ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नम:
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)

वेदाध्ययन-विधि, ओंकार तथा गायत्री-महात्म्य, आचार्यादि-लक्षण, ब्रह्मचारि-धर्म-निरूपण, अभिवादन-विधि, स्नातक की महिमा में अङ्गिरापुत्र का आख्यान, माता-पिता और गुरु की महिमा

सुमन्तु मुनिने कहा – राजन् ! ब्राह्मण का केशान्त (समावर्तन) – संस्कार सोलहवें वर्ष में, क्षत्रिय का बाइसवें वर्ष में तथा वैश्य का पचीसवें वर्ष में करना चाहिये। स्त्रियों के संस्कार अमंत्रक करने चाहिये। केशान्त-संस्कार होने के अनन्तर चाहे तो गुरु-गृह में रहे अथवा अपने घर में आकर विवाह कर अग्निहोत्र ग्रहण करे। स्त्रियों के लिए मुख्य संस्कार विवाह है।
राजन् ! यहाँ तक मैंने उपनयन का विधान बतलाया। अब आगे का कर्म बताते हैं, उसे आप सुनें। शिष्य का यज्ञोपवीत कर गुरु पहले उसको शौच, आचार, संध्योपासन, अग्नि-कार्य सिखाये और वेद का अध्ययन कराये। शिष्य भी आचमन कर उत्तराभिमुख हो ब्रह्माञ्जलि बाँधकर एकाग्र-चित्त हो प्रसन्न-मन से वेदाध्ययन के लिए बैठे। पढ़ने के आरम्भ तथा अन्त में गुरु के चरणों की वंदना करे। पढ़ने के समय दोनों हाथों की जो अञ्जलि बाँधी जाती है, उसे ‘ब्रह्माञ्जलि’ कहा जाता है।om, ॐ
शिष्य गुरु का दाहिना चरण दाहिने हाथ से और बायाँ चरण बायें हाथ से छूकर उनको प्रणाम करे। वेद के पढने के समय आदि में और अंत में ओंकार का उच्चारण न करने से सब निष्फल हो जाता है पहले का पढ़ा हुआ विस्मृत हो जाता है और आगे का विषय याद नहीं होता।
पूर्व दिशा में अग्र-भाग वाले कुशा के आसन पर बैठकर पवित्री धारण करे तथा तीन बार प्राणायाम से पवित्र होकर ओंकार का उच्चारण करे। प्रजापति ने तीनों वेदों के प्रतिनिधि-भूत अकार, उकार और मकार – इन तीन वर्णों को तीनों वेदों से निकाला है, इनसे ओंकार बनता है। भूर्भुवः स्वः – ये तीनों व्याहृतियाँ और गायत्री के तीन पाद तीनों वेदों से निकले है। इसलिये जो ब्राह्मण ओंकार तथा व्याहृत्ति-पूर्वक त्रिपदा गायत्री का दोनों संध्याओं में जप करता है, वह वेदपाठ के पुण्य को प्राप्त करता है। और जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपनी क्रिया से हीन होते हैं, उनकी साधू पुरुषों में निन्दा होती है तथा परलोक में भी वे कल्याण के भागी नहीं होते, इसलिए अपने कर्म का त्याग नही करना चाहिये।
प्रणव, तीन व्याहृतियाँ और त्रिपदा गायत्री- ये सब मिलकर जो मंत्र (गायत्री-मंत्र) होता है, वह ब्रह्मा का मुख है। जो इस गायत्री-मन्त्र का श्रद्धा-भक्ति से तीन वर्ष तक नित्य नियम से विधि-पूर्वक जप करता है, वह वायु के समान वेग सम्पन्न होकर आकाश के स्वरुप को धारणकर ब्रह्मतत्त्व को प्राप्त करता है। एकाक्षर ‘ॐ’ परब्रह्म है, प्राणायाम परम तप है। सावित्री (गायत्री) से बढकर कोई मन्त्र नहीं है और मौन से सत्य बोलना श्रेष्ठ है। तपस्या, हवन, दान, यज्ञादि क्रियाएँ स्वरूपतः नाशवान हैं, किंतु प्रणव-स्वरुप एकाक्षर ब्रह्म ओंकार का कभी नाश नहीं होता। विधि-यज्ञों (दर्श-पौर्णमास आदि) से जप-यज्ञ (प्रणवादि – जप) सदा ही श्रेष्ठ है। उपांशु-जप (जिस जप में केवल ओठ और जीभ चलते हैं, शब्द न सुनायी पड़े) लाख गुना और उपांशु-जप से मानस-जप हजार गुना अधिक फल देने वाला होता है। जो पाक-यज्ञ (पितृकर्म, हवन, बलिवैश्वदेव) विधि-यज्ञ के बराबर हैं, वे सभी जप-यज्ञ की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है। ब्राह्मण को सब सिद्धि जप से प्राप्त हो जाती है और कुछ करे या न करे, पर ब्राह्मण को गायत्री-जप अवश्य करना चाहिये।
