भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(ब्राह्मपर्व)
अध्याय – ३३
सर्पों के लक्षण, स्वरुप और जाति शिवतत्त्व-रत्नाकर और अभिलषितार्थ-चिन्तामणि तथा आयुर्वेद-ग्रन्थों – सुश्रुत, चरक, वाग्भट के चिकित्साख्यानों में भी इस विषय का वर्णन मिलता है।

राजा शतानीक ने पूछा – मुने ! सर्पों के कितने रूप हैं, क्या लक्षण हैं, कितने रंग है और उनकी कितनी जातियाँ हैं ? इसका आप वर्णन करें ।

सुमन्तु मुनि ने कहा – राजन् ! इस विषय में सुमेरु पर्वत पर महर्षि कश्यप और गौतम का जो संवाद हुआ था, उसका मैं वर्णन करता हूँ । महर्षि कश्यप किसी समय अपने आश्रम में बैठे थे । उस समय वहाँ उपस्थित महर्षि गौतम ने उन्हें प्रणाम कर विनयपूर्वक पूछा – महाराज ! सर्पों के लक्षण, जाति, वर्ण और स्वभाव किस प्रकार के हैं, उनका आप वर्णन करें तथा उनकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई है यह भी बतायें । वे विष किस प्रकार छोड़ते हैं, विष के कितने वेग हैं, विष की कितनी नाड़ियाँ हैं, साँपों के दाँत कितने प्रकार के होते हैं, सर्पिणी को गर्भ कब होता है और वह कितने दिनों में प्रसव करती हैं, स्त्री-पुरुष और नपुंसक सर्प का क्या लक्षण है, ये क्यों काटते हैं, इन सब बातों को आप कृपाकर मुझे बतायें ।om, ॐ
कश्यप जी बोले – मुने ! आप ध्यान देकर सुनें । मैं सर्पों के सभी भेदों का वर्णन करता हूँ । ज्येष्ठ और आषाढ़ मास में सर्पों को मद होता हैं । उस समय वे मैथुन करते हैं । वर्षा ऋतु के चार महिने तक सर्पिणी गर्भ धारण करती हैं, कार्तिक में दो सौ चालीस अंडे देती है और उनमें से कुछ को स्वयं प्रतिदिन खाने लगती है । प्रकृति की कृपा से कुछेक अंडे इधर-उधर ढुलककर बच जाते हैं । सोने की तरह चमकने वाले अंडों में पुरुष, स्वर्ण-केतक वर्ण के समान आभा वाले और लम्बी रेखाओं से युक्त अंडों से स्त्री तथा शिरीष-पुष्प के समान रंगवाले अंडों के बीच नपुंसक सर्प होता है । उन अंडों को सर्पिणी छः महिने तक सेती हैं । अनन्तर अंडों के फूटने पर उनसे सर्प निकलते हैं और वे बच्चे अपनी माता से स्नेह करते हैं । अंडे के बाहर निकलने के सात दिन में बच्चों का कृष्णवर्ण हो जाता हैं । सर्प की आयु एक सौ बीस वर्ष की होती है और उनकी मृत्यु आठ प्रकार से होती है – मोर से, मनुष्य से, चकोर पक्षी से, बिल्ली से, नकुल से, शूकर से, वृश्चिक से और गौ, भैंस, घोड़े, ऊँट आदि पशुओं के खुरों से दब जाने पर । इनसे बचने पर सर्प एक सौ बीस वर्ष तक जीवित रहते हैं । सात दिन के बाद दाँत उगते हैं और इक्कीस दिन में विष हो जाता हैं । साँप काटने के तुरंत बाद अपने जबड़े से तीक्ष्ण विष का त्याग करता हैं और फिर विष इकट्टा हो जाता है । सर्पिणी के साथ घूमने वाला सर्प बालसर्प कहा जाता हैं । पचीस दिन में वह बच्चा भी विष के द्वारा दुसरे प्राणियों के प्राण हरने में समर्थ हो जाता है । छः महीने में कंचुक- (केंचुल) का त्याग करता है । साँप के दो सौ चालीस पैर होते हैं, परन्तु ये पैर गाय के रोयें के समान बहुत सूक्ष्म होते हैं, इसलिये दिखायी नहीं देते । चलने के समय निकल आते हैं और अन्य समय भीतर प्रविष्ट हो जाते हैं । उसके शरीर में दो सौ बीस अङ्गुलियाँ और दो सौ बीस संधियाँ होती है । अपने समय के बिना जो सर्प उत्पन्न होते हैं उनमे कम विष रहता है और वे पचहत्तर वर्ष से अधिक जीते भी नहीं हैं । जिस साँप के दाँत लाल, पीले एवं सफ़ेद हो और विष का वेग भी मंद हो, वे अल्पायु और बहुत डरपोक होते हैं ।
साँप को एक मुँह, दो जीभ, बत्तीस दाँत और विष से भरी हुई चार दाढ़ें होती है । उन दाढ़ों के नाम मकरी. कराली, कालरात्री और यमदूती हैं । इनके क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और यम – ये चार देवता हैं । यमदूती नाम की दाढ़ सबसे छोटी होती है । इससे साँप जिसे काटता है वह तत्क्षण मर जाता है । इसपर मन्त्र, तन्त्र, ओषधि आदि का कुछ भी असर नहीं होता । मकरी दाढ़ का चिह्न शस्त्र के समान, कराली का काक के पैर के समान तथा कालरात्री का हाथ के समान चिह्न होता है और यमदूती कूर्म के समान होती हैं । ये क्रमशः एक, दो, तीन और चार महीनों में उत्पन्न होती है और क्रमश: वात, पित्त, कफ और संनिपात इनमें होता है । क्रमशः गुड़़युक्त भात, कषाययुक्त अन्न, कटु पदार्थ, संनिपात में दिया जानेवाला पथ्य इनके द्वारा काटे गये व्यक्ति को देना चाहिये । श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण – इन चार दाढ़ों के क्रमशः रंग हैं । इनके वर्ण क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र हैं । सर्पों के दाढ़ों में सदा विष नहीं रहता । दाहिने नेत्र के समीप विष रहने का स्थान हैं । क्रोध करने पर वह विष पहले मस्तक में जाता हैं, मस्तक से धमनी और फिर नाड़ियों के द्वारा दाढ़ में पहुँच जाता है ।

