ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
( ब्राह्मपर्व )
अध्याय – २३
चतुर्थी-कल्प-वर्णन में गणेशजी का विघ्न-अधिकार तथा उनकी पूजा-विधि

राजा शतानीक ने सुमन्तु मुनि से पूछा – विप्रवर ! गणेशजी को गणों का राजा किसने बनाया और बड़े भाई कार्तिकेय के रहते हुए ये कैसे विघ्नों के अधिकारी हो गये ?

सुमन्तु मुनिने कहा – राजन् ! आपने बहुत अच्छी बात पूछी है । जिस कारण ये विघ्नकारक हुए हैं और जिन विघ्नों को करने से इस पद पर इनकी नियुक्ति हुई, वह मैं कह रहा हूँ, उसे आप एकाग्रचित्त होकर सुनें । पहले कृतयुग (सत्ययुग) में प्रजाओं की जब सृष्टि हुई तो बिना विघ्न-बाधा के देखते-ही-देखते सब कार्य सिद्ध हो जाते थे । अतः प्रजा को बहुत अहंकार हो गया । क्लेश-रहित एवं अहंकार से परिपूर्ण प्रजा को देखकर ब्रह्मा ने बहुत सोच-विचार करके प्रजा-समृद्धि के लिये विनायक को विनियोजित किया । अतः ब्रह्मा के प्रयास से भगवान् शंकर ने गणेश को उत्पन्न किया और उन्हें गणों का अधिपति बनाया ।om, ॐ

राजन् ! जो प्राणी गणेश की बिना पूजा किये ही कार्य आरम्भ करता है उनके लक्षण मुझसे सुनिये – वह व्यक्ति स्वप्न में अत्यन्त गहरे जल में अपने को डूबते, स्नान करते हुए या केश मुड़ाये देखता है । काषाय (गेरुआ) वस्त्र से आच्छादित तथा हिंसक व्याघ्रादि पशुओं पर अपने को चढ़ता हुआ देखता हैं । अन्त्यज, गर्दभ तथा ऊँट आदि पर चढ़कर परिजनों से घिरा वह अपने को जाता हुआ देखता है । जो मानव केकड़े पर बैठकर अपने को जल की तरंगो के बीच गया हुआ देखता है और पैदल चल रहे लोगों से घिरकर यमराज के लोक को जाता हुआ अपने को स्वप्न में देखता हैं, वह निश्चित ही अत्यंत दुःखी होता हैं ।

जो राजकुमार स्वप्न में अपने चित्त तथा आकृति को विकृत रुप में अवस्थित, करवीर के फूलों की माला से विभूषित देखता हैं, वह उन भगवान् विघ्नेश के द्वारा विघ्न उत्पन्न कर देने के कारण पूर्व-वंशानुगत प्राप्त राज्य को प्राप्त नहीं कर पाता । कुमारी कन्या अपने अनुरुप पति को नहीं प्राप्त कर पाती । गर्भिणी स्त्री संतान को नहीं प्राप्त कर पाती है । श्रोत्रिय ब्राह्मण1 आचार्यत्व का लाभ नहीम प्राप्त कर पाता और शिष्य अध्ययन नहीं कर पाता । वैश्य को व्यापार में लाभ नहीं प्राप्त होता है और कृषक को कृषि-कार्य में पूरी सफलता नहीं मिलती । इसलिए राजन् ! ऐसे अशुभ स्वप्नों को देखने पर भगवान् गणपति की प्रसन्नता के लिये विनायक-शान्ति करनी चाहिये ।

शुक्ल पक्ष की चतुर्थी के दिन, बृहस्पतिवार और पुष्य नक्षत्र2 होने पर गणेशजी को सर्वौषधि3 और सुगन्धित द्रव्य-पदार्थों से उपलिप्त करे तथा उन भगवान् विघ्नेश के सामने स्वयं भद्रासन4 पर बैठकर ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन5 कराये । तदनन्तर भगवान शङ्कर, पार्वती और गणेश की पूजा करके सभी पितरों तथा ग्रहों की पूजा करे । चार कलश स्थापित कर उनमें सप्त-मृत्तिका6, गुग्गुल और गोरोचन आदि द्रव्य तथा सुगन्धित पदार्थ छोड़े । सिंहासनस्थ गणेशजी को स्नान कराना चाहिये । स्नान कराते समय इन मन्त्रों का उच्चारण करें –