सूर्योदय से पूर्व जब तारे दिखायी देते रहें तभी से प्रातः संध्या आरम्भ कर देनी चाहिये और सूर्योदयपर्यन्त गायत्री-जप करता रहे। इसी प्रकार सूर्यास्त से पहिले ही सायं-संध्या आरम्भ करे और तारों के दिखायी देने तक गायत्री-जप करता रहे। प्रातः-संध्या में खड़े होकर जप करने से रात्रि के पाप नष्ट होते हैं और सायं-संध्या के समय बैठकर गायत्री-जप करने से दिन के पाप नष्ट होते है। इसलिए दोनों कालों की संध्या अवश्य करनी चाहिये। जो दोनों संध्याओं को नहीं करता उसे सम्पूर्ण द्वि-जाति के विहित कर्मों से बहिष्कृत कर देना चाहिये। घर के बाहर एकान्त-स्थान में, अरण्य या नदी-सरोवर आदि के तट पर गायत्री का जप करने से बहुत लाभ होता है। मन्त्रों के जप, संध्या के मन्त्र और जो ब्रह्म-यज्ञादि नित्य-कर्म हैं, इनके मन्त्रों के उच्चारण में अनध्याय का विचार नहीं करना चाहिये अर्थात् नित्यकर्म में अनध्याय नहीं होता।
यज्ञोपवीत के अनन्तर समावर्तन-संस्कार तक शिष्य गुरु के घर में रहे। भूमि पर शयन करे, सब प्रकारसे गुरु की सेवा करे और वेदाध्ययन करता रहे। सब कुछ जानते हुए भी जडवत् रहे। आचार्य का पुत्र, सेवा करनेवाला, ज्ञान देनेवाला, धार्मिक, पवित्र, विश्वासी, शक्तिमान्, उदार, साधुस्वभाव तथा अपनी जातिवाला – ये दस अध्यापन के योग्य हैं। बिना पूछे किसीसे कुछ न कहे, अन्याय से पूछने वाले को कुछ न बताये। जो अनुचित ढंग से पूछता है और जो अनुचित ढंग से उत्तर देता है, वे दोनों नरक में जाते है और जगत् में सबके अप्रिय होते है। जिसको पढ़ाने से धर्म या अर्थ की प्राप्ति न हो और वह कुछ सेवा-शुश्रूषा भी न करे, ऐसे को कभी न पढाये, क्योंकि ऐसे विद्यार्थी को दी गयी विद्या ऊपर में बीज-वपन के समान निष्फल होती है। विद्या के अधिष्ठातृ-देवता ने ब्राह्मण से कहा – ‘मैं तुम्हारी निधि हूँ, मेरी भली-भाँति रक्षा करो, मुझे ब्राह्मणों (अध्यापकों) के गुणों में दोष-बुद्धि रखने वाले को और द्वेष करने वाले को न देना, इससे मैं बलवती रहूँगी। जो ब्राह्मण जितेन्द्रिय, पवित्र, ब्रह्मचारी और प्रमाद से रहित हो उसे मुझे देना।’
जो गुरुकी आशा के बिना वेद-शास्त्र आदि को स्वयं ग्रहण करता है, वह अति भयंकर रौरव नरक को प्राप्त होता है। जो लौकिक, वैदिक अथवा आध्यात्मिक ज्ञान दे, उसे सर्वप्रथम प्रणाम करना चाहिये। जो केवल गायत्री जानता हो, पर शास्त्र की मर्यादा में रहे वह सबसे उत्तम है, किंतु सभी वेदादि शास्त्रों को जानते हुए भी मर्यादा में न रहे और भक्ष्याभक्ष्य का कुछ भी विचार न करे तथा सभी वस्तुओं को बेचे, वह अधम है।
गुरु के आगे, शय्या अथवा आसन पर न बैठे। यदि पहिले से बैठा हो तो गुरु को आते देख नीचे उतर जाय और उनका अभिवादन करे। वृद्धजनों को आते देख छोटों के प्राण उच्छ्वसित हो जाते है, इसलिये नम्रतापूर्वक खड़े होकर उन्हें प्रणाम करने से वे प्राण पुनः अपने स्थान पर आ जाते है। प्रतिदिन बड़ों की सेवा और उन्हें प्रणाम करने वाले पुरुष के विद्या, यज्ञ और बल – ये चारों निरन्तर बढ़ते रहते हैं –
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धेपसेविनः।
चत्वारि सम्यग्वर्धन्ते आयुः प्रज्ञा यशो बलम् ॥ ( ब्राह्मपर्व ४।५०)