आठ कारणों से साँप काटता हैं – दबनेसे, पहलेके वैरसे, भयसे, मदसे, भूखसे, विष का वेग होनेसे, संतान की रक्षा के लिये तथा काल की प्रेरणासे । जब सर्प काटते ही पेट की ओर उलट जाता है और उसकी दाढ़ टेढ़ी हो जाती है, तब उसे दबा हुआ समझना चाहिये । जिसके काटने से बहुत बड़ा घाव हो जाय, उसको अत्यन्त द्वेष से काटा है, ऐसा समझना चाहिये । एक दाढ़ का चिह्न हो जाय, किंतु वह भी भली-भाँति दिखायी न पड़े तो भयसे काटा हुआ समझना चाहिये । इसी प्रकार रेखा की तरह दाढ़ दिखायी दे तो मदसे कटा हुआ, दो दाढ़ दिखायी दे और बड़ा घाव भर जाय तो भूख से काटा हुआ, दो दाढ़ दिखायी दे और घावमें रक्त हो जाय तो विषके वेग से काटा हुआ, दो दाढ़ दिखायी दे, किंतु घाव न रहे तो संतान की रक्षा के लिये काटा हुआ मानना चाहिये । काक के पैर की तरह तीन दाढ़ गहरे दिखायी दें या चार दाढ़ दिखायी दें तो काल की प्रेरणा से काटा हुआ जानना चाहिये । यह असाध्य हैं, इसकी कोई भी चिकित्सा नहीं है । सभी सर्पों की दवा के रुप में मन्त्र-शास्त्रों में विशेषकर गारुडोपनिषद् में गरुड-मन्त्र और सर्पों की मणियाँ उनके विष की अचूक ओषधियाँ हैं। कुछ अन्य ओषधियाँ भी अचूक होती हैं जो सर्पों को निर्विष एवं स्तम्भित बना देती हैं। डुंडुभ सर्प के काट लेने पर किसी भी अन्य सर्प का विष नहीं चढता। नर्मदा नदी का नाम लेने से भी साँप भागते हैं – नर्मदायै नमः प्रातर्मर्मदायै नमो निशि । नमोऽस्तु नर्मदे तुभ्यं त्राहि मां विषसर्पतः ॥ (विष्णुपुराण ४ । ३ । १३)
सर्प के काटने के दंष्ट, दंष्टानुपित और दंष्टोद्धत – ये तीन भेद हैं । सर्प के काटने के बाद ग्रीवा यदि झुके तो दंष्ट तथा काटकर पार करे तो दंष्टनुपित कहते हैं । इसमें तिहाई विष चढ़ता हैं और काटकर सब विष उगल दें तथा स्वयं निर्विष होकर उलट जाय- पीठ के बल उलटा हो जाय, उसका पेट दिखायी दे तो उसे दंष्टोद्धत कहते है ।

(अध्याय ३३)
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नाग स्तोत्र :-
अनंतं वासुकि शेष पद्मनाभं च कम्बलम्।
शड्खपाल धार्तराष्ट्र तक्षकं कालियं तथा।।
एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्।
सायंकाले पठेन्नित्यं प्रातः काले विशेषतः।।
तस्मे विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयीं भवेत्।

सर्प-भय-विनाशक नागिनी द्वादश नाम स्तोत्र
(ब्रह्म वैवर्त पुराण, प्रकृतिखण्ड : अध्याय 46)

See Also :-

1. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १-२

2. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय 3

3. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ४

4. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ५

5. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ६

6. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ७

7. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ८-९

8. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १०-१५

9. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १६

10. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १७

11. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १८

12. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय १९

13. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २०

14. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१

15. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २२

16. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २३

17. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २४ से २६

18. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २७

19. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २८

20. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २९ से ३०

21. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३१

22. भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय ३२

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