December 8, 2018 | Leave a comment भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३२ ॐ श्रीपरमात्मने नमः श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय भविष्यपुराण (ब्राह्मपर्व) अध्याय – ३२ पञ्चमी-कल्प का आरम्भ, नागपञ्चमी की कथा, पञ्चमी-व्रत का विधान और फल सुमन्तु मुनि बोले – राजन् ! अब मैं पञ्चमी-कल्प का वर्णन करता हूँ । पञ्चमी तिथि नागों को अत्यन्त प्रिय है और उन्हें आनन्द देनेवाली है । इस दिन नागलोक में विशिष्ट उत्सव होता हैं । पञ्चमी तिथि को जो व्यक्ति नागों को दूध से स्नान कराता हैं, उसके कुल में वासुकि, तक्षक, कालिय, मणिभद्र, ऐरावत, धृतराष्ट्र, कर्कोटक तथा धनंजय – ये सभी बड़े-बड़े नाग अभय दान देते हैं – उसके कुल में सर्प का भय नहीं रहता । एक बार माता के शाप से नागलोग जलने लग गये थे । इसीलिये उस दाह की व्यथा को दूर करनेके लिये पञ्चमी को गाय के दूध से नागों को आज भी लोग स्नान कराते हैं, इससे सर्प-भय नहीं रहता । राजा ने पूछा – महाराज ! नागमाता ने नागों को क्यों शाप दिया था और फिर वे कैसे बच गये ? इसका आप विस्तारपूर्वक वर्णन करें । सुमन्तु मुनि ने कहा – एक बार राक्षसों और देवताओं ने मिलकर समुद्र का मन्थन किया । उससमय समुद्र से अतिशय श्वेत उच्चैःश्रवा उच्चैश्रवा पौराणिक धर्म ग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इन्द्र के अश्व का नाम है। यह अश्व समुद्र मंथन के दौरान जो चौदह वस्तुएँ प्राप्त हुई थीं, उनमें से एक था। इसे देवराज इन्द्र को दे दिया गया था। उच्चैःश्रवा के कई अर्थ हैं, जैसे- जिसका यश ऊँचा हो, जिसके कान ऊँचे हों अथवा जो ऊँचा सुनता हो। मुख्य रूप से उच्चैःश्रवा को इन्द्र के अश्व के रूप में ही जाना जाता है। देवराज इन्द्र के इस अश्व का वर्ण श्वेत है। पुराणों में इसकी गिनती उन चौदह रत्नों में होती है, जो समुद्र मंथन के समय क्षीरसागर से निकली थीं। उच्चैःश्रवा का पोषण अमृत से होता है। यह अश्वों का राजा है। नाम का एक अश्व निकला, उसे देखकर नागमाता कद्रू कद्रू (या, कद्रु) दक्ष प्रजापति की कन्या, महर्षि कश्यप की पत्नी। पौराणिक इतिवृत्त है कि एक बार महर्षि कश्यप ने कहा, ‘तुम्हारी जो इच्छा हो, माँग लो’। कद्रु ने एक सहस्र तेजस्वी नागों को पुत्र रूप में माँगा। ने अपनी सपत्नी (सौत) विनता से कहा कि देखो, यह अश्व श्वेतवर्ण का है, परंतु इसके बाल काले दीख पड़ते हैं । तब विनता ने कहा कि न तो यह अश्व सर्वश्वेत हैं, न काला हैं और न लाल । यह सुनकर कद्रू ने कहा – ‘मेरे साथ शर्त करो कि यदि मैं इस अश्व के बालों को कृष्णवर्ण का दिखा दूँ तो तुम मेरी दासी हो जाओगी और यदि नहीं दिखा सकी तो मैं तुम्हारी दासी हो जाऊँगी ।’ विनता ने यह शर्त स्वीकार कर ली । दोनों क्रोध करती हुई अपने-अपने स्थान को चली गयी । कद्रू ने अपने पुत्र नागों को बुलाकर सब वृतान्त उन्हें सुना दिया और कहा कि ‘पुत्रों ! तुम अश्व के बाल के समान सूक्ष्म होकर उच्चैःश्रवा के शरीर में लिपट जाओ, जिससे यह कृष्णवर्ण का दिखायी देने लगे । ताकि मैं अपनी सौत विनता को जीतकर उसे अपनी दासी बना सकूँ ।’ माता के इस वचन को सुनकर नागों ने कहा – ‘माँ ! यह छल तो हमलोग नहीं करेंगे, चाहे तुम्हारी जीत हो या हार ! छल से जीतना बहुत बड़ा अधर्म हैं ।’ पुत्रों का यह वचन सुनकर कद्रू ने क्रुद्ध होकर कहा – तुम लोग मेरी आज्ञा नही मानते हो, इसलिए मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि ‘पाण्डवों के वंश में उत्पन्न राजा जनमेजय जब सर्प-सत्र करेंगे, तब उस यज्ञ में तुम सभी अग्निमें जल जाओगे ।’ इतना कहकर कद्रू चुप हो गयी । नाग-गण माता का शाप सुनकर बहुत घबड़ाये और वासुकि को साथ में लेकर ब्रह्माजी के पास पहुँचे तथा ब्रह्माजी को अपना सारा वृतान्त सुनाया । इसपर ब्रह्माजी ने कहा कि वासुके ! चिंता मत करो । मेरी बात सुनो – यायावर-वंश में बहुत बड़ा तपस्वी जरत्कारू नाम का ब्राह्मण उत्पन्न होगा । उसके साथ तुम अपनी जरत्कारू नाम वाली बहिन का विवाह कर देना और वह जो भी कहे, उसका वचन स्वीकार करना । उसे ‘आस्तीक’ नाम का विख्यात पुत्र उत्पन्न होगा, वह जनमेजय के सर्पयज्ञ को रोकेगा और तुम लोगों की रक्षा करेगा । ब्रह्माजी के इस वचन को सुनकर नागराज वासुकि आदि अतिशय प्रसन्न हो, उन्हें प्रणाम कर अपने लोक में आ गये । सुमन्तु मुनि ने इस कथा को सुनाकर कहा – राजन् ! यह यज्ञ तुम्हारे पिता राजा जनमेजय ने किया था । वही बात श्रीकृष्ण भगवान् ने भी युधिष्ठिर से कही थी कि ‘राजन् ! आज से सौ वर्ष के बाद सर्पयज्ञ होगा, जिसमें बड़े-बड़े विषधर और दुष्ट नाग नष्ट हो जायँगे । करोड़ों नाग जब अग्नि में दग्ध होने लगेंगे, तब आस्तीक नामक ब्राह्मण सर्पयज्ञ रोककर नागों की रक्षा करेगा ।’ ब्रह्माजी ने पञ्चमी के दिन वर दिया था और आस्तीक मुनि ने पञ्चमी को ही नागों की रक्षा की थी, अतः पञ्चमी तिथि नागों को बहुत प्रिय हैं ।Content is available only for registered users. Please login or register पञ्चमी के दिन नागों की पूजकर यह प्रार्थना करनी चाहिये कि जो नाग पृथ्वी में, आकाश में, स्वर्ग में, सुर्य की किरणों में, सरोवरों में, वापी, कूप, तालाब आदि में रहते हैं, वे सब हम पर प्रसन्न हों, हम उनको बार-बार नमस्कार करते हैं – “सर्वे नागाः प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथिवीतले ॥ ये च हेलिमरीचिस्था येऽन्तरे दिवि संस्थिताः । ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिनः । ये च वापितडागेषु तेषु सर्वेषु वै नम: ॥” (ब्राह्मपर्व ३२ । ३३-३४) इस प्रकार नागों को विसर्जित कर ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये और स्वयं अपने कुटुम्बियों के साथ भोजन करना चाहिये । प्रथम मीठा भोजन करना चाहिये, अनन्तर अपनी अभिरुचि के अनुसार भोजन करे । इस प्रकार नियमानुसार जो पञ्चमी को नागों का पूजन करता है, वह श्रेष्ठ विमान में बैठकर नागलोक को जाता है और बाद में द्वापरयुग में बहुत पराक्रमी, रोगरहित तथा प्रतापी राजा होता है । इसलिये घी, खीर तथा गुग्गुल से इन नागों की पूजा करनी चाहिये । राजा ने पूछा – महाराज ! क्रुद्ध सर्प के काटने से मरने वाला व्यक्ति किस गति को प्राप्त होता है और जिसके माता-पिता, भाई, पुत्र आदि सर्प के काटने से मरे हों, उनके उद्धार के लिये कौन-सा व्रत, दान अथवा उपवास करना चाहिये, यह आप बतायें । सुमन्तु मुनि ने कहा – राजन् ! सर्प के काटने से जो मरता हैं, वह अधोगतिको प्राप्त होता हैं तथा निर्विष सर्प होता है और जिसके माता-पिता आदि सर्प के काटने से मरते हैं, वह उनकी सद्गति के लिये भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की पञ्चमी तिथि को उपवास कर नागों