अभिवादन के समय दुसरे की स्त्री को और जिससे किसी प्रकार का सम्बन्ध न हो उसे भवती (आप), सुभगे अथवा भगिनी (बहन) कहकर सम्बोधित करे। चाचा, मामा, ससुर, ऋत्विक् और गुरु – इनको अपना नाम लेते हुए प्रणाम करना चाहिये। मौसी, मामी, सास, बुआ (पिताकी बहन) और गुरु की पत्नी – ये सब मान्य एवं पूज्य हैं। बड़े भाई की सवर्णा स्त्री (भाभी) का जो नित्य आदर करता है और उसे माता के समान समझता है, वह विष्णुलोक को प्राप्त करता है। पिता की बहन, माता की बहन और अपनी बड़ी बहन – ये तीनों माता के समान ही है। फिर भी अपनी माता – इन सबकी अपेक्षा श्रेष्ठ है। पुत्र, मित्र और भानजा (बहन का लड़का) इनको अपने समान समझना चाहिए। धन-सम्पत्ति, बन्धु, अवस्था, कर्म और विद्या – ये पांचो महत्त्व के कारण हैं – इनमे उत्तरोत्तर एक से दुसरा बड़ा है अर्थात् विद्या सर्वश्रेष्ठ है।
वित्तं बन्धुर्वयः: कर्म विद्या भवति पञ्चमी।
एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम् ॥ (ब्राह्मपर्व ४।७०)

रथ आदि यान पर चढ़े हुए, अतिवृद्ध, रोगी, भारयुक्त, स्त्री, स्नातक (जिसका समावर्तन-संस्कार हो गया हो), राजा और वर (दूल्हा) यदि सामने से आते हों तो इन्हें मार्ग पहले देना चाहिये। ये सभी यदि एक साथ आते हो तो स्नातक और राजा मान्य हैं। इन दोनों में से भी स्नातक विशेष मान्य है।
चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः । स्नातकस्य तु राजश्च पन्था देयो वरस्य च ॥
एषां समागमे तात पूज्यौ स्नातकपार्थिवो । आभ्यां समागमे राजन् स्नातको नृपमानभाक् ॥ (ब्राह्मपर्व ४।७२-७३)