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इन मन्त्रों से स्नान कराकर हवन आदि कार्य करे । अनन्तर हाथ में पुष्प, दूर्वा तथा सर्षप (सरसों) लेकर गणेशजी की माता पार्वती को तीन-चार बार पुष्पाञ्जलि प्रदान करनी चाहिये । मंत्र उच्चारण करते हुए इस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये –

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अर्थात् ‘हे भगवति ! आप मुझे रूप, यश, तेज, पुत्र तथा धन दें, आप मेरी सभी कामनाओं को पूर्ण करें । मुझे अचल बुद्धि प्रदान करें और इस पृथ्वी पर पसिद्धि दें ।’

प्रार्थना के पश्चात् ब्राह्मणों को तथा गुरु को भोजन कराकर उन्हें वस्त्र-युगल तथा दक्षिणा समर्पित करे । इस प्रकार भगवान् गणेश तथा ग्रहों की पूजा करने से सभी कर्मों का फल प्राप्त होता है और अत्यन्त श्रेष्ठ लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । सूर्य, कार्तिकेय और विनायक का पूजन एवं तिलक करने से सभी सिद्धियों की प्राप्ति होती है ।
(अध्याय २३)
1. स्मृति-पुराणों में ब्राह्मण के 8 भेदों का वर्णन मिलता है:- मात्र, ब्राह्मण, श्रोत्रिय, अनुचान, भ्रूण, ऋषिकल्प, ऋषि और मुनि। 8 प्रकार के ब्राह्मण श्रुति में पहले बताए गए हैं। इसके अलावा वंश, विद्या और सदाचार से ऊंचे उठे हुए ब्राह्मण ‘त्रिशुक्ल’ कहलाते हैं। ब्राह्मण को धर्मज्ञ विप्र और द्विज भी कहा जाता है।
1. मात्र: ऐसे ब्राह्मण जो जाति से ब्राह्मण हैं लेकिन वे कर्म से ब्राह्मण नहीं हैं उन्हें मात्र कहा गया है। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता। बहुत से ब्राह्मण ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार और वैदिक कर्मों से दूर हैं, तो वैसे मात्र हैं।
2. ब्राह्मण: ईश्वरवादी, वेदपाठी, ब्रह्मगामी, सरल, एकांतप्रिय, सत्यवादी और बुद्धि से जो दृढ़ हैं, वे ब्राह्मण कहे गए हैं। तरह-तरह की पूजा-पाठ आदि पुराणिकों के कर्म को छोड़कर जो वेदसम्मत आचरण करता है वह ब्राह्मण कहा गया है।
3. श्रोत्रिय: स्मृति अनुसार जो कोई भी मनुष्य वेद की किसी एक शाखा को कल्प और छहों अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित 6 कर्मों में सलंग्न रहता है, वह ‘श्रोत्रिय’ कहलाता है।
4. अनुचान: कोई भी व्यक्ति वेदों और वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्ध चित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान है, वह ‘अनुचान’ माना गया है।
5. भ्रूण : अनुचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल यज्ञ और स्वाध्याय में ही संलग्न रहता है, ऐसे इंद्रिय संयम व्यक्ति को भ्रूण कहा गया है।
6. ऋषिकल्प : जो कोई भी व्यक्ति सभी वेदों, स्मृतियों और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर मन और इंद्रियों को वश में करके आश्रम में सदा ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए निवास करता है उसे ऋषिकल्प कहा जाता है।
7. ऋषि : ऐसे व्यक्ति तो सम्यक आहार, विहार आदि करते हुए ब्रह्मचारी रहकर संशय और संदेह से परे हैं और जिसके श्राप और अनुग्रह फलित होने लगे हैं उस सत्यप्रतिज्ञ और समर्थ व्यक्ति को ऋषि कहा गया है।
8. मुनि : जो व्यक्ति निवृत्ति मार्ग में स्थित, संपूर्ण तत्वों का ज्ञाता, ध्याननिष्ठ, जितेन्द्रिय तथा सिद्ध है ऐसे ब्राह्मण को ‘मुनि’ कहते हैं।