की पूजा करें(वर्तमान में नागपञ्चमी प्रायः सभी पञ्चागों तथा व्रत के निबन्ध-ग्रन्थों के अनुसार श्रावण शुक्ल पञ्चमी को होती है । यहाँ या तो पाठ अशुद्ध है या कालान्तर में कभी भाद्रपद में मनायी जाती रही होगी)। यह तिथि महा-पुण्या कही गयी है । इस प्रकार बारह महीने तक चतुर्थी तिथि के दिन एक बार भोजन करना चाहिये और पञ्चमी को व्रत कर नागों की पूजा करनी चाहिये । पृथ्वी पर नागों का चित्र अङ्कित कर अथवा सोना, काष्ठ या मिट्टी का नाग बनाकर पञ्चमी के दिन करवीर, कमल, चमेली आदि पुष्प, गन्ध, धुप और विविध नैवेद्यों से उनकी पूजा कर घी, खीर और लड्डू उत्तम पाँच ब्राह्मणों को खिलाये । अनन्त, वासुकि, शङ्ख, पद्म, कम्बल, कर्कोटक, अश्वतर, धृतराष्ट्र, शंखपाल, कालिय, तक्षक और पिंगल – इन बारह नागों की बारह महीनों में क्रमशः पूजा करे । इस प्रकार वर्ष-पर्यन्त व्रत एवं पूजनकर व्रत की पारणा करनी चाहिये । बहुत से ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये । विद्वान् ब्रह्मणों को सोने का नाग बनाकर उसे देना चाहिये । यह उद्यापन की विधि है । राजन् ! आपके पिता जनमेजय ने भी अपने पिता परीक्षित् के उद्धार के लिये यह व्रत किया था और सोने का बहुत भारी नाग तथा अनेक गौएँ ब्राह्मणों को दी थी । ऐसा करने पर वे पितृ-ऋण से मुक्त हुए गये थे और परीक्षित् ने भी उत्तम लोक को प्राप्त किया था । आप भी इसी प्रकार सोने का नाग बनाकर उनकी पूजाकर उन्हें ब्राह्मणों को दान करें, इससे आप भी पितृ-ऋण से मुक्त हो जायेंगे । राजन् ! जो कोई भी इस नागपञ्चमी-व्रत को करेंगा, साँप से डँसे जाने पर भी वह शुभलोक को प्राप्त होगा और जो व्यक्ति श्रद्धापूर्वक इस कथा को सुनेगा, उसके कुल में कभी भी साँप का भय नहीं होगा । इस पञ्चमी-व्रत के करने से उत्तम लोक की प्राप्ति होती हैं । (अध्याय ३२) See Also :- 1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२ 2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3 3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४ 4. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५ 5. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६ 6. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७ 7. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८-९ 8. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०-१५ 9. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६ 10. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७ 11. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८ 12. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९ 13. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २० 14. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१ 15. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २२ 16. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २३ 17. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २४ से २६ 18. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २७ 19. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २८ 20. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २९ से ३० 21. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३१ Related