जो ब्राह्मण शिष्य का उपनयन कराकर रहस्य (यज्ञ, विद्या और उपनिषद) तथा कल्प सहित वेदाध्ययन कराता है, उसे ‘आचार्य’ कहते हैं। जो जीविका के निमित्त वेद का एक भाग अथवा वेदाङ्ग पढाता है, यह ‘उपाध्याय’ कहलाता है। जो निषेक अर्थात् गर्भाधनादि संस्कारों को रीति से कराता है और अन्नादि से पोषण करता है, उस ब्राह्मण को ‘गुरु’ कहते हैं। जो अग्निष्टोम, अग्निहोत्र, पाक-यज्ञादि कर्मों का वरण लेकर जिसके निमित्त करता है, वह उसका ‘ऋत्विक्’ कहलाता है। जो पुरुष वेद-ध्वनि से दोनों कान भर देता है, उसे माता-पिता के समान समझकर उससे कभी द्वेष नही करना चाहिये।
उपाध्याय से दस गुना गौरव आचार्य का और आचार्य से सौ गुना पिता का तथा पिता से हजार गुना गौरव माता का होता है –
उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
सहस्त्रेण पितुर्माता गौरवेणात्तिरिच्यते ॥ (ब्राह्मपर्व ४।७९)

जन्म देनेवाला और वेद पढ़ने वाला-ये दोनों पिता हैं, किंतु इनमें भी वेदाध्ययन कराने वाला श्रेष्ठ है, क्योंकि ब्राह्मण का मुख्य जन्म तो वेद पढने से ही होता है। इसलिये ‘उपाध्याय’ आदि जितने पूज्य हैं, उनमे सबसे अधिक गौरव महागुरु का ही होता है।
राजा शतानीक ने पूछा – हे मुने ! आपने उपाध्याय आदि के लक्षण बताये, अब महागुरु किसे कहते है ? यह भी बताने की कृपा करें।
सुमन्तु मुनि बोले – राजन् ! जो ब्राह्मण जयोपजीवी हो अर्थात् अष्टादश-पुराण, रामायण, विष्णुधर्म, शिवधर्म, महाभारत (भगवान श्रीकृष्ण-द्वैपायन व्यास द्वारा रचित महाभारत जो पंचम वेद के नाम से भी विख्यात है) तथा श्रौत एवं स्मार्त-धर्म (विद्वान् लोग इन सभी को ‘जय’ नाम से अभिहित करते है) का ज्ञाता हो, वह “महागुरु” कहलाता है।
जयोपजीवी यो विप्रः स महागुरुरुच्यते । अष्टादशपुराणानि रामस्य चरितं तथा ॥
विष्णुधर्मादयो धर्माः शिवधर्माश्च भारत । कार्ष्णं वेदं पञ्चमं वेदं तु यन्महाभारतं स्मृतम् ॥
श्रौता धर्माश्च राजेन्द्र नारदोक्ता महीपते । जयेति नाम एतेषां प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ (ब्राह्मपर्व ४।८६-८८)