2. निश्चित वार तथा नक्षत्र के संयोग होने पर सर्वार्थ सिद्धि योग का निर्माण होयता है। नक्षत्र तथा वार के संयोग जिनमें सर्वार्थ सिद्धि योग निर्मित होते है नीचे दिये गये हैं –
रविवार-अश्विनी, पुष्य, तीनों उत्तरा, हस्त और मूल नक्षत्र
सोमवार-रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य, अनुराधा, श्रवण नक्षत्र
मंगलवार-अश्विनी, कृतिका, अश्लेषा, उ. भद्रा नक्षत्र
बुधवार-कृतिका, राहिणी, मृगशिरा, हस्त, अनुराधा नक्षत्र
बृहस्पतिवार-अश्विनी,पुनर्वसु, पुष्य, अनुराधा, रेवती नक्षत्र
शुक्रवार-अश्विनी, पुनर्वसु, अनुराधा, श्रवण, रेवती नक्षत्र
शनिवार-रोहिणी,स्वाती,श्रवण नक्षत्र
सर्वार्थ सिद्धि योग यदि गुरु-पुष्य योग से निर्मित होता है तो यह विवाह के लिए ठीक नहीं है ।
यदि यह योग शनि रोहिणी योग से निर्मित होता है तो यह यात्राओं के लिए उपयुक्त नहीं है।
यदि यह योग मंगल-अश्विनी योग से निर्मित होता है तो यह गृह प्रवेश के लिए उपयुक्त नहीं है ।
यदि यह योग शुक्ल पक्ष में बृहस्पतिवार या शुक्रवार को बनता है तो यह योग बहुत ही शुभ माना जाता है।
इस योग में आप कोई भी नवीन कार्य आरम्भ कर सकते हैं । इन मुहूर्तों में शुक्र अस्त, पंचक, भद्रा आदि पर विचार करने की भी आवश्यकता नहीं होती है।
इसी प्रकार गुरूवार को पुष्य नक्षत्र हो तो अमृत सिद्धि योग परन्तु नवमी तिथि पड़ जाए तो विष योग होता है।

3. (वचाचम्पकभुस्ताश्च सर्वोषध्यो दश स्मृताः ॥ (छन्दोगपरिशिष्ट)
भावार्थ – ‘दशौषधि’ – कूट, जटामांसी, दोनों हलदी, मुरा, शिलाजीत, चन्दन, बच, चम्पक और नागरमोथा – ये दस द्रव्य सर्वौषधि के है ।)
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4.भद्रासन विधि –
दोनों पांवों को एक साथ सामने फैलाकर जमीन पर बैठें । अंगुलियों को आगे की दिशा में होना चाहिए । पांवों को धीरे-धीरे घुटनों से मोड़ें और दोनों एडि़यों को एक दूसरे से जोड़ें । अपने हाथ बगल में रख लें और हथेलियों को जमीन पर टिका दें । टखनों को हाथों से पकड़ लें । धीरे-धीरे पांवों को मूलाधार की ओर लाएं, जब तक वे मूलाधार के नीचे न पहुंच जाएं । घुटनों का जमीन से स्पर्श होना चाहिए ।

5. स्वस्तिवाचन

6. गजाश्वरवल्मीकसङ्गमाद्‌ध्रदगोकुलात् ।
राजद्वारप्रवेशाच्च मृदमानीय निःक्षिपेत् ॥ (स्मृतिसङ्‌ग्रह)
सरल भावार्थ – ‘सप्तमृद्’ – हाथ-घोड़ेके चलनेका रास्ता, संकुचित मार्ग, दीमक, सरिता-सङ्गम, गोशाला और राजद्वारमें प्रवेश करनेकी जगह-इन स्थानोंकी मृत्तिका सप्तमृद्‌ है ।

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