अष्टमी को स्नानकर दिवाकर की पूजा कर ब्राह्मणों को खजूर, नारियल, मातुलुङ्ग (बिजौरा) तथा आम्र के फलों को भगवान् के सम्मुख रखना चाहिये और ‘मार्तण्डः प्रीयताम्’ ऐसा कहकर इन्हें ब्राह्मणों को निवेदित कर दे । यह फल-सप्तमी कहलाती है । ‘सर्वे भवन्तु सफला मम कामाः समन्ततः ।’ ऐसा कहकर स्वयं भी उन्हीं फलों का भक्षण करे । इस फल-सप्तमी का एक वर्ष तक श्रद्धाभक्ति-पूर्वक व्रत करने से पुत्र-पौत्रों की प्राप्ति होती हैं ।

(यहाँ भविष्यपुराण का पाठ कुछ त्रुटित प्रतीत होता है। सात सप्तमी-व्रतों में से अपशिष्ट अनोदना, विजय तथा कामिका-सप्तमी-व्रत छूट गये हैं । चतुर्वर्ग-चिन्तामणि (हेमाद्रि) के व्रतखण्ड में भविष्यपुराण के नाम से इन व्रतों का विस्तार से वर्णन आया है । वैशाख शुक्ला सप्तमी अनोदना-सप्तमी, माघ शुक्ला सप्तमी विजया-सप्तमी तथा फाल्गुन शुक्ला सप्तमी कामिका-सप्तमी कही गयी है । विजया-सप्तमी में सूर्यसहस्त्रनाम स्तोत्र भी पढ़ा गया है । इससे लगता है कि हेमाद्रि के पास भविष्यपुराण की प्रामाणिक एवं पूर्ण शुद्ध प्रति सुरक्षित थी ।)
(अध्याय २१५)

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