वह सभी वर्णों के लिये पूज्य है। जो शास्त्र द्वारा थोड़ा या बहुत उपकार करे, उसको भी उस उपकार के बदले गुरु मानना चाहिए। अवस्था में चाहे छोटा क्यों न हो, पढ़ाने से वह बालक वृद्ध का भी पिता हो सकता है। राजन् ! इस विषयमें एक प्राचीन आख्यान सुनो –
पूर्वकाल में अङ्गिरा मुनि के पुत्र बृहस्पति (बालक होने भी) बड़े वृद्धों को पढ़ाते थे और पढ़ाने के समय ‘हे पुत्रो ! पढ़ो’ ऐसा कहते थे। बालक द्वारा ‘पुत्र’ सम्बोधन सुनकर उनको बड़ा क्षोम हुआ और वे देवताओं नेके पास गये तथा उन्होंने सारा वृत्तान्त बतलाया। तब देवताओं ने कहा – पितृगणों ! उस बालक ने न्यायोचित बात ही कही हैं, क्योंकि जो अज्ञ हो अर्थात् कुछ न जानता हो वही सच्चे अर्थ में बालक है, किन्तु जो मन्त्र को देने वाला है (वेदों को पढानेवाला है ), उपदेशक है, यह युवा आदि होने पर भी पिता होता है। अवस्था अधिक होने से, केश श्वेत होने से और बहुत वित्त तथा बन्धु-बान्धवों के होने से कोई बड़ा नही होता, बल्कि इस विषय मे ऋषियों यह व्यवस्था की है कि जो विद्या में अधिक हो, वही सबसे महान् (वृद्ध) है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में क्रमशः ज्ञान, बल, धन तथा जन्म से बड़प्पन होता है। सिर के बाल श्वेत हो जाने से कोई वृद्ध नहीं होता, यदि कोई युवा भी वेदादि शास्त्रों का भली-भाँति ज्ञान प्राप्त कर ले तो उसी को वृद्ध (महान्) समझना चाहिये। जैसे काष्ठ से बना हाथी, चमड़े से मढ़ा मृग किसी काम का नहीं, उसी प्रकार वेद से हीन ब्राह्मण का जन्म निष्फल है। मुर्ख को दिया हुआ दान जैसे निष्फल होता है, वैसे ही वेद की ऋचाओं को न जानने वाले ब्राह्मण का जन्म निष्फल होता है। ऐसा ब्राह्मण नाम-मात्र का ब्राह्मण होता है। वेदों का स्वयं कथन है कि जो हमें पढकर हमारा अनुष्ठान न करे, वह पढ़ने का व्यर्थ क्लेश उठाता है, इसलिए वेद पढकर वेद में कहे हुए कर्मों का जो अनुष्ठान करता है अर्थात् तदनुकूल आचरण करता है, उसीका वेद पढ़ना सफल है। जो वेदादि शास्त्रों को जानकर धर्म का उपदेश करते है, वही उपदेश ठीक है, किंतु जो मुर्ख वेदादि शास्त्रों को जाने बिना धर्म का उपदेश करते है, वे बड़े पाप के भागी होते है। शौचरहित (अपवित्र), वेद से रहित तथा नष्ट-व्रत ब्राह्मण को जो अन्न दिया जाता है, वह अन्न रोदन करता है कि ‘मैंने ऐसा कौन-सा पाप किया था जो ऐसे मुर्ख ब्राह्मण के हाथ पड़ा। और वही अन्न यदि जयोपजीवी को दिया जाय तो प्रसन्नतासे नाच उठता है और कहता है कि ‘मेरा अहोभाग्य है, जो मैं ऐसे पात्र के हाथ आया।’ विद्या और तप के अभ्यास से सम्पन्न ब्राह्मण के घर में आने पर सभी अन्नादि ओषधियाँ अति प्रसन्न होती है और कहती हैं कि अब हमारी भी सद्गति हो जायगी। व्रत, वेद और जप से हीन ब्राह्मण को दान नहीं देना चाहिये, क्योंकि पत्थर की नाव नदी के पार नहीं उतार सकती। इसलिए श्रोत्रिय को हव्य-कव्य देने से देवता और पितरों की तृप्ति होती है। घरके समीप रहने वाले मुर्ख ब्राह्मण से दूर रहने वाले विद्वान् ब्राह्मण को ही बुलाकर दान देना चाहिये। परंतु घर के समीप रहने वाला ब्राह्मण यदि गायत्री भी जानता हो तो उसका परित्याग न करे। परित्याग करने से रौरव नरक की प्राप्ति होती है, क्योंकि ब्राह्मण चाहे निगुर्ण हो या गुणवान, परंतु यदि वह गायत्री जानता है तो वह परमदेव-स्वरुप है। जैसे अन्न से रहित ग्राम, जल से रहित कूप केवल नाम-धारक है, वैसे ही विद्याध्ययन से रहित ब्राह्मण भी केवल नाम-मात्र का ब्राह्मण है।
प्राणियों के कल्याण के लिये अहिंसा तथा प्रेम से ही अनुशासन करना श्रेष्ठ है। धर्म की इच्छा करने वाले शासन को सदा मधुर तथा नम्र वचनों का प्रयोग करना चाहिये। जिसके मन, वचन, शुद्ध और सत्य है, वह वेदान्त में कहे गये मोक्ष आदि फलों को प्राप्त करता है। आर्त होने पर भी ऐसा वचन कभी न कहे जिससे किसी की आत्मा दुःखी हो और सुनने वालों को अच्छा न लगे। दुसरे का अपकार करने की बुद्धि नहीं करनी चाहिये। पुरुष को जैसा आनन्द मीठी वाणी से मिलता है, वैसा आनन्द न चन्द्र-किरणों से मिलता है, न चन्दन से, न शीतल छाया से और न शीतल जल से।
(न तथा शशी न सलिलं न चन्दनरसो न शीतलच्छाया । प्रह्लादयति च पुरुषं यथा मधुरभाषिणी वाणी ॥ (ब्राह्मपर्व ४।१२८)
ब्राह्मण को चाहिये कि सम्मान की इच्छा को भयंकर विष के समान समझकर उससे डरता रहे और अपमान को अमृत के सामान स्वीकार करे, क्योंकि जिसकी अवमानना होती है, उसकी कुछ हानि नहीं होती, वह सुखी ही रहता है और जो अवमानना करता है, वह विनाश को प्राप्त होता है। इसलिये तपस्या करता हुआ द्विज नित्य वेद का अभ्यास करे, क्योंकि वेदाभ्यास ही ब्राह्मण का परम तप है।
ब्राह्मण के तीन जन्म होते है – एक तो माता के गर्भ से, दूसरा यज्ञोपवीत होने से और तीसरा यज्ञ की दीक्षा लेने से। यज्ञोपवीत के समय गायत्री माता और आचार्य पिता होता है। वेद की शिक्षा देने से आचार्य को पिता कहते है, क्योंकि यज्ञोपवीत होने के पूर्व किसी भी वैदिक कर्म के करने का अधिकारी वह नहीं होता। श्राद्ध में पढ़े जानेवाले वेद-मंत्रो को छोडकर (अनुपनीत द्विज) वेद-मंत्र का उच्चारण न करे, क्योंकि जब तक वेदारम्भ न हो जाय, तब तक वह शुद्र के समाना माना गया है। यज्ञोपवीत सम्पन्न हो जाने पर वटुको व्रत का उपदेश ग्रहण करना चाहिये और तभी से विधि-पूर्वक वेदाध्ययन करना चाहिये। यज्ञोपवित के समय जो-जो मेखला-चर्म, दण्ड और यज्ञोपवीत तथा वस्त्र जिस-जिसके लिए कहा गया है वह-वह ही धारण करे। अपनी तपस्या की वृद्धि के लिए ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होकर गुरु के पास रहे और नियमों का पालन करता रहे। नित्य स्नानकर पवित्र हो देवता, ऋषियों तथा पितरों का तर्पण करे। पुष्प, फल, जल, समिधा, मृत्तिका, कुशा और अनेक प्रकार के काष्ठों का संग्रह रखे। मद्य, मांस, गन्ध, पुष्पमाला, अनेक प्रकार के रस और स्त्रियों का परित्याग करे। प्राणियों की हिंसा, शरीर में उबटन, अंजन लगाना, जूता और छत्र धारण करना, गीत सुनना, नाच देखना, जुआ खेलना, झूठ बोलना, निन्दा करना, स्त्रियों के समीप बैठना और काम, क्रोध तथा लोभादिके वशीभूत होना -इत्यादि बातें ब्रह्मचारी के लिए निषिद्ध हैं। उसे संयम-पूर्वक एकाकी रहना चाहिये। वह जल, पुष्प, गौ का गोबर, मृत्तिका और कुशा तथा आवश्यकतानुसार भिक्षा नित्य लाये। जो पुरुष अपने कर्मों में तत्पर हों और वेदादि-शास्त्रों को पढ़े तथा यज्ञादि में श्रद्धावान् हों, ऐसे गृहस्थों के घर से ही ब्रह्मचारी को भिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। गुरु के कुल में और अपने पारिवारिक बन्धु-बान्धवों के घरों से भिक्षा न माँगे। यदि भिक्षा अन्यत्र न मिले तो इनके घर से भी भिक्षा ग्रहण करे, किंतु जो महापातकी हो उनकी भिक्षा न लें। नित्य समिधा लाकर सायंकाल और प्रातःकाल हवन करे। भिक्षा माँगने के समय वाणी संयमित रखे। ब्रह्मचारी के लिए भिक्षा का अन्न मुख्य है। एक का अन्न नित्य न ले। भिक्षावृत्ति से रहना उपवास के बराबर माना गया है। यह धर्म केवल ब्राह्मण के लिए कहा गया है, क्षत्रिय और वैश्य के धर्म में कुछ भेद है।
ब्रह्मचारी गुरु के सम्मुख हाथ जोडकर खड़ा रहे, जब गुरु की आज्ञा हो तब बैठे, परंतु आसन पर न बैठे। गुरु के उठने से पूर्व उठे, सोने के पश्चात् सोये, गुरु के सम्मुख अति नम्रता से बैठे, परोक्ष में गुरु का नाम उच्चारण न करे, किसी भी बात में गुरु का अनुकरण अर्थात् नकल न करें। गुरु की निंदा न करे और जहाँ होती हो, आलोचना होती हो वहाँ से उठकर चला जाय अथवा कान बंद कर लें –
परिवादस्तथा निन्दा गुरोर्यत्र प्रवर्तते ।
कर्णौ तत्र पिधातव्यौ गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः ॥ (ब्राह्मपर्व ४:१७१)

वाहन पर चढ़ा हुआ गुरु का अभिवादन न करे, अर्थात् वाहन से उतरकर प्रणाम करे। गुरु के साथ एक वाहन, शिला, नौकायान आदि पर बैठ सकता है। गुरु के गुरु तथा श्रेष्ठ सम्बन्धी-जनों एवं गुरुपुत्र के साथ गुरु के समान ही व्यवहार करे। गुरु की सवर्णा स्त्री को गुरु के समान ही समझे, परंतु गुरुपत्नी के उबटन लगाना, स्नानादि कराना, चरण दबाना आदि क्रियाएँ निषिद्ध हैं। माता, बहन या बेटी के साथ एक आसन पर न बैठे, क्योंकि बलवान् इन्द्रियों का समूह विद्वान् को भी अपनी ओर खींच लेता है।
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तोसनो भवेत् । बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥ (ब्राह्मपर्व ४।१८४)
जिस प्रकार भूमि को खोदते-खोदते जल मिल जाता है, उसी प्रकार सेवा-शुश्रूषा करते-करते गुरु से विद्या मिल जाती है। मुण्डन कराये हो, जटाधारी हो अथवा शिखी (बड़ी शिखासे युक्त) हो, चाहे जैसा भी ब्रह्मचारी हो उसको गाँव में रहते हुए सूर्योदय और सूर्यास्त नहीं होना चाहिये अर्थात् जल के तट अथवा निर्जन स्थान पर जाकर दोनों संध्याओं में संध्या-वन्दन करना चाहिये। जिसके सोते-सोते सूर्योदय अथवा सूर्यास्त हो जाय वह महान् पाप का भागी होता है और बिना प्रायश्चित (कृच्छ्रव्रत) के शुद्ध नही होता।
माता, पिता भाई और आचार्य का विपत्ति में भी अनादर न करें। आचार्य ब्रह्मा की मूर्ति है, पिता प्रजापति की, माता पृथ्वी की तथा भाई आत्म-मूर्ति है। इसलिये इनका सदा आदर करना चाहिये। प्राणियों की उत्पत्ति में तथा पालन-पोषण में माता-पिता को जो क्लेश सहन करना पड़ता है, उस क्लेश से उऋण वे सौ वर्षों में भी सेवा करके नही हो सकते।
आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः पिता मूर्तिः प्रजापतेः । माताप्यथादितेर्मूर्तिर्भ्राता स्यान्मूर्तिरात्मनः ॥
यन्मातापितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम् । न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि ॥ (ब्राह्मपर्व ४।१९५-१९६)

इसलिए माता-पिता और गुरु की सेवा नित्य करनी चाहिये। इन तीनों के संतुष्ट हो जाने से सब प्रकार के तपों का फल प्राप्त हो जाता है, इनकी शुश्रूषा ही परम तप कहा गया है। इन तीनों की आज्ञा के बिना किसी अन्य धर्म का आचरण नही करना चाहिये। ये ही तीनों लोक है, ये ही तीनों आश्रम हैं, ये ही तीनो वेद है और ये ही तीनों अग्रियाँ हैं। माता ‘गार्हपत्य’ नामक अग्नि है, पिता ‘दक्षिणाग्नि’-स्वरुप हैं और गुरु ‘आहवनीय’ अग्नि है। जिस पर ये तीनों प्रसन्न हो जायें, वह तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर लेता है और दीप्यमान होते हुए देवलोक में देवताओं की भाँती सुख-भोग करता हैं।
त्रिषु तुष्टेषु चैतेषु त्रीँल्लोकाञ्जयते गृही ।
दीप्यमानः स्ववपुषा देववद्दिवि मोदते ॥ (ब्राह्मपर्व ४।२०१)

पिता की भक्ति से इहलोक, माता की भक्ति से मध्यलोक और गुरु की सेवा से इंद्रलोक प्राप्त होता है। जो इन तीनों की सेवा करता है, उसके सभी धर्म सफल हो जाते हैं और जो इनका आदर नहीं करता, उसकी सभी क्रियाएँ निष्फल होती है। जब तक ये तीनों जीवित रहते है, तब तक इनकी नित्य सेवा-शुश्रूषा और इनका हित करना चाहिये। इन तीनों की सेवा-शुश्रूषा-रूपी धर्म में पुरुष का सम्पूर्ण कर्त्तव्य पूरा हो जाता है, यही साक्षात् धर्म है, अन्य सभी उपधर्म कहे गये है।
उत्तम विद्या अधम पुरुष में हो तो भी उससे ग्रहण कर लेनी चाहिये। इसी प्रकार चाण्डाल से भी मोक्षधर्म की शिक्षा, नीच कुल से भी उत्तम स्त्री, विष से भी अमृत, बालक से भी सुंदर उपदेशात्मक बात, शत्रु से भी सदाचार और अपवित्र स्थान से भी सुवर्ण ग्रहण कर लेना चाहिये।
श्रद्दधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि । अन्त्यादपि परं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ॥
विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम् । अमित्रादपि सद्वृत्तममेध्यादपि काञ्चनम् ॥ (ब्राह्मपर्व ४।२०७-२०८)

उत्तम स्त्री, रत्न, विद्या, धर्म, शौच, सुभाषित तथा अनेक प्रकार के शिल्प जहाँ से भी प्राप्त हो, ग्रहण कर लेने चाहिये। गुरु के शरीर-त्यागपर्यंत जो गुरु की सेवा करता है, वह श्रेष्ठ ब्रह्मलोक को प्राप्त करता हैं। पढ़ने के समय गुरु को कुछ देने की इच्छा न करें, किंतु पढने के अनन्तर गुरु की आज्ञा पाकर भूमि, सुवर्ण, गौ, घोड़ा, छत्र, उपानह, धान्य, शाक तथा वस्त्र आदि अपनी शक्ति के अनुसार गुरु-दक्षिणा के रूप में देने चाहिए। जब गुरु का देहान्त हो जाय, तब गुणवान् गुरु-पुत्र, गुरु की स्त्री और गुरु के भाइयों के साथ गुरु के समान ही व्यवहार करना चाहिये। इस प्रकार जो अविच्छिन्न-रूपसे ब्रह्मचारी-धर्म का आचरण करता है, वह ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है।
सुमन्तु मुनि पुनः बोले – हे राजन् ! इस प्रकार मैंने ब्रह्मचारी-धर्म का वर्णन किया। ब्राह्मण का उपनयन वसन्त में, क्षत्रिय का ग्रीष्म में और वैश्य का शरद् ऋतु में प्रशस्त माना गया है। अब गृहस्थ-धर्म का वर्णन आगे सुने।                                (अध्याय ४)

See Also :-

1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२

2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